कंचन रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी (Kanchan Rabindranath Tagore Ki Kahani Bagla Story Hindi Translation)
यह कहानी एक युवा वैज्ञानिक, नवीन बाबू, और एक आत्मनिर्भर और समझदार लड़की, कंचन के बीच की बातचीत और भावनाओं को बयान करती है।
कहानी में दो अलग-अलग दृष्टिकोणों को रखा गया है: एक तरफ नवीन का, जो अपने काम और अपने सिद्धांतों से जुड़ा है, और दूसरी तरफ कंचन का, जो प्रेम, त्याग और पारंपरिक संबंधों को गहराई से समझती है। दोनों की बातचीत में व्यंग्य, प्यार, और जीवन के उद्देश्य का टकराव है। यह कहानी यह भी दिखाती है कि कैसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवीय भावनाओं का संघर्ष होता है।
Kanchan Rabindranath Tagore Ki Kahani
Table of Contents
मैं अभी “शुक्रिया” कहने ही वाला था कि कंचन बोली, “दादू! आप हर किसी को बुला लेते हैं और मुझे मुश्किल में डाल देते हैं। बताइए, इस जंगल में अंग्रेजों के डिनर के लिए चीजें कहां मिलेंगी? सब लोग विलायती स्टाइल के हैं और आप मुझे इनकी नज़रों में गिराना चाहते हैं।”
बूढ़े साहब ने कहा, “अच्छा, तो कब तुम्हें आसानी होगी, बताओ?”
कंचन ने कहा, “कल तो मुझे आसानी है।”
लेकिन मैं कंचन को परेशान नहीं करना चाहता था। मुझे अक्सर जंगलों में अनुसंधान के लिए जाना होता था, जो कुछ प्रकृति से मिलता है, उसी से गुज़ारा कर लेता था। मैंने जाने की बात कही।
कंचन झट से बोली, “दादू, इनकी बातों पर मत जाइए। ये ऐसे ही बातें करते रहते हैं।”
मैंने मन में सोचा, ये बड़ी अजीब लड़की है। जो बात मैं कहता हूँ, उसी पर तंज़ करती है। इस तरह हम बातें करते हुए कंचन के घर की ओर बढ़ते गए। अचानक कंचन ने कहा, “अब आप अपने कैंप लौट जाइए।”
“क्यों? मैंने तो सोचा था कि आपको घर तक छोड़ दूं,” मैंने कहा।
कंचन बोली, “नहीं, हम खुद चले जाएंगे। घर अस्त-व्यस्त है, ऐसा दिखाकर मज़ाक का कारण नहीं बनना चाहती।”
मैंने मजबूर होकर अलविदा कहा और कहा, “कल जो आपका न्योता है, वह मेरे नए नाम के लिए है। कल से मैं ‘नवीन माधव’ नहीं रहूंगा।”
कंचन ने मजाक में कहा, “नामवर्त्तन कहिए, नामकरण क्यों?”
मैं मुस्कुराया और वापस कैंप लौट आया। उस दिन मुझे अनुसंधान का काम ठीक से नहीं हो पाया। मेरा दिमाग बस कंचन के बारे में सोचता रहा।
अगले दिन नदी किनारे हमारी पिकनिक थी। डॉक्टर साहब ने मुझसे सीधा सवाल किया, “नवीन, क्या तुम शादीशुदा हो?”
मैंने तुरंत जवाब दिया, “अभी तक नहीं।”
कंचन ने चुटकी लेते हुए कहा, “अभी तक का मतलब सिर्फ दूसरों को तसल्ली देना है। इसका सच में कोई अर्थ नहीं।”
मैंने हंसते हुए कहा, “तुम्हें कैसे पता?”
कंचन ने बड़े ही समझदारी से जवाब दिया, “देखिए, हमारे देश में पुरुषों के लिए शादी और साथ देने वाली लड़की होती है, लेकिन विदेशों में वैज्ञानिकों को उनके जैसे ही पार्टनर मिल जाते हैं, जैसे क्यूरी और मैडम क्यूरी। क्या आपको वहां कोई ऐसी नहीं मिली?”
इस बात पर मुझे कैथेरिन याद आ गई, जिसके साथ मैंने काम किया था। उसकी किताब पर हमारा नाम भी साथ था। मुझे मानना पड़ा।
कंचन ने तुरंत पूछा, “फिर शादी क्यों नहीं की उससे?”
मैंने जवाब दिया, “उसकी तरफ से तो प्रस्ताव था, लेकिन मैं भारत के लिए कुछ करना चाहता था।”
कंचन ने कहा, “आप जैसे लोगों के लिए सच्चा प्रेम मायने नहीं रखता, ये आपके जीवन का मकसद नहीं। लड़कियों के लिए प्यार जीवन का असली मकसद होता है, लेकिन आपके लिए नहीं।”
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। कंचन ने बात आगे बढ़ाई, “पुरुषों का व्रत है ऊपर बढ़ना, और महिलाओं का है साथ देना। यही सच्चाई है, चाहे इससे नारी का दुःख हो।”
कंचन ने फिर कहा, “आपको पता है कि देवयानी ने कच को क्या श्राप दिया था?”
“नहीं!” मैंने कहा।
“उसने कहा था, ‘तुम अपने ज्ञान का फल खुद नहीं पा सकोगे, लेकिन दूसरों को दे सकोगे।'”
इस बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। कंचन के साथ अब मेरा रिश्ता और भी सहज हो गया था।
एक दिन कंचन ने मुझसे कहा, “इस जंगल में एक अजीब सी शक्ति है, जो मुझे डराती है। यहां का माहौल इंसान को कमजोर कर देता है।”
मैंने उसे समझाते हुए कहा, “इंसान को इस तरह के समय में बाहरी और अंदरूनी दोनों तरह का साथ चाहिए होता है, तभी वह इस अंधी शक्ति को हरा सकता है।”
कंचन ने मेरी बात सुनी और बोली, “आप वैज्ञानिक हैं, इसीलिए अपनी बात में निजी भावना नहीं लाते। लेकिन मैं आपको बता दूं, मेरे मन से भवतोष का ख्याल मिटा दिया है मैंने।”
मैंने पूछा, “क्यों?”
कंचन बोली, “एक नारी के रूप में मैं प्रेम को एक पूजा के रूप में मानती हूँ। हमारे सतीत्व का आदर्श पुरुषों के सतीत्व से अलग है।”
कुछ दिन बाद डॉक्टर साहब को एक बड़े पद का ऑफर आया और उन्हें वापस जाना था। मैंने कहा, “कंचन के सुझाव से अच्छा सुझाव आपको कोई नहीं दे सकता।”
कंचन ने मेरे चरण स्पर्श किए और बोली, “आज आपसे अंतिम विदा लेती हूं। अब हम नहीं मिलेंगे।”
डॉक्टर साहब ने कहा, “यह कैसी बात कर रही हो, दीदी?”
कंचन ने बस इतना ही कहा, “दादू…” और चुप हो गई।
उसके बाद मैं अपने स्थान पर लौट आया, अपने पहले रिकॉर्ड को देखा, और दिल में आज़ादी की एक हल्की-सी खुशी महसूस हुई, जैसे पंछी पिंजरे से निकल आया हो, लेकिन उसके पांवों में अभी भी एक जंजीर की कड़ी बंधी हो।
**समाप्त**
(हिन्दी रूपांतरण – कृपा धानी)
सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानियां