डाक्टर साहब की घड़ी आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी  | Doctor Sahab Ki Ghadi Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

डाक्टर साहब की घड़ी आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी , Doctor Sahab Ki Ghadi Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani Hindi Short Story 

Doctor Sahab Ki Ghadi Acharya Chatursen Shastri

(एक अद्भुत घड़ी की चोरी का मनोरंजक किस्सा, जिसका चोर एक प्रतिष्ठित सद्गृहस्थ था।)

डाक्टर वेदी एम० डी०रियासत के पुराने और प्रख्यात डाक्टर हैं। अपने गत पचास वर्ष के लम्बे जीवन में उन्होंने बड़े-बड़े मार्के के इलाज किए हैं। सिर्फ अपनी ही रियासत में नहीं, रियासत से बाहर भी अनेक राजपरिवारों में उनकी वैसी ही प्रतिष्ठा और धूमधाम है। उन्होंने बहुत धन कमाया; एक से एक बढ़कर अनूठी चीजें रईसों से इनामों और भेंटों में लीं। उनका ड्राइंगरूम उन चीज़ों से ठसाठस भरा हुआ है। वे फुरसत के वक्त अक्सर इसी ड्राइंगरूम में बैठकर अपने दोस्तों को उन भेंटों में पाई हुई चीज़ों के सम्बन्ध में एक से एक बढ़कर अद्भुत बातें सुनाया करते हैं। कोई-कोई बात तो बड़ी ही सनसनी-भरी, आश्चर्यजनक और अत्यन्त प्रभावशाली होती है। अब वे प्रैक्टिस नहीं करते, यों कोई पुराना प्रेमी घसीट ले जाए तो बात जुदी है। पाने-जानेवालों का तो उनके यहां तांता ही लगा रहता है; क्योंकि वे मिलनसार, खुशमिजाज, उदार और ‘नेकी कर कुएं में डाल’ वाली कहावत को चरितार्थ करनेवाले पुरुष हैं। उनका लम्बा-चौड़ा डीलडौल, साढ़े तेरह इंच की बड़ी मूंछे, मोटी और भरी हुई भौंहें, तेज़ नुकीली नाक और मर्मभेदिनी दृष्टि असाधारण हैं। छोटे से बड़े तक उनका रुआब है, पर वे छोटे-बड़े सबपर प्रेम-भाव रखते हैं। वे वास्तव में एक सहृदय और दयावान पुरुष हैं; भाग्यवान भी कहना चाहिए। उनका जीवन सदा मजे में कटा और अब भी मज़ में ही कट रहा है। वे सब प्रकार के शोक, सन्ताप, चिन्ता और वेदना से मुक्तः आनन्दी पुरुष की भांति रहते हैं। बूढ़े भी उनके दोस्त हैं और जवान भी; बालक भी दोस्त हैं। अपने पास आते ही वे सबको निर्भय कर देते हैं; ऐसा ही उनकाह सरल स्वभाव है।

