उपसंहार वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Conclusion Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

उपसंहार वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Conclusion Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Conclusion Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Conclusion Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

वैशाली की नगरवधू

एक वर्ष बीत गया । युद्ध जय होने पर भी इस युद्ध के फलस्वरूप वैशाली का सारा वैभव छिन्न – भिन्न हो गया था । इस युद्ध में दस दिन के भीतर 96 लाख नर – संहार हुआ था और नौ लिच्छवि , नौ मल्ल , अठारह कासी – कौल के गणराज्य एक प्रकार से ध्वस्त हो गए थे। वैशाली में दूर तक अधजली अट्टालिकाएं , ढहे हुए प्रासादों के दूह, टूटे – फूटे राजमार्ग दीख पड़ रहे थे। बहुत जन वैशाली छोड़कर भाग गए थे। युवक -योद्धा सामन्तपुत्र विरले ही दीख पड़ते थे । बहुतों का युद्ध में निधन हुआ था । बहुत अंधे, लंगड़े, लूले , अपाहिज होकर दु: ख और क्षोभ से भरे हुए वैशाली के अन्तरायण की अशोभावृद्धि करते थे। देश देशान्तरों के व्यापारी अब हट्ट में नहीं दीख पड़ रहे थे। बड़े-बड़े सेट्रिपुत्र थकित , चिंतित और निठल्ले पड़े रहते थे। शिल्पी – कम्मकर भूखे, असम्पन्न , दुर्बल और रोगाक्रान्त हो गए थे। युद्ध के बाद ही जो भुखमरी और महामारी नगर और उपनगर में फैली थी , उससे आबाल – वृद्ध पटापट मर रहे थे। सूर्योदय से सूर्योदय तक निरन्तर जन -हर्योंमें से जिनमें कभी संगीत की लहरें उठा करती थीं – आक्रोश, क्रन्दन , चीत्कार और कलह के कर्ण- कटु शब्द सुनाई देते ही रहते थे। नगर – सुधार की ओर किसी का भी ध्यान न था । संथागार में अब नियमित सन्निपात नहीं होते थे; होते थे तो विद्रोह और गृह- कलह तथा मत -पार्थक्य ही की बातें सुनाई पड़ती थीं । प्रमुख राजपुरुषों ने राज – संन्यास ले लिया था । नये अनुभवहीन और हीन – चरित्र लोगों के हाथ में सत्ता डोलायमान हो रही थी । प्रत्येक स्त्री – पुरुष असन्तुष्ट , असुखी और रोषावेशित रहता था । लोग फटे-हाल फिरते तथा बात – चीत में कुत्तों की भांति लड़ पड़ते थे। मंगल – पुष्करिणी सूख गई थी और नीलहद्य प्रासाद भूमिसात् हो चुका था । लोग खुल्लमखुला राजपुरुषों पर आक्षेप करते , अकारण ही एक – दूसरे पर आक्रमण करते और हत्या तक कर बैठते थे। अपराधों की बाढ़ आ गई थी । बहुत कुल – कुमारियां और कुल – वधू वेश्या बनकर हट्ट में आ बैठी थीं । उन्हें लज्जा नहीं थी । वे प्रसंग आने पर अम्बपाली का व्यंग्यमय उदाहरण देकर कहतीं हम इन पुरुष – पशुओं पर उसी की भांति शासन करेंगी । इनके धन -रत्नों का हरण करेंगी। यह लोक- सम्मत संस्कृत जीवन है , इसमें गर्हित क्या है ? अकरणीय क्या है ? नगर के बाहर एक योजन जाने पर भी नगर का जीवन , धन अरक्षित था । दस्युओं की भरमार हो गई थी , खेत सब सूखे पड़े थे। ग्राम जनपद सर्वत्र ‘ हा अन्न , हा अन्न का क्रन्दन सुनाई पड़ रहा था । भूख की ज्वाला से जर्जर काले – काले कंकाल ग्राम – ग्राम घूमते दीख पड़ते थे। किसी में किसी के प्रति सहानुभूति , प्रेम और कर्तव्य की भावना का अंश भी नहीं रह गया था । ये सब युद्ध के अवश्यम्भावी युद्धोत्तर परिणाम थे ।

