ग्यारहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Gyarahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

ग्यारहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Gyarahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Gyarahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Gyarahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

सूर्य अस्त हो चुका था, पर वह चंद्रमा जो सूर्य अस्त्र होने के पहले ही से आसमान पर दिखाई दे रहा था। अब खूब तेजी के साथ माहताबी रोशनी फैलाकर रनबीरसिंह को रास्ता दिखाने और चलने में मदद करने लगा और ये भी खुशी से फूले हुए उस सवार के साथ जाने लगे। कभी-कभी कहते थे कि कदम बढ़ाए चलो जिसके जवाब में वह खत लानेवाला सवार कहता था कि राह ठीक नहीं है और जैसे-जैसे हम लोग बढ़ेगे और भी खराब मिलता जाएगा, इसलिए धीरे ही धीरे चलना मुनासिब होगा। लाचार रनबीरसिंह उसी के मन माफिक चलते थे, फिर भी अगर ये उस स्थान को जानते होते जहां जाने की हद्द से ज्यादे खुशी थी तो उस सवार की बात कभी न मानते और पत्थरों की ठोकर खाकर गिरने, सिर फूटने या मरने तक का भी खौफ न करके जहां तक हो सकता तेजी के साथ चलकर अपने को वहां पहुंचाते, जहां के लिए रवाना हुए थे।

राह की खराबी के बारे में उस सवार का कहना झूठ न था। जैसे–जैसे आगे बढ़ते थे, रास्ता ऊंचा-नीचा और पथरीला मिलता जाता था और यह भी मालूम होता था कि धीरे-धीरे पहाड़ के ऊपर चढ़ते जा रहे हैं, मगर यह चढ़ाई सीधी न थी, बहुत घूम फिर कर जाना पड़ रहा था।

आधी रात तक तो इन लोगों को चंद्रमा की मनमानी रोशनी मिली जिसके सबब से चलने में बहुत तकलीफ न हुई मगर अब चंद्रमा भी अपने घर के दरवाजे पर जा पहुंचा था और जंगल बहुत घना मिलने लगा। जिसके सबब से चलने में बहुत तकलीफ होने लगी, यहां तक कि घोड़े से उतरकर पैदल चलने की नौबत पहुंची।

थोड़ी देर तक बड़ी तकलीफ के साथ अंधेरे में चलने के बाद साथी सवार अटक गया। रिनवीरसिंह ने रुकने की सबब पूछा जिसके जवाब में उसने कहा, ‘‘हम लोग अपने ठिकाने के बहुत पास आ चुके है; मगर अब अंधेरे के सबब रास्ता बिलकुल नहीं मालूम होता और यह जंगल ऐसा भयानक और रास्ता ऐसा खराब है कि अगर जरा भी भूलकर इधर-उधर टसके तो कोसो भटकना पड़ेगा!’’

रनबीर–फिर क्या करना चाहिए?

सवार–देखिए मैं अभी पता लगाता हूं।

यह कह उस सवार ने अपनी कमर में से एक छोटी-सी बिगुल निकालकर बजाई और इधर-उधर घूम-घूमकर देखने लगा। थोडी ही देर बाद एक रोशनी दिखालाई पड़ी, जिसे देखते ही इसने फिर बिगुल फूंकी। अब वह रोशनी इन्हीं की तरफ आने लगी। धीरे-धीरे यह मालूम हुआ कि एक आदमी हाथ में मशाल लिए चला आ रहा है। जब वह इनके पास आया तो रोशनी में इन दोनों की सूरत देख बोला, आइए हम लोग बड़ी देर से राह देख रहे हैं।’’

यहां से फिर घोड़े पर सवार हो मशाल की रोशनी में रवाना हुए। थोड़ी दूर जाकर एक खुले मैदान में पहुंचे। रनबीरसिंह खड़े हो चारों तरफ देखने लगे मगर अंधेरे में कुछ मालूम न हुआ। हां इतना जान पड़ा कि जंगल के बीच में यह एक छोटा-सा मैदान है जिसमें दस-पांच-बड़े-बड़े दरख्तों के सिवाय छोटे-छोटे जंगली पेड़ बहुत कम हैं।

थोड़ी दूर और बढ़कर पत्तों से बनी एक झोंपड़ी नजर पड़ी जिसके चारो तरफ पत्तों ही की टट्टियों से घेरा किया हुआ था। टट्टी के बाहर चारों तरफ सैकड़ों ही आदमी मैदान में पड़े थे तथा छोटी-छोटी और भी कुटियां पत्तों की बनी इधर-उधर नजर आ रही थीं।

