दसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Dasva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

दसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Dasva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas Novel In Hindi 

Dasva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri 

Dasva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri 

जसवंत के जाने के बाद रनबीरसिंह कुछ देर तक वहीं खड़े कुछ सोचते रहे, तब पश्चिम की तरफ चले। थोड़ी दूर जाकर इधर-उधर देखने लगे, बाईं तरफ पीपल का एक पेड़ नजर आया, उसी जगह पहुंचे और उस पेड़ को खूब गौर के साथ देख उसके नीचे बैठ गए।

उस पेड़ के नीचे बैठे हुए रनबीरसिंह इस तरह चारों तरफ देख रहे थे जैसे कोई किसी ऐसे आदमी के आने की राह देखता हो जिसे वह बहुत ही ज्यादे मानता हो या जान बचाने के लिए जिसका मिलना बहुत जरूरी समझता हो।

खैर, जो कुछ भी हो, मगर रनबीरसिंह को घड़ी-घड़ी खड़े होकर चारों तरफ देखते-देखते वह पूरा दिन बीत गया और भूख और प्यास से उनकी तबीयत बेचैन हो गई, मगर वह उस जगह से दस कदम भी इधर-उधर न हटे। आखिर शाम होते-होते कई सवार एक निहायत उम्दा घोड़ा कसा-कसाया खाली पीठ और कुछ असबाब लिए उस जगह पहुंचे। एक सवार ने जो सभी का सरदार मालूम होता था घोड़े से उतरकर अपनी जेब से एक चिट्ठी निकाली और रनबीरसिंह को सलाम करने के बाद उनके हाथ में दे दी।

रनबीरसिंह खत खोलकर पढ़ने लगे, जैसे-जैसे पढ़ते जाते थे तैसे-तैसे उनके चेहरे पर खुशी चढ़ती हुई दिखाई देती थी और घड़ी-घड़ी हंसी आती थी। जब खत तमाम हुआ तब उस सवार की तरफ देखकर बोले, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने ऐसा काम किया जो अच्छे-अच्छे चालाकों से होना मुश्किल है, खैर यह तो बताओ कि तुम्हारी फौज यहां कब पहुंचेगी?’’

सवार ने कहा, ‘‘आधी रात के बाद से कुछ-न-कुछ असबाब खेमा वगैरह आना शुरू हो जाएगा बल्कि सुबह होते-होते कुछ फौज भी आ जाएगी, बाकी कल और परसों दो दिन में कुल सामान के ठीक हो जाने की उम्मीद है। लेकिन पूरी फौज यहां इकट्ठी न होगी, वह मुकाम यहां से कुछ दूर है जहां अब मैं आपको ले चलूंगा।’’

रनबीर–इस वक्त तुम्हारी फौज कहां है?

सरदार–इसका जवाब मैं कुछ नहीं दे सकता, क्योंकि आज कई दिनों से कई ठिकाने पर फौजी आदमी बैठे हुए हैं। बालेसिंह की कैद से आपके छूटने की खबर जब मुझको लग चुकी है तब मैंने अपने जासूसों को चारों तरफ रवाना किया है और एक ठिकाने का निशान देकर जहां आज मैं आपको ले चलूंगा ताकीद कर दी है कि जहां तक जल्द हो सके उसी जगह सभी को इकट्ठा करो, इसके बाद अपने सरकार में भी सब बातों की इत्तिला भेज दी थी?

रनबीर–इसके पहले जो चिट्ठी एक सवार के हाथ मुझे मिली थी वह भी तो शायद तुम्हारे सरकार ही के हाथ की लिखी थी?

सवार–जी हां, मगर वह कई दिन पहले की लिखी हुई थी और उस सवार को हुक्म था कि जब आप छूटें उसी वक्त यह चिट्ठी आपको दे।

रनबीर–तो अब उस ठिकाने चलना चाहिए जहां फौज इकट्ठी होगी?

सवार–जी हां, मैं आपकी सवारी का घोड़ा और कपड़े तथा हर्बे वगैरह भी लेता आया हूँ और कुछ खाने का भी सामान लाया हूं आप भोजन कर ले तो चलें।

रनबीरसिंह ने खुशी और जल्दी के मारे भोजन करने से इनकार किया मगर उस सवार की जिद्द से जिसका नाम बीरसेन था। हाथ-मुंह धो कुछ खाना ही पड़ा, इसके बाद उन चीजों में से जो वह सवार इनके लिए लाया था जो कुछ जरूरी समझा लेकर घोड़े पर सवार हुए और वहां से रवाना हुए।

उन सवारी के साथ-साथ कई कोस तक चले गए। आधी रात जाते-जाते एक मैदान में पहुंचे जिसके चारों तरफ घना जंगल और बीच में बहुत से नीम के दरख्त थे, वहां सभी ने घोड़े की बाग रोकी और उस सवार ने रनबीरसिंह से कहा, ‘‘बस यही ठिकाना है जहां सभी को इकट्ठे होने के लिए कहा गया है।’’

इन सभी को वहां पहुंचे अभी कुछ ही देर हुई होगी कि खेमों और डेरों से लदे हुए कई ऊंट उस जगह आ पहुंचे जिनके साथ बहुत से आदमी थे। रात चांदनी होने के कारण रोशनी की कुछ जरूरत न थी। फर्राशों ने खेमा डेरा खड़ा करना शुरू किया और तब तक कुछ-कुछ फौज भी इकठ्टी होने लगी। रनबीरसिंह ने बीरसेन से पूछा, ‘‘आपकी फौज यहां कितनी इक्ट्ठी होगी और उसका सेनापति कौन है?’’

बीरसेन ने कहा, ‘‘फौज दस हजार से ज्यादे नहीं है और उसका सेनापति यही ताबेदार आपके सामने हाजिर है।’’

रनबीर–इसमें ज्यादे फौज की जरूरत ही क्या है?

बीरसेन–आपका कहना ठीक है मगर वह बड़ा ही कट्टर है, और इतने से ज्यादे लड़ाकों का बंदोबस्त कर सकता है।

रनबीर–अफसोस, तुम्हारी हिम्मत बहुत छोटी मालूम होती है।

बीरसेन–मेरी हिम्मत जो कुछ है और होगी यह तो मौके पर आपको मालूम ही होगा मगर आप खुद इसे सोच सकते हैं कि बेसरदार की फौज कहां तक काम कर सकती है और मेरा सरदार किस ढंग का है! हां, आज आपकी ताबेदारी से अलबत्ते हम लोगों का हौसला दूना हो रहा है और बहुत-सा गुस्सा भी मिजाज को तेज कर रहा है।

पांच दिन तक धीरे-धीरे बराबर फौज इकट्ठी होती रही और रनबीरसिंह अपने मनमाफिक उसका इंतजाम करते रहे। छठे दिन उनकी फौज पूरे तौर पर तैयार हो गई और तब रनबीरसिंह ने बीरसेन से कहा, ‘‘अब बालेसिंह के पास दूत भेजना चाहिए।’’

बीरसेन–मेरी समझ में तो एकाएक उसके ऊपर चढ़ाई कर देना ही ठीक होगा।

रनबीर–सो क्यों?

बीरसेन–क्योंकि हमारी नीयत का हाल अभी तक उसे कुछ भी मालूम नहीं और वह बिलकुल बैठा है, ऐसे समय में उसको जीतना कोई मुश्किल न होगा।

रनबीर–नहीं, नहीं, ऐसा कभी न सोचना चाहिए, हम लोग धोखे की लड़ाई नहीं लड़ते!

बीरसेन–बालेसिंह और उसकी फौज बड़ी ही कट्टर है, महारानी के पिता को उसने तीन दफे लड़ाई में जीता और आज तक हमारी महारानी का हौसला कभी न पड़ा कि उसका मुकाबला करें और इसी सबब से उन्होंने कैसी-कैसी तकलीफें उठाईं सो भी आपको मालूम ही हो चुका है।

रनबीर–जो हो, मगर मैं तो उससे कह बद के लडूंगा।

बीरसेन–मैं समझता हूं कि ऐसा करने के लिए महारानी भी आपको मना करेंगी?

रनबीर–मैं इसमें उनकी राय न लूंगा।

इसी तरह की बात बीरसेन से देर तक होती रही यहां तक कि सूर्य अस्त हो गया। उसी समय किसी आदमी ने खेमे के अन्दर आकर रनबीरसिंह के हाथ में एक चिट्ठी दी।

चिट्ठी पढ़ते ही रनबीरसिंह की अजीब हालत हो गई। इतने दिनों तक हर तरह की मुसीबत और रंज उठाने का खयाल तक उनके जी से जाता रहा और गम की जगह खुशी ने अपना दखल जमा लिया, मगर यह खुशी भी अजीब ढंग की थी। दुनिया में कई तरह की खुशी होती है और हर तरह की खुशी का रंग-ढंग और भाव जुदा ही होता है। यह खुशी जो आज रनबीरसिंह को हुई है निराले ही ढंग की है, जिसके साथ कुछ तरद्दुद का लेख भी लगा हुआ है। चिट्ठी पढ़ने के थोड़ी देर बाद रनबीरसिंह की आंखें सुर्ख हो गईं, बदन कांपने और रोमांच होने लगा, सांस तेजी के साथ चलने लगी, बेचैनी के साथ इधर-उधर देखने लगे। मगर थोड़ी ही देर में रंगत फिर बदली, वहां से उठ खड़े हुए और बीरसेन से इतना कहते-कहते खेमे के बाहर हुए–अब मैं कल तुमसे मिलूंगा, किसी जरूरी काम के लिए जाता हूं।

बीरसेन खूब जानते थे कि रनबीरसिंह को किस बात की खुशी है या किस बात पर क्रोध हुआ है, वह किसका आदमी है जिसने इन्हें पत्र दिया और अब ये कहां जा रहे हैं इसलिए घोड़ा तैयार करके हाजिर करने के लिए हुक्म देकर वे खुद भी रनबीरसिंह के साथ-साथ खेमे के बाहर आ गए।

घोड़ा हाजिर किया गया, रनबीरसिंह सवार हुए, वह चिट्ठी लाने वाला भी अपने घोड़े पर सवार हुआ जिसे वह खेमे के बाहर एक छोटे से पेट के साथ बांध गया था। जंगल ही जंगल दोनों पश्चिम की तरफ रवाना हुए।

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