पहला बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Pahla Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

पहला बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Pahla Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Pahla Bayan Kusum Kumari

Pahla Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

ठीक दोपहर का वक्त और गर्मी का दिन है। सूर्य अपनी पूरी किरणों का मजा दिखा रहे हैं। सुनसान मैदान में दो आदमी खूबसूरत और तेज घोड़ों पर सवार साये की तलाश और ठंडी जगह की खोज में इधर-उधर देखते घोड़ा फेंके चले जा रहे हैं। ये इस बात को बिलकुल नहीं जानते कि शहर किस तरफ है या आराम लेने के लिए ठंडी जगह कहां मिलेगी। घड़ी-घड़ी रूमाल से अपने मुंह का पसीना पोंछते और घोड़ा को एड़ लगाते बढ़े जा रहे हैं।

इन दोनों में से एक ही उम्र अठारह या उन्नीस वर्ष की होगी, दिमागदार खूबसूरत चेहरा धूप में पसीज रहा है, बदन की चुस्त कीमती पोशाक, पसीने से तर हो रही है, जड़ाऊ कब्जेवाली इसकी तलवार फौलादी जड़ाऊ म्यान के सहित उछल-उछलकर घोड़े के पेट से टक्कर मारती और चलने में घोड़े को तेज करती जाती है। इसका घोड़ा भी जड़ाऊ जीन से कसा और कीमती गहनों से भरा, अपने एक पैर की झांझ की आवाज पर मस्त होकर चलने में सुस्ती नहीं कर रहा था। ऐसे बांके बहादुर खुशरू दिलावर जवान को जो देखे वह जरूर यही कहे कि किसी राजा का लड़का है और शायद शिकार में भूला हुआ भटक रहा है।

इसका साथी दूसरा शेरदिल भी जो इसके साथ-साथ अपने तेज घोड़े को डपेटे चला जा रहा है, खूबसूरती दिलावरी साज और पोशाक में बेनजीर मालूम होता है, फर्क इतना ही है कि इसको देखनेवाला यह कहने से न चूकेगा कि यह पहले बहादुर राजकुमार का वजीर या दीवान है, जो ऐसे वक्त में अपने मालिक का जी जान से साथ दे रहा है।

यह दोनों दिलावर इसी तरह देर तक घोड़ा फेंके चले गए मगर कहीं भी आराम लेने के लिए कोई सायेदार दरख्त इन्हें नजर न आया, यहां तक कि दिन सिर्फ घंटे भर बाकी रह गया जब दूर पर एक छोटी-सी पहाड़ी नजर आई जिसके नीचे कुछ सायेदार पेड़ों का भी निशान मालूम हुआ।

इन दोनों के तेज घोड़े धूप में दौड़ते बिलकुल सुस्त हो रहे थे, बड़ी मुश्किल से उस पहाड़ी के नीचे तक पहुंचे और पीठ खाली होते ही जीभ निकाल हांफते हुए जमीन पर गिरकर देखते-देखते बेदम हो गए।

इन दोनों को पहाड़ी के नीचे सायेदार दरख्तों के मिलने की इतनी खुशी न हुई जितना दोनों घोड़ों के मर जाने का रंज और गम हुआ। हमारे राजकुमार रनबीर सिंह ने आंखें डबडबाकर अपने मित्र जसवंतसिंह से कहा–रनबीर-इन घोड़ों ने आज हम लोगों की जान बचाई और अपनी जान दी। अफसोस कि इस वफादारी के बाद हम लोग इनकी कोई खिदमत न कर सके। सिवाय इसके हम लोगों को यह भी बिलकुल नहीं मालूम की किधर चले आए और अपना घर किस तरफ है।

जसवंत–इसमें तो कोई शक नहीं कि इन घोड़ों के मर जाने से बहुत-सी तकलीफों का सामना करना पड़ेगा, हम लोग पैदल चलकर तीन दिन में भी उतनी दूर नहीं जा सकते जितना आज इन घोड़ों पर चले आए।

रनबीर-इस पहाड़ी के ऊपर चढ़कर चारों तरफ देखना चाहिए कि कहीं किसी शहर का निशान दिखाई पड़ता है या नहीं। (पहाड़ी की तरफ देखकर) इस पर चढ़ने के लिए पगडंडी नजर आ रही है। मालूम होता है कि इस पहाड़ी पर आदमियों की आमदरफ्त जरूर होती है।

