मंगला सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी | Mangla Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani 

मंगला सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी (Mangla Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani Hindi Short Story)

Mangla Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani

Mangla Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani

आज मंगला चली गई। मेरा घर सूना हो गया। ठीक उसी तरह, जैसे बच्चों के उड़ जाने के बाद पक्षी का घोंसला सूना हो जाता है। चिड़ियाँ बच्चे तो पालती हैं। सर्दी-गरमी और बरसात, हर मौसम में बच्चे के लिए दाना-पानी इकट्ठा करती हैं। तिल-तिलकर अपने को मिटाती और बच्चे को बनाती हैं। बच्चों के पर फूटते हैं। वे बच्चों की उन्नति में खुश होती हैं, उन्हें उड़ना सिखाती हैं। परंतु ज्यों ही डैने मजबूत होते हैं, बच्चे माँ का सहारा छोड़कर घोंसले से कुछ दूर तक अकेले भी उड़ते हैं। इस डाल से उस डाल पर, इस पेड़ से उस पेड़ पर। और इस प्रकार एक दिन उड़ते-उड़ते बच्चे उड़ जाते हैं। कहाँ? कौन बताए? सूने घोंसले में चिड़ियाँ कैसे रहे? घोंसले के एक-एक तिनके में बच्चों की याद समाई रहती है, जो एक दिन चिड़ियों को घोंसला छोड़ देने के लिए मजबूर कर देती है। और चिड़ियाँ ! बेचारी चिड़ियाँ, अपने बच्चों को ढूँढ़ने के लिए खुद भी किसी ओर उड़ जाती हैं। रह जाता है, सूना प्राणहीन घोंसला; उसे बच्चों के साथ-साथ चिड़िया की भी याद आती है और प्रतीक्षा करते-करते कभी किसी हवा के झोंके से समझौता कर, तिनके-तिनके अलग होकर, अलग-अलग दिशा में वह भी अपनी चिड़िया और अपने बच्चों की खोज में उड़ जाता है। न जाने कब से यह क्रम चल रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा। सब चिड़ियों के बच्चे उड़ जाएंगे और सब चिड़ियाँ उन्हें खोजने के लिए, उनके बाद घोंसला सूना करके उड़ जाया करेंगी। पर बेटी को विदा करके माँ क्या करे? वह तो बेटी के साथ ससुराल नहीं जा सकती और न घर ही छोड़ सकती है। जिस घर की एक-एक चीज में मंगला की याद समाई है, एक-एक फूल-पत्ती में वह दिखती है, उसी घर में आज मंगला नहीं और मैं हूँ! और फिर मंगला जैसी लड़की! अनेक बार मेरे मुँह से निकला है-‘ईश्वर हर एक माँ-बाप को मंगला जैसी लड़की दे।’ वह तो केवल मेरी लड़की न थी, मेरी सबकुछ यही थी। मेरी माँ, मेरी गुरु, मेरी मित्र और इसके बाद भी मेरी बच्ची। आज भी वह उतनी ही बच्ची है, परंतु उसके साथ-साथ ज्ञान और शिक्षा के ऊँचे स्तर पर पहुँचकर भी अभिमान उसे छू नहीं पाया है। वह अपनी परीक्षा के दिनों में भी घर का मेरा प्राय: सभी काम करने के बाद पढ़ने बैठती थी। और आज मेरी मंगला चली गई है। ईश्वर उसे खुश रखे!

मुझे ऐसा लगता है और बार-बार मन में एक तूफान सा उठता है कि यह जो मंगला का बिछोह मुझे इतना खल रहा है, तो क्यों? इस बिछोह का सृजन तो मैंने अपने ही हाथों से किया है। मंगला तो विवाह की इच्छुक न थी। वह बार-बार मुझसे यही कहती रही, ‘अपनी गोद से तुम मुझे अलग न करो, अम्मा! तुमने मुझे पढ़ा-लिखाकर इतनी बड़ी बनाया है। तुमने अभी तक मेरे लिए कष्ट उठाया है। अब अपनी सेवा करने का अवसर दो।’ और मैं-मैं मंगला के विवाह के लिए बड़ी उत्सुक थी। अपनी बेटी को योग्य साथी के साथ विवाह करके निश्चिंत होना चाहती थी।

