मीना बाज़ार कृष्ण चंदर की कहानी | Meena Bazar Krishan Chander Ki Kahani

मीना बाज़ार कृष्ण चंदर की कहानी (Meena Bazar Krishan Chander Ki Kahani Hindi Short Story)

Meena Bazar Krishan Chander Short Story 

Meena Bazar Krishan Chander Ki Kahani

दो आशिक़ों में तवाज़ुन बरक़रार रखना, जब के दोनों आई सी एस के अफ़राद हों, बड़ा मुश्किल काम है। मगर रंभा बड़ी ख़ुश-उस्लूबी से काम को सर-अंजाम देती थी। उसके नए आशिक़ों की खेप उस हिल स्टेशन में पैदा हो गई थी। क्योंकि रंभा बेहद ख़ूबसूरत थी। उसका प्यारा-प्यारा चेहरा किसी आर्ट मैगज़ीन के सर-ए-वर्क़ की तरह जाज़िब-ए-नज़र था। उसकी सुनहरी जिल्द नायलॉन की सत्ह की तरह बेदाग़ और मुलाइम थी। उसका नौजवान जिस्म नए मॉडल की गाड़ी की तरह स्प्रिंगदार नज़र आता था।

दूसरी लड़कियों को देखकर ये एहसास होता था कि उन्हें उनके माँ बाप ने शायद औंधे सीधे ढंग से पाला है। लेकिन रंभा किसी मॉर्डन कारख़ाने की ढाली हुई मालूम होती थी, उसके जिस्म के ख़ुतूत, उसके होंठ, कान, नाक आँखें, नट बोल्ट, स्प्रिंग कमानियाँ, अपनी जगह पर इस क़दर क़ायम और सही और दुरुस्त मालूम होती थीं कि जी चाहता था कि रंभा से उसके मेकर बल्कि मेन्यूफ़ेक्चरर का नाम पूछ के उसे ग्यारह हज़ार ऐसी लड़कियाँ सपलाई करने का फ़ौरन ठेका दे दिया जाये।

जमुना, रंभा की तरह हसीन तो ना थी। लेकिन अपना बूटा सा क़द लिए इस तरह हौले-हौले चलती थी, जैसे झील की सतह पर हल्की-हल्की लहरें एक दूसरे से अठखेलियाँ करती जा रही हों। उसके जिस्म के मुख़्तलिफ़ हिस्से आपस में मिल कर एक ऐसा हसीन तमूज पैदा करते थे, जो अपनी फ़ितरत में किसी वाइलिन के नग़मे से मुशाबह था। स्टेशन की लोअर माल रोड पर जब वो चहल-क़दमी के लिये निकलती थी, तो लोग उसके जिस्म के ख़्वाबीदा फ़ित्नों को देख-देख कर मबहूत हो जाते थे।

ज़ुबैदा की आवाज़ बड़ी दिलकश थी और किसी हाई-फ़ाई रेडियो से मिलती जुलती थी। उसे देखकर किसी औरत का नहीं, किसी ग्रामोफोन कंपनी के रिकार्ड का ख़्याल आता था। वो हर वक़्त मुस्कुराती रहती, क्योंकि उस की साँवली रंगत पर उसके सफ़ेद दांत बेहद भले मालूम होते थे। और जब वो कभी क़हक़हा मार कर हँसती, तो ऐसा मालूम होता गोया नाज़ुक कांच के कई शेम्पेन गिलास एक साथ एक दूसरे से टकरा गए हों। ऐसी औरत के साथ क्लब में बैठ कर लोगों को बे पिए ही नशा हो जाता है।

ये भी पढ़ें: मेरा बच्चा कृष्ण चंदर की कहानी 

मृणालिनी की आँखें बड़ी उदास थीं और होंठ बड़े ख़ूबसूरत थे। उसकी निगाहों की उदासी हल्के रंगों वाले गलीचे की तरह मुलाइम, मद्धम और ख़ुनुक थी। उन्हें देखकर जी चाहता था कि ज़िंदगी के पर-पेच और ख़ारदार रास्तों से गुज़रते हुए इन साया-दार पलकों के नीचे चंद लम्हे आराम और सुकून के बिताए जाएं। उसे देखकर उस रेस्तराँ की याद आती थी, जो डायना पैक जाते हुए रास्ता में पड़ता है। घने देवदारों तले, मद्धम रौशनियों वाले बरामदे में ख़ामोशी और बा-अदब बैरे और ताज़ा लेम जूस। इस रेस्तराँ में बैठ कर मुहब्बत के मारों ने अक्सर मृणालिनी को याद किया है। और मृणालिनी को देखकर उन्हें अक्सर इस रेस्तराँ का ख़्याल आया है। बाज़ औरतें ऐसी ही ख़ूबसूरत होती हैं।

