चोरी का धन रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी | Chori Ka Dhan Rabindranath Tagore Ki Kahani 

चोरी का धन रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी Chori Ka Dhan Rabindranath Tagore Ki Kahani  Bangla Story In Hindi 

Chori Ka Dhan Rabindranath Tagore Ki Kahani 

Chori Ka Dhan Rabindranath Tagore

दांपत्य का अधिकार प्रतिदिन ही नए रूप में निर्धारित करना होता है। अधिकांश पुरुष यह बात भूले रहते हैं। उन्होंने शुरू से ही समाज का अनुमति-पत्र दिखाकर कस्टम-हाउस से माल छुड़ा लिया है, उसके बाद से वे बिलकुल लापरवाह हैं। जैसे पहरेवालों ने सरकारी प्रताप ऊपरवाले के दिए तमगे के ज़ोर पर पाया हो, वर्दी उतारते ही वे अत्यंत अयोग्य हो जाते हैं।

विवाह चिर-जीव का पाला गान है, उसकी तो एक ही टेक है, किन्तु संगीत का विस्तार प्रतिदिन के नव-नव क्रम में है। सुनेत्रा से ही इस बात को मैं अच्छी तरह समझ पाया हूँ। उसमें है प्रेम का ऐश्वर्य, जिसका समारोह समाप्त होना नहीं चाहता, देहरी पर चारों पहर उसकी शहाना रागिनी बजती रहती है। एक दिन आफ़िस से लौटकर देखा, मेरे लिए बर्फ़ डला फालसे का शर्बत सजा रखा है, रंग देखते ही मन चौंक उठा; उसी की बग़ल में छोटी चाँदी की तश्तरी में रखा गजरा, कमरे में घुसने के पहले ही सुगंध आई। फिर किसी दिन देखता आइसक्रीम के साँचे में जमाया हुआ फल के गूदे और रस का मिश्रण, एक प्याले में ताल फल की गिरी और छोटी तश्तरी में बस सूर्यमुखी का एक फूल। सुनने में बात कुछ विशेष नहीं लगती, किन्तु समझ में आता है कि दिन-दिन वह नए-नए रूप में मेरे अस्तित्व का अनुभव करती। पुराने को नए रूप में अनुभव करने की शक्ति कलाकार में होती है और ‘इतरेजनाः’ प्रतिदिन घिसी-पिटी लकीर पर चलते हैं। सुनेत्रा में प्रेम की प्रतिभा है नव नवोन्मेष शलिनी सेवा। आज मेरी कन्या अरुणा की उम्र सत्रह साल है, अर्थात् ठीक जिस उम्र में सुनेत्रा का विवाह हुआ था। उसकी अपनी उम्र है अड़तीस, किसी यत्नपूर्वक साज-सज्जा करना, प्रतिदिन पूजा का नैवेद्य सजाना, अपने को उत्सर्ग करने का आह्निक अनुष्ठान वह जानती है।

सुनेत्रा शांतिपुरी काले किनारे की सफ़ेद साड़ी पसंद करती है। खद्दर प्रचारकों की धिक्कार का प्रतिवाद किए बिना उसने इसे स्वीकार लिया है, कैसे भी खद्दर को स्वीकारा नहीं। वह कहती, “देशी ताँती का हाथ, देशी ताँती ताँत, इन्हीं से मुझे प्यार है। वे शिल्पी हैं, उन्हीं की पसंद का सूत, मेरी पसंद पूरे कपड़े को लेकर है। असली बात, सुनेत्रा समझती है हल्के सफ़ेद रंग की साड़ी में सब रंगों का संकेत सहज ही फ़बता है। वह उसी कपड़े को नयापन देती, नाना आभासों में, लगता नहीं कि वह सजी है। वह समझती है, मेरे अवचेतन मन का दिगंत उसकी सज्जा से उद्भासित होता है‒मैं खुश होता हूँ, यह नहीं जान पाता क्यों खुश हुआ हूँ।

प्रत्येक मनुष्य में ही एक ‘मैं’ है, वह अपरिमेय रहस्य का असीम मूल्य प्रेम में जुटाता है। अहंकार का कृत्रिम पैसा इसके सामने तुच्छ ठहरता है। आज इक्कीस वर्षों से सुनेत्रा मन-प्राण से यह परम मूल्य मुझे देती आई है। उसके शुभ्र ललाट पर कुमकुम बिन्दु के बीच प्रतिदिन लिखी रहती है अक्लांत विस्मय की वाणी। उसके अखिल जगत् के मर्मस्थान पर मैं अधिकार किए हूँ, इसलिए साधारण जगत् का सामान्य कोई होना छोड़ मुझे और कुछ नहीं होना पड़ा। सामान्य को असामान्य रूप में आविष्कार करता है प्रेम। शास्त्र कहता है, अपने को जानो। आनंद में अपने को ही जानता हूँ और एक जन है, जिसने प्रेम में मेरे अपने को जाना है।

