हेर फेर आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Her Pher Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

हेर फेर आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी, Her Pher Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani Hindi Story 

Her Pher Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

Her Pher Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

यौवन में दो हृदय मिले, बातें हुईं, स्वभाव मिले और अन्त में विवाह का वचन हुआ। परन्तु युवक ने भावी पत्नी की माता की इच्छा पूरी नहीं की। एक मकान उसके नाम ख़रीदकर न कर सका। माता ने अपनी लाड़ली को मकान देने वाले दूसरे युवक से ब्याह दिया। परन्तु कालचक्र ने भविष्य से खिलवाड़ की। पहले युवक ने धन और यश की माला लेकर बारह बरस बाद अपनी प्रेमिका से भेंट की। भाग्य के हेर-फेर ने दोनों को विपरीत परिस्थितियों में कर दिया था। परन्तु दोनों ही अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा में कटिबद्ध रहे।

लाहौर में स्वदेशी प्रदर्शनी की बड़ी धूम थी। दिन छिपते ही वजहदार स्त्री-पुरुषों के ला हो ठठ-के-ठठ वहां जा जुटते थे। इस नुमाइश में उद्योग-धन्धे, कला-कौशल की कोई ऐसी चीजें नहीं दिखलाई गई थीं, जिससे देश के करोड़ों बेकार युवकों या अभागिनी, असहाय स्त्रियों को कोई पेट भरने का धन्धा मिले। इसमें सैकड़ों दुकानें ऐसी थीं, जिन पर मांग- पट्टी से चाक-चौबन्द, सूट-बूटधारी युवक सुनहरा चश्मा चढाए अपने दिलचस्प ग्राहकों की आवभगत हंस-हंसकर और तीन-तीन बल खाकर करने को डटे खड़े रहते थे। इनकी ग्राहिकाएं थीं बहारदार लेडियां फ़ैशन की पुतलियां या मर्दनुमा साहसी युवतियां, जिनका फ़िज़ूलख़र्ची एक धन्धा ही हो गया है। वे सब एक से एक बढ़कर साड़ियां पहने, ऊंची एड़ी के जूते कसे, तितलियां बनी फिर रही थीं। प्रत्येक दुकान पर इन्हीं के मतलब का ढेरों माल भरा हुआ था। जहां खड़ी हो जातीं, युवक दुकानदार आंखें बिछाते, मुस्कुराहट के जाल फैलाते, बलिहारी जाते और झुक-झुककर जमनास्टिक जैसी कसरतें करते थे।

इन प्रदर्शनियों से और कुछ हो चाहे न हो, पर दो काम तो अवश्य हो जाते हैं – एक तो स्त्रियों को फ़िज़ूल सामान खरीदने के सम्बन्ध में बहुत काफ़ी उत्तेजना मिल जाती है, जो वे सजे-धजे दुकानदारों से दुगने मोल में ख़रीदती हैं; दूसरे, यारों को आंखें सेंकने का अच्छा स्थान और अवसर मिल जाता है।

शाम होते ही युवकों के झुंड के झुंड टोली बांधकर प्रदर्शनी में आ जाते हैं। बीसवीं सदी में पंजाब ने जो अल्हड़ बछेड़ियां पैदा की हैं, वे किस लापरवाही से अपने मनोरंजक, धारीदार, घुटनों तक लटकते कुर्तों को हवा में फरफराती, सलवार को हिलाती, दुपट्टों को लापरवाही से हवा से अठखेलियां करने का अवसर देतीं, अपने रूप को रास्ते में बखेरती फिरती हैं, यह सब देखना इन युवकों का सान्ध्य कृत्य होता है।

एक-एक की नख-शिख आलोचना होती है । किसके आंख, नाक, बाल कैसे हैं, रंग कैसा है? नज़र कैसी है ? कौन किसकी बहू-बेटी, भतीजी – भानजी है ? किसकी तरफ़ गर्दन मरोड़कर देखा ? किसने कटाक्ष-पात किया ? ये ही महान बातें इन पढ़े- लिखे सुसभ्य लाहौरी युवकों की चर्चा का विषय होती हैं। वास्तव में ये प्रदर्शनियां स्वदेशी वस्तुओं की नहीं, प्रत्युत विदेशीनुमा प्यारे स्वदेशी युवक-युवतियों की होती हैं। यही कारण है कि इनमें कोई नवीनता न रहने पर भी, फ़िज़ूलख़र्च होने पर भी शाम से जो भीड़ का जमघट जुटता है, तो आधी रात तक रहता ही है।