रोज़ा गुलाब तो ना थी, लेकिन तितली की तरह ज़रूर थी। हर वक़्त थिरकती रहती और मंडलाती रहती, लेकिन मर्दों के इर्द-गिर्द नहीं, बल्कि डांस हॉल में। रॉक एन रोल से मॉर्डन ट्विस्ट तक उसे हर तरह का नाच आता था। उसका सिर्फ एक आशिक़ था। हालाँकि कई हो सकते थे, मगर वो दो बरस से सिर्फ एक ही आशिक़ पर सब्र किए बैठे थी। क्योंकि वो उससे शादी करना। चाहती थी और शादी के लिए सब्र करना बेहद ज़रूरी है, चाहे वो अपना महबूब क्यों न हो, रोज़ा ने पीटर पर क़नाअत कर ली थी। मगर मुसीबत ये थी कि पीटर ने अभी तक सब्र न किया था। क्यों कि पीटर रोज़ा से भी बेहतर डांसर था। और वो आईसीएस का अफ़्सर था और रंडुवा हो कर भी ऐसा कुँवारा धुला-धुला या मालूम होता था कि रंभा ऐसी ख़ूबसूरत लड़की भी उसे लिफ़्ट देने लगती थी। गो रम्भा को रोज़ा किसी तरह अपने से बेहतर समझने पर तैयार ना थी। रोज़ा का जिस्म किसी बारह तेराह बरस के लड़के की तरह दुबला पुतला था। ऐसी ही उसकी आवाज़ थी। उसके लहरए दार कटे हुए बाल कितने ख़ूबसूरत थे। इन बालों को किसी ऑरकैस्टरा की याद ताज़ा होती थी। स्याह जीन्स में रोज़ा की लंबी मख़रूती टांगें थीं। उसका सारा जिस्म किसी जैट हवाई जहाज़ की तरह नाज़ुक ख़तों का हामिल था। “हुँह रंभा कौन होती है, पीटर को मुझसे छीन लेने वाली? “

ईला, जो किसी ज़माने में मिसेज़ केला चंद थीं और अब तलाक़ हासिल कर चुकी थीं। आज भी अपने नेपाली हुस्न से लोगों की आँखें ख़ीरा किए देती थीं। आरयाई हुस्न में चीनी हुस्न कुछ इस तरह घुल मिल गया था कि इन दोनों की आमेज़िश से जो मुजस्समा तैयार हुआ, उसमें बिलकुल एक नए तरह की फ़बन और बांकपन था। ईला के कपड़े सारी हाई सोसाइटी में मशहूर थे। उसके हुस्न में जो कमी थी, ईला उसे कपड़ों से पूरा कर लेती थी। कपड़ों से और जे़वरात से। ईला के पास एक से एक ख़ूबसूरत जवाहरात के बढ़िया सेट थे। और आज से पाँच साल पहले ईला ने शिमला और दार्जिलिंग में एक सीज़न में दो ब्यूटी कम्पीटीशन जीते थे। कुछ लोगों के ख़्याल में अब वो पुराने मॉडल की गाड़ी थी। लेकिन मुसलसल झाड़ पोंछ, एहतियात और मालिश से उसकी आब-ओ-ताब ब-दस्तूर क़ायम थी।