मेरे पिता थे किसी प्रसिद्ध बैंक के अन्यतम अधिनायक, मैं उसी का एक हिस्सेदार हुआ। जिसे सोता हुआ हिस्सेदार कहते हैं, ऐसा बिलकुल भी नहीं। ऑफ़िस के काम ने जैसे चारों ओर से मुझे लगाम से कस दिया हो। मेरे शरीर मन के साथ इस काम का तालमेल नहीं बैठता। इच्छा थी, वन-विभाग में कहीं परिदर्शक का पद दख़ल कर लूँ, खुली हवा में दौड़-धूप करूँ, शिकार का शौक़ मिटा लूँ। पिताजी की दृष्टि रोब-दाब की ओर थी, बोले, ‘जो काम मिल रहा है, वह सहज में किसी बंगाली के भाग्य में नहीं जुटता।’ हार मानी पड़ी। इसके अतिरिक्त लगता है, पुरुष के रोब-दाब की चीज़ स्त्री के लिए मूल्यवान है। सुनेत्रा के जीजा अध्यापक हैं, उनकी इस इंपीरियल सर्विस से उनके स्त्री-समाज का सिर ऊँचा रहता है। यदि कोई जंगली ‘निसपेकेट्टर साहब’ बन सोला हैट लगाकर बाघ-भालू की ख़ाल से ज़मीन ढँक देता, इससे मेरी देह का गुरुत्व कम हो जाता, उसी के साथ अन्य कई ऊँचे पदासीन पड़ोसियों की तुलना में मेरा पद-गौरव घट जाता। क्या पता, यह लघुत्व स्त्रियों के आत्मभिमान को कदाचित् कुछ क्षुब्ध करता।

इधर डेस्क में बँधी स्थावरत्व के बोझ से देखते-देखते मेरी यौवन धारा भोथरी होती जा रही है। दूसरा कोई पुरुष होता तो उस बात को निश्चिन्त मन से भूलकर तोंद की परिधि-विस्तार को दैव-दुर्घटना नहीं मानता। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं जानता हूँ, सुनेत्रा मुग्ध हुई थी मात्र मेरे गुणों पर ही नहीं, मेरे देह-सौष्ठव पर भी। विधाता की स्वरचित जिस वरमाल को गले में पहन एक दिन उसे वरण किया था, अवश्य ही प्रतिदिन की अभ्यर्थना में उसका प्रयोजन है। आशचर्य है कि सुनेत्रा का यौवन आज भी अक्षुण्ण बना है, देखते-ही-देखते मैं ही भाटा के ग्रास में चला जा रहा हूँ‒बैंक में केवल रुपए जमा हो रहे हैं।

हमारे मिलन के प्रथम अभ्युदय को फिर से एक बार प्रत्यक्ष आँखों के सामने मेरी कन्या अरुणा ले आई। हमारे जीवन का वह उषारुण राग उनके तारुण्य के नवप्रभात में दिखाई दिया, जिसे देखकर मेरा समस्त मन पुलकित हो उठता। शैलेन की ओर तक कर देखता हूँ, मेरी उन दिनों की आयु उसके शरीर में आविर्भूत हुई है। यौवन की वही क्षिप्रशक्ति, वही अजस्र प्रफुल्लता, फिर प्रतिक्षण प्रतिहत दुराश में मुरझाए उत्साह की उत्कंठा। उस दिन मैं जिस पथ पर चलता था, वही पथ उसके भी सामने है, वैसे ही अरुणा की माँ के मन को वश में करने के अनेक उपाय उसने रचे हैं, केवल मैं ही उसका यथेष्ट ध्यान आकृष्ट नहीं करता। दूसरी ओर अरुणा मन-ही-मन जानती कि उसके पिता कन्या के दर्द को समझते हैं। किसी-किसी दिन न जाने क्यों दोनों आँखों में अदृश्य अश्रु की करुणा लिए मेरे पैरों की ओर के मोढ़े पर वह चुपचाप आ बैठती। उसकी माँ निष्ठुर हो सकती हैं, मैं नहीं हो सकता।