जसवंत–(पहाड़ी के ऊपर निगाह करके) हां, मालूम तो यही होता है।

रनबीर–तो चलो? फिर देर करने की कोई जरूरत नहीं।

जसवंत–चलिए।

मरे हुए घोड़ों को कसे कसाये उसी तरह छोड़ ये दोनों उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। बिलकुल शाम हो गई थी जब ऊपर पहुंचे।

पहाड़ी के ऊपर पहुंचने ही से इन दोनों की तबीयत हरी हो गई और उतनी फिक्र न रही जितनी उस वक्त थी जब ये पहाड़ी के नीचे थे, क्योंकि ऊपर पहुंचकर एक छोटे बागीचे की निहायत खूबसूरत चारदीवारी दिखाई पड़ी और बाएं तरफ कुछ दूर पर एक गाँव का निशान भी मालूम हुआ, मगर वह इतना नजदीक न था कि दो-तीन घंटे रात जाते-जाते भी ये दोनों वहां तक पहुंच सकते।

रनबीर–जसंवत, उस गांव तक तो पहुंचना इस वक्त मुश्किल है, अब तो इतनी हिम्मत भी नहीं रही कि आगे चलने की कोशिश करें, इसी बगीचे में कहीं रात काटना मुनासिब होगा, जरा देखो तो इसका दरवाजा किधर है।

जसवंत–वह देखिए पूरब तरफ दो घने पेड़ दिखाई दे रहे हैं मुमकिन है उधर ही दरवाजा भी हो।

रनबीर–चलो, उधर ही चलें।

दोनों आदमी उन घने पेड़ों की तरफ चले। जसवंतसिंह का ख्याल ठीक ठहरा, वे दोनों पेड़ दोनों तरफ थे और बीच में एक छोटा-सा खूबसूरत दरवाजा था। रनबीरसिंह ने दरवाजे को धक्का दिया जो भीतर से बंद न था, खुल गया, और ये दोनों उसके अंदर गए।

रात हो गई थी, मगर चांदनी खूब खिली हुई थी। ये दोनों उस छोटे से दिलचस्प बाग में टहलने लगे। पश्चिम तरफ एक छोटी-सी खूबसूरत बारहदरी थी, मगर किसी तरह के सामान से सजी हुई न थी, उसी के बगल में एक मंदिर नजर आया जिसके आगे छोटा-सा संगीन कुआं था और रस्से में बँधा हुआ लोहे का एक डोल भी उसी जगह पड़ा था।

दोनों उस मंदिर के अंदर गए, भीतर अंधेरा था, मगर बाहर की चांदनी की चमक से जो उसके चबूतरे पर पड़ रही थी इतना मालूम हुआ कि इसमें कोई देवता बैठे हुए नहीं हैं, बल्कि उनकी जगह बीचोबीच में दो पत्थर की मूर्तियां ठीक आदमी के बराबर की बैठाई हुई हैं, जिन्हें देख इन दोनों को भ्रम हो गया कि दो आदमी बैठे हैं, मगर बड़ी देर तक न हिलने-डोलने से जान पड़ा कि ये आदमी नहीं पत्थर की मूर्तियां हैं।

रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘भाई जसवंत, इस वक्त तो कुछ भी समझ में नहीं आता कि ये मूर्तियां कैसी या किसकी हैं। चलो बाहरवाले कुएं पर लेट रहें। सवेरे देखा जाएगा। मुझे प्यास भी बड़े जोर की लगी है, मगर जब तक यह न मालूम हो कि यह बाग किसका है या यह डोल किस जात के पानी पीने का है, तब तक इस डोल में पानी भरकर कैसे पीऊं?’’

जसंवतसिंह बोले, ‘‘आपने ठीक कहा। इस बगीचे में कोई माली भी नहीं दिखाई देता जिसमें पूछें कि यहां का मालिक कौन है या यह डोल हम लोगों के पानी पीने लायक है या नहीं। हां, एक बात हो सकती है। उन डोलों में से रस्सी खोल ली जाए और उससे अपनी चादर जो कमर के साथ कसी है, बांधकर कुएं में ढीली जाय, दो-तीन दफे डुबोकर निकालने और निचोड़कर पीने से जरूर जी भर जाएगा, फिर सवेरे ईश्वर मालिक है।’’

लाचार होकर इस बात को रनबीरसिंह ने पसंद किया, कुएं पर आए और उसी तरकीब से जो जसवंतसिंह ने सोची थी प्यास बुझाई।