अम्बपाली का द्वार सदैव बन्द रहता था । लोग सप्तभूमि प्रासाद को देख – देखकर क्रोध और आवेश में आकर अपशब्द बकते , तथा अम्बपाली को कोसते थे। सप्तभूमि प्रासाद के गवाक्षों और अलिन्दों से दूर तक शोभा बिखेरने वाला रंग -बिरंगा प्रकाश अब नहीं दीख पड़ रहा था । वहां सिंहपौर पर अब ताजे फूलों की मालाएं नहीं सजाई जाती थीं – न अब वहां पहले जैसी हलचल थी , युद्ध में जो भाग भंग हो गया था , अम्बपाली ने उसकी मरम्मत कराने की परवाह नहीं की थी – जगह- जगह भीतों , अलिन्दों, खम्भों और शिखरों में दरारें पड़ गई थीं , उन दरारों में जंगली घास -फूस, गुल्म उग आए थे। बीच के तोरणों में मकड़ियों ने जाले पूर दिए थे और कबूतरों- चमगादड़ों ने उसमें घर बना लिए थे ।

अम्बपाली के बहुत मित्र युद्ध में निहत हुए थे। जो बच रहे थे, वे अम्बपाली के इस परिवर्तन पर आश्चर्य करते थे। दूर – दूर तक यह बात फैल गई थी कि देवी अम्बपाली का आवास अब मनुष्य -मात्र के लिए बन्द हो गया है । अम्बपाली के सहस्रावधि वेतन – भोगी दास – दासी , सेवक, कम्मकर , सैनिक और अनुचरों में अब कोई दृष्टिगोचर नहीं होता था । जो इने -गिने पाश्र्वद रह गए थे, उनमें केवल दो ही व्यक्ति थे, जो अम्बपाली को देख सकते थे और बात कर सकते थे। एक वृद्ध दण्डधर लल्ल और दूसरी दासी मदलेखा। इनमें केवल वृद्ध दण्डधर को ही बाहर – भीतर सर्वत्र आने- जाने की स्वाधीनता थी । ये ही दोनों यह रहस्य जानते थे कि अम्बपाली को बिम्बसार का गर्भ है ।

यथासमय पुत्र प्रसव हुआ । यह रहस्य भी केवल इन्हीं दो व्यक्तियों पर प्रकट हुआ । वह शिशु अतियत्न से , अतिगोपनीय रीति पर , अति सुरक्षा में उसी दण्डधर के द्वारा यथासमय मगध सम्राट के पास राजगृह पहुंचा दिया गया ।

मगध – सम्राट् बिम्बसार अर्द्ध-विक्षिप्त की भांति राज -प्रासाद में रहते थे। राज -काज ब्राह्मण वर्षकार ही के हाथ में था । सम्राट् प्राय : महीनों प्रासाद से बाहर नहीं आते, दरबार नहीं करते , किसी राजकाज में ध्यान नहीं देते । वे बहुधा रात – रात – भर नंगे सिर, नंगे बदन , नंगा खड्ग हाथ में लिए प्रासाद के सूने खण्डों में अकेले ही बड़बड़ाते घूमा करते । राज सेवक यह कह गए थे। कोई भी बिना आज्ञा सम्राट के सम्मुख आने का साहस न कर सकता था ।

एक दिन , जब सम्राट् एकाकी शून्य- हृदय , शून्य – मस्तिष्क , शून्य – जीवन , शून्य प्रासाद में , शून्य रात्रि में उन्मत्त की भांति अपने ही से कुछ कहते हुए से , उन्निद्र, नग्न खड्ग हाथ में लिए भटक रहे थे, तभी हठात् वृद्ध दण्डधर लल्ल ने उनके सम्मुख जाकर अभिवादन किया ।

सम्राट् ने हाथ का खड्ग ऊंचा करके उच्च स्वर से कहा – “ तू चोर है, कह, क्यों आया ? ”

दण्डधर ने एक मुद्रा सम्राट् के हाथ में दी और गोद में श्वेत कौशेय में लिपटे शिशु का मुंह उघाड़ दोनों हाथ फैला दिए । सम्राट ने देवी अम्बपाली की मुद्रा पहचान मंदस्मित हो शिशु की उज्ज्वल आंखों को देखकर कहा –

“ यह क्या है भणे ? ”

“ मगध के भावी सम्राट ! देव , मेरी स्वामिनी देवी अम्बपाली ने बद्धांजलि निवेदन किया है कि उनकी तुच्छ भेंट – स्वरूप मगध के भावी सम्राट् आपके चरणों में समर्पित हैं । ”

सम्राट ने शिशु को सिंहासन पर डालकर वृद्ध दण्डधर से उत्फुल्ल – नयन हो कहा-“ मगध के भावी सम्राट का झटपट अभिवादन कर ! ”

दण्डधर ने कोष से खड्ग निकाल मस्तक पर लगा तीन बार मगध के भावी सम्राट का जयघोष किया और खड्ग सम्राट् के चरणों में रख दिया ।

