पांचवा बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Panchva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

पांचवा बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Panchva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Panchva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Panchva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

थोड़ी रात बाकी थी, जब सरदार चेतसिंह की आंख खुली। उठकर खेमे के बाहर आए और अपनी जेब से एक छोटा-सा बिगुल निकालकर बजाया, जिसकी आवाज दूर-दूर तक गूंज गई। इसके बाद फिर खेमे के अंदर गए और चाहा कि जसवंतसिंह को जगावें, मगर वे पहले ही से जाग रहे थे बल्कि उन्हें तो रात भर नींद ही नहीं आई थी। सरदार चेतसिंह के उठने और बिगुल बजाने से आप भी चारपाई पर से उठ खड़े हुए और पूछा, ‘‘क्या चलने की तैयारी हो गई?’’ सरदार चेतसिंह ने जवाब दिया, ‘‘हां, अब थोड़ी ही देर में हमारे सवार भी तैयार हो जाते हैं और घंटे भर में हम लोग यहां से कूच कर देंगे।’’

जसवंत–अभी कितनी रात बाकी है?

चेतसिंह–दो घंटे के करीब बाकी होगी।

जसवंत–हम लोग उस ठिकाने कब तक पहुंचेंगे जहां जाने का इरादा है?

चेतसिंह–सूरज निकलते-निकलते हम लोग अपने ठिकाने पहुंच जाएंगे, आप भी जरूरी कामों से छुट्टी पा लीजिए, तब तक मैं भी तैयार होता हूं।

जसवंतसिंह और सरदार चेतसिंह जरूरी कामों से निपट हाथ-मुंह धो और कपड़े पहन तैयार हो गए, इसके बाद सरदार ने फिर खेमे के बाहर आ एक दफे बिगुल बजाया जिसके साथ ही उनके कुल सवार घोड़ों पर सवार हो रवाना हो गए।

घंटा भर दिन चढ़ते तक ये लोग एक शहर में पहुंचे। यद्यपि यह शहर छोटा ही सा था मगर देखने में निहायत खूबसूरत था, अभी दुकाने बिलकुल नहीं खुली थीं लेकिन अंदाज से मालूम होता था कि गुलजार है।

एक छोटे किले के पास पहुंच सरदार ने अपने साथी सवारों को कुछ इशारा करके कहीं रवाना कर दिया और खुद जसवंतसिंह को अपने साथ ले दरवाजे के अंदर घुसे।

इस किले का फाटक बहुत बड़ा था और बहुत से सिपाही संगीन लिए पहरे पर मुस्तैद थे, जिन्होंने सरदार चेतसिंह को अदब के साथ सलाम किया और उसके बाद जसवंतसिंह को भी सलाम किया।

सरदार चेतसिंह ने एक सिपाही से पूछा, ‘‘दीवान साहब अभी दरबार में आए या नहीं?’’ जिसके जवाब में उस सिपाही ने कहा, ‘‘अभी नहीं आए मगर आते ही होंगे, वक्त हो गया है, लेकिन आप उनके आने की राह न देखें क्योंकि हम लोगों को महारानी साहिबा का हुक्म है कि सरदार साहब जिस वक्त आवंस फौरन सीधे हमारे पास पहुंचे, दरवाजे पर अटकने न पावें, सो आप दीवान साहब की राह न देखिए!’’ इतना कह वह सिपाही इनके साथ चलने पर मुस्तैद हो गया।

सरदार चेतसिंह ने इतना सुन फिर दीवान साहब के आने की राह न देखी और सिपाही के कहे मुताबिक जसंवतसिंह को साथ लिए महल की तरफ रवाना हुए।

फाटक के अंदर थोड़ी दूर जाने पर एक निहायत खूबसूरत दीवानखाने में पहुंचे जिसके बगल में एक दरवाजा जनाने महल के अंदर जाने के लिए था। यह दरवाजा बहुत बड़ा तो न था मगर इस लायक था कि पालकी अंदर चली जाए। इस दरवाजे पर कई औरतें सिपाहियाना भेष किए, ढाल-तलवार लगाए रुआब के साथ पहरा देती नजर आईं, जिन्होंने सरदार चेतसिंह को झुककर सलाम किया। एक सिपाही औरत इन्हें देखते ही बिना कुछ पूछे अंदर चली गई और थोड़ी ही देर के बाद लौट आकर सरदार चेतसिंह से बोली, ‘‘चलिए, महारानी ने बुलाया है।’’

