प्रेम की होली मुंशी प्रेमचंद की कहानी | Prem Ki Holi Story Munshi Premchand

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Prem Ki Holi Kahani Munshi Premchand

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Prem Ki Holi Kahani Munshi Premchand

(1)

गंगी का सत्रहवाँ साल था, पर वह तीन साल से विधवा थी, और जानती थी कि मैं विधवा हूँ, मेरे लिए संसार के सुखों के द्वार बंद हैं। फिर वह क्यों रोये और कलपे? मेले से सभी तो मिठाई के दोने और फूलों के हार लेकर नहीं लौटते? कितनों ही का तो मेले की सजी दुकानें और उन पर खड़े नर-नारी देखकर ही मनोरंजन हो जाता है। गंगी खाती-पीती थी, हँसती-बोलती थी। किसी ने उसे मुँह लटकाये, अपने भाग्य को रोते नहीं देखा। घड़ी रात को उठकर गोबर निकालकर, गाय-बैलों को सानी देना, फिर उपले पाथना, उसका नित्य का नियम था। तब वह अपने भैया को गाय दुहाने के लिए जगाती थी। फिर कुएँ से पानी लाती, चौके का धंधा शुरू हो जाता। गाँव की भावजें उससे हँसी करतीं, पर एक विशेष प्रकार की हँसी छोड़कर। सहेलियाँ ससुराल से आकर उससे सारी कथा कहतीं, पर एक विशेष प्रसंग बचाकर। सभी उसके वैधव्य का आदर करते थे। जिस छोटे से अपराध के लिए, उसकी भावज पर घुड़कियाँ पड़तीं, उसकी माँ को गालियाँ मिलतीं, उसके भाई पर मार पड़ती, वह उसके लिए क्षम्य था। जिसे ईश्वर ने मारा है, उसे क्या कोई मारे! जो बातें उसके लिए वर्जित थीं, उनकी ओर उसका मन ही न जाता था। उसके लिए उनका अस्तित्व ही न था। जवानी के इस उमड़े हुए सागर में मतवाली लहरें न थीं, डरावनी गरज न थी, अचल शांति का साम्राज्य था।

(2)

होली आयी, सबने गुलाबी साड़िय़ाँ पहनीं, गंगी की साड़ी न रंगी गयी। 

माँ ने पूछा- “बेटी, तेरी साड़ी भी रंग दूं।”

गंगी ने कहा-“नहीं अम्मा, यों ही रहने दो।”

भावज ने फाग गाया। वह पकवान बनाती रही। उसे इसी में आनंद था।

तीसरे पहर दूसरे गाँव के लोग होली खेलने आये। यह लोग भी होली लौटाने जायेंगे। गाँवों में यही परस्पर व्यवहार है। मैकू महतो ने भंग बनवा रखी थी, चरस-गांजा, माजूम सब कुछ लाये थे। गंगी ने ही भंग पीसी थी, मीठी अलग बनायी थी, नमकीन अलग। उसका भाई पिलाता था, वह हाथ धुलाती थी। जवान सिर नीचा किये पीकर चले जाते। बूढ़े गंगी से पूछ लेते- “अच्छी तरह हो न बेटी।” या चुहल करते-“क्यों री गंगिया! भावज तुझे खाना नहीं देती क्या, जो इतनी दुबली हो गयी है?”

गंगिया हँसकर रह जाती।। देह क्या उसके बस की थी। न जाने क्यों न वह मोटी हुई थी।

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भंग पीने के बाद लोग फाग गाने लगे। गंगिया अपनी चौखट पर खड़ी सुन रही थी। एक जवान ठाकुर गा रहा था। कितना अच्छा स्वर था, कैसा मीठा। गंगिया को बड़ा आनंद आ रहा था। 

माँ ने कई बार पुकारा- “सुन जा।” 

वह न गयी। एक बार गयी भी, तो जल्दी से लौट आयी। उसका ध्यान उसी गाने पर था। न जाने क्या बात उसे खींचे लेती थी, बांधे लेती थी। जवान ठाकुर भी बार-बार गंगिया की ओर देखता और मस्त हो-होकर गाता। उसके साथ वालों को आश्चर्य हो रहा था। ठाकुर को यह सिद्धि कहाँ मिल गयी? वह लोग विदा हुए, तो गंगिया चौखटे पर खड़ी थी। जवान ठाकुर ने भी उसकी ओर देखा और चला गया।

गंगिया ने अपने बाप से पूछा-“कौन गाता था दादा?”

मैकू ने कहा-“कोठार के बुद्धूसिंह का लड़का है, गरीबसिंह। बुद्धू रीति व्यवहार में आते-जाते थे। उनके मरने के बाद अब वही लड़का आने-जाने लगा।”

गंगी-“यहाँ तो पहले पहल आया है?”