सम्राट ने भी उच्च स्वर से खड्ग हवा में ऊंचा कर तीन बार मगध के भावी सम्राट का जयघोष किया और घण्ट पर आघात किया । देखते – ही – देखते प्रासाद के प्रहरी , रक्षक , कंचुकी , दण्डधर , दास -दासी दौड़ पड़े । सम्राट ने चिल्ला -चिल्लाकर उन्मत्त की भांति कहा

“ अभिवादन करो, आयोजन करो, आयोजन करो, गण- नक्षत्र मनाओ। मगध के भावी सम्राट का जय -जयकार करो! ”

देखते – ही – देखते मागध प्रासाद हलचल का केन्द्र हो गया । विविध वाद्य बज उठे । सम्राट ने अपना रत्नजटित खड्ग वृद्ध दण्डधर की कमर में बांधते हुए कहा – “ भणे, अपनी स्वामिनी को मेरी यह भेंट देना । ”यह कह एक और वस्तु वृद्ध के हाथ में चुपचाप दे दी । वह वस्तु क्या थी , यह ज्ञात होने का कोई उपाय नहीं ।

10 वर्ष बीत गए । युवक वृद्ध हो गए , वृद्ध मर गए, बालक युवा हो गए । अम्बपाली अब अतीत का विषय हो गई । पुराण पुरुष युक्ति – अत्युक्ति द्वारा युद्ध और अम्बपाली की बहुत – सी कथाएं कहने – सुनने लगे । उनमें बहुत – सी अतिरंजित , बहुत – सी प्रकल्पित और बहुत – सी सत्य थीं । उन्हें सुन – सुनकर वैशाली के नवोदित तरुणों को कौतूहल होता। वे जब सप्तभूमि प्रासाद के निकट होकर आते – जाते , तो उसके बन्द , शून्य और अरक्षित अक्षोभनीय द्वार को उत्सुकता और कौतूहल से देखते । इन्हीं दीवारों के भीतर , इन्हीं अवरुद्ध गवाक्षों के उस ओर वह जनविश्रुत अम्बपाली रह रही हैं , किन्तु उसका दर्शन अब देव , दैत्य , मानव , किन्नर , यक्ष , रक्ष सभी को दुर्लभ है, इस रहस्य की विविध किंवदन्तियां घर – घर होने लगीं ।

श्रमण बुद्ध बहुत दिन बाद वैशाली में आए। आकर अम्बपाली की बाड़ी में ठहरे । अम्बपाली ने सुना । हठात् सप्तभूमि प्रासाद में जीवन के चिह्न देखे जाने लगे । दास – दासी , कम्मकर , कर्णिक , दण्डधर भाग – दौड़ करने लगे । दस वर्ष से अवरुद्ध सप्तभूमि प्रासाद का सिंहद्वार एक हल्की चीत्कार करके खुल गया और देखते – देखते सारी वैशाली में यह समाचार विद्युत् वेग से फैल गया – अम्बपाली भगवान् बुद्ध के दर्शनार्थ बाड़ी में जा रही है । दस वर्ष बाद वह सर्वसाधारण के समक्ष एक बार फिर बाहर आई है। लोग झुण्ड के झुण्ड प्रासाद के सिंह- पौर को घेरकर तथा राजमार्ग पर डट गए। आज के तरुणों ने कहा – आज उस अद्भुत देवी का दर्शन करेंगे। नवोढ़ा वधुओं ने कहा – देखेंगे, देवी का रूप कैसा है ! कल के तरुणों ने कहा – देखेंगे, अब वह कैसी हो गई है। हाथी , घोड़े, शिविका और सैनिक सज्जित हो -होकर आने लगे। अम्बपाली एक श्वेत हाथी पर आरूढ़ निरावरण एक श्वेत कौशेय उत्तरीय से सम्पूर्ण अंग ढांपे नतमुखी बैठी थी । उसका मुख पीत , दुर्बल किन्तु तेजपूर्ण था । जन – कोलाहल , भीड़ – भाड़ पौर- जनपद की लाजा -पुष्पवर्षा किसी ने भी उसका ध्यान भंग नहीं किया । एक बार भी उसने आंख उठाकर किसी की ओर नहीं देखा । श्वेत मर्म की अचल देव – प्रतिमा की भांति शुभ्र शारदीय शोभा की मूर्त प्रतिकृति – सी वह निश्चल -निस्पन्द नीरव हाथी पर नीचे नयन किए बैठी थी । दासियों का पैदल झुण्ड उसके पीछे था ।

