नौवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Nava Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

नौवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Nava Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas Novel In Hindi 

Nava Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Nava Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

बालेसिंह का आदमी रनबीरसिंह की चिट्ठी लेकर महारानी की तरफ रवाना हुआ, मगर जब उस शहर में पहुंचा तब सुना कि महारानी बहुत बीमार हैं और इन दिनों बाग में रहा करती हैं, दवा इलाज हो रहा है, बचने की कोई उम्मीद नहीं, बल्कि आज का दिन कटना भी मुश्किल है।

वह आदमी जो चिट्ठी लेकर गया था निरा सिपाही न था बल्कि पढ़ा-लिखा होशियार और साथ ही चालाक भी था। ऐसे मौके पर महारानी के पास पहुंचकर खत देना मुनासिब न जान उसने सराय में डेरा डाल दिया और सोच लिया कि जब महारानी की तबीयत ठीक हो जाएगी तब यह खत देकर जवाब लूंगा।

सराय में डेरा दे और कुछ खा-पीकर वह शहर में घूमने लगा यहां तक कि उस बाग के पास जा पहुंचा जिसमें महारानी बीमार पड़ी थीं। अपने को उसने बिलकुल जाहिर न किया कि मैं कौन हूं, किसका आदमी हूं और क्यों आया हूं, मामूली मुसाफिर की तरह घूमता फिरता रहा। शाम होते-होते बाग के अंदर से रोने और चिल्लाने की आवाज आई और धीरे-धीरे वह आवाज बढ़ती ही गई, यहां तक कि कुछ रात जाते-जाते बाग से लेकर शहर तक हाहाकार मच गया, कोई भी ऐसा न था जो रो-रोकर अपना सिर न पीट रहा हो! शहर भर में अंधेरा था, किसी को घर में चिराग जलाने की सुध न थी। जिसको देखिए वही ‘हाय महारानी! कहां गईं! अब मैं किसका होकर रहूंगा? पुत्र की तरह अब कौन मानेगा? किस भरोसे पर जिंदगी कटेगी!’ इत्यादि कह-कहकर रोता चिल्लाता सर पीटता और जमीन पर लोटता था।

वह आदमी जो चिट्ठी लेकर गया था घूम-घूमकर यह कैफियत देखने और पूछताछ करने लगा। मालूम हो गया कि महारानी मर गईं, उसे बहुत ही रंज हुआ और अफसोस करता सराय की तरफ रवाना हुआ। वहां भी वही कैफियत देखी, किसी को आराम या चैन से न पाया, लाचार होकर वहां से भी लौटा और शहर से बाहर जा मैदान में एक पेड़ के नीचे रात काटी। सवेरे वापस हो अपने मालिक बालेसिंह की तरफ रवाना हुआ।

महारानी के मरने से उनकी रियाया को जितना गम हुआ और वे लोग जिस तरह रोते-पीटते और चिल्लाते थे यह देखकर उस सिपाही को भी बड़ा रंज हुआ। बराबर आंसू बहाता हुआ दूसरे दिन अपने मालिक बालेसिंह के पास पहुंचा।

बालेसिंह जो कई आदमियों के साथ बैठा गप्पे उड़ा रहा था। अपने सिपाही की सूरत देखते ही घबड़ा गया और सोचने लगा कि शायद इसे किसी ने मारा पीटा है या यह कैद हो गया था, किसी तरह छूटकर भाग आया है, मगर पूछने पर जब उसकी जुबानी महारानी के मरने का हाल सुना तब उसकी भी अजीब हालत हो गई। घंटे भर तक सकते की हालत में इस तरह बैठा रहा। जैसे जान निकल गई हो या मिट्टी की मूरत रखी हो, इसके बाद एक ऊंची सांस लेकर उठ खड़ा हुआ और दूसरे कमरे में जा चारपाई पर लेटकर सोचने लगा–

‘हां! जिसके लिए इतना बखेड़ा किया, इतने हैरान और परेशान हुए, बेचारे रनबीरसिंह को व्यर्थ कैद किया, अपनी जान आफत में डाली, वही दुनिया से उठ गई! हाय, अभी तक वह भोली-भाली सूरत आंखों के आगे घूम रही है, वह पहला दिन मानो आज ही है, यही मालूम होता है कि बाग ने मकान की छत पर सहेलियों के साथ बढ़ी हुई इधर-उधर दूर-दूर तक के मैदान की छटा देख रही है। हाय, ऐसे वक्त में पहुंचकर मैंने क्यों उसकी सूरत देखी जो आज इतना रंज और गम उठाना पड़ा और मुफ्त की शर्मिंदगी और बदनामी भी हाथ लगी!!