रनबीरसिंह के पहुंचते ही सब-के-सब उठ खड़े हुए और कई आदमियों ने उनके सामने आकर अदब के साथ सलाम किया। एक ने सवार से कहा, ‘‘उधर चलिए, वहां सोने बैठने का सब सामान दुरुस्त है।’’

सवार के साथ रनबीरसिंह दूसरी तरफ गए जहां साफ जमीन पर फर्श लगा हुआ था। घोड़े से उतरकर फर्श पर जा बैठे, खिदमत के लिए कई खिदमतगार हाजिर हुए, कोई पानी ले आया, कोई पंख झलने और कोई पैर दबाने लगा।

इतने ही में एक लौंडी आई और हाथ जोड़कर रनबीरसिंह से बोली, आपके आने की खबर सरकार को मिल चुकी है। अब रात बहुत थोड़ी बाकी है, इसी जगह दो घंटे आराम कीजिए, सुबह को मिलना मुनासिब होगा। यह कह कर जवाब की राह न देख लौंडी वहां से चली गई।

रनबीरसिंह को भला नींद क्यों आने लगी थी तरह-तरह के खयाल दिमाग में पैदा होने लगे, कभी तरददुद, कभी रंज, कभी क्रोध और कभी खुशी, इसी हालत में सोचते-विचारते रात बीत गई, सवेरा होते ही एक लौंडी पहुंची और हाथ जोड़कर बोली, ‘‘अगर तकलीफ न हो तो मेरे साथ चलिए!’’

रनबीरसिंह तो यह चाहते ही थे, तुरंत उठ खड़े हुए और लौंडी के साथ-साथ उसी पत्तोंवाले घेरे में गए जिसके अंदर पत्तों ही की कुटी बनी हुई थी।

इस समय ऐसे जंगल में पत्तों की इस कुटी को ही अच्छी-से-अच्छी इमारत समझना चाहिए, जिसमें खासकर रनबीरसिंह के लिए, क्योंकि इसी झोपड़ी में आज उन्हें एक ऐसी चीज मिलनेवाली है जिससे बढ़ के दुनिया में वह कुछ भी नहीं समझते, या ऐसा कहना ठीक होगा कि किसी चीज पर उनकी जिंदगी का फैसला है। इसके मिलने ही से वह दुनिया में रहना पसंद करते हैं, नहीं तो मौत ही उनके हिसाब से बेहतर है।

और वह चीज क्या है? महारानी कुसुम कुमारी!! जैसे ही रनबीरसिंह उस घर के अंदर जाकर झोंपड़ी के पास पहुंचे कि भीतर से महारानी कुसुम कुमारी उनकी तरफ आती दिखाई पड़ी।

अहा, इस समय की छवि भी देखने ही लायक है! बदन में कोई जेवर न होने पर भी उनके हुस्न और नजाकत में किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा था। सिर्फ सफेद रंग की एक सादी साड़ी पहने हुए थीं, जिसके अंदर से चंपे का रंग लिए हुए गोरे बदन की आभा निकल रही थी, सिर के बाल खुले हुए थे जिसमें से कई घूंघरवाली लटें गुलाबी गालों पर लहरा रही थीं, काली-काली भौहें कमान की तरह खिंची हुई थीं, जिनके नीचे की बड़ी-बड़ी रतनार मस्त आंखें रनबीरसिंह की तरफ प्रेम बाण चला रही थीं।

पाठक, हम इनके हुस्न की तारीफ इस मौके पर नहीं करना चाहते क्योंकि यह कोई श्रृंगार का समय नहीं, बल्कि एक वियोगिनी महारानी के ऐसे समय की छवि है जबकि खदेड़ा हुआ वियोग देखते-देखते उनकी आंखों के सामने से भाग रहा है। आज मुद्दत से उन्होंने इस बात पर ध्यान भी नहीं दिया कि श्रृंगार क्या होता है या गहना जेवर किस चिड़िया को कहते हैं, सुख का नाम ही नाम सुनते हैं या असल में वह कुछ है भी। हां, आज उनको मालूम होगा कि चीज का मिलना कैसा आनंद देता है जिसके लिए वर्षों रो-रोकर बिताया हो और जीते जी बदन को मिट्टी मान लिया हो।