उस दिन जब बी.ए. का रिजल्ट निकला और मंगला पास हो गयी अच्छे डिवीजन और अच्छे नम्बरों के साथ, तो मुझे कितनी प्रसन्नता हुई उस दिन। मंगला, एक मजदूरनी की बेटी, स्वयं भी अपनी माँ के साथ मजदूरनी की तरह काम करने में कभी संकोच न करती थी, फर्स्ट डिवीजन लेकर पास हुई। मैंने उसी खुशी में एक दिन मंगला से कहा- “बेटी, अब तुम बी.ए. पास हो गयी। अब मैं तुम्हारी शादी तय करना चाहती हूँ। कोई योग्य साथी तुम्हारे लिए खोज सकी, तो मैं बिल्कुल निश्चिन्त हो जाऊं। संतान के प्रति माँ-बाप की जो जिम्मेदारी होती है, वह पूरी हो जावे।”

उस दिन मंगला ने इस बात को मजाक समझा। किन्तु इस चर्चा को गंभीर होते देखकर वह मुझ से बोली- “अम्मा! तुम मेरे विवाह की चिंता मत करो। मैं विवाह नहीं करना चाहती। यह तो जरूरी नहीं है कि सभी लड़कियाँ शादी करें। मैं तो तुम्हारे ही साथ रह के तुम्हारी ही सेवा करना चाहती हूँ। अभी तक तुम ने कष्ट उठाया है, अब मैं तुम्हारे लिए कुछ करूंगी, तुम्हें आराम से रखूंगी। जब मैं कुछ करने-धरने के लायक हुई, तब मैं विवाह करके कहीं चली जाना नहीं चाहती।”

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एक माँ अपने बच्चे से इससे अधिक क्या कुछ और चाहती है? सच, मेरा मातृत्व सफल हो गया। मैं एक योग्य संतान की माँ हूँ, इससे मुझे बड़ा संतोष मिला। इस बेटी से अलग होकर मुझसे भी न रहा जायेगा, यह मैं जानती थी। पर इसी बीच सुदर्शन से भी कई बार मिल चुकी थी। सच तो यह है कि मैं सुदर्शन को भी प्यार करने लगी थी। सूदर्शन मेरी मंगला के लिए जितना अच्छा साथी बन सकेगा, उतना अच्छा लड़का शायद ही मैं कहीं खोज सकूं। इसीलिए चाहती थी, मंगला यह विवाह स्वीकार कर ले। मैंने मंगला से कहा- “बेटी, मेरा विश्वास है कि शादी तो तुम्हें करनी चाहिए। मैं सदा जीती न रहूंगी और तुम्हें तब एक साथी का अभाव खटकेगा। और सच तो ये है बेटी कि मैं तुम्हें जहाँ ब्याहने जा रही हूँ, वहाँ तुम पर कोई बंधन न रहेगा। तुम जब चाहोगी, तभी मेरे पास आ सकोगी। यहाँ रहना या ससुराल जाना तुम्हारी इच्छा पर रहेगा!”

बेटी ने लापरवाही से हंसकर जवाब दिया था- “यह सब अम्मा, विवाह से पहले की बातें हैं। विवाह के बाद पुरुष, पत्नी को अपनी संपत्ति समझने लगता है। पति चाहे जितना पढ़ा-लिखा विद्वान हो, पब्लिक पलेटफार्म पर खड़ा होकर स्त्री को समान अधिकार और स्वतंत्रता देने के विषय में चाहे जितनी लम्बी-लम्बी स्पीचें झाड़े, पर घर के अंदर पैर रखते ही पुरुष, पुरुष हो जाता है। स्त्री यदि उसकी इच्छाओं को अपनी इच्छा न बना ले, उसके इशारे पर आँख-कान बंद करके न चले, तो खैर नहीं। पास-पड़ोस के घरों में इन शिक्षित परिवारों में भी जो कुछ होता है, वह जानती हो। यह सच जान बूझकर भी तुम क्यों चाहती हो माँ कि मैं विवाह कर लूं। फिर तुम मेरे स्वभाव को भी जानती हो। मैं किसी के इशारे पर आँख-कान बंद करके नहीं चल सकती। मैं किसी की इच्छा को अपनी इच्छा नहीं बना सकती और सच बात यह है कि तुम्हें छोड़ कर मुझसे कहीं जाया न जायेगा। तुम जिसके साथ मुझे ब्याहोगी, वह मुझे अपने साथ जरूर ले जाना चाहेगा, अभी चाहे कुछ भी कहे।”

मैंने कहा- “यह मैं समझती हूँ बेटी, पर सुदर्शन ऐसा नहीं करेगा। वह बहुत ही भला और नेक लड़का है। उसने मुझसे वादा किया है कि वह तुम्हारी इच्छा पर कभी अपनी इच्छाओं को न लादेगा।”

मंगला कुछ गंभीर होकर जो तुम चाहो माँ, वह करो। मैंने जैसे सदा तुम्हारी बात मानी है, उसी तरह तुम्हारी इस बात को भी मान लूंगी। परन्तु, मैं खुद तो शादी बिल्कुल नहीं करना चाहती।”