हां, तो मैं यह कह रहा था कि उन्होंने बड़े-बड़े मार्के के इलाज किए हैं और बड़े-बड़े इनाम-इकराम और भेटें प्राप्त की हैं, और इनाम और भेंटों की ये सब अनोखी चीजें उनके ड्राइंगरूम में सजी हुई हैं। बड़ी-बड़ी शेरों और चीतलों की खालें, मगर के ढांचे, असाधारण लम्बे पशुओं के सींग, बहुमूल्य कालीन, अलभ्य कारीगरी की चीजें, दुर्लभ चित्र और भारी-भारी मूल्य की रत्नजटित अंगूठियां, पिनें और कलमें। परन्तु इन सब में अधिक आश्चर्यजनक और बहुमूल्य वस्तु एक घड़ी है। यह घड़ी उन्हें एक इलाज के सिलसिले में नेपाल जाने पर वहां के दरबार से मिली थी। इसका आकार एक बड़े नींबू के समान है और यह नींबू के ही समान गोल है। उसमें कहीं भी घण्टे या मिनट की सुई नहीं, न अंक ही अंकित हैं। सारी घड़ी कीमती प्लाटिनम की महीन कारीगरी से कटी बूटियों से परिपूर्ण है और उसमें उज्ज्वल असल ब्रेज़ील के हीरे जड़े हैं। सिर्फ दो हीरे, जो सबसे बड़े हैं और जिनमें एक बहुत हलकी नीली आभा झकलती है, ऐसे मनोमोहक और कीमती हैं कि उन्हींसे एक छोटी-मोटी रियासत खरीद ली जा सकती है। उनमें जो बड़ा और तेजस्वी हीरा है उसपर उंगली की पोर के एक हलके-से स्पर्श का दबाव पड़ते ही घड़ी अत्यन्त मोहक सुरीली तान में घण्टा, मिनट, सैकंड सब बजा देती है। उसकी गूंज समाप्त होते-होते ऐसा मालूम देता है मानो अभी-अभी यहां कोई स्वर्गीय वातावरण छाया रहा हो। दूसरे हीरे को तनिक दबा देने से दिन, तिथि, तारीख, पक्ष, मास, संवत् सब ध्वनित हो जाते हैं। यही नहीं, घड़ी में हज़ार वर्ष का कैलेण्डर भी निहित है; हजार वर्ष पहले और आगे के चाहे जिस भी सन का दिन, मास और तारीख आप मालूम कर सकते हैं। ऐसी ही वह आश्चर्यजनक घड़ी है, जिसे डाक्डर साहब अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं। कहते हैं, एक बार हुजूर आलीजाहमहाराज ने पचास हजार रुपये इस घड़ी के डाक्टर साहब को देने चाहे थे, जिसपर डाक्टर साहब ने घड़ी महाराज के चरणों में डालकर कहा था-अन्नदाता, मेरा तन, मन, धन सब आपका है, फिर घड़ी की क्या औकात है; पर इसे मैं बेच तो सकता ही नहीं! और महाराज हंसते हुए चले गए थे। यह घड़ी स्वीडन के एक नामी कलाकार से नेपाल के लोकविख्यात महाराज चन्द्रशमशेर जंगबहादुर ने, जब वे विलायत गए थे, मुंहमांगा दाम देकर खरीदी थी और अपने इकलौते पुत्र के प्राण बचाने पर संतुष्ट होकर उन्होंने वह डाक्टर को दे डाली थी। वह घड़ी वास्तव में नेपाल के उत्तराधिकारी के प्राणों के मूल्य की थी। कमरे के बीचों-बीच बिल्लौर की एक गोल मेज़ थी। यह मेज़ ठोस बिल्लौर की थी, उसका ढांचा ही बिल्लौर का था। सर्पाकार एक पाये के ऊपर मेज़ रखी थी। यह मेज़ खास इसी मकसद के लिए डाक्टर साहब ने खास लन्दन से खरीदी थी। उस मेज़ पर इटली की बनी एक अति भव्य मार्बल की स्त्री-मूर्ति थी। यह मूर्ति रोमन कला की प्रतीक-रूप थी, जिसे डाक्टर साहब ने बड़ी खोज-जांच से खरीदकर उसके हाथ में एक चतुर कारीगर से एक स्प्रिग लगवाया था, जिसमें ऐसी व्यवस्था थी कि घड़ी हमेशा उस पुतली के उसी हाथ में रखी रहती थी। ठीक समय पर घड़ी के हीरे पर स्प्रिंग का दबाव पड़ता तो घड़ी से ताल-स्वर-युक्त मधुर संगीत की ध्वनि निकलती। उस समय जैसे वह प्रस्तर-मूर्ति ही मुखरित हो उठती थी। मित्रगण घड़ी का यह चमत्कार देख, जब आश्चर्यसागर में गोते खाने लगते तो डाक्टर गर्वोन्नत नेत्रों से कभी घड़ी को और कभी मित्रों को घूर-घूरकर मन्द-मन्द मुस्कराया करते थे।

सावन का महीना था। रिमझिम वर्षा हो रही थी। ठण्डी हवा बह रही थी। काले-काले मेघ आकाश में छा रहे थे; बीच-बीच में गम्भीर गर्जन हो रहा था। चारों ओर हरियाली अपनी छटा दिखा रही थी। दिन का तीसरा प्रहर था। डाक्टर साहब अपने तीन घनिष्ठ मित्रों के साथ उसी डाइंगरूम में बैठे आनन्द से धीरे-धीरे वाताप कर रहे थे। उन मित्रों में एक मेजर भार्गव थे, दूसरे दीवान पारख थे, और तीसरे एक नवयुवक मिस्टर चक्रवर्ती आई० सी० एस० थे। एकाएक घड़ी में से मधुर गूंज उठी। मित्रमण्डली चकित होकर घड़ी की ओर देखने लगी। डाक्टर साहब आंखें बन्द किए सोफे पर उढ़ककर उस मधुर स्वरलहरी को जैसे कानों से पीने लगे। जब घड़ी का संगीत बन्द हुआ तो मिस्टर चक्रवर्ती ने कपाल पर आंखें चढ़ाकर कहा-अद्भुत घड़ी है यह आपकी डाक्टर साहब! -यह तो मानो घड़ी की कुछ तारीफ ही न थी। डाक्टर ने सिर्फ मुस्करा दिया। मेजर साहब ने कहा-अद्भुत! अजी, इस घड़ी का तो एक इतिहास है! -फिर उन्होंने डाक्टर की ओर मुंह करके कहा-वह सूबेदार साहब वाली घटना तो इसी घड़ी से सम्बन्ध रखती है न?