ज्यों-ज्यों करके रात काटी। ध्यान तो उन मूर्तियों में लगा हुआ था। सवेरे उठते ही पहले उस मंदिर में जाकर उन अद्भुत मू्र्तियों को देखा।

यह दोनों बैठी हुई मू्र्तियां ठीक आदमियों जैसी ही थीं और उनके डील-डौल ऊंचाई-नीचाई में कुछ भी फर्क न था। ये दोनों, रनबीरसिंह और जसवंतसिंह, एकटक उन मूर्तियों की तरफ देखने लगे।

इनमें एक मूर्ति मर्द की और दूसरी औरत की थी। देखने से यही जी में आता था कि अगर मिले तो उस कारीगर के हाथ चूम लें, जिसने इन मूर्तियों को बनाया है। चाल-ढाल, हाव-भाव, रंग-रोगन सभी ऐसे थे कि चालाक-से-चालाक आदमी भी एक दफे धोखा खा जाए।

दोनों मूर्तियां एक-से-एक बढ़के खूबसूरत, दोनों ही का युवा अवस्था, दोनों ही का गोरा रंग, दोनों ही के सभी अंग सुंदर और सुडौल, दोनों ही का चेहरा चंद्रमां को कलंकित करनेवाला, दोनों ही की राजशाही पोशाक और दोनों ही बदन पर कीमती गहने पहने हुए थे।

स्त्री हाथ जोड़े सिर नीचा किए बैठी है, दोनों आंखों से आंसू की बूंदे गिरकर दोनों गालों पर पड़ी हुई हैं, बड़ी-बड़ी आंखे सुर्ख हो रही हैं। मर्द प्रेम भरी निगाहों से उस स्त्री के मुख की तरफ देख रहा है, बायां हाथ गर्दन में डाले और दाहिने हाथ से उसकी ठुड्डी पकड़कर ऊपर की तरफ उठाना चाहता है, मानों उसे उदास और रोते देख दुःखित हो प्रेम के मनाने और खुश करने की चेष्टा कर रहा हो।

पत्थर की इन दोनों सुंदर हाव-भाववाली मूर्तियों को देखकर रनबीरसिंह और जसंवतसिंह दोनों बहुत देर तक सकते की सी हालत में चुपचाप तसवीर की तरह खड़े रहे, आंख की पलक तक नीचे न गिरी। आखिर रनबीर ने मुंह फेरा और ऊँची सांस लेकर जोर से कहा– ‘‘ओह, आश्चर्य! यह क्या मामला है! मैं कहां और यह पहाड़ी बाग और मूर्तियां कहा! क्या होनेवाला है? हे ईश्वर! जैसा ही मैं इन बातों से भागता था वैसा ही फंसना पड़ा। मेरी भूल थी जो मैंने यह न सोचा था कि ब्रह्मा ने अपनी सृष्टि में एक-से-एक बढ़ के सुंदर मर्द और औरत बनाए हैं।

(थोड़ी देर तक चुपचाप उन मूर्तियों की तरफ देखकर) जसवंत, क्या कह सकते हो कि यह किसकी मूरत है और यहां से मेरा देश कितनी दूर होगा?’’

जसवंतसिंह ने कहा, ‘‘इस आश्चर्य को देख मैं सब कुछ भूल गया और तबीयत घबड़ा उठी, अक्ल ठिकाने न रही। मुझे यह कुछ मालूम नहीं कि यह पहाड़ी किस राजधानी में है या हमारा देश यहां से किस तरफ है। अपनी सरहद छोड़े आज चार रोज हो गए, ऐसा भूले कि पूरब पश्चिम का भी ध्यान न रहा, दौड़ते-दौड़ते बेचारे घोड़े भी मर गए। यद्यपि इसमें शक नहीं कि यहां से हमारा देश बहुत दूर न होगा, फिर भी हम लोगों को अब तक इस जगह की कोई खबर न थी! अहा, कैसी सुंदर मूर्ति बनाई है, मालूम होता है कारीगर ने अभी इन मूर्तियों को तैयार करके हाथ हटाया है। यह मर्द की मूरत तो बेशक आपकी है। कोई निशान आप में ऐसे नहीं जिसे इस मूर्ति में न बनाया गया हो, कोई अंग ऐसे नहीं, जो आपसे न मिलते हों, मानो आप ही को सामने बैठाकर कारीगर ने इस मूर्ति को बनाया और रंगा हो। अगर आप चुपचाप इस मूर्ति के पास बैठ जाएं तो मैं क्या आपके माता-पिता भी ताज्जुब में ठिठक के खड़े रह जाएं और यह न कह सकें कि मेरा बेटा कौन है!!’’

रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘अगर यह मूर्ति मेरी है तो यह दूसरी मूर्ति भी जरूर किसी ऐसी औरत की होगी जो इस दुनिया में जीती जागती है। ओह, क्या कहा जाए, कुछ समझ में नहीं आता, किसने इन दोनों को यहां इकट्ठा किया! क्या तुम बता सकते हो कि वह कौन औरत है जिसकी यह मूर्ति है!!’’

जसवंतसिंह बोले, ‘‘मुझे यकीन नहीं आता कि यह इस पृथ्वी की कोई औरत है। जरूर यह कोई देवकन्या या अप्सरा होगी, इस दुनिया में तो ऐसी खूबसूरती कभी किसी ने देखी नहीं।’’

रनबीर–ऐसी बात नहीं है और जरूर तुम मुझे धोखा दे रहे हो। खोजने से जरूर मैं इसे देख सकता हूं। नहीं-नहीं, अब खोजना क्या सामने ही तो बैठी है, इसे छोड़कर अब मैं कहां जा सकता हूं? अहा, किस प्रेम से हाथ जोड़े है। (तस्वीर का हाथ पकड़ के) ऐसा न होगा, तुम हाथ न जोड़ो, यह काम तो मेरा है, मैं तुम्हारे पैरों पर सिर रखता हूं। (पैरों पर सिर रखकर) कहो तो सही रो क्यों रही हो? क्या मुझसे खफा हो गई हो? भला कुछ तो बोलो, मैं कसम खाकर कहता हूं कि अब कभी तुमसे अलग न होऊंगा, मुझसे कोई कसूर हो गया हो तो उसे माफ करो।

जसवंत–हैं हैं! यह आप क्या कर रहे हैं? क्या भूल गए कि यह पत्थर की मूर्ति है?

रनबीर–(चौंककर) क्या कहा? पत्थर की मूर्ति! हां, ठीक तो है।

रनबीरसिंह चुप हो गए और एकटक उस मूरत की तरफ देखने लगे। बहुत देर के बाद जसवंतसिंह ने फिर टोका, ‘‘रनबीरसिंह बैठे क्या हो, उठो आओ इधर-उधर घूमे, चलो किसी को ढूंढ़ें, कुछ पता लगावें जिसमें मालूम हो कि यह बगीचा किसका है और इन मूर्तियों को बनानेवाला कौन है। इस तरफ बैठे रहने से क्या काम चलेगा?’’

रनबीरसिंह ने जसवंतसिंह की तरह देखकर कहा, ‘‘भाई, मुझे छोड़ दो, क्यों तकलीफ देते हो, तुम जाओ देखो, खोजो, मेरे बिना क्या हर्ज होगा?’’

जसवंत–आखिर कब तक बैठे रहिएगा?

रनबीर–जब तक यह खुश न होंगी और हंसेंगी नहीं।

जसवंत–क्या इस पत्थर की मूरत में जान है जो आप इसे मनाने बैठे हैं?

रनबीर–तुम क्यों मुझे तंग कर रहे हो, जाओ अपना काम करो, मैं यहां से न उठूंगा!

जसवंतसिंह जी में सोचने लगे कि रनबीरसिंह इस वक्त अपने होशहवाश में नहीं हैं, इस औरत का इश्क (जिसकी यह मूरत है) इनके सिर पर सवार हो गया है, एकाएक उतारने से नहीं उतरेगा।

इसी झगड़े में दिन दोपहर से ज्यादे आ गया, नहाने-धोने खाने-पीने की कुछ भी फिक्र नहीं। जसवंतसिंह सोचने लगे, ‘‘अगर रनबीरसिंह को कभी अपनी सुध भी आई और कुछ खाने को मांगा तो क्या दूंगा? इस बाग में कोई ऐसा पेड़ भी नहीं है जिसके फलों से पेट भरने की उम्मीद हो। अब तो यही ठीक होगा कि पहले, उस गांव से जो पास ही दिखाई देता है चलकर जिस तरह बन पड़े कुछ खाने को लावें।’’

यह सोच रनबीरसिंह को उसी तरह छोड़ जसवंतसिंह उस बाग के बाहर आए और पहाड़ी के नीचे उतर उस गांव की तरफ चले।

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