बसन्तलाल हृष्ट-पुष्ट जवान थे। आंखों में रस था, और चेहरा दमकता हुआ, जिससे प्रतिभा झलकती थी । काव्य के प्रेमी और सौन्दर्य के उपासक। उन्हें प्राकृतिक दृश्य देखने का बड़ा शौक़ था। कश्मीर, मसूरी, शिमला सब उनका देखा हुआ था। वह बनारस के निवासी थे, प्रकृत साहित्यिक थे। हिन्दी के प्रेमी थे, कवि और लेखक भी । अभी अनुभव और विद्या-प्रौढ़ता न थी, पर क़लम में ओज और रस था। उनके यश की चांदनी धीरे-धीरे हिन्दुस्तान भर में फैलती जा रही थी। अपने तीन-चार लाहौरी मित्रों के साथ एक दिन बसन्तलाल भी प्रदर्शनी में गए। वह पूरब के पर्दे के अभ्यस्त थे । पूर्व भारत में पर्दा उठा है सही, पर उसे पर्दा उठना नहीं कह सकते। वहां की पर्दे में कुचली हुई, मुरझाई हुई, पिलपिली, बासी ककड़ी के समान स्त्रियों को उन्होंने महिला रूप में देखा था। अब जो यहां पंजाब में आए, तो पंजाबी बछेड़ियों को देखकर दंग रह गए। महीन तबीयत के आदमी थे, रूप किसी का पसन्द न आता था। वह कवित्व की दृष्टि से देखते, एक-आध ऐब दिखलाई ही पड़ जाता। उन्हें यहां सबसे बुरा तो यह मालूम हुआ कि वे स्वस्थ, सुन्दर, कनक – छरी-सी युवती लड़कियां और ललनाएं किस लापरवाही और फूहड़ ढंग से खोमचे वालों के इर्द-गिर्द बैठकर दनादन पत्ते चाट रही हैं। वह पर्दे के पक्षपाती तो नहीं, पर मर्यादा, सुघराई और शिष्टाचार के हिमायती थे । सोचने लगे, ये हुड़दंगी बछेड़ियां हैं या भले घर की लड़कियां ? किसी भले आदमी की तनख़्वाह तो ये आलू छोलों की चाट में ही उड़ा दे सकती हैं।

सब मित्र घूम रहे थे। बातचीत का ज़ोर बंधता ही जाता था । विवाद के मुख्य विषय थे – टाकी फ़िल्म और हिन्दी ।

एक मित्र ने कहा – टाकी फ़िल्मों का जैसे-जैसे ज़्यादा ज़ोर बढ़ता जाता है, वैसे- वैसे देश में हिन्दी का प्रचार भी ख़ूब बढ़ रहा है। हिन्दी-उर्दू का भेद भी मिटता जा रहा है।

दूसरे ने कहा- अब तो ऐसा मालूम हो रहा है कि बहुत शीघ्र पंजाब में भी हिन्दी – ही-हिन्दी हो जाएगी। यहां औरतों ने तो राष्ट्रभाषा को बहुत कुछ अपना लिया है। सिर्फ़ विलायती सभ्यता प्रेमी मर्द लोगों में ही अभी तक अंग्रेज़ी का बोलबाला है। शायद ये लोग अंग्रेज़ी से राष्ट्रभाषा का काम लेना चाहते हैं। इनकी आंखें कब खुलेंगी ?