उनके पीछे अश्वारोही दल था और उसके बाद हाथियों पर गन्ध , माल्य , भोज्य , उपानय तथा पूज्य – पूजन की सामग्री थी । सबके पीछे विविध वाहन , कर्मचारी, नागर और जानपद । राजपथ , वीथी , हट्ट में अपार दर्शक उत्सुकता और कौतूहल से उसे देख रहे थे।

बाड़ी के निकट जा उसने सवारी रोकने की आज्ञा दी । वह पांव -प्यादे वहां पहुंची, जहां एक द्रुम की शीतल छांह में , अर्हन्त श्रमण बुद्ध प्रसन्न मुद्रा में बैठे थे। पीछे सौ दासियों के हाथों में गन्ध -माल्य, उपानय और पूज्य – पूजन -साधन थे।

तथागत अब अस्सी को पार कर गए थे। उनके गौर, उन्नत , कृश गात की शोभा गाम्भीर्य की चरम रेखाओं में विभूषित हो कोटि – कोटि जनपद को उनके चरणों में अवनत होने को आह्वान कर रही थी । उनके सब केश श्वेत हो गए थे। किन्तु वे एक बलिष्ठ महापुरुष दीख पड़ते थे। वे पद्मासन लगाए शान्त मुद्रा में वृक्ष की शीतल छाया में आसीन थे ।

सहस्रावधि भिक्षु , नागर उनके चारों ओर बैठे थे। मुंडित और काषायधारी भिक्षुकों की पंक्ति दूर तक बैठी उनके श्रीमुख से निकले प्रत्येक शब्द को हृदय – पटल पर लिख रही थी ।

आनन्द ने कहा –

“ भगवन् , देवी अम्बपाली आई हैं । ” तथागत ने किंचित् हास्य -मुद्रा से अम्बपाली को देखा । अम्बपाली ने सम्मुख आ , अभिवादन किया । गन्ध -माल्य निवेदन कर पूज्य – पूजन किया। फिर संयत भाव से एक ओर हटकर बैठकर उसने करबद्ध प्रार्थना की

“ भन्ते भगवन्, भिक्षु-संघ सहित कल को मेरा भोजन स्वीकार करें ! ”

भगवन् ने मौन रह स्वीकार किया । तब देवी अम्बपाली भगवन् की स्वीकृति को जान आसन से उठ , भगवन् की प्रदक्षिणा कर , अभिवादन कर चल दी । इसी समय रथों , वाहनों , हाथियों , अश्वों का महानाद , बहुत मनुष्यों का कोलाहल सुन अर्हन्त बुद्ध ने कहा – “ आयुष्मान् आनन्द, यह कैसा कोलाहल है ? ”.

आनन्द ने कहा – “ भगवन् , यह लिच्छवियों के अष्टराजकुल परिजनसहित भगवान् की शरण आ रहे हैं । ”

भगवान् ने कहा – “ आनन्द , तथागत अब अन्तिम बार वैशाली को देख रहा है। अब वैशाली वैसी नहीं रही। जब वे लिच्छवि सज -धजकर तथागत के निकट आते थे तब तथागत कहता था – “ भिक्षुओ, तुमने देवताओं को अपनी नगरी से बाहर आते कभी नहीं देखा है, परन्तु इन वैशाली के लिच्छवियों को देखो , जो समृद्धि और ठाट -बाट में उन देवताओं के ही समान हैं । वे सोने के छत्र , स्वर्ण- मण्डित पालकी, स्वर्ण- जटित रथ और हाथियों सहित आबाल – वृद्ध सब विविध आभूषण पहने और विविध रंगों से रंजित वस्त्र धारण किए , सुन्दर वाहनों पर तथागत के पास आया करते थे। देख आनन्द, अतिसमृद्ध, सुरक्षित , सुभिक्ष, रमणीय , जनपूर्ण सम्पन्न गृह और हर्यों से अलंकृत , पुष्पवाटिकाओं और उद्यानों से प्रफुल्लित , देवताओं की नगरी से स्पर्धा करनेवाली वैशाली आज कैसी श्री विहीन हो गई है। ”

इसी बीच अष्टकुल के लिच्छवि राज – परिजन ने निकट आ अपने – अपने नाम कह भगवन् को अभिवादन किया और एक ओर हटकर बद्धांजलि बैठ गए। उन्हें भगवान् ने धार्मिक कथा द्वारा समदर्षित – समार्दिपत , समुत्तेजित , और सम्प्रहर्षित किया ।

तथागत के धार्मिकोपदेश द्वारा सम्प्रहर्षित हो ,लिच्छवि -गणपति ने बद्धांजलि हो कहा – “ भन्ते भगवन् , कल का हमारा भात भिक्षुसंघ- सहित ग्रहण करें ! ”