मैकू-“हाँ और तो कभी नहीं देखा। मिजाज बिल्कुल बाप का-सा है और वैसी ही मीठी बोली है। घमण्ड तो छू नहीं गया। बुद्धू के बखार में अनाज रखने को जगह न थी, पर चमार को भी देखते तो पहले हाथ उठाते। वही इसका स्वभाव है।”

गोरू आ रहे थे। गंगी पगहिया लेने भीतर चली गयी। वही स्वर उसके कानों में गूंज रहा था।

कई महीने गुजर गये। एक दिन गंगी गोबर पाथ रही थी। सहसा उसने देखा, वही ठाकुर सिर झुकाये द्वार पर से चला जा रहा है। वह गोबर छोड़कर उठ खड़ी हुई। घर में कोई मर्द न था। सब बाहर चले गये थे। यह कहना चाहती थी – “ठाकुर! बैठो, पानी पीते जाव। पर उसके मुँह से बात न निकली।”

उसकी छाती कितने जोर से धड़क रही थी। उसे एक विचित्र घबराहट होने लगी- ‘क्या करे, कैसे उसे रोक ले।’ 

गरीबसिंह ने एक बार उसकी ओर ताका और फिर आँखें नीची कर लीं। उस दृष्टि में क्या बात थी कि गंगी के रोएं खड़े हो गये। वह दौड़ी घर में गयी और माँ से बोली – “अम्मा, वह ठाकुर जा रहे हैं, गरीबसिंह।”

माँ ने कहा – “किसी काम से आये होंगे।”

गंगी बाहर गयी, तो ठाकुर चला गया था। वह फिर गोबर पाथने लगी, पर उपले टूट-टूट जाते थे, आप ही आप हाथ बंद हो जाते, मगर फिर चौंककर पाथने लगती, जैसे कहीं दूर से उसके कानों में आवाज आ रही हो। वही दृष्टि आँखों के सामने थी। उसमें क्या जादू था? क्या मोहिनी थी? उसने अपनी मूक भाषा में कुछ कहा। गंगी ने भी कुछ सुना। क्या कहा? यह वह नहीं जानती, पर वह दृष्टि उसकी आँखों में बसी हुई थी।

रात को लेटी तब भी वही दृष्टि सामने थी। स्वप्न में भी वही दृष्टि दिखाई दी।

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फिर कई महीने गुजर गये। एक दिन संध्या समय मैकू द्वार पर बैठे सन कात रहे थे और गंगी बैलों को सानी चला रही थी कि सहसा चिल्ला उठी – “दादा, दादा! ठाकुर।”

मैकू ने सिर उठाया तो द्वार पर गरीबसिंह चला आ रहा था। राम-राम हुआ।

मैकू ने पूछा – “कहाँ गरीबसिंह! पानी तो पीते जाव।”

गरीब आकर एक माची पर बैठ गया। उसका चेहरा उतरा हुआ था। कुछ वह बीमार-सा जान पड़ता था। मैकू ने कहा-“कुछ बीमार थे क्या?”

गरीब – “नहीं तो दादा!”

मैकू – “कुछ मुँह उतरा हुआ है, क्या सूद-ब्याज की चिंता में पड़ गये?”

गरीब – “तुम्हारे जीते मुझे क्या चिंता4 है दादा!”

मैकू – “बाकी दे दी न?”

गरीब – “हाँ दादा, सब बेबाक कर दिया।”

मैकू ने गंगी से कहा – “बेटी जा, कुछ ठाकुर को पानी पीने को ला। भैया हो, तो कह देना चिलम दे जाए।”

गरीब ने कहा – “चिलम रहने दो दादा! मैं नहीं पीता।”

मैकू – “अबकी घर ही तमाकू बनी है, स्वाद तो देखो। पीते तो हो?”

गरीब – “इतना बेअदब न बनाओ दादा। काका के सामने चिलम नहीं छुई। मैं तुमको उन्हीं की जगह देता हूँ।”

यह कहते-कहते उसकी आँखें भर आयीं। मैकू का हृदय भी गदगद हो उठा। गंगी हाथ की टोकरी लिये मूर्ति के समान खड़ी थी। उसकी सारी चेतना, सारी भावना, गरीबसिंह की बातों की ओर खिंची हुई थी! उसमें और कुछ सोचने की, और कुछ करने की शक्ति न थी। ओह! कितनी नम्रता है, कितनी सज्जनता, कितना अदब।

मैकू ने फिर कहा – “सुना नहीं बेटी, जाकर कुछ पानी पीने को लाव!”

गंगी चौंक पड़ी। दौड़ी हुई घर में गयी। कटोरा मांजा, उसमें थोड़ी-सी राब निकाली। फिर लोटा-गिलास मांजकर शर्बत बनाया।

माँ ने पूछा – “कौन आया है गंगिया?”

गंगी – “वह हैं ठाकुर गरीबसिंह। दूध तो नहीं है अम्मा, रस में मिला देती?”