यह महारानी कुसुम कुमारी वही हैं, जिनकी मूरत अपनी मूरत के साथ पहले पहल पहाड़ पर रनबीरसिंह ने देखी थी और निगाह पड़ते ही पागल हो गए थे या जिसे देखते ही जसवंतसिंह की भी नीयत ऐसी खराब हो गई थी कि उसने बालेसिंह से मिलकर रनबीरसिंह को मरवा ही डालना पसंद किया था और यह वही महारानी कुसुम कुमारी है जिसके मरने की खबर सुनकर ही बालेसिंह ने रनबीरसिंह और जसवंत को कैद से छुट्टी दे दी थी। उसी महारानी कुसुम कुमारी को जीती जागती और मिलने के लिए स्वयं सामने आती हुई रनबीरसिंह देख रहे हैं, क्या यह उनके लिए कम खुशी की बात है?

रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी की चार आंखें होते ही दोनों मिलने के लिए एक दूसरे की तरफ झपटे, कुसुम कुमारी दौड़कर रनबीरसिंह के पैरों पर गिर पड़ी और आंखों से गरम आंसू बहाने लगी। रनबीरसिंह जल्दी से उसी जगह घास पर बैठ गए और कुसुम कुमारी को दोनों बाजू पकड़ के उठाया।

हद्द दर्जे की बढ़ी हुई खुशी भी कुछ करने नहीं देती। सिवाय इसके कि कुसुम कुमारी की दोनों कलाई पकड़ उसके मुंह की तरफ देखते रहें, रनबीर से और कुछ न बन पड़ा। इसी हालत में बैठे-बैठे आधे घंटे से ज्यादे दिन चढ़ आया और सूर्य की किरणों ने इनका चेहरा पसीने-पसीने कर दिया।

चालाक और वफादार लौंडियां बहुत कुछ कह सुनकर इन दोनों को होश में लाई और उस पत्तेवाली झोंपड़ी के अंदर ले गईं। इसके भीतर सुंदर फर्श बिछा हुआ था, जिस पर वे दोनों बैठे और धीरे-धीरे बातचीत करने की नौबत पहुंची।

रनबीर–मेरे लिए तुमको बहुत कष्ट उठाना पड़ा।

कुसुम–मुझे किसी बात की तकलीफ नहीं हुई, हां, इस बात का रंज जरूर है कि इसी कंबख्त की बदौलत बालेसिंह के कैदखाने में आपको दुःख भोगना पड़ा।

रनबीर–वहां मैं बड़े आराम से रहा, जो-जो तकलीफें तुमने उठाई हैं उसका सोलहवां हिस्सा भी मुझे नहीं उठानी पड़ीं। हाय, आज तुमको अपनी आंखों से इस जंगल मैदान में पत्तों की झोंपड़ी बना तपस्विनी बन दिन भर की गर्मी और गर्म-गर्म लू में शरीर सुखाते देखना पड़ा!

कुसुम–बस-बस, इस समय ये सब बातें अच्छी नहीं मालूम होती, जो हुआ सो हुआ, अब तो मेरे ऐसा भाग्यवान कोई है ही नहीं! (हंसकर) आपके दोस्त जसवंतसिंह बहादुर कहां है?

रनबीर–हाय-हाय, उस नालायक हरामजादे ने तो गजब ही किया था! बालेसिंह के घर से निकलते ही अगर तुम्हारी चिट्ठी मुझे न मिलती तो न मालूम अभी और क्या भोग भोगना पड़ता। तुम्हारे मरने की खबर सुनकर मैंने निश्चय कर लिया था कि किसी ऐसी जगह जाकर अपनी जान दे देनी चाहिए कि वर्षों सर पटकने पर भी किसी को मालूम न हो कि रनबीर कहां गया और क्या हुआ। ऐसे वक्त में तुम्हारी चिट्ठी ने दो काम किए, एक तो मुझे मरते-मरते बचा लिया, दूसरे विश्वासघाती जसवंत से जन्मभर के लिए छुट्टी दिलाई, नहीं तो वह फिर भी मेरा दोस्त ही बना रहता। सच तो यह है कि मुझे उसकी दोस्ती का पूरा विश्वास था, यहां तक कि बालेसिंह के कहने पर भी मेरा जी उसकी तरफ से नहीं हटा था।