शहर में सुलोचना की ताज़ी फ़िल्म आई थी, यार लोगों ने उसकी भी चर्चा उठा दी । एक मित्र लगे सुलोचना के नख – शिख की आलोचना करने। उस आलोचना में कुछ सौन्दर्य-ज्ञान था, कुछ भावुकता, कवित्व और कुछ आवेश । यार लोग सुन रहे थे, हंस रहे थे, फड़क रहे थे। वह मित्र सुलोचना का आपे से बाहर होकर नख – शिख वर्णन कर रहे थे। एकाएक एक दूसरे मित्र ने कहा – उस्ताद ! इस रूप की प्रदर्शनी में सुलोचना के जोड़ की कोई चीज़ टटोली जाए। – एक ज़ोर के ठहाके के साथ प्रस्ताव का ज़ोरों से अनुमोदन और समर्थन हुआ। मंडली सुलोचना की एक-एक प्रतिमूर्ति की तलाश में प्रदर्शनी में घूमने लगी। वे लोग प्रत्येक स्त्री को, युवती को, कुमारी को देखने अपनी नज़रों में तोलने लगे।

एकाएक बसन्तलाल चिल्ला उठे। जिसे देखकर वह चिल्लाए थे, उसने चौंककर उनकी ओर देखा – आंखें चार हुईं, और फिर झुक गईं। मित्रों ने पूछा- क्या हुआ ? बसन्तलाल ने एक युवती की ओर संकेत किया । सचमुच वहां पांच साल पहले की सुलोचना खड़ी अपनी माधुरी बखेर रही थी । वही क़द, वही रंग-रूप, वही सुडौल शरीर, वही रसीली आंखें, वही मुस्कुराते हुए होंठ ।

युवती की अवस्था उन्नीस-बीस वर्ष की थी । उसे देखकर मित्र-मंडली स्तम्भित रह गई! ऐसा मनोहर रूप-रंग, शरीर सदा देखने को नहीं मिलता । सुन्दरी किसी दुकान पर एक ज़री-कोर की सफ़ेद साड़ी खरीदने में व्यस्त थी। साथ में माता और एक नौकर था । मित्रों की पार्टी दूर ही से इस रूप – सरिता का रसपान करने लगी । बसन्तलाल के हृदय के किसी अज्ञात स्थल पर एक नवीन वेदना उत्पन्न हुई। वह विकल होकर और भी गम्भीरता से उसे देखने लगे। कुछ ही देर यह मूक, किन्तु चंचल अभिनय हुआ होगा कि किसी ने पीछे से बसन्तलाल के कन्धे को छुआ। देखा, उनके चिरपरिचित पंडित धरानन्द हैं। दोनों मित्र मिले । कुशल- प्रश्न के बाद पंडित जी का ध्यान उस परिवार की ओर गया, जिस पर मित्र मंडली के नेत्र भ्रमर की भांति मंडरा रहे थे। उन्होंने कहा – अरे, माता जी हैं! – वह आगे बढ़े। माता जी से मिले, और बसन्तलाल को बुलाकर उनसे मिलाया। परिचय दिया, तारीफ़ की ।

माता जी ने कहा- मुझे तो पढ़ने-लिखने का समय नहीं मिलता, किन्तु मेरी कन्या आपके लेख बड़े चाव से पढ़ती रहती है। आपसे मिलने से बड़ा आनन्द हुआ।

उन्होंने बसन्तलाल का कन्या से भी परिचय करा दिया। फिर दोनों मित्रों को चाय का निमन्त्रण देकर आगे बढ़ गईं । बसन्तलाल ने सब – कुछ पा लिया ।

चाय पान तो हुआ ही, साथ ही बहुत सी गप-शप भी हुई। बसन्तलाल ने देखा, हेमलता केवल अद्वितीय सुन्दरी ही नहीं, असाधारण बुद्धिमती और विदुषी भी है। पीछे उन्हें यह भी मालूम हो गया कि वह बी. ए. की तैयारी में है।

कन्या भी बसन्तलाल के रूप- गुण, सरलता और भावुकता से बहुत प्रभावित हुई। उसकी आंखों के लजीले भाव, मन्द मन्द हंसने की अदा और क्षण-क्षण पर गोरे-गोरे गालों पर खेल करने वाली लाली ने बसन्तलाल को कुछ और ही तत्त्व समझा दिया । बसन्तलाल की आत्मा मानो झकझोरी – सी गई । वह कुछ विकल, कुछ चंचल और कुछ अप्रतिभ-से होकर उस दिन वहां से उठ आए, पर उस चितेरी की चितवन की कूची से जो चित्र चित्त पर चित्रित हो गया था, वह मिटाए नहीं मिटता था ।