जसवंतसिंह को साथ लिए हुए सरदार चेतसिंह उसी औरत के पीछे-पीछे महल के अंदर गए। जसवंतसिंह ने भीतर जाकर एक निहायत खूबसूरत और हरा-भरा छोटा-सा बाग देखा जिसके पश्चिम तरफ एक कमरा और सजा हुआ दालान पूरब तरफ बारहदरी, दक्खिन तरफ खाली दीवार और उत्तर तरफ एक मकान और हम्माम नजर आ रहा था। बहुत-सी लौड़ियां अच्छे-अच्छे कपड़े पहने इधर-उधर घूम रही थीं।

औरत के पीछे-पीछे ये दोनों पश्चिम तरफवाले उस दालान में पहुंचे, जिसके बाद कमरा था। कमरे के दरवाजों में दोहरी चिकें पड़ी हुई थीं तथा दालान में फर्श बिछा हुआ था।

सरदार ने चिक की तरफ झुककर सलाम किया और इसी तरह जसवंतसिंह ने भी सरदार की देखा-देखी सलाम किया। इसके बाद एक लौंडी ने बैठने के लिए कहा और ये दोनों उसी फर्श पर बैठ गए। चारों तरफ से बहुत सी लौंडियां आकर उसी जगह खड़ी हो गईं और जसवंतसिंह को ताज्जुब की निगाह से देखने लगीं।

चिक के अंदर से मीठी मगर गंभीर आवाज आई, ‘‘क्यों चेतसिंह, क्या हुआ और यह तुम्हारे साथ कौन है?’’

चेतसिंह–एक सवार की जुबानी ताबेदार ने कुछ हाल कहला भेजा था।

आवाज–हां-हां, मालूम हुआ था कि जिनको लाने के लिए तुम गए थे उन्हें कोई दुश्मन ले गया और यह हाल तुम्हें एक साधु से मालूम हुआ। वह साधु कहां है? और यह तुम्हारे साथ कौन है? इनका नाम जसवंतसिंह तो नहीं है?

चेतसिंह–जी हां, इनका नाम जसवंतसिंह ही है, उनकी जुदाई में ये ही साधु बने घूम रहे थे और हम लोगों को मिले थे।

आवाज–इनसे और रनबीरसिंह से तो बड़ी दोस्ती है, फिर संग कैसे छूटा?

इसके जवाब में सरदार चेतसिंह ने वह पूरा हाल कह सुनाया, जो जसवंतसिंह से सुना और अपनी आंखों देखा था।

जसवंतसिंह अपने दोस्त की जुदाई में तो परेशान और दुःखी हो ही रहे थे दूसरे इन ताज्जुब भरी बातों और घटनाओं ने उन्हें और भी परेशान कर दिया। पहले तो यही ताज्जुब था कि सरदार चेतसिंह ने मेरा नाम सुनते ही कैसे पहचान लिया कि मैं रनबीरसिंह का दोस्त हूं अब उससे भी बढ़ के यह बात हुई कि यहां पर्दे के अंदर से महारानी ने बिना नाम पूछे ही पहचान लिया कि यह जसवंत है और रनबीर सिंह का पक्का दोस्त है। क्या मामला है सो समझ में नहीं आता, इन लोगों को हमारे रनबीरसिंह से क्या मतलब है और इनका इरादा क्या है?

इन बातों को नीचे सिर किए जुए जसवंतसिंह सोच रहे थे कि इतने में चिक के अंदर से फिर आवाज आई–

‘‘अच्छा चेतसिंह, जसवंतसिंह को तो हमारी लौडियों के हवाले करो, वे सब इनके नहलाने-धुलाने खाने-पीने का सामान कर देंगी और इन्हें यहां आराम के साथ रखेंगी, और इनको भी समझा दो कि यहां इन्हें किसी तरह की तकलीफ न होगी, आराम के साथ रहें, और हमारे दीवान साहब को कहला दो कि शाम के वक्त जासूसों के जमादार को साथ लेकर यहां आवें, इस वक्त मैं दरबार न करूंगी, आज दरबार के वक्त किसी के आने की जरूरत नहीं है और किसी तरह की दरखास्त भी आज न ली जाएगी।’’

यह हुक्म पाकर सरदार चेतसिंह उठ खड़े हुए और पर्दे की तरफ झुककर सलाम करने के बाद बाहर रवाना हो गए।

हमारे जसवंतसिंह बेचारे चुपचाप ज्यों के त्यों हक्का-बक्का बैठे रहे, मगर थोड़ी देर बाद कई लौड़ियों ने अंदर से आकर उनसे कहा, ‘‘आप उठिए और नहाने धोने की फिक्र कीजिए क्योंकि आज ही आपको हम लोगों के साथ रनबीरसिंह की खोज में जाना होगा। हम लोग उनके दुश्मन को जानते हैं, आप किसी तरह की चिंता न करें।’’