अरुणा के मन की बात उसकी माँ न समझती हो, ऐसी बात नहीं; लेकिन उनका विश्वास था कि ये सभी ‘प्रभात का मेघडंबरम हैं, दिन चढ़ते ही विलीन हो जाएंगे। सुनेत्रा के साथ यहीं मेरे मत का मेल नहीं। भूख तृप्त न कर भूख को मार दिया जा सकता है, लेकिन दुबारा जब पत्तल बिछेगी, तब हृदय की रसना में नवीन प्रेम का स्वाद समाप्त हो जाएगा। मध्याह्न में भोर का सुर मिलाने जाकर और नहीं मिलता। अभिभावक कहते हैं, पहले विवेचना करनेवाली उम्र हो, उसके बाद आदि-आदि। हाय रे, विवेचना करने की अवस्था प्रेम करने की अवस्था के ठीक विपरीत दिशा में है।

कई दिन पहले ही आया, ‘भरा बादर माह भादर’। घोर वर्षा की आड़ में कलकत्ते के ईंट-लकड़ी के मकान मुलायम हो आए, शहर की प्रखरता अश्रु गद्गद कंठस्वर के समान वाष्पाकूल हुई। उसकी माँ जानती उनकी अरुणा लाइब्रेरी के कमरे में परीक्षा की पढ़ाई में जुटी हुई है। मैं एक किताब लेने गया था। देखा कि मेघाच्छन्न दिनांत की सज छाया में खिड़की के सामने वह चुपचाप बैठी है, तब तक उसके बाल बँधे नहीं थे, पुरवैया हवा के साथ वर्षा के छींटे उसके खुले बालों में पड़ रहे हैं।

मैंने सुनेत्रा से कुछ कहा नहीं। तभी शैलेन को चाय के लिए निमंत्रण-पत्र लिख भेजा। अपनी मोटर उनके घर भेज दी। शैलेन आया, उसका अचानक आना सुनेत्रा को पसंद नहीं आया, यह समझना कुछ मुश्किल नहीं था। मैंने शैलेन से कहा, “गणित पर मेरा जहाँ तक अधिकार है, उससे आज के फ़िजिक्स की थाह नहीं मिलती, इसलिए तुम्हें बुला भेजा, ‘क्वांटम् थ्योरी’ यथाशक्ति समझ लेना चाहता हूँ, मेरी पुरानी विद्या-बुद्धि में जंग लग गई है।”

कहना न होगा कि विद्या-चर्चा आगे नहीं बढ़ी। मेरा निश्चित विश्वास है कि अरुणा ने अपने पिता की चतुराई स्पष्ट ही भाँप ली होगी और मन-ही-मन कहा होगा, ऐसे आदर्श पिता किसी दूसरे परिवार में आज तक नहीं हुए।

‘क्वांटम् थ्योरी’ के ठीक शुरू ही में टेलीफ़ोन की घंटी बजी‒मैंने हड़बड़ाते हुए उठकर कहा, “ज़रूरी काम से बुलाया है। तुम लोग एक काम करो, तब तक पार्लर टेनिस खेलो, छुट्टी मिलते ही लौट आऊँगा।”

टेलीफ़ोन में आवाज़ आई, “हैलो, क्या यह बारह सौ फलाना नंबर है।”

मैंने कहा, “नहीं, यहाँ का नंबर सात सौ फलाना है।”

दूसरे ही क्षण नीचे के कमरे में जाकर एक पुराना अख़बार उठाकर पढ़ना शुरू किया, अँधेरा हो आया, बत्ती जला दी।

सुनेत्रा कमरे में आई। चेहरा बड़ा ही गंभीर। मैंने हँसकर कहा “मैटियोरालॉजिस्ट यानी जलवायु विशेषज्ञ तुम्हारा मुख देखता तो आँधी का संकेत देता।”

इस मज़ाक में हिस्सा न लेकर सुनेत्रा बोली, “क्यों, तुम शैलेन को इस प्रकार बार-बार प्रश्रय देते हो?”

मैंने कहा, “प्रश्रय देनेवाला तो उसी की अंतरात्मा में छिपा हुआ है।”

“इनका मिलना-जुलना कुछ दिन बंद रख पाते तो यह बचकानापन आपसे-आप छूट जाता।”

“बचकानेपन के साथ कसाईपना क्यों करने जाऊँ। दिन बीतेगा, अवस्था बढ़ेगी, ऐसा बचकानापन फिर तो लौटकर कभी नहीं आएगा।”

“तुम ग्रह-नक्षत्र नहीं मानते, मैं मानती हूँ। ये मिल नहीं सकते।”

‘ग्रह-नक्षत्र कहाँ किस प्रकार मिलते हैं, नज़र नहीं आते, लेकिन ये दोनों अंतर-ही-अंतर में मिल गए हैं, यह तो एकदम स्पष्ट ही दिख रहा है।”

“तुम नहीं समझोगे मेरी बात। जब हम जन्म लेते हैं, तभी हमारा यथार्थ साथी ठीक हुआ रहता है। मोह की छलना में यदि किसी दूसरे को स्वीकार लेते हैं,तब उसी में अज्ञात अस्तित्व घटता है। अनेक दुःखों, विपत्तियों में उसकी सज़ा है।”

“यथार्थ साथी को कैसे पहचान पायेंगे!”