ये भी पढ़ें : पहला दिन कृष्ण चंदर की कहानी 

फिर हिल स्टेशन कमिशनर साहब की तीन लड़कीयाँ थीं, जिनके लिए चीफ़ कमिशनर साहब बहादुर को मुनासिब बरों की तलाश थी। उनके नाम बिल-तर्तीब सुधा,माधुरी और आशा थे। उन तीनों में आशा का शुमार तो खुले तौर पर बद-सूरतों में किया जा सकता था। अलबत्ता सुधा और माधुरी गो ख़ूबसूरत ना थीं, लेकिन निक-सुक दुरुस्त थीं। मगर चूँकि वो कमिशनर साहब की लड़कियाँ थी, इसलिए उनका शुमार भी ख़ूबसूरत लड़कियों में होता था। बिलकुल उसी तरह जिस तरह आज हर मिनिस्टर की तक़रीर एक अदबी शाहकार समझी जाती है।

उनके इलावा सीता मल्होत्रा, बिर्जीस, अबदुर्रहमान, बलेसर कौर, पुष्पा राज़-दाँ, ख़ुरशीद गुरू वाला, और मेजर आनंद की लड़की गौरी वग़ैरा-वग़ैरा भी इस हिल स्टेशन के सालाना ब्यूटी कम्पीटीशन में शामिल थीं। जो अभी क्लब के लॉन में शुरू होने वाला था। ये ख़ूबसूरती का मुक़ाबला इस हिल स्टेशन का गोया सब से बड़ा क़ौमी त्योहार होता है। इस रोज़ कलब के लॉन में सैंकड़ों आदमी जमा हो जाते हैं। रंग-बिरंगी झंडियाँ, ज़र्क़-बर्क़ साड़ियों में मलबूस औरतें, सुनहरी बियर के सफ़ेद कफ़ से उबलते हुए जाम, हिस्सा लेने वाली लड़कियों के ख़ौफ़-ज़दा खोखले क़हक़हे, आशिक़ों और माँ-बापों की तिफ़्ल तसल्लियाँ, आख़िरी मिनट पर ब्लाउज़ बदलना और साड़ी की आख़िरी सिलवट दूर करना, आइने में देखकर भवों की कमान की आख़िरी नोक को तेज़ करना… बाप रे ये ब्यूटी कम्पीटीशन भी आई सी एस के कम्पीटीशन से किसी तरह कम नहीं है और कुछ हो ना हो, इसमें अव़्वल नंबर पाने वाली लड़की को बर तो ज़रूर मिल जाता है, और वो भी किसी ऊंचे दर्जे का। इसलिए हर सीज़न में दर्जनों लड़कीयाँ इसमें ख़ुशी ख़ुशी हिस्सा लेती हैं और माँ बाप ख़ुशी-ख़ुशी उनको इजाज़त दे देते हैं।

आज ब्यूटी कम्पीटीशन का फाईनल था। फाईनल के एक जज कुँवर बांदा सिंह रोहिल-खंड डिवीज़न के साबिक़ चीफ़ कमिशनर थे। दूसरे जज सर सुनार चंद थे। जिनके मुशायरे और कवी सम्मेलन हर साल दिल्ली मेँ धूम मचाते हैं। ये मान लिया गया था कि जो आदमी मुशायरे और कवी सम्मेलन कामयाब करा सकता है। वो औरतों को परखने का भी माहिर हो सकता है। फिर जजों की कमेटी के एक मेंबर साबिक़ जस्टिस देश पांडे भी चुन लिए गए थे। ता कि इन्साफ़ के पलड़े बराबर रहें।

एक मैंबर सय्यद इमतियाज़ हुसैन ब्राईट ला थे। जिनके मुताल्लिक़ मशहूर था कि हर-रोज़ अपनी बीवी को पीटते हैं। पांचवे जज कुमाऊँ के रईस आज़म दीवान बलराज शाह थे। जिनके मुताल्लिक़ ये मशहूर था कि उनकी बीवी हर-रोज़ पीटती है। मुक़ाबले की कौंसिल में जजों के दो नाम और पेश किए गए थे। एक तो हिन्दी के मशहूर कवी कुंज बिहारी शर्मा थे। जिन्हों ने ब्रज भाषा में औरतों के हुस्न पर बड़ी सुंदर कवीताएँ लिखी हैं। दूसरे क़मर ज्वेलर्ज़ के प्रोपराइटर क़मर-उद्दीन क़ुरैशी थे। जिनसे बेहतर जवाहरात के ज़ेवर यू. पी. में तो कोई बनाता नहीं। मगर ये दोनों हज़रात रईस ना होने की वजह से वोटिंग में हार गए। किसी औरत को जजों की कमेटी में नहीं लिया गया। क्योंकि ये एक तय-शुदा अमर है, कि हर औरत अपने से ज़्यादा हसीन किसी को नहीं समझती। अगर किसी औरत को जजों की कमेटी में शामिल कर लिया जाता तो वो मुक़ाबले में हिस्सा लेने वाली सब ही लड़कियों को रंग-ओ-नस्ल और ख़द्द-ओ-ख़ाल का इम्तियाज़ किए बग़ैर सिफ़र नंबर दे डालती। लिहाज़ा शदीद बहस-ओ-तमहीस के बाद यही तय पाया कि इस कमेटी में किसी औरत को शामिल ना किया जाये और यही पाँच मर्द जज मुक़ाबला-ए-हुस्न का फ़ैसला करने के लिए चुन लिए गए।

