दो चेहरे गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी  | Do Chehre Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani

दो चेहरे गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी (Do Chehre Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani Hindi Short Story)

Do Chehre Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani

Do Chehre Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani

शाम का सुनहला केसरिया प्रकाश जंगल में धीरे-धीरे बैंगनी होने लगा। क्षितिज के पास वृक्षों में खोई हुई मस्जिद की ऊँची मीनारों में से एक पर बैंगनी और दूसरे पर नारंगी राग छाया हुआ था। खुले फैले मैदान के बीच-बीच कहीं-कहीं घने वृक्षों में से लम्बी-लम्बी प्रकाश छायाएं लटकती-सी दिखाई दे रही थी। एक वृक्ष की घनी शांत छाया के घेरे में चद्दर डाले दाढ़ी-धारी अधेड़ मुसलमान नमाज़ पढ़ रहा था। उसका व्यक्तित्व रौबदार था और वो शाही ख़ानदान का मालूम होता था। कभी-कभी वो दोनों हथेलियाँ आगे कर ख़ुदा से कुछ मांगता, उसके होंठ बुदबुदाने लगते। उसका चेहरे पर भक्ति की दयनीय भाव फैलते रहते। कभी- कभी वो नमाज़ के दौरान में उठ खड़ा होता और हाथ ने हाथ फंसा ध्यान में मग्न हो जाता। फिर वह नीचे बैठता, ललाट से भूमि स्पर्श करता। तब उसका नितम्ब ऊपर उठ जाता और वह कुछ क्षणों के लिए ध्यान में खो जाता। ऐसे में किसी क्षण में जब उसका नितम्ब-पार्श्व ऊपर उठा हुआ और ललाट भूमि पर लगा हुआ था, उसे एकदम भान हुआ कि किसी ने उसके उठे हुए पिछले भाग पर ठोकर मार दी है। ठोकर सीधे पीछे से नहीं वरन् एक बाजू से लगी और दूसरे बाजू से घिसटती हुई निकल गई। उसका ध्यान टूटा और वह गौर से देखने लगा कि किसने उसे इतनी बेमुरव्वती से ठोकर मारी। उसको दिखाई दिया कि लगभग पचास गज के फ़ासले पर एक नौजवान एक लड़की के साथ बातचीत करता हुआ आगे बढ़ा जा रहा था। दिखाई दे रहा था लड़की का आधा चेहरा खूबसूरत-सा। और उसका रंगीन आँचल हवा में फड़फड़ा रहा था। अधेड़ मुसलमान ने भौंहें सिकोड़ कर जब उन दोनों को देखा, तो ताड़ गया कि वे प्रेमी-प्रेमिका हैं। इस ख़्याल से वह और ज़्यादा उत्तेजित हुआ और उसी क्षोभ में उसने चीख कर पुकारा, “अबे ओ!…इधर आओ!”

पुकार सुन कर वे दोनों ठहर गये। और पीछे मुड़कर उन्होंने दूर एक तमतमाया रोबदार चेहरा देखा। भय, आतंक तथा विघ्न की आशंका से ग्रस्त होकर वे क्षण भर खड़े रहे, फिर लौट पड़े। अधेड़ मुसलमान ने दोनों को सर से पैर तक देखा और तेज़ी से कहा, “क्यों बे! देख कर नहीं चलता!!” दोनों के चेहरे पर निर्दोष, निरीह भाव था। इस व्यर्थ के आरोप से उनकी सूरत फीकी पड़ गई। किन्तु गौर से वे अधेड़ मुसलमान के चेहरे को देखने लगे कि क्या सचमुच उनके किसी तौर-तरीके से उस व्यक्ति को चोट पहुंची है। नौजवान ने अगवानी करते हुए कहा, “माफ़ कीजिए, क्या हमारे हाथ से कोई ख़ता हुई!”

अब उस व्यक्ति का शाही चेहरा और भी चिढ़ गया। उसने चिड़चिड़ा कर कहा, “जानते हो! कौन हूँ मैं?” 

नौजवान और उसकी प्रेमिका आश्चर्य और आतंक से घबराकर सिर्फ़ चुप रहे। और व्यथित भाव से देखने लगे। अधेड़ व्यक्ति को उनकी घबराहट देख कर ज़रा दया आई और उसे अपना नाम कहने में भी हिचकिचाहट हुई। किन्तु उन दोनों को और घबरा डालने के उद्देश्य से उसने कहा, “मैं हूँ तुम्हारा शहंशाह अकबर!” 

नाम सुनकर उस तरुण-तरुणी के चेहरे पर मानो भय की स्याही पुत गई! काटो तो ख़ून नहीं!… उन्होंने शहंशाह के पैर पकड़ लिए और कहा, “हुज़ूर जो भी ग़लती हुई है वह भी अनजाने में हुई है, आप माफ़ करें!” 

उनके स्वर में कातरता थी। अकबर को कहते हुए संकोच तो हुआ, लेकिन कहना ज़रूरी समझा, “मेरे क़रीब से गुज़रते हुए पीछे से लात जमा दी और फिर भी कहते हो कि मालूम नहीं!” 

यह कह कर जब अकबर ने नौजवान और उसकी प्रेमिका की तरफ फिर देखा, तो पाया कि उनके चेहरों पर गहरा भोलापन और मासूमियत है। उसे लगा कि वे झूठ नहीं बोल रहे हैं। अकबर उनके चेहरे के भाव को देखता ही रह गया। देखता ही रह गया मानो आसमान छाया हुआ हो और उसमें एक मस्जिद का सफ़ेद गुम्बज दिखाई दे रहा हो। 

उसने एकदम कहा, “अच्छा जाओ, भागो ! रवाना हो!!”

और तब अकबर ने पश्चिम की तरफ के आसमान की ओर फिर से मुँह करके जब रंगीन धूप को देखा, तो उसकी आँखों के सामने वे दोनों मासूम भोले चेहरे फिर से खिल उठे। उसकी अंदर की ढँकी-मुंदी आवाज़ ने बंधन तोड़कर कहा, ” हाँ वे बातों में इतने मशगूल थे, उनके रास में इतने ज़्यादा डूबे हुए थे कि उन्हें मालूम ही न हो सका कि रास्ते चलते उन्होंने एक ठोकर मार दी है।” 

अकबर ने आँखें मूँद ली। ललाट ज़मीन पर टेककर खुदा से कहने लगा, “या परवर्दिगार! वे दोनों इश्क़ में इतने डूबे हुए हैं कि वे इस दुनिया में ही नहीं रहे। लेकिन अभागा, मैं तेरी इबादत में होते हुए भी, तेरा ध्यान करते हुए भी, दुनिया में जमा रहा। मैं अपने को भूल न सका, खुदा मुझे माफ़ कर…!” 

जब अकबर ने ललाट ज़मीन से फिर उठाया, तो उसकी आँखें गीलेपन में चमक रही थी। लेकिन उसके चेहरे पर संध्या का हल्का केसरी प्रकाश चमक रहा था।

(“नया ख़ून” , जून 1957 में प्रकाशित)

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