डाक्टर साहब जैसे चौंक पड़े। एक वेदना का भाव उनके होंठों पर आया और उन्होंने धीमे स्वर से कहा-जी हां, वह दुःखदायी घटना इसी घड़ी से सम्बन्ध रखती है।

मित्रगण चौकन्ने हो गए। मिस्टर चक्रवर्ती बोल उठे-क्या मैं इस घटना का वर्णन सुन सकता हूं?

डाक्टर ने उदास होकर कहा-जाने दीजिए मिस्टर चक्रवर्ती, उस दारुण घटना को भूल जाना ही अच्छा है, खासकर जब उसका सम्बन्ध मेरी इस परम प्यारी घड़ी से है।

परन्तु मिस्टर चक्रवर्ती नहीं माने, उन्होंने कहा-यह तो अत्यन्त कौतूहल की बात मालूम होती है। यदि कष्ट न हो तो कृपा कर अवश्य सुनाइए। यह ज़रूर कोई असाधारण घटना रही होगी, तभी उससे आप ऐसे विचलित हो गए हैं।

‘असाधारण तो है ही!’ कहकर कुछ देर डाक्टर चुप रहे। फिर उन्होंने एकएक करके प्रत्येक मित्र के मुख पर दृष्टि डाली। सब कोई सन्नाटा बांधे डाक्टर के मंह की ओर देख रहे थे। सबके मुख पर से उनकी दृष्टि हटकर घड़ी पर अटक गई। वे बड़ी देर तक एकटक घड़ी को देखते रहे, फिर एक ठण्डी सांस लेकर बोले आपका ऐसा ही आग्रह है, तो सुनिए!

धीरे-धीरे डाक्टर ने कहना शुरू किया-चौदह साल पुरानी बात है। सूबेदार कर्नल ठाकुर शार्दूलसिंह मेरे बड़े मुरब्बी और पुराने दोस्त थे। वे महाराज के रिश्तेदारों में होते थे। उनका रियासत में बड़ा नाम और दरबार में प्रतिष्ठा थी। उनकी अपनी एक अच्छी जागीर भी थी। वह देखिए, सामने जो लाल हवेली चमक रही है, वह उन्हींकी है। बड़े ठाट और रुझाब के आदमी थे, अपने ठाकुरपने का उन्हें बड़ा घमण्ड था। उनके बाप-दादों ने मराठों की लड़ाई में कैसी-कैसी वीरता दिखाई थी-वे सब बड़ी दिलचस्पी से सुनाया करते थे। वे बहुत कम लोगों से मिलते थे, सिर्फ मुझीपर उनकी भारी कृपादृष्टि थी। जब भी वे अवकाश पाते, या बैठते थे। बहुधा शिकार को साथ ले जाते थे। और हफ्ते में एक बार तो बिना उनके यहां भोजन किए जान छूटती ही न थी। उनके परिवार में मैं ही इलाज किया करता था। मैं तो मित्रता का नाता निबाहना चाहता था और उनसे कुछ नहीं लेना चाहता था, पर वे बिना दिए कभी न रहते थे। वे हमेशा मुझे अपनी औकात और मेरे मिहनताने से अधिक देते रहे। मेरे ऊपर उन्होंने और भी बहुत एहसान किए थे, यहां तक कि रियासत में मेरी नौकरी उन्होंने लगवाई थी और महाराज आलीजाह की कृपादष्टि भी उन्हींकी बदौलत मुझपर थी।

एक दिन सदा की भांति वे इसी बैठकखाने में मेरे पास बैठे थे। हम लोग बड़े प्रेम से धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। वास्तव में बात यह थी कि मैं उनका बहुत अदब करता था। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था, फिर मुझपर तो उनके बहुत-से एहसान थे। एकाएक मुझे जरूरी ‘कॉल’ आ गई। पहले तो सूबेदार साहब को छोड़कर जाना मुझे नहीं रुचा; परन्तु जब उन्होंने कहा कि कोई हर्ज नहीं, आप मरीज़ को देख आइए, मैं यहा बैठा हूं, तब मैंने कहा-इसी शर्त पर जा सकता हूं कि आप जाएं नहीं। तो उन्होंने हंसकर मंजूर किया और पैर फैलाकर मजे में बैठ गए।