भगवन् ने मन्दस्मित करके कहा – “ यह तो मैं अम्बपाली का स्वीकार कर चुका । ”

तब लिच्छवियों ने उंगलियां फोड़ी – “ अरे , अम्बपाली ने हमें जीत लिया ! अम्बपाली ने हमें वंचित कर दिया ! ”

तब लिच्छविगण भगवान् के भाषण को अभिनन्दित कर, भगवान् को अभिवादन कर, परिक्रमा कर , अनुमोदित कर , आसन से उठ लौट चले, कुछ श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कुछ लाल और कुछ आभूषण पहने थे।

अम्बपाली रथ में बैठकर लौटी । उसने बड़े- बड़े तरुण राजपुरुष लिच्छवियों के धुरों से धुरा , चक्कों से चक्का , जुए से जुआ टकराया, उनके घोड़ों के बराबर घोड़े दौड़ाए ।

लिच्छवि राजपुरुषों ने देखकर क्रुद्ध होकर कहा – “ जे अम्बपाली! क्यों दुहर लिच्छवियों के धुरों से धुरा टकराती है ? ”

“ आर्यपुत्रो , मैंने भिक्षुसंघ के सहित भगवान् को भोज के लिए निमन्त्रित किया है। ”

“ जे अम्बपाली, शत -सहस्र स्वर्ण से इस भात को दे दे। ”

“ आर्यपुत्रो , यदि वैशाली जनपद भी दो , तो भी इस महान् भात को नहीं दूंगी । ” तब उन लिच्छवियों ने अंगलियां फोड़ीं और अपने हाथ पटककर कहा

“ अरे , हमें इस अम्बपाली ने जीत लिया ! अरे , हमें अम्बपाली ने वंचित कर दिया ! ”

अम्बपाली ने अपना रथ आगे बढ़ाया और उसके सहस्र घण्टनाद के उद्घोष और उसके पहियों से उड़ी हुई धूल का एक बादल पीछे रह गया ।

तब अर्हन्त भगवान् पूर्वाह्न समय जानकर पात्र और चीवर ले बारह सौ भिक्षुसंघ- सहित देवी अम्बपाली के आवास की ओर चले । अम्बपाली ने सैकड़ों कारीगर मज़दूर लगाकर रातों – रात सप्तभूमि -प्रासाद का श्रृंगार किया । तोरणों पर ध्वजा – पताकाएं अपनी रंगीन छटा दिखाने लगीं । गवाक्षों के रंगीन स्फटिक सूर्य की किरणों में प्रतिबिम्बित से होने लगे। सिंह- द्वार का नवीन संस्कार हुआ और उसे नवीन पुष्पों से सज्जित किया गया । तथागत अपने अनुगत भिक्षुसंघ के सहित पात्र और चीवर को हाथ में लिए भूमि पर दृष्टि लगाए वैशाली के राजमार्ग पर बढ़े चले जा रहे थे। उस समय वैशाली के प्राण ही राजमार्ग पर आ जूझे थे। अन्तरायण के सेट्ठी, निगम -जेट्ठक अपनी – अपनी हट्टों से उठ -उठकर मार्ग की भूमि को भगवान् के चरण रखने से प्रथम अपने उत्तरीय से झाड़ने लगे । बहुत- से भीड़ में आगे निकल राजपथ पर अपने बहुमूल्य शाल कोर्जव और कौशेय बिछाने लगे । तथागत महान् वीतराग भत्त्व , महाप्राण अर्हन्त जनपद जन के इस चण्ड जयघोष से तनिक भी विचलित न होकर स्थिर , पद पर पद रखते , सप्तभूमि प्रासाद की ओर बढ़े जा रहे थे। उनकी अधोदृष्टि जैसे पाताल तक घुस गई थी । पौर वधू झरोखों में लाजा – पुष्प तथागत पर फेंक रही थीं ।

सप्तभूमि -प्रासाद की सीढ़ियों को ताजे फूलों से ढांप दिया था । द्वार – कोष्ठक पर स्वयं देवी अम्बपाली शुभ्र – शुक्र नक्षत्र की भांति भगवत् के स्वागतार्थ खड़ी थी । उसने दूर तक भगवत् को आते देखा , देखते ही अगवानी कर भगवान् की वन्दना कर , आगे – आगे ही पैड़ियों तक ले गई। वहां जाकर भगवान् श्रमण पौर की निचली सीढ़ी पर खड़े हो गए । अम्बपाली ने कहा – “ भन्ते भगवान, भगवान् भीतर चलें , सुगत , सीढ़ियों पर चढ़ें । यह चिरकाल तक मेरे हित और सुख के लिए होगा । ”