दिन बड़ा चमकीला था। आसमान पर उजले-उजले सपीद, दरख़शाँ बादल गोया फ़ैक्ट्री का सब्ज़ ग़ालीचा मालूम होता था। बच्चे इस क़दर धुले धुलाए और साफ़-शफ़्फ़ाफ़ नज़र आते थे गोया प्लास्टिक के बने हुए हों। वसीअ-ओ-अरीज़ लॉन के किनारे किनारे क्यारियों में स्वीट पी, डेलिया, लार्क सिपर, पटीवेनिया और कारनेशन के फूल कुछ इस क़ायदे और तर्तीब से खिले हुए थे। गोया काग़ज़ से काट कर टहनियों से चिपकाए गए होंगे, अर्ज़ ये कि बड़ा हसीन मंज़र था।

सबसे पहले अनाउंसर ने लॉन के दरमयान खड़े हो कर एक ज़ोरदार घंटी बजाई। तीन बार ऐसी घंटी का सुनकर लोग-बाग जौक़-दर-जौक़ क्लब के मुख़्तलिफ़ कमरों से निकल कर बाहर लॉन में आने लगे। लॉन में एक किनारे आधे दायरे की शक्ल में सोफ़े और कुर्सियाँ बिछा दी गई थीं, सब से आगे के सोफ़े पर पाँच जज बैठ गए। उनके पीछे क्लब के सर-बर-आवर्दा अस्हाब उनके बाद ख़ास-ख़ास शुरफ़ा और फिर आम शुरफ़ा। सब से आख़िर में लकड़ी की बेंचों पर हमारे ऐसे रज़ील और कमीने खड़े हो गए और बात बे बात क़हक़हा मार कर हँसने लगे। आख़िर में अनाउंसर को ज़ोरदार घंटी बजा कर सबको चुप कराना पड़ा।

साबिक़ जस्टिस देश पांडे ने उठकर मुक़ाबले के फाईनल में आने वाली लड़कियों की फ़ेहरिस्त पढ़ कर सुनाई फिर बैंड बजना शुरू हुआ। और बैंड के गीत पर सब लोगों की नज़रें क्लब की सीढ़ियों पर लग गईं जहाँ अंदर के मेक-अप रुम से हसीनाएँ सीढ़ियाँ उतर कर क्लब के लॉन पर जजों के सामने आने वाली थीं। सीढ़ीयों से लेकर जजों के सामने तक एक लंबा सा सुर्ख़ ग़ालीचा बिछा दिया गया था। जिस पर चल कर मुक़ाबले में हिस्सा लेने वालियाँ अपनी-अपनी अदाऐं करिश्मे, इश्वे या नख़रे दिखाने वाली थीं। बहुत से लोगों ने अपनी-अपनी दूरबीनें निकाल लीं।

सबसे पहले ईला सुर्ख़-रंग की साड़ी संभालती, मटकती, सौ-सौ बल खाती सीढ़ीयों से नीचे उतरी। ख़ुशबुओं के भपके दूर-दूर तक फैल गए। ईला के चेहरे पर अजीब सी फ़ातिहाना हंसी सी मुस्कुराहट थी। जजों के सामने उसने अपना मुँह मोड़ कर बड़ी शोख़ी और नाज़ के साथ सबको अपना कटीला रुख़ दिखाया। और उसके कानों में चमकते हुए याक़ूत के आवेज़े निगाहों में लरज़-लरज़ गए, फिर वो अपना गोरा गुदाज़ हाथ आगे बढ़ा कर सेब की डाली की तरह लजा कर कुछ इस अदा से अपनी साड़ी के पल्लू को संभाल कर पलटी कि तमाशाइओं के दिलों में मौज दर मौज लहरें टूटती चली गईं।