परन्तु मिलने और आने-जाने का रास्ता तो खुल ही गया था। वह खुला ही रहा । प्रायः प्रत्येक सन्ध्या उनकी वहीं बीतती, कभी-कभी भोजन भी वहीं होता। अनेक बार उन्हें बालिका से एकान्त में बात करने का अवसर भी मिला । अन्तत: उन्होंने अपना निवेदन कन्या से कह ही दिया । कन्या ने लजीले स्वर में मुस्कुराकर कहा- जहां माता- पिता विवाह कर दें, वहीं ठीक है। उसकी लाज और मुस्कुराहट की गंगा-यमुना के – बीच अनुमति की सरस्वती छिपी हुई सरसा रही थी।

बसन्तलाल ने मानो चांद पाया। उन्होंने धरानन्द जी के द्वारा सन्देश भेजा। इस सन्देश पर विचार होने लगा। उनके कुल वंश और आय-व्यय की जांच होने लगी । अन्त में एक दिन कन्या की माता ने कह दिया और सब तो ठीक है, पर इनकी आमदनी यथेष्ट नहीं, यही बात विचारणीय है।

बसन्तलाल जी की आय दो सौ रुपए माहवार थी । यही उनकी सम्पत्ति थी। इसमें सन्देह नहीं कि अपनी मौजूदा आमदनी को लेकर वह रायसाहब की अमीरी में पली पुत्री हेमलता को सुख से नहीं रख सकते थे । पर यह बात उन्होंने हेमलता से कह दी थी, और हेमलता ने उन्हें आश्वासन दिया था – हम लोग सीधे-सादे ढंग से रहेंगे, लिखेंगे- पढ़ेंगे, काव्य और साहित्य में मस्त रहेंगे, दुनिया को हेच समझेंगे, मैं धन-दौलत नहीं चाहती, तुम्हें प्यार करती हूं। और ईश्वर चाहेगा, तो हमारी आमदनी बढ़ते देर न लगेगी। मैं विवाह रुपए से नहीं, तुमसे करना चाहती हूं।

परन्तु यह सब व्यर्थ हुआ । बसन्तलाल की बात स्वीकार नहीं की गई। हेमलता की माता की हठ थी कि पचीस हज़ार मूल्य की जायदाद मेरी लड़की के नाम जो कर देगा, उसी के साथ मैं अपनी लड़की की शादी कर सकती हूं। यदि बसन्तलाल हेमलता से विवाह करना चाहते हों, तो पचीस हज़ार का एक मकान खरीदकर पहले उसके नाम लिख दें। जो मेरी कन्या को आलीशान मकान में नहीं रख सकता, वह उसे पाने के योग्य कदापि नहीं ।

बसन्तलाल अति मर्माहत होकर लाहौर से चले आए। चलती बार उन्होंने हेमलता से अन्तिम भेंट की, उसमें दोनों आंसुओं का ही विनिमय कर सके ।

बारह बरस बाद।

बसन्तलाल अब हिन्दी – साहित्याकाश में सूर्य की भांति देदीप्यमान थे । लाहौर में अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की धूम थी । बसन्तलाल सभापति बनकर आए थे। उनके रूप-रंग में बहुत अन्तर हो गया था। अपनी लिखी पुस्तकों से उन्हें हज़ारों रुपए की आय हो रही थी। कई प्रान्तों में उनकी किताबें एम. ए. तक कोर्स में थीं। बड़े-बड़े राज परिवारों में उनकी प्रतिष्ठा थी ।

लाहौर नगर में उनका जुलूस बड़ी शान के साथ निकला। सम्मेलन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। आखिरी दिन उन्हें एक पुर्जा मिला। उसमें केवल इतना लिखा था पत्रवाहक के साथ कुछ क्षणों के लिए आइए । अवश्य ।

बसन्तलाल ने पत्रवाहक को देखा, एक वृद्ध नौकर था। पूछने पर उसने बताया, बीबी जी ने बुलाया है। बीबी जी कौन हैं? यह वह नहीं बता सका। उन्होंने इस कार्य के औचित्य पर कुछ विचार किया, उन्हें कौतूहल हुआ, और अन्त में उन्होंने वहां जाने का निर्णय किया। वह उसके साथ चल दिए ।