तब तथागत सीढ़ियों पर चढ़े । अम्बपाली ने प्रासाद के सप्तम खण्ड में भोजन के लिए आसन बिछवाया । भगवान् बुद्ध संघ के साथ बिछे आसन पर बैठे । तब अम्बपाली ने बुद्ध- सहित भिक्षुसंघ को अपने हाथ से उत्तम खादनीय पदार्थों से संतर्पित किया , सन्तुष्ट किया । भगवान् के भोजन – पात्र पर से हाथ खींच लेने पर देवी अम्बपाली एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गई ।

एक ओर बैठी अम्बपाली को भगवान् ने धार्मिक कथा से सम्प्रहर्षित समुत्तेजित किया । अम्बपाली तब करबद्ध सामने आकर खड़ी हुई ।

भगवन् ने कहा – “ अम्बपाली, अब और तेरी क्या इच्छा है ? ”

“ भन्ते , भगवन् , एक भिक्षा चाहिए! ”

“ वह क्या अम्बपाली ? ”

“ आज्ञा हो भन्ते , कोई भिक्षु अपना उत्तरीय मुझे प्रदान करें । ”

भगवन् ने आनन्द की ओर देखा। आनन्द ने अपना उत्तरीय उतारकर अम्बपाली को भेंट कर दिया । क्षणभर के लिए अम्बपाली भीतर गई । परन्तु दूसरे ही क्षण वह उसी उत्तरीय से अपने अंग ढांपे आ रही थी । कंचुक और कौशेय जो उसने धारण किया हुआ था , उतार डाला था । अब उसके अंग पर आनन्द के दिए हुए उत्तरीय को छोड़ और कुछ न था । न वस्त्र , न आभूषण, न श्रृंगार । उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधार बह रही थी । वह आकर भगवान् के सामने पृथ्वी पर लोट गई । भगवान् ने शुभहस्त से उसे स्पर्श करके कहा – “ उठ , उठ, कल्याणी, कह तेरी क्या इच्छा है ? ”

“ भन्ते भगवन् इस अधम – अपवित्र नारी की विडंबना कैसे बखान की जाय ! यह महानारी- शरीर कलंकित करके मैं जीवित रहने पर बाधित की गई , शुभ संकल्प से मैं वंचित रही। भगवन् , यह समस्त सम्पदा मेरी कलुषित तपश्चर्या का संचय है। मैं कितनी व्याकुल , कितनी कुण्ठित , कितनी शून्यहृदया रहकर अब तक जीवित रही हूं , यह कैसे कहूं ? मेरे जीवन में दो ज्वलन्त दिन आए । प्रथम दिन के फलस्वरूप मैं आज मगध के भावी सम्राट की राजमाता हूं । परन्तु भगवन् आज के महान् पुण्य -योग के फलस्वरूप अब मैं इससे उच्च पद प्राप्त करने की धृष्ट अभिलाषा रखती हूं । भन्ते भगवन् प्रसन्न हों , जब भगवन् की चरण रज से यह आवास एक बार पवित्र हुआ , तब यहां अब विलास और पाप कैसा ? उसकी सामग्री ही यहां क्यों ? उसकी स्मृति भी क्या ?.

“ इसलिए भगवच्चरण – कमलों में यह सारी सम्पदा , प्रासाद , धनकोष , हाथी , घोड़े, प्यादे, रथ , वस्त्र , भंडार आदि सब समर्पित हैं ! भगवन् ने जो यह भिक्षु का उत्तरीय मुझे प्रदान किया है , मेरे शरीर की लज्जा -निवारण को यथेष्ट है । आज से अम्बपाली तथागत की शरण है । यह इस भिक्षा में प्राप्त पवित्र वस्त्र को प्राण देकर भी सम्मानित करेगी ! ”

इतना कह अविरल अश्रुधारा से भगवच्चरणों को धोती हुई अम्बपाली अर्हन्त बुद्ध की चरण – रज नेत्रों से लगाकर उठी और धीरे – धीरे प्रासाद से बाहर चली गई । दास – दासी , दण्डधर , कर्णिक , कंचुकी, भिक्षु- सब देखते रह गए ।

महावीतराग बुद्ध आप्यायित हुए । उनके सम्पूर्ण जीवन में यह त्याग का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण था ।