‘मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरा सिपाही झूठ बोलता हो या वहां महारानी ने इसे रिश्वत देकर अपनी तरफ मिला लिया हो और अपने मरने का हाल कहने के लिए समझा बुझाकर इधर भेद दिया हो? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर ब्रह्मा भी मेरे सामने आकर कहें कि यह तुम्हारा सिपाही बेईमान और झूठा है तो भी मैं न मानूंगा, यह मेरा दस पुश्त का नौकर कभी ऐसा नहीं कर सकता, इसके जैसा तो कोई आदमी भी मेरे यहां नहीं है!

‘खैर, जब महारानी मर ही गईं तो फिर क्या किया जाएगा? अब रनबीरसिंह और जसवंतसिंह को कैद में रखना व्यर्थ है, उन्होंने मेरा कोई कसूर नहीं किया है।’

ऐसी-ऐसी बहुत सी बातें वह घंटों तक सोचता रहा, आखिरकार उठ खड़ा हुआ और सीधे उस मकान में पहुंचा, जहां रनबीरसिंह और जसवंतसिंह कैद थे।

बालेसिंह की सूरत देखते ही रनबीरसिंह ने पूछा, ‘‘क्यों साहब, आपका सिपाही महारानी के पास से वापस आया?’’

बालेसिंह–हम लोगों का फैसला ईश्वर ही ने कह दिया!!

रनबीर–वह क्या?

बालेसिंह–महारानी ने परलोक की यात्रा की! अब आपको भी मैं छोड़े देता हूं जहां जी चाहे जाइए। यह लीजिए आपके कपड़े और ढाल तलवार इत्यादि भी हाजिर हैं।

बालेसिंह की बात सुनते ही रनबीरसिंह ने जोर से ‘हाय’ मारी और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। बालेसिंह ने जल्दी से उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल डाली और मुंह पर बेदमिश्क वगैरह छिड़ककर होश में लाने की फिक्र करने लगा। जसवंतसिंह को भी कैद से छुट्टी दे दी।

कैद से छूट और महारानी के मरने का हाल सुन जसवंतसिंह की नीयत फिर बदली। जी में सोचने लगा कि अब रनबीरसिंह की तरफ से नीयत खराब रखनी मुनासिब नहीं क्योंकि इसके साथ रहने में जिस खुशी के साथ जिंदगी बीतती है वैसी खुशी इससे अलग होने पर नहीं मिल सकती। सिवाय इसके महारानी तो मर ही गई जिनके लिए बहुत कुछ सोचे हुए था, इसलिए अब तो इनके साथ पहले ही की तरह मिल-जुलकर ही रहना मुनासिब है, मगर अभी इस बात का पूरा यकीन कैसे हो कि महारानी मर गईं। दुश्मन की बात का पूरा यकीन करना बिलकुल भूल और नादानी है।

बहुत देर के बाद रनबीरसिंह होश में आए मगर मुंह से कुछ न बोले और न अपना इरादा ही कुछ जाहिर किया कि अब वे क्या करेंगे। उठ खड़े हुए, अपने कपड़े पहने और हर्बो को लगा शहर के बाहर की तरह रवाना हुए। जसवंत भी इनके साथ हुआ, किसी ने टोका भी नहीं कि कहां जाते हो।

शहर से बाहर हो चुपचाप सिर नीचा किए हुए एक तरफ रवाना हुए। इसका खयाल कुछ भी न किया कि कहां जा रहे हैं और रास्ता किधर है जसवंत ने चाहा कि समझा-बुझाकर घर की तरफ ले जाएं, मगर रनबीरसिंह ने उसकी एक भी न सुनी, लाचार बहुत सी बातें कहता जसंवत भी उन्हीं के साथ-साथ रवाना हुआ।

लगभग कोस भर के गए होंगे कि एक तरफ से दो सिपाहियों ने जो ढाल तलवार के अलावा हाथ में तोड़ेदार बंदूक भी लिए हुए थे, जिसका पलीता सुलग रहा था, आकर रनबीरसिंह को रोका और अदब के साथ सलाम करके बोले, ‘‘आपसे कुछ कहना है।’’ और तब जसवंत की तरफ देखकर कहा, ‘‘हट जा बे यहां से, बात करने दे!’’