ज़ुबैदा एक मुग़ल शहज़ादी के रूप में नमूदार हुई। गहरे जामनी रंग का कामदानी का ग़रारा, उसके ऊपर हल्के ऊदे रंग के लखनऊ की बारीक फूलदार क़मीज़, उसके ऊपर लहरियेदार चुना हुआ दोपट्टा, उसके ऊपर ज़ुबैदा की गर्दन… वो मशहूर सुराही-दार गर्दन, जिसे देखकर जी चाहता था कि उसे उलट कर सारी शराब पी ली जाये। इस गर्दन के गिर्द उस वक़्त जड़ाऊ ज़मुर्रद का गला-बंद चमक रहा था और उसके हुस्न को दो-बाला कर रहा था। इस गर्दन के ऊपर ज़ुबैदा का साँवला सलोना प्यारा सा चेहरा था। ज़ुबैदा बड़ी तमकिनत से चलते-चलते जजों के सामने आई। गर्दन उठा कर अपनी सुराही के ख़म को वाज़ेह किया और यकायक हंस पड़ी और उसके सफ़ेद सफ़ेद दांतों की लड़ी बिजली की तरह कौंद गई।

रोज़ा गहरे सब्ज़-रंग की तंग जींस के ऊपर लेमन रंग का फनता हुआ ब्लाउज़ पहन कर जो आई तो उसके सीने का उभार, उसकी कमर का ख़म, उसकी लंबी मख़रूती टांगों की दिल-कशी और रानाई हर क़दम पर वाज़िह होती गई। बहुत से फ़ोटोग्राफ़र तस्वीरें लेने लगे। मुस्कुराती हुई रोज़ा ने गर्दन को ज़रा सा झुका कर सब तमाशाइयों से ख़राज-ए-तहसीन वसूल किया और चली गई।

ये भी पढ़ें : सुहाग की साड़ी कृष्ण चंदर की कहानी 

फिर सुधा मेहता आई और उसके बाद माधुरी मेहता… दोनों बस ठीक थीं। ना अच्छी ना बुरी। चूंकि चीफ़ कमीशनर साहब की लड़कीयाँ थीं इसलिए आगे बैठने वाले सर-बर-आवर्दा लोगों ने उन बच्चियों का दिल रखने के लिए ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजाएं। मगर उनके बाद आशा मेहता जो निकली तो किसी को ताली बजाने की हिम्मत ही न हुई। ऐसी साफ़ खरी बदसूरत थी कि मालूम होता था कि मेक-अप भी इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता वो भी मटकती हुई चली गई। तमाशाइओं ने सुकून का सांस लिया।

सीता मल्होत्रा टसर के रंग की सुनहरी बनारसी साड़ी पहने हुए आई। बनारसी साड़ी के नीचे का पेटीकोट बहुत उम्दा था। पेटीकोट भी अगर नायलान का होता तो मुम्किन है कुछ नंबर बढ़ जाते।

मृणालिनी ने देवदासियों की तरह बाल ऊपर बांध कर शून्ती के फूलों से सजाये थे। इस ने कोई मेक-अप नहीं किया था। सिवाए काजल की एक गहिरी लकीर के जिसने उस की बड़ी बड़ी आँखों की उदासी और अथाह ग़म को और उभार दिया था। जजों के क़रीब आकर उसने कुछ इस अंदाज़ से उनकी तरफ़ देखा जैसे वहशी हिरनी शहर में आकर खो गई हो… या जमुना देवदास के रो रही हो। फिर वो चली गई।