इसके बाद रनबीरसिंह ने अपने बालेसिंह के हाथ में फंसने१ जसवंत का वहां पहुंचकर बालेसिंह से मेल करने की धुन लगाने, बालसिंह का जसंवत की बदनीयती का हाल कहने, जसवंत के कैद होने, कुसुम कुमारी के पास चिट्ठी भेजने और उनके मरने की खबर पाकर अपने छूटने का हाल पूरा-पूरा कहा, जिसे महारानी बड़े गौर के साथ सुनती रहीं।

पहाड़ पर जब रनबीरसिंह कुसुमकुमारी की ओर अपनी मूरत देखकर पागल हो गए थे उसी समय पता लगाकर बालेसिंह ने धोखे में गिरफ्तार करवा लिया था। पहाड़ से उतरकर पहली मर्तबा गाँव में आते समय जो कई सवार जसंवतसिंह को मिले थे, वे बालेसिंह ही के नौकर थे यह ऊपर जनाया जा चुका है और पाठक भी समझ ही गए होंगे।)

कुसुम–अपने मरने की झूठी खबर उड़ाने के सिवाय बालेसिंह की कैद से आपको छुड़ाने की कोई तरकीब मुझे न सूझी और ईश्वर की कृपा से वह तरकीब पूरी भी उतरी।

रनबीर–ओह!!

कुसुम–मैं कई दिन पहले ही बीमारे बनकर बाग में चली गई थी। जो कुछ मेरा इरादा था वह सिवाय मेरे नेक दीवान के और कोई भी नहीं जानता था। हां लोंडियों को जरूर मालूम था । ऐसे वक्त में दीवान ने भी दिलोजान से कोशिश की और कई जासूसों के जरिए बराबर बालेसिंह के यहां की खबर लेता रहा। यह भी मुझे मालूम हो गया था कि बालेसिंह का आदमी आपके हाथ की चिट्ठी लेकर आया है, अस्तु उसी वक्त मैंने यह काम पूरा करने का मौका बेहतर समझा। (मुसकुराकर) शहर भर को विश्वास हो गया कि कुसुम कुमारी मर गई, बेचारे दीवान को उस समय राजकाज सम्हालने में बड़ी ही मुश्किल हुई!

रनबीर–अब तुम्हें अपने घर लौट चलना चाहिए।

कुसुम-नहीं-नहीं, बिना दुष्ट बालेसिंह की फंसाए मैं घर न जाऊंगी, और इसके लिए जो कुछ बंदोबस्त किया गया है आप जानते ही होंगे।

रनबीर-हां, मैं तो सब कुछ जानता हूं। वह कुछ ऐसा ही मौका था कि धोखे में उसने मुझे फंसा लिया, सो भी तुम्हारे मिलने की खुशखबरी अगर वह मुझे न देता तो जरूर अपनी जान से हाथ धोता, पर अब मैं उसे कुछ भी नहीं समझता, उसके घमंड तोड़ भी चुका हूं!

कुसुम–(मुसकुराकर) जी हां, मैं सुन चुकी हूं–तो भी मैं चाहती हूं कि घर पहुंचने के पहले बालेसिंह पर कब्जा कर लूं।

रनबीर–खैर, अगर यही मर्जी है तो दो ही चार दिन में तुम्हारे इस हौंसले को भी पूरा किए देता हूं।

कुसुम–हाय उस कबख्त ने मेरे साथ जो कुछ सलूक किया जब मैं याद करती हूं कलेजा पानी हो जाता है! (आंसू की बूंदे गिराकर) हाय हाथ, अगर आज मेरे बाप या मां ही होती तो यह नौबत क्यों पहुंचती? (कुछ सोचकर) नहीं-नहीं, मुझे इसकी भी शिकायत नहीं है, क्योंकि…

रनबीर–(कुसुम का नर्म पंजा अपने हाथी में लेकर) है, यह क्या? बस–बस, देखो तुम्हारी आंसू की बूंदे मेरे दिल के साथ वह बर्ताव कर रही हैं जो बंदूक से निकले हुए छर्रे गुलाब की डाल पर बैठी हुई बेचारी बुलबुल के साथ कहते हैं!

कुसुम–(आंसू पोंछकर) नहीं-नहीं, ऐसा न कहो, बल्कि यही कहो कि ईश्वर करे ये आंसू की बूदें बालेसिंह के लिए प्रलय का समुद्र हो जिसमें उसकी उम्र की टूटी हुई किश्ती का कहीं पता भी न लगे!

