किसकी कहानी गुलज़ार की कहानी | Kiski Kahani Short Story By Gulzar

किसकी कहानी गुलज़ार की कहानी (Kiski Kahani Gulzar Ki Kahani, Kiski Kahani Gulzar Short Hindi Story, Kiski Kahani Gulzar Story In Hindi)

Kiski Kahani Gulzar Story 

Kiski kahani gulzar

इतना भारी नाम है अन्नू का, तब पता चला, जब स्कूल के मैगज़ीन में उसकी कहानी छपी-अनिल कुमार चटोपाध्याय। छठी जमात।

तभी से अफ़सानानिगार बनने का शौक़ था उसे। कहानियाँ खूब सूझती थीं। और मुझे तो हमेशा से यक़ीन रहा है कि शायर या अदीब होना, कोई खुदाई देन की बात है, वर्ना हर कोई शायर ना हो जाता। अन्नू में वो बात थी, जो बड़े-बड़े फ़नकारों को पैदाइशी मिलती है।

हम जब गुल्ली डंडा खेल रहे होते, तब भी अन्नू सब से अलग बैठा, कॉपी में कुछ लिख रहा होता, या सोच रहा होता। हमें ये जानने की हमेशा बेचैनी लगी रहती कि अन्नू के दिमाग़ में अब क्या चल रहा होगा? कैसे वो ख़ला में एक किरदार पैदा करता है और उसे सामने पड़े कागज पर उतार लेता है। फिर वो चलने-फिरने लगता है। अन्नू जहाँ जी चाहता है, उसे वहाँ भेज देता है। जो चाहे उससे करवा लेता है—और जहाँ-जहाँ से वो गुज़रता है, कहानी का एक प्लॉट (plot) बनता चला जाता है। वाह! अफ़सानानिगार भी कमाल होते हैं, जिसे चाहें मार दें, जिसे चाहें ज़िन्दगी दे दें। है ना खुदाई जैसी बात।

अन्नू हँसा! ये कॉलेज के ज़माने की बात है।

“ऐसा नहीं है। मेरे किरदार मनगढंत नहीं है और वो मेरे बस में भी नहीं हैं, बल्कि मैं उनके बस में रहता हूँ।”

अन्नू अब बात भी राइटर्स की तरह करता था, मुझे बहुत अच्छा लगता था। उसकी कहानी “प्रताप”, “मिलाप” या “जंग” जब संडे के एडीशन में छपती थी तो मुझे बड़ा फ़ख्र महसूस होता। मैंने अख़बार माँ को दिखाया।

“ये देखो। अन्नू की कहानी अनिल कुमार चटोपाध्याय—उसी का नाम है।”

“अच्छा ऽ ऽ ऽ सुना तो।”

मैंने कहानी पढ़ के सुनाई माँ को। एक ग़रीब मोची की कहानी थी, माँ की आँखों में आँसू भर आये।

“अरे ये तो अपने ही मोहल्ले के भीकू मोची की कहानी है। उसकी माँ के साथ ऐसा हुआ था।”

ये मुझे भी मालूम नहीं था, लेकिन मैंने फ़ौरन अन्नू के अल्फ़ाज दोहरा दिये।

“उसकी कहानियाँ मनगढ़ंत नहीं होती माँ। वो किरदार पैदा नहीं करता, बल्कि अपने माहौल से किरदार चुनता है। उसके लिये आँख और कान ही नहीं, सोच और समझ की खिड़कियाँ भी खुली रखनी पड़ती है।”

माँ बहुत मुतास्सिर हुईं, शायद मेरे जुमलों से, जो अन्नू के थे।

गली में एक बहुत बड़ा जामुन का पेड़ था। उसके नीचे बैठा करता था भीकू मोची। सारे मोहल्ले की जूतियां उसी के पास आया करती थीं और अन्नू का तो अड्‌डा था। कपड़े चाहे कैसे भी मैले-कुचैले हों, “खेड़ियाँ” खूब चमका के रखता था अन्नू।

भीकू अपने बेटे घसीटा को चप्पल के अँगूठे में टांका लगाना सिखा रहा था। मैंने जब भीकू की कहानी उसको सुनाई तो उसका गला रूंध गया।

“हमारे दुःख-दर्द अब आप लोग ही तो समझोगे बेटा। अब आप लोग नहीं जानोगे हमारी कहानी, तो और कौन जानेगा?”

अन्नू का रुतबा उस दिन से मेरे लिये और बढ़ गया। वो सचमुच पैदाइशी अदीब था।

कॉलेज ख़त्म हुआ और मैं दिल्ली छोड़ के बम्बई चला आया। मेरी नौकरी लग गयी थी। और अन्नू अपने बड़े भाई की “बैठक” पर उनका हाथ बँटाने लगा, जहाँ से वो आयुर्वेद और होमियोपैथी की दवाइयाँ दिया करते थे। किसी सरकारी दफ्तर में नौकर थे, लेकिन सुबह व शाम दो-दो घंटे अपनी बैठक में ये दवाख़ाना भी चलाते थे। अन्नू के लिये बहुत सी नौकरियों की सिफ़ारिश की लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ।

मैं एक बार बहन की शादी पर दिल्ली गया, तो उनसे मुलाक़ात हुई। काफ़ी बीमार थे। मुझसे कहने लगे—

“तुम्हीं कुछ समझाओ अन्नू को, कुछ कामकाज़ करें। ये दुनिया भर की कहानियाँ लिखने से क्या होगा?”