जसवंत ने कहा, ‘‘क्या तुम्हारे कहने से हट जाएं, जन्म से तो हम इनके साथ हैं ऐसी कौन बात है जो यह हमसे न कहते हों?’’

इसके जवाब में एक सिपाही ने बंदूक तानकर कहा, ‘बस हट जा यहां से नहीं तो अभी गोली मारता हूं, जन्म से साथ रहने की सारी शेखी निकल जाएगी!’’

सिपाही की डांट से जसवंत हट गया और कुछ दूर पर जा खड़ा हुआ। दूसरे सिपाही ने अपने जेब से एक चिट्ठी निकालकर रनबीरसिंह को दिखाई जिसके जोड़ पर बड़ी सी मोहर की हुई थी। मोहर पर निगाह कर रनबीरसिंह ने सिपाही की तरफ देखा और चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगे, पढ़ते वक्त आंखों से बराबर आंसू जारी था। जब चिट्ठी खत्म होने पर आई, तब एक दफे उनके चेहरे पर हंसी आई और आंसू पोंछ सिपाही की तरफ देखने लगे।

सिपाही ने कहा, ‘‘बस, अब मैं विदा होता हूं, आप मेरे सामने यह खत फाड़ डालिए।’’ इसके जवाब में रनबीरसिंह ने यह कहकर खत फाड़ के फेंक दिया कि ‘‘मैं भी यही मुनासिब समझता हूं!’’

जब वे दोनों सिपाही वहां से चले गए जसवंतसिंह ने इनके पास आकर पूछा, ‘‘ये दोनों कौन थे और यह खत किसका था?’’

रनबीर–था एक दोस्त का।

जसवंत–क्या नाम बताने में कुछ हर्ज है?

रनबीर–हां, हर्ज है।

जसवंत–अब तक तो कभी ऐसा नहीं हुआ था!

रनबीर–खैर, अब सही।

जसवंत–क्या मैं आपका दुश्मन हो गया?

रनबीर–बेशक।

जसवंत–कैसे?

रनबीर–हर तरह से।

जसवंत–आपने कैसे जाना?

रनबीर–अच्छे सच्चे और पूरे सबूत से जाना।

जसवंत–अफसोस, एक नालायक बदमाश बालेसिंह के कहने से आपका चित्त मेरी तरफ से फिर गया और लड़कपन के संग साथ और दोस्ती की तरफ जरा भी खयाल न गया!

रनबीर–दूर हो मेरे सामने से, हरामजादे के बच्चे! तेरे तो मुंह देखने का पाप है। सच है, बड़ों का कहना न मानना अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारना है। मेरे पिता बराबर कहते थे कि यह दुष्ट सात पुश्त का हरामजादा है, इसका साथ छोड़ दे नहीं तो पछताएगा। हाय, मैंने उनकी बात न मानी और तेरी जाहिरा-सूरत और मीठी बातों में फंसकर अपने को खो बैठा। वह तो ईश्वर की कृपा थी कि जान बच गई, नहीं तो मैंने उसके लेने पर भी कमर बांध ली थी!

जसवंत–यह खयाल आपका गलत है। आप आजमाने पर मुझे ईमानदार और अपना सच्चा दोस्त पावेंगे।

इतनी बात सुनते ही रनबीरसिंह को बेहिसाब गुस्सा चढ़ आया और कमर से तलवार खींच होंठों को कंपाते हुए बोले, ‘‘हट जा सामने से, नहीं तो अभी दो टुकड़े कर डालूंगा!!’’

रनबीरसिंह की यह हालत देख खौफ के मारे जसवंत हट गया और जी में समझ गया कि अब किसी तरह यह न मानेगा, खैर देखा जाएगा। यह सोच वहां से रवाना हुआ और जाती वक्त रनबीरसिंह से कहता गया, ‘‘देखिए, मेरा साथ छोड़कर आप जरूर पछताएंगे!’’

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