मैंने झटपट कपड़े पहने, स्टेथस्कोप हाथ में लिया और रोगी देखने चला गया। रोगी का घर दूर न था। झटपट ही उससे निपटकर चला आया। देखा तो सूबेदार साहब सोफे पर बैठे मज़े से ऊंघ रहे हैं। मैंने हंसकर कहा-वाह, आपने तो अच्छी-खासी झपकी ले ली।-सूबेदार भी हंसने लगे। हम लोग फिर बैठकर गपशप उड़ाने लगे।

उसी दिन पांच बजे मुझे महलों में जाना था। एकाएक मुझे यह बात याद हो आई और मैंने अभ्यास के अनुसार मेज़ पर घड़ी को टटोला। तब तक यह बिल्लौरी मेज़ मैंने नहीं खरीदी थी, वह जो आफिस-टेबिल है, उसीपर एक जगह यह घड़ी मेरी आंखों के सामने रखी रहती थी। परन्तु उस समय जो देखता हूं तो घड़ी का कहीं पता न था! कलेजा धक से हो गया। अपनी बेवकूफी पर पछताने लगा कि इतनी कीमती घड़ी ऐसी अरक्षित जगह रखी ही क्यों? मैं तनिक व्यस्त होकर घड़ी को ढूंढ़ने लगा, मेरी घड़ी कितनी बहुमूल्य है, यह तो आप जानते ही हैं। सूबेदार साहब भी घबरा गए। वे भी व्यस्त होकर मेरे साथ घड़ी ढूंढ़ने में लग गए। बीच में भांति-भांति के प्रश्न करते जाते थे। परन्तु यह निश्चय था कि थोड़ी ही देर पहले जब मैं बाहर गया था, घड़ी वहां रखी थी। मैंने उसे भली भांति अपनी आंखों से देखा था। पर यह बात मैं साफ-साफ सूबेदार साहब से नहीं कह सकता था, क्योंकि वे तब से अब तक यहीं बैठे थे, कहीं वे यह न समझने लगे कि हमींपर शक किया जा रहा है। खैर, घड़ी वहां न थी, वह नहीं मिलनी थी और नहीं मिली। मैं निराश होकर धम्म से सोफे पर बैठ गया पर ऐसी बहुमूल्य घड़ी गुमा देना और सब्र कर बैठना आसान न था। भांति-भांति के कुलाबे बांधने लगा। सूबेदार साहब भी पास आ बैठे और आश्चर्य तथा चिन्ता प्रकट करने लगे। उन्होंने पुलिस में भी खबर करने की सलाह दी, नौकर-चाकरों की भी छानबीन की।

परन्तु मेरा सिर्फ एक ही नौकर था। वह बहुत पुराना और विश्वासी नौकर था। गत पन्द्रह वर्षों से वह मेरे पास था। तब से एक बार भी उसने शिकायत का मौका नहीं दिया। फिर इतनी असाधारण चोरी वह करने का साहस कैसे कर सकता था! पर सूबेदार साहब उससे बराबर जिरह कर रहे थे और वह बराबर मेज़ पर उंगली टेक-टेककर कह रहा था कि यहां उसने झाड़-पोंछकर घड़ी अपने हाथ से सुबह रखी है। मैं आंखें छत पर लगाए सोच रहा था कि घड़ी आखिर गई तो कहां गई।

एकाएक सूबेदार साहब का हाथ उनकी पगड़ी पर जा पड़ा; उसकी एक लट ढीली-सी हो गई थी, वे उसीको शायद ठीक करने लगे थे। परन्तु कैसे आश्चर्य की बात है, पगड़ी के छूते ही वही मधुर तान पगड़ी में से निकलने लगी! पहले तो मैं कुछ समझ ही न पाया। नौकर भी हक्का-बक्का होकर इधर-उधर देखने लगा। सूबेदार साहब के चेहरे पर घबराहट के चिह्न साफदीख पड़ने लगे। क्षणभर बाद ही नौकर ने चीते की भांति छलांग मारकर सूबेदार साहब के सिर पर से पगड़ी उतार ली और उससे घड़ी निकालकर हथेली पर रखकर कहा-यह रही हुजूर आपकी घड़ी! अब आप ही इंसाफ कीजिए कि चोर कौन है?-उसके चेहरे की नसें उत्साह से उमड़ आई थीं और आंखें आग बरसा रही थीं। वह जैसे सूबेदार साहब को निगल जाने के लिए मेरी आज्ञा मांग रहा था। सब माजरा मैं भी समझ गया। सूबेदार साहब का चेहरा सफेद मिट्टी की माफिक हो गया था और वे मुर्दे की भांति आंखें फाड़-फाड़कर मेरी तरफ देख रहे थे। कुछ ही क्षणों में मैं स्थिर हो गया। मैंने लपककर खूटी से चाबुक उतारा और एकाएक पांचसात नौकर की पीठ पर जमा दिए। घड़ी उसके हाथ से मैंने छीन ली।