एक गली में वह उन्हें ले गया। मकान में घुसकर उन्होंने देखा, मकान साधारण और पुराना है, किन्तु ख़ूब साफ़ है। दालान में दो कुर्सियां और एक मेज़ पड़ी थी। मेज़ पर एक साफ़ कपड़ा बिछा था । भृत्य ने कुर्सी पर बैठने को कहा । बसन्तलाल के बैठ जाने पर वह भीतर चला गया और थोड़ी देर में कुछ फल लाकर आगे धर दिए । मन न होने पर भी बसन्तलाल ने फल खाए । वह समझ ही न सकते थे कि मामला क्या था ।

उन्होंने भृत्य से कहा – “मुझे जिन्होंने बुलाया है, वह कहां है? मैं अधिक ठहर नहीं सकता।”

बूढ़े ने कहा- “वह क्षण-भर में अभी आती हैं।”

क्षण-भर में वह आई। बसन्तलाल ने पहचान लिया। हेमलता है। वह उठ खड़े हुए।

उन्होंने पूछा- “आप ? मैंने यही सोचा था !”

हेमलता ने शान्त स्वर में कहा – “बैठिए, आप प्रसन्न तो हैं ?”

बसन्तलाल ने देखा, वह दुबली, फीकी, रोगी हो रही है। उसके रसीले नेत्रों का वह तेज, सदा हंसते हुए चेहरे की वह चमक सब मिट चूकी है। आंखों के चारों ओर कालौस दौड़ रही है। वह रूप-लावण्य जाता रहा है।

उनका कलेजा हिल गया । हेमलता की बात उन्होंने सुनी नहीं। उन्होंने पूछा – “परन्तु आपको मैं इस दशा में देखने की स्वप्न में भी कल्पना नहीं करता था !”

हेमलता ने हंसकर कहा – “आप साहित्यिक हैं अवश्य, किन्तु सभी बातों की कल्पना तो आप कर नहीं सकते । कवि की कल्पनाएं तो काल्पनिक होती हैं। वस्तु- दर्शन तो दुखियों को ही होता है।”

बसन्तलाल उस हंसी को न देख सके, उनकी आंखें भर आईं। हेमलता भी रोई ।

बसन्तलाल ने उसे अपने जीवन की व्यथा कहने को विवश किया। उन्होंने पूछा – “तुम्हारे पति कहां हैं?”

‘जेल में। कुछ जाल करने के जुर्म में उन्हें सात वर्ष की जेल हुई है। अभी ढाई वर्ष ही व्यतीत हुए हैं।’

‘मैंने सुना था, उनकी बहुत जायदाद थी, और वह बड़े आदमी थे। किसी स्टेट में सेक्रेटरी थे ।’

‘अपनी जायदाद मेरे नाम लिखकर ही उन्होंने मुझसे ब्याह करने में कामयाबी हासिल की थी, क्योंकि माता जी की कमजोरी को उन्होंने ठीक समझ लिया था । पर पीछे मालूम हुआ कि जायदाद उनकी सब पहले ही रेहन थी, उन पर काफ़ी क़र्ज़ था । उनका वह हिबेनामा पीछे नाजायज़ ठहरा, सब जायदाद नीलाम हो गई। कुछ भी न बचा। उन्हें शराब पीने की अज़हद आदत थी, और शराब के साथ जो दुर्गुण हो जाते हैं, वे भी उनमें आ गए थे। नौकरी जाती रही। मुझे माता जी से जो कुछ मिला था, वह भी ख़र्च हो गया ।’

‘माता जी कहां हैं?’

‘उनका तो स्वर्गवास हो गया । ‘

बसन्तलाल का कलेजा मुंह को आ रहा था । उन्होंने कहा क्षमा करना, मैं जानना चाहता हूं कि आपकी गुज़र कैसे होती है ? रंग-ढंग से तो कुछ-कुछ समझ गया हूं।

हेमलता ने ठंडी सांस भरकर कहा – “यहां कन्या पाठशाला में एक नौकरी मिल गई है। दस रुपए मिलते हैं। पांच बच्चे हैं। उनकी पढ़ाई में भी काफ़ी ख़र्च हो जाता है।”

बसन्तलाल चुपचाप कुछ सोचने लगे। उन्होंने आंख उठाकर हेमलता को देखना चाहा, पर देख न सके।

हेमलता ने हंसकर पूछा – “वह कैसी हैं ? कभी दिखलाइएगा नहीं ?”