उसके बाद, बिर्जीस, ख़ुरशीद, गौरी वग़ैरा एक-एक कर के बाहर निकलीं और अपनी-अपनी अदाऐं दिखा कर रुख़स्त होती गईं। सबसे आख़िर में रम्भा निकली और उसके निकलते ही बैंड ज़ोर-ज़ोर से बजने लगा और तमाशाइयों के दिलों की धड़कनें तेज़ होती गईं। रम्भा ने चुस्त पंजाबी क़मीज़ और शलवार पहन रखी थी, ये लिबास उसके जिस्म पर इस क़दर चुस्त था कि बिलकुल तैराकी का लिबास मालूम होता था। उस लिबास में रंभा के जिस्म का एक एक ख़म नुमायाँ था। जब वो चलती थी तो उसके टख़नों पर उलझी हुई झाँजनों के छोटे-छोटे घुँघरू इक रूपहली आवाज़ पैदा करते जाते थे, उसे देखकर तमाशाइयों के गलों से बे-इख़्तियार वाह-वाह की सदा निकली। चारों तरफ़ से तहसीन-ओ-मर्हबा के डोंगरे बजने लगे अब इसमें तो किसी को कलाम ही नहीं था कि इस साल की मल्लिका-ए-हुस्न रंभा ही चुनी जाएगी।

जब सब लड़कीयाँ चली गईं, तो जज भी उठकर क्लब के अंदर एक कमरे में मश्वरा करने चले गए। उनके जाने के बाद तमाशाइयों का शौक़ इंतिहा को पहुंच गया। लोग ज़ोर-ज़ोर से बातें करने लगे, कोई किसी को नंबर देता था, हर आशिक़ अपनी महबूबा के गर्द हाला खींच रहा था। हर माँ अपनी बेटी की तारीफ़ में तर ज़बान थी , मगर अक्सरीयत रम्भा के हक़ में थी। अलबत्ता दूसरे और तीसरे नंबर पर मुख़्तलिफ़ लड़कियों के नाम लिए जा रहे थे। कोई जमुना का नाम लेता था, कोई ज़ुबेदा का, कोई बिर्जीस का, कोई सीता मल्होत्रा पर मर-मिटा था।

पंद्रह बीस मिनट के बाद जज अपने कमरे से नमूदार हुए, साबिक़ जज देश पांडे के हाथ में काग़ज़ का एक पुर्ज़ा था, जज देश पांदे ने फ़ैसला सुनाने के लिए उठे, सारा मजमा ख़ामोश हो गया। जस्टिस देश पांडे ने अपनी ऐनक ठीक की, खंखार के गला साफ़ किया। फिर काग़ज़ के पुर्जे़ को अपनी नाक के क़रीब ला कर ऊंची आवाज़ में कहा, “जजों का मुत्तफ़िक़ा फ़ैसला ये है कि इस साल के ब्यूटी कम्पीटीशन में अव़्वल नंबर पर आने और मुल्क-ए-हुस्न कहलाने की हक़दार मिस सुधा मेहता हैं। नंबर दो मिस माधुरी मेहता, नंबर तीन मिस ज़ुबेदा।”

चीफ़ कमिशनर मेहता के घर में एक कुहराम सा मचा हुआ था। आशा मेहता ने रो-रो कर अपना बुरा हाल कर लिया था। शाम को जब कमीशनर साहब क्लब से घर लौटे, तो आते ही उनकी बीवी ने आड़े हाथों लिया, “हाय मेरी बच्ची दोपहर से रो रही है। हाय तुमने आशा का बिल्कुल ख़्याल नहीं किया। हाय आग लगे तुम्हारे चीफ़ कमीशनर होने पर। क्या फ़ायदा है तुम्हारी चीफ़ कमिशनरी का, जब मेरी बच्ची इनाम हासिल नहीं कर सकी। अरे सुधा और माधुरी को तो फिर भी वर मिल जाऐंगे, लेकिन जिस बच्ची का तुम्हें ख़्याल करना था, उसी का ना किया। अरे हाय हाय हाय।”

चीफ़ कमीशनर साहब ने गरज कर कहा, “बावली हुई हो। तुम्हारी दो बच्चियों को तो मैंने किसी ना किसी तरह इनाम दिलवा ही दिया। अब तुम्हारी तीसरी बच्ची को भी इनाम दिलवाता, तो लोग क्या कहते? आख़िर इंसाफ भी तो कोई चीज़ है?”

**समाप्त**

चांदी का कमरबंद कृष्ण चंदर की कहानी

सच मैं सुंदर हूं विष्णु प्रभाकर की कहानी

आदमी और लड़की निर्मल वर्मा की कहानी 

Leave a Comment