अम्बपाली, उस पीत परिधान को धारण किए , नीचा सिर किए, पैदल उसी राजमार्ग से भूमि पर दृष्टि दिए धीरे – धीरे नगर से बाहर जा रही थी , जिसमें कभी वह मणि -माणिक्य से जड़ी चलती थी । सहस्रों नगर पौर जनपद उन्मत्त -विमूढ़ हो उसके पीछे पीछे चल दिए । सहस्र- सहस्र कण्ठ से – “ जय अम्बपाली, जय साध्वी अम्बपाली का गगन भेदी नाद उठा और उसके पीछे समस्त नगर उमड़ा जा रहा था । खिड़कियों से पौरवधुएं पुष्प और खील वर्षा कर रही थीं ।

भगवत् ने कहा – “ आयुष्मान् आनन्द , यह सप्तभूमि प्रासाद भिक्षुकों का सर्वश्रेष्ठ विहार हो । भिक्षु यहां रहकर सम्मार्ग का अन्वेषण करें – यही तथागत की इच्छा है। ”

इतना कह भगवत् बुद्ध उठकर भिक्षु- संघसहित बाड़ी की ओर चल दिए ।

महाश्रमण भगवत् बुद्ध अम्बपाली की बाड़ी में आ स्वस्थ हो आसन पर बैठे । तब अम्बपाली केशों को काटकर काषाय पहने मार्ग चलने से फूले -पैरों, धूल – भरे शरीर से दुखी , दुर्मना , अश्रुमुखी पांव -प्यादे, रोती हुई बाड़ी के द्वार कोष्ठक के बाहर आकर खड़ी हो गई । उसके साथ बहुत – सी लिच्छवि स्त्रियां भी हो ली थीं ।

इस प्रकार द्वार कोष्ठक पर अम्बपाली को श्रान्त दु: खी और अश्रुपूरित खड़ी देख आयुष्मान् आनन्द ने पूछा – “ सुश्री अम्बपाली , अब यहां इस प्रकार तुम्हारे आने का क्या प्रयोजन है ? ”

“ भन्ते आनन्द , मैं भन्ते भगवान् से प्रव्रज्या लेना चाहती हूं। ”

“ तो भगवती अम्बपाली, तुम यहीं ठहरो, मैं भगवान् से अनुज्ञा ले आता हूं। ”

इतना कह आनन्द अर्हन्त गौतम के पास जा बोले – “ भगवन् , भगवती अम्बपाली फूले पैरों , धूल – भरे शरीर से दुखी , दुर्मना, अश्रुमुखी रोती हुई द्वार – कोष्ठक पर खड़ी है । वह प्रव्रज्या की अनुज्ञा मांगती है । भन्ते भगवन् भगवती अम्बपाली को प्रव्रज्या की अनुज्ञा मिले। उन्हें उपसम्पदा प्रदान हो । ”

“ नहीं आनन्द, यह सुनकर नहीं कि तथागत के जतलाए धर्म में अम्बपाली घर से बेघर हो प्रव्रज्या ले । ”

“ भन्ते , क्या तथागत -प्रवेदित धर्म घर से बेघर प्रव्रजित हो , स्त्रियां स्रोत्र आपत्तिफल , सकृदागामि -फल, अनागामि – फल अर्हत्त्व – फल को साक्षात् कर सकती हैं ? ”

“ कर सकती हैं आनन्द ! ”

“ याद भन्ते , तथागत – प्रवेदित धर्म -विनय में घर से बेघर प्रवजित हो स्त्रियां अर्हत्त्व -फल को साक्षात् करने योग्य हैं , तो भन्ते ! भगवती अम्बपाली इसके लिए सर्वथा सम्यग् उपयुक्त हैं । ”

कुछ देर अर्हन्त बुद्ध ने मौन रहकर कहा – “ तो आनन्द, यदि सुश्री अम्बपाली आठ गुरुधर्मों को स्वीकार करे , तो उसे प्रव्रज्या मिले। उसकी उपसम्पदा हो । ”

तब आनन्द भगवान् से इन आठ महाधर्मों को समझ, द्वार कोष्ठक पर जहां अम्बपाली फूले – पैर, धूल – भरे शरीर और अश्रु- पूरित नयनों से खड़ी थी , वहां पहुंचे। पहुंचकर अम्बपाली से कहा – “ भगवत् की अम्बपाली यदि आठ महाधर्मों को स्वीकार करें , तो शास्ता तुम्हें उपसम्पदा देंगे , प्रव्रज्या देंगे। ”

“ भन्ते आनन्द, जैसे अपने जीवन के प्रभात में मैं सिर से नहाकर उत्पलकर्षिक माला या अतिमुक्तक माला को दोनों हाथों से चाव- सहित अंग पर धारण करती थी , उसी प्रकार भन्ते आनन्द , मैं इन आठ गुरुधर्मों को स्वीकार करती हूं । ”