जसवंतसिंह ने जवाब दिया, ‘‘हाय, मुझे बिलकुल नहीं मालूम कि इस वक्त मेरे दोस्त पर क्या आफत गुजरती होगी? उसको नहाने-धोने का भी मौका मिला होगा या नहीं? उसने क्या खाया-पीया होगा? हाय मुझे विश्वास है कि उसके दिमाग से अभी तक पागलपन की बू न गई होगी, उसी तरह बकना-झकना जारी होगा, अब तो उसके सामने वह सत्यानाशी मूरत भी नहीं, जिसे देख वह खाना-पीना भूल गया था! अब न मालूम उसकी क्या दशा होगी, अगर तुम लोग यह जानती हो, उसे फलाना आदमी ले गया है, तो ईश्वर के लिए जल्दी बता दो कि मैं उसके पास पहुंचकर जिस तरह बने उसे कैद से छुड़ाऊं या अपनी भी जान उसके कदमों पर न्यौछावर करूं। मेरे नहाने-धोने खाने-पीने की फिक्र मत करो इसका कुछ अहसान मेरे ऊपर न होगा। अगर मेरे दोस्त के दुश्मन का पता बता दोगे तो मैं जन्म भर तुम्हारा ताबेदार बना रहूंगा, बिना खरीदे गुलाम रहूंगा, चाहे मुझसे एकरार लिखा लो पर यह ईश्वर के लिए जल्द बताओ कि वह कहां है और किस दुष्ट ने उसे दुःख दिया है? हाय अभी तक उसके ऊपर किसी तरह की तकलीफ नहीं पड़ी थी। न मालूम वह कौन-सी सत्यानाशी घड़ी थी जिसमें हम दोनों घर से बाहर निकले थे। उसके मां-बाप की क्या दशा होगी? हाय, उनके एक ही यह लड़का है, दूसरी कोई औलाद नहीं, जिसे देख उनके जी को तसल्ली हो!

इतना कह जसवंतसिंह चुप हो गए और उनकी आंखों से आंसूओं की बूंदे गिरने लगीं।

लौड़ियों के बहुत कुछ कहने और समझाने-बुझाने पर वे वहां से उठे, स्नान किया और कुछ अन्य मुंह में डालकर जल पिया, इसके बाद फिर हाथ जोड़ और रो-रोकर लौंडियों से पूछने लगे–

‘‘परमेश्वर के लिए सच बता दो, क्या तुम रनबीरसिंह के दुश्मन को जानती हो? अगर जानती हो तो बताने में देरी क्यों करती हो? हाय, कहीं तुम लोग मुझे धोखा तो नहीं दे रही हो!!’’

रनबीरसिंह की जुदाई में जसवंतसिंह को हद्द से ज्यादे दुःखी देख लौड़ियों से रहा न गया, आपस में राय करके एक लौंडी ने जाकर महारानी से उनका सब हाल कहा और जवाब पाने की उम्मीद में सामने खड़ी ही रहीं।

बहुत देर तक सोचने के बाद महारानी ने उस लौंडी को हुक्म दिया, ‘‘अच्छा जाओ, जसवंतसिंह को मेरे पास ले आओ, मैं उसे समझाऊंगी, अब तो पर्दा खुल ही गया और बेहयाई सिर पर सवार हो ही चुकी, तो रनबीरसिंह के दोस्त का सामना करने में ही क्या हर्ज है!’’

हुक्म पाकर लौंडी दौड़ी हुई गई और अपने साथ वालियों से महारानी का हुक्म कहा। वे सब जसवंतसिंह को साथ ले महारानी के पास चलीं।

जिस दालान में पहले सरदार चेतसिंह के साथ जसवंतसिंह बैठाए गए थे उसी के साथ पीछे की तरफ महारानी का खास महल था। लौडियां जसवंतसिंह को साथ लिए हुए दूसरी राह से उसके अंदर गईं। इस मकान को जसवंतसिंह ने बहुत ही अच्छी तरह से सजा हुआ पाया और यहीं पर एक छोटे से कमरे में स्याह गद्दी के ऊपर गावतकिए के सहारे बाईं हथेली पर गाल रखे बैठी हुई महारानी दिखाई पड़ी।

महारानी को देखते ही जसवंतसिंह ने जोर से ‘हाय’ किया और साथ ही बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।

Prev | Next | All Chapters 

चंद्रकांता देवकीनंदन खत्री का उपन्यास

रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

देवांगना आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास

Leave a Comment