मैं चुप रहा। वो देर तक सीने का बलग़म ख़ाली करते रहे। खुद ही बोले।

“वो हरामज़ादी उसका पीछा छोड़ दे-तो उसकी मत ठिकाने आ जाये”।

मैंने अन्नू से पूछा। वो हरामज़ादी कौन है? बोला।

“अफ़सानानिगारी। बस उसी को गलियाँ दिया करते हैं भाई साहब। वो समझते नहीं। वो जिस्मानी बीमारियों का इलाज़ करते हैं, मैं समाजी और रूहानी मरीज़ों का इलाज करता हूँ। मैं समाज के रिसते हुये नासूरों पर अपने अफ़सानों के फ़ाये रखता हूँ। अंधेरे में भटकते हुये मज़लूम इंसानों के लिये चिराग़ जलाता हूँ, उन्हें अपनी ज़ेहनी गुलामी की ज़ंजीरें काटने के हथियार मुहैया करता हूँ।”

मेरा जी चाहा, ताली बजा दूं। वो बहुत देर तक बोलता रहा, उसने बताया। उसकी पहली किताब छपने के लिये तैयार है। मुल्क के बड़े-बड़े अदबी रिसालों मे उसकी कहानियाँ छप रही हैं। अक्सर तकाज़े आते हैं रिसालों से, लेकिन वो सबके लिये लिख नहीं पाता। वो एक नॉवेल भी लिख रहा है, लेकिन “बैठक” से इतना वक़्त नहीं मिलता कि वो जल्दी से पूरा कर सके। बड़े भाई बहुत बीमार रहते हैं। और उनके दो बच्चे! बेचारे! उन बच्चों को लेकर भी वो एक कहानी सोच रहा था।

उसकी बातचीत में अब बड़े-बड़े मुसनूफों का जिक़्र आता था। कुछ नाम मैंने सुने हुये थे, कुछ वो बता देता था, सआदत हसन मन्‌टो, अहमदनदीम क़ासमी, कृष्ण चन्द्र, राजेन्द्र सिंह बेदी के बाद “काफ़का” और “सार्त्र” का जिक़्र मेरे लिये नया था। कुछ बातें मेरे सर के ऊपर से गुज़र गयीं। पहले वो कहानियों के प्लॉट बताया करता था। अब वो “काफ़का” के symbolism और “सार्त्र” के Existencialism की बात कर रहा था। मुझे लगा शायद कहानी कहीं पीछे छूट गयी, लेकिन अनिल कुमार चटोपाध्याय ने मुझे समझाया—

“कहानी सिर्फ़ प्लॉट के औक़ात की तफ़सील और उससे पैदा होने वाले किरदारों के ताल्लुक़ात का ही नाम नहीं है, बल्कि ज़ेहनी हादसात के तास्सिरात को….”

बात मेरे ऊपर से ज़रूर गुज़र रही थी, लेकिन मैं उसके वज़न से मुतास्सिर हुए बग़ैर ना रह सका।

अनिल एक बार बंबई आया। किसी “राइटर्स कॉन्फरेन्स” में हिस्सा लेने। उसकी चारों दस्तख़त शुदा किताबें मैंने अलमारी से निकाल के दिखाईं। वो किताबें मैं दोस्तों को दिखाने में बड़ा फ़ख्र महसूस करता था। इतने बड़े अदीब की किताबें, और अब वो खुद मेरे यहाँ रह रहा था। मैंने भाई साहब के दोनों बच्चों वाले अफ़साने के बारे में पूछा—वो लिखा?

उसने एक अफ़सोसनाक़ ख़बर दी।

“भाई साहब गुज़र गये और रिश्तेदारों ने मिलकर उनकी बेवा पर चादर डाल दी। मुझे शादी करनी पड़ी। मैं अब दोनों बच्चों का बाप हूँ।” कुछ रोज़ रहकर अनिल वापस चला गया।

अब उसके बारे में अक्सर अख़बारों में भी पढ़ लिया करता था। जब कोई नयी किताब छपती, वो मुझे ज़रूर भेज देता था।

बहुत सालों बाद एक बार फिर दिल्ली जाना हुआ-अपनी बीवी को भी ले गया था। उससे कहा था, अपने राइटर दोस्त से ज़रूर मिलाऊँगा।

उसी शाम, जामून के पेड़ के नीचे, अन्नू अपनी “खेड़ियाँ” पॉलिश करा रहा था, घसीटा से। उसका अड्‌डा अब वही था। बात फिर चल निकली अफ़साने की।

“नयी कहानी का सबसे बड़ा मसला हक़ीक़त का बदलता हुआ तसव्वुर है। हक़ीक़त सिर्फ़ वो नहीं जो दिखायी देती है, बल्कि असल हक़ीक़त वो है, जो आँख से नज़र नहीं आती। कहानी सिर्फ़ एक logical relationship का नाम नहीं है, बल्कि उस कैफ़ियत का नाम है, जो किरदार के Subconscious में वाके हो रही है।”

मैं मुँह खोले चुपचाप सुन रहा था अनिल कुमार कहे जा रहे थे—

“पिछले पचास सालों में बड़ी तबदीली आयी है उर्दू अफ़साने में। हमारी कहानी ने इन पचास सालों में इतनी तरक़्क़ी की है कि हम उसे दुनिया के किसी भी….”

घसीटा ने पाँव की चमकती हुयी “खेड़ियाँ” आगे करते हुए कहा—

“किसकी कहानी की बात कर रहे हो भाई साहब? जिनकी कहानी लिखते हो, वो तो वहीं पड़े हैं। मैं अपने बाप की जगह बैठा हूँ। और आप भाई साहब की “बैठक” चला रहे हो तरक़्क़ी कौन सी कहानी ने कर ली?”

“खेड़ियाँ” दे के घसीटा एक चप्पल के अंगूठे का टांका लगाने में मसरूफ़ हो गया।

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