देर तक बातचीत होती रही। आज का दिन इन दोनों आशिक माशूकों के लिए कैसी खुशी का था इसे वही खूब समझ सकता था जिसे कभी ऐसा मौका पड़ा हो। जिसे जी प्यार करता हो, जिसके मिलने की उम्मीद में तनोबदन की सुध भुला दी हो, जिसके मुकाबले में दुनिया की कुल नियामतें तुच्छ मालूम होती हों, जिसके बिना जिंदगी दुश्वार हो गई हो, वह अगर मिल जाए तो क्या खुशी का कुछ ठिकाना है? मगर दुनिया भी अजीब बेढब जगह है, यहां रहकर खुशी से दिन बिताना किसी बड़े ही जिंदादिल का काम है, नहीं तो ऐसा कौन है जिसे किसी-न-किसी बात की फिक्र न हो, किसी-न-किसी तरह का गम न हो, किसी-न-किसी किस्म का दुःख न हो, सच पूछिए तो सुख के मुकाबले में दुःख का पल्ला हरदम भारी ही रहता है, अगर किसी को एक तरह की खुशी है तो जरूर दो तरह का रंज भी होगा। यहां तो जिनका दिल मजबूत है, या जो दुनिया को सराय समझकर अपना दिन बिता रहे हैं, वे ही मजे में है। और सभी को जाने दीजिए, आशिक माशूकों के लिए तो दुःख मानों बांटे पड़ा है, यों जो कहिए उन्हीं के लिए बनाया ही गया है।

देखिए आधी रात का समय है, चारों तरफ सन्नाटा है, निद्रादेवी ने निशाचर छोड़ सभी जानदारों पर अपना दखल जमा रखा है और थोड़ी देर के लिए सभी के दिल से दुःख-सुख का दौर हटा उन्हें बेहोश करके डाल दिया है। इस समय वही जाग रहा है, जो चोरी की धुन में वा छप्पर कूद जाने या सेंध लगाने की फिक्र में है, या उसी की आंखों में नींद नहीं है जो किसी माशूक के आने की उम्मीद में चारपाई पर लेटा-लेटा दरवाजे की तरफ देख रहा है, जरा खटका हुआ और दिल उछलने लगा कि वह आए, जब किसी को न देखा एक लंबी सांस ली और समझ लिया कि यह सब हवा महारानी की शैतानी है। हां, खूब याद आया, इस समय उस बेदर्द की आंखों में भी नींद नहीं है जो अपना दुश्मन समझकर किसी बेदिल बेचारे का नाहक ही खून करने का मौका ढूंढ़ रहा है, जरूर ऐसा ही है क्योंकि यहां भी ऐसा ही कुछ उपद्रव हुआ चाहता है।

इन सभी के सिवाय रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी की मुहब्बत और लालच भरी आंखों में अभी तक नींद का नाम निशान नहीं है। एक को देख दूसरा मस्त हो रहा है, इस चांदनी ने इन दोनों के चुटीले दिलों को और भी चरका दिया है, हाथ में हाथ दिए झोंपड़ी के बाहर पत्तों की चारदीवारी के अंदर टहल रहे हैं, दीन दुनिया को भूले हुए है, इस बात का गुमान भी नहीं कि अभी थोड़ी ही देर में कोई बला ऐसी आनेवाली है कि जिसके सबब से यह सब सुख सपने की संपत्ति हो जाएगा और रोते-रोते आंखों को सुजाना पड़ेगा।

लीजिए, अब अंधेरा हुआ ही चाहता है। ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए पूरब तरफ की टट्टी तक पहुंचे जहां कोने की तरफ सब्ज टट्टी की आड़ में सब्ज ही कपड़ा पहने मुंह पर नकाब डाले एक आदमी छिपा खड़ा है। न मालूम कब टट्टी फांदकर आ पहुंचा, किस धुन में लगा है और इन दोनों की तरफ टकटकी बांधे गजब भरी निगाहों से क्यों देख रहा है?

देखिए ये दोनों हद्द तक पहुंच गए और उस दुष्ट का मतलब भी पूरा हुआ। जैसे ही दोनों ने लौटने का इरादा किया कि वह हरामजादा इन पर टूट पड़ा और अपनी बिलकुल ताकत खर्च करके पीछे से रनबीरसिंह के सर पर ऐसी तलवार लगाई कि वह चक्कर खा जमीन गिर पड़े। जब तक चौंकी हुई कुसुम कुमारी फिर कर देखे तब तक तो वह टट्टी के पार हो गया और बाहर से ‘चोर चोर! धरो धरो!!’’ की आवाज आने लगी।

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