इसके बाद जितना कुछ स्वर बनाया जा सकता था, उतना क्रुद्ध होकर मैंने कहा: ___’सुअर, इतने दिन मेरे पास रहकर तूने अभी यह नहीं सीखा कि बड़े आदमी का अदब कैसे किया जा सकता है! क्या दुनिया में मेरे ही पास घड़ी है? सूबेदार साहब के पास वैसी पच्चीस घड़ी हो सकती हैं।’

नौकर गाली और मार खाकर चुपचाप मेरा मुंह ताकता रहा। मेरा यह व्यवहार उसके लिए सर्वथा अतकित था। वह एक शब्द भी नहीं बोला।

इसके बाद मैं सूबेदार साहब के पास गया। उनका चेहरा सफेद, मुर्दे के समान हो रहा था। वे आंखें फाड़-फाड़कर मेरी ओर ताक रहे थे। मैंने नम्रता से उनसे कहा-सूबेदार साहब, मेरे नौकर ने जो आपके साथ बेअदबी की है वह उसका कसूर नहीं है, मेरा है; परन्तु पुराने ताल्लुकात और उन कृपाओं का खयाल करके, जो आपने हमेशा मेरे ऊपर की हैं, मैं आपसे क्षमा की आशा करता हूं। यह कहकर मैंने घड़ी उनके हाथ पर रख दी।

सूबेदार साहब ने चुपचाप घड़ी ले ली और वे यन्त्रचालित से उठकर चुपचाप ही अपने घर को चल दिए। मैं द्वार तक उनके पीछे दौड़ा, परन्तु उन्होंने फिर मेरी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा।

मेरा मन कैसा कुछ हो गया था, कह नहीं सकता। परन्तु मुझे महल अवश्य जाना था और पांच बजने में अब देर नहीं थी। मैंने झटपट कपड़े पहने और घर से निकला। अभी मैंने गाड़ी में पैर ही किया था कि सूबेदार साहब का आदमी हांफता हुआ बदहवास-सा आया। उसने कहा-जल्दी चलिए डाक्टर साहब, सूबेदार साहब ने जहर खा लिया है और हालत बहुत खराब है!

मैं घबराकर सीधा उनके घर पहुंचा। एक कोहराम मचा था। भीड़ को पार करके मैं सूबेदार साहब के पलंग के पास गया। अभी वे होश में थे। मुझे देखकर टूटते स्वर में उन्होंने कहा-घड़ी मैंने आपकी चुराई थी डाक्टर साहब, परन्तु जीवन-भर में जो कुछ मैंने आपकी भलाई की थी, मेरी इज्जत बचाकर उसका पूरा बदला आपने चुका दिया। लीजिए मेरे हाथ से अपनी घड़ी ले जाइए। अब मैं ज़िन्दा नहीं रह सकता। परन्तु आप इस चोर सूबेदार को भूलिएगा नहीं और उसे माफ कर देने की कोशिश कीजिएगा।

सूबेदार साहब की आंखें उलटी-सीधी होने लगी। अब वास्तव में कुछ भी नहीं हो सकता था। मैंने चुपके से घड़ी जेब में डाल ली, और सबकी नज़र बचाकर आंखें पोंछ लीं। कुछ मिनटों में ही सूबेदार ने दम तोड़ा और मैं जैसे-तैसे उनके घरवालों को दम-दिलासा देकर डाक्टरी गम्भीरता बनाए अपने घर आ गया।…

डाक्टर ने एक गहरी सांस ली और एक बार मित्रों की ओर, और फिर उस घड़ी की ओर देखा। सभी मित्रों की आंखें गीली थीं और देर तक किसीके मुंह से आवाज़ नहीं निकली।

**समाप्त**

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