माँ – “है क्यों नहीं, हाड़ी में देख।”

गंगी ने सारी मलाई उतारकर रस में मिला दी और लोटा-गिलास लिये बाहर निकली। ठाकुर ने उसकी ओर देखा। गंगी ने सिर झुका लिया! यह संकोच उसमें कहाँ से आ गया?

ठाकुर ने रस लिया और राम-राम करके चला गया।

मैकू बोला – “कितना दुबला हो गया है।”

गंगी – “बीमार हैं क्या?”

मैकू – “चिंता है और क्या? अकेला आदमी है, इतनी बड़ी गृहस्थी; क्या करे।”

गंगी को रात-भर नींद नहीं आयी। उन्हें कौन-सी चिंता है। दादा से कुछ कहा भी तो नहीं। क्यों इतने सकुचाते हैं। चेहरा कैसा पीला पड़ गया है।

सबेरे गंगी ने माँ से कहा – “गरीबसिंह अबकी बहुत दुबले हो गये हैं अम्मा।”

माँ – अब वह बेफिक्री कहाँ है बेटी। बाप के जमाने में खाते थे और खेलते थे। अब तो गृहस्थी का जंजाल सिर पर है।”

गंगी को इस जवाब से संतोष न हुआ। बाहर जाकर मैकू से बोली – “दादा, तुमने गरीबसिंह को समझा नहीं दिया-क्यों इतनी चिंता करते हो?”

मैकू ने आँखें फाड़कर देखा और कहा – “जा, अपना काम कर।”

गंगी पर मानो बज्रपात हो गया। वह कठोर उत्तर और दादा के मुँह से। हाय! दादा को भी उनका ध्यान नहीं। कोई उसका मित्र नहीं। उन्हें कौन समझाए! अबकी वह आयेंगे, तो मैं खुद उन्हें समझाऊंगी।

गंगी रोज सोचती-वह आते होंगे, पर ठाकुर न आये।

फिर होली आयी। फिर गाँव में फाग होने लगा। रमणियों ने फिर गुलाबी साड़िय़ाँ पहनीं। फिर रंग घोला गया। मैकू ने भंग, चरस, गांजा मंगवाया। गंगी ने फिर मीठी और नमकीन भंग बनाई! द्वार पर टाट बिछ गया। व्यवहारी लोग आने लगे। मगर कोठार से कोई नहीं आया। शाम हो गयी। किसी का पता नहीं!

गंगी बेकरार थी। कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती। भाई से पूछती- “क्या कोठार वाले नहीं आये?”

भाई कहता – “नहीं।”

दादा से पूछती – “भंग तो नहीं बची। कोठार वाले आवेंगे, तो क्या पीयेंगे?”

दादा कहते – “अब क्या रात को आवेंगे, सामने तो गाँव है। आते होते, तो दिखाई देते।”

रात हो गयी, पर गंगी को अभी तक आशा लगी हुई थी। वह मंदिर के ऊपर चढ़ गयी और कोठार की ओर निगाह दौड़ाई। कोई न आता था।

सहसा उसे उसी सिवाने की ओर आग दहकती हुई दिखाई दी। देखते-देखते ज्वाला प्रचण्ड हो गयी। यह क्या! वहाँ आज होली जल रही है। होली तो कल ही जल गयी। कौन जाने वहाँ पण्डितों ने आज होली जलाने की सायत बतायी हो। तभी वे लोग आज नहीं आये। कल आयेंगे।

उसने घर आकर मैकू से कहा – “दादा, कोठार में तो आज होली जली है।”

मैकू – “धत्त पगली! होली सब जगह कल जल गयी।”

गंगी – “तुम मानते नहीं हो, मैं मंदिर पर से देख आयी हूँ। होली जल रही है। न पतियाते हो तो चलो, मैं दिखा दूं।”

मैकू – “अच्छा चल देखूं।”

मैकू ने गंगी के साथ मंदिर की छत पर आकर देखा। एक मिनट तक देखते रहे। फिर बिना कुछ बोले नीचे उतर आये।

गंगी ने कहा – “है होली कि नहीं, तुम न मानते थे?”

मैकू – “होली नहीं है पगली…चिता है। कोई मर गया है। तभी आज कोठार वाले नहीं आये।”

गंगी का कलेजा धक्-से हो गया। इतने में किसी ने नीचे से पुकारा – “मैकू महतो, कोठार के गरीबसिंह गुजर गये।”

मैकू नीचे चले गये, पर गंगी वहीं स्तंभित खड़ी रही। कुछ खबर न रही-मैं कौन हूँ? कहाँ हूँ? मालूम हुआ जैसे गरीबसिंह उस सुदूर चिता से निकलकर उसकी ओर देख रहा है-वही दृष्टि थी, वही चेहरा, क्या उसे वह भूल सकती थी? उस दिवस से फिर कभी होली देखने नहीं गयी। होली हर साल आती थी, हर साल उसी तरह भंग बनती थी, हर साल उसी तरह फाग होता था; हर साल अबीर-गुलाल उड़ती थी, पर गंगी के लिए होली सदा के लिए चली गयी।

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