बसन्तलाल भी हंस दिए। उन्होंने एक बार हेमलता की ओर देखा, और फिर अन्यत्र देखते हुए कहा – “विवाह मेरे भाग्य में न था, लता ! मैंने जीवन-भर अविवाहित रहने का प्रण करके ही लाहौर छोड़ा था।”

हेमलता के सुन्दर होंठ कांपने लगे। उसने उसी भांति कांपते हुए कहा – “क्यों ?”

‘क्या भूल गईं ? उस रोज़ हम लोगों ने क्या प्रतिज्ञा की थी ? तुमने कहा था, मर्द कभी प्रतिज्ञा नहीं निबाहते। उस समय मैं चुप हो गया था। आज भी चुप हूं। जीवन के अन्त में यदि मिल सकोगी, तो कहूंगा – देखो, यह मर्द की प्रतिज्ञा !’

हेमलता की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे। वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर कुछ कह न सकी। वह बड़ी देर तक रोती रही ।

कुछ देर बाद साहस करके बसन्तलाल ने कहा- “लता, क्या तुम्हारे मन में मेरा कुछ आदर है ?”

‘आदर, सिर्फ़ आदर?’ हेमलता ने आंसू भरी आंखों से उन्हें देखकर कहा ।

बसन्तलाल ने इस बार धरती की ओर ताककर कहा- “हां लता, सिर्फ़ आदर ही की बात मैं पूछता हूं, और कोई बात ज़बान पर न लाना।”

हेमलता ने कम्पित स्वर में कहा- ” मैं आपका देवता की भांति आदर करती हूं ।”

‘तब तुम मेरी बात सुनो। पति के लौट आने तक मेरा कुछ धन ग्रहण कर लो।’

हेमलता के आंसू सूख गए। उसने कहा – “मेरा पति पतित तो है, पर मैं पति पद की प्रतिष्ठा की रक्षा करूंगी। आपका धन मैं नहीं लूंगी। मुझे कोई कष्ट नहीं है । परन्तु आप मेरी एक बात मानें, तो कहूं।”

‘कहो।’

‘आप अवश्य ही ब्याह कर लें। मैं विनती करती हूं, हा-हा खाती हूं, यदि मेरा दुख दूर किया चाहते हो तो ।’

वह धरती पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी, फूट-फूटकर रोने लगी।

बसन्तलाल का धैर्य च्युत हो रहा था। उन्होंने कहा – “उठो लता, मैं तुम्हें छू नहीं सकता। मेरे सामने इतना न तडपो, तम्हारा यह वेश ही मेरे दर्द के लिए बहत है । अपना अनुरोध भी वापस ले लो। जिस प्रतिष्ठा की रक्षा के विचार से तुम मेरा धन नहीं ग्रहण करतीं, उसी प्रतिष्ठा की रक्षा के विचार से इस जन्म में मैं विवाह नहीं कर सकता । हेमलता, ईश्वर जानता है, मैं तुम्हारी अपेक्षा अधिक सुखी हूं। अफ़सोस यही है, तुम्हें उस सुख में से कुछ भी नहीं दे सकता ।”

हेमलता कुछ देर धरती पर पड़ी रही । बसन्तलाल कुछ देर सोचते बैठे रहे । फिर आकर खड़े हुए। उन्होंने कहा उठो लता, तुम महावीर स्त्री हो, तुम धन्य हो । मुझे हंसकर विदा दो। मैं जा रहा हूं।

हेमलता उठ खड़ी हुई। उसने आंचल सिर पर खिसकाकर ठीक किया। उसकी आंखों में वेदना और करुणा नाच रही थी । उसने कहा- जा ही रहे हो ?

‘हां लता !’

‘कभी पत्र लिखूं?’

‘नहीं, ऐसा कभी न करना ।’

‘कभी मिलोगे ?’

‘नहीं, कभी नहीं । ‘

‘कभी नहीं ?’

‘नहीं, कभी नहीं ।’

कुछ देर वह चुप रही। उसके नेत्रों में एक अद्भुत ज्योति चमकी। उसने धरती पर बैठकर बसन्तलाल के चरण छुए, माथा टेका, फिर कहा-

‘आशीर्वाद तो दोगे ?’

‘सदैव।’

**समाप्त**

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