तब आयुष्मान् आनन्द ने भगवत् के निकट जा अभिवादन कर कहा – “ भन्ते भगवत् , भगवती अम्बपाली ने यावज्जीवन आठ गुरुधर्मों को स्वीकार किया है। ”

“ आनन्द, यदि स्त्रियां तथागत – प्रवेदित धर्म -विजय में प्रव्रज्या न पातीं, तो यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी होता । सद्धर्म सहस्र वर्ष ठहरता । परन्तु अब, जब स्त्रियां प्रव्रजित हुई हैं , तो ब्रह्मचर्य चिरस्थायी न होगा । सद्धर्म पांच सौ वर्ष टिकेगा। जैसे बहुत स्त्री वाले और थोड़े पुरुषोंवाले, कल चोरों द्वारा सेतटिठका द्वारा अनायास ही में प्र -ध्वंस्य होते हैं इसी प्रकार आनन्द जिस धर्म -विनय में स्त्रियां प्रव्रज्या पाती हैं , वह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी नहीं होता । जैसे आनन्द , सम्पन्न लहलहाते धान के खेत में सेतट्ठिका रोग जाति पड़ती है , जैसे सम्पन्न ऊख के खेत में मंजिष्ठ रोग – जाति पड़ती है, उसी प्रकार जिस धर्म -विनय में स्त्रियां प्रव्रज्या लेती हैं , वह चिरस्थायी नहीं होता। इसी से आनन्द जैसे कृषक पानी की रोक -थाम को मेड़ बांधता है, उसी प्रकार मैंने भिक्षुणियों के लिए जीवन – भर अनुल्लंघनीय आठ गुरुधर्मों को स्थापित किया है। तू सुश्रीअम्बपाली को ला । ”

तब आनन्द के साथ देवी अम्बपाली ने भगवान् के निकट आ परिक्रमा कर अभिवादन किया और बद्धाञ्जलि सन्मुख खड़ी हो

बुद्धं सरणं गच्छामि ।

संघं सरणं गच्छामि !

धम्म सरणं गच्छामि !

तीन महावाक्य कहे ।

भगवत् ने उसे प्रव्रज्या दी , उपसम्पदा दी ; और स्थिर धीर स्वर से कहा – “ कल्याणी अम्बपाली, सुन ! जिन धर्मों को तू जाने कि , वह सराग के लिए हैं , वि – राग के लिए नहीं , संयोग के लिए हैं , वि -योग के लिए नहीं, जमा के लिए हैं , विनाश के लिए नहीं ; इच्छाओं के बढ़ने के लिए हैं , इच्छाओं के कम करने के लिए नहीं; असन्तोष के लिए हैं , सन्तोष के लिए नहीं ; भीड़ के लिए हैं , एकान्त के लिए नहीं; अनद्योगिता के लिए हैं , उद्योगिता के लिए नहीं; दुर्भरता के लिए हैं , सुभरता के लिए नहीं तो तू अम्बपाली शुभे एकांतेन जान कि न वह धर्म है, न विनय है, न शास्ता का शासन है। ”

कुछ देर मौन रहकर भगवत् ने फिर कहा – “ जा अम्बपाली तुझे उपसम्पदा प्राप्त हो गई। अपना और प्राणिमात्र का कल्याण कर! ”

भगवत् अर्हन्त प्रबुद्ध बुद्ध ने इतना कह- उच्च स्वर से कहा- “ भिक्षुओ, महासाध्वी अम्बपाली भिक्षुणी का स्वागत करो! ”

फिर जयनाद से दिशाएं गूंज उठीं । अम्बपाली ने आंसू पोंछे। भगवत् सुगत की प्रदक्षिणा की और भिक्षुसंघ के बीच में होकर पृथ्वी पर दृष्टि दिए वहां से चल दी । उसके पीछे ही एक तरुण भिक्षु ने भी चुपचाप अनुगमन किया । आहट पाकर अम्बपाली ने पूछा – “ कौन है ? ”

“ भिक्षु सोमप्रभ आर्ये! ”

अम्बपाली बोली नहीं, रुकी भी नहीं, फिरकर एक बार उसने देखा भी नहीं । एक मन्दस्मित की रेखा उसके सूखे होंठों और सूखी हुई आंखों में भास गई । वह चलती चली गई ।

उस समय प्रतीची दिशा लाल -लाल मेघाडम्बरों से रंजित हो रही थी , उसकी रक्तिम आभा आम के नवीन लाल -लाल पत्रों को दुहरी लाली से रंगीन कर रही थी , ऐसा प्रतीत होता था मानो सान्ध्य सुन्दरी ने उसी क्षण मांग में सिन्दूर दिया था ।

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