और मंगला चली गयी, मेरे लिए एक प्याला चाय तैयार करने।

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मैं बड़ी देर तक मंगला की बातों पर विचार करती रही और मेरी आँखो के सामने अतीत के न जाने कितने दु:ख चित्र खिंच गये। सोचा, नहीं मंगला की इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह न करूंगी। कल मैं सुदर्शन से साफ-साफ कह दूंगी। वह धनी है, शिक्षित है, सुंदर है, विनयी है। उसके लिए लड़कियों की कमी न रहेगी। बहुत-सी लड़कियां मिलेंगी। मेरी मंगला मेरी रहेगी।

दूसरे दिन वादे के अनुसार सुदर्शन आया। मैंने उसे प्यार से बैठाया। उसे देखते ही मेरा विवाह न करने का निश्चय कुछ हिल- सा गया। परन्तु मैं संभली। मैंने कहा- “सुदर्शन, जैसा तुम जानते हो, विवाह मैं खुद तो करना चाहती हूँ, पर मंगला विवाह के लिए तैयार नहीं है। मुझे छोड़कर जाने की कल्पना से भी वह सिहर उठती है और विवाह के बाद ससुराल उसे जाना ही पड़ेगा। यही कारण है वह विवाह नहीं करना चाहती।”

सुदर्शन का चेहरा उतर गया। वह बोला- “ऐसी बात तो नहीं है कि विवाह के बाद उन्हें आप को छोड़ कर जाना ही पड़ेगा। जाना न जाना तो उनकी इच्छा पर रहेगा। और वैसे तो विवाह के बाद भी वह चाहे तो आपके ही पास रह सकती है। मुझे कोई शिकायत न होगी।”

मैंने पूछा – “तुम्हारी माँ को भी कुछ न लगेगा? वह भी रहने देंगी?”

सुदर्शन बोला- “अम्मा मेरे किसी मामले में दखल नहीं देतीं।”

मैंने कहा- “सुदर्शन, यह सब बात मैं मंगला से कह चुकी हूँ। वह कहती है कि ब्याह के पहले लोग दूसरे स्वर से बोलते हैं और विवाह के बाद उनका स्वर बदल जाता है।”

सुदर्शन कुछ हताश-सा होकर बोला- “वैसे आप लोग मुझ पर विश्वास ही न करें, तो कोई चारा नहीं है। पर मैं कहता हूँ कि जो कुछ कहता हूँ उस पर अमल करूंगा। आप यदि मेरी परीक्षा लेना चाहें, तो मैं बीस साल तक केवल इस आशा पर रह सकता हूँ कि मंगला मुझसे विवाह करेगी। परन्तु, यदि यह विवाह न हुआ, तो मैं बहुत दु:खी जरूर हो जाऊंगा। दु:खी होने पर भी मुझसे कोई अपकार न होगा। मैं रास्ते से अलग हो जाऊंगा।”

और मेरा माँ का हृदय जो ठहरा, मैं द्रवित हो उठी। मैंने कहा- “अब तुम्हें, कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं ह मैं प्रयत्न करूंगी। तुम दुःखी न होना। और तुम्हें बीस साल तक ठहरने भी न दूंगी।”

सुदर्शन चला गया। दूसरी सुबह मंगला से चाय पीते-पीते मैंने कहा- “मंगला बेटी, मैं चाहती हूँ कि तुम यह विवाह स्वीकार कर लो। मेरा यह थका तन और थका मन न जाने किस घड़ी बुझ जाए। तुम किसी योग्य साथी के साथ रहोगी, तो मैं शांति से मर सकूंगी, नहीं तो मरने के बाद भी शांति न पा सकूंगी।”

और मंगला, मेरी मंगला ने कहा- “जिसमें तुम्हें शांति मिले माँ, उसी में मेरा सुख है। तुम जो चाहो करो।”

फिर इस प्रकार विवाह तय हुआ और हो गया। विवाह के समय मंगला ससुराल से दो-चार दिन में ही लौट आयी थी और वह दो-तीन दिन काम की अधिकता तथा मेहमानों की भीड़-भाड़ में कैसे निकल गये, कुछ जान नहीं पड़े! पर आज तो यह सूना-सूना घर काट खाने को मुंह बाय खड़ा है! हर पेड़, पत्ती और फल जिधर आँख उठाती हूँ, हर जगह मंगला ही मंगला! मंगला के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं!

सोचती हूँ यदि मैं भी चिड़िया होती, तो अपनी मंगला की खोज में किसी तरफ़ उड़ जाती।

**समाप्त**

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