“नक्षत्र के अपने हाथों हस्ताक्षर की हुई दलील है।”

अधिक लुका-छिपी नहीं चली।

मेरे ससुर अजित कुमार भट्टाचार्य एक संभ्रात पंडित-वंश में जन्मे थे। बाल्यकाल पाठशाला के परिवेश में बीता था। बाद में कलकत्ता आकर कॉलेज से गणित में एम.ए. की डिग्री ली। फलित ज्योतिष में उनका जैसा विश्वास था, वैसी ही थी उनकी दक्षता। उनके पिता थे पक्के नैयायिक, उनके मतानुसार ईश्वर अप्रमाण-सिद्ध हैं; मेरे ससुर भी देवी-देवता कुछ नहीं मानते थे, इसका प्रमाण मुझे मिला है। उनके सारे बेकार विश्वासों ने ग्रह-नक्षत्रों पर भीड़ कर रखी थी, एक तरह से कट्टरपन्थी कह सकते हैं। ऐसे ही परिवार में सुनेत्रा जन्मी; बाल्यकाल से ही उसके चारों ओर ग्रह-नक्षत्रों का कड़ा पहरा था।

मैं अध्यापक का प्रिय छात्र था, सुनेत्रा को भी उसके पिता शिक्षा देते थे। बार-बार परस्पर मिलने का सुयोग मिला था। सुयोग व्यर्थ नहीं गया, यह ख़बर बेतार विद्युतवार्ता से मेरे पास पहुँची। मेरी सास का नाम विभवती था। उनका जन्म यद्यपि पुरानी समय सीमा के बीच हुआ, किन्तु पति के साहचर्य में उनका मन संस्कारमुक्त, स्वच्छ था। पति से उनका अंतर यह कि वह ग्रह-नक्षत्रों को बिलकुल नहीं मानती थीं, मानती थीं अपने इष्ट देवता को। इसको लेकर एक दिन पति के मज़ाक करने पर कहा था, “तुम डर-डरकर प्यादों को सलाम ठोकते फिरो, मैं तो साक्षात् राजा को मानती हूं।”

पति ने कहा, “ठगी जाओगी। राज के रहने पर भी जो है, न रहने पर भी वही है, लाठी कंधे पर प्यादों का दल तो निश्चित ही है।”

सासजी बोलीं, “ठगी जाऊँ, सो भी भला। इससे देहली के दरबार में जाकर नागरा जूते के सामने सिर नहीं झुका सकूँगी।”

मेरी सास मुझसे बड़ा स्नेह करती थीं। उनके पास मेरी मन की बातें अवतरित थीं। अवकाशानुसार एक दिन उनसे कहा, “माँ, तुम्हारे लड़का नहीं, मेरी माँ नहीं। लड़की देकर मुझे अपने लड़के की जगह लो। तुम्हारी सम्मति पाने पर अध्यापकजी के पैर पकडूँगा।”

वे बोलीं, “बेटा, अध्यापक की बात बाद में होगी। पहले अपनी जन्मपत्री मुझे लाकर दो।”

मैंने वह दे दी। वे बोलीं, “कुछ होने का नहीं, अध्यापक राज़ी नही होंगे। अध्यापक की लड़की भी अपने पिता की ही शिष्या है।”

मैंने पूछा, “लड़की की माँ?”

बोलीं, “मेरी बात छोड़ो। मैं तुम्हें जानती हूँ, अपनी लड़की का मन भी जानती हूँ, उससे अधिक जानने के लिए नक्षत्र-लोक में दौड़ने का मुझे शौक़ नहीं।”

मेरा मन विद्रोही हो उठा। कहा, “इस प्रकार की अवास्तव बाधा को स्वीकार करना ही अनुचित है। किन्तु जो सत्य नहीं, उसके शरीर पर आघात नहीं ठहरता। उसके साथ क्या लेकर लडूँ ?”

इधर चारों ओर से लड़की का रिश्ता आने लगा। ग्रह-नक्षत्रों की असम्मति नहीं, ऐसे भी प्रस्ताव उसमें थे। लड़की ने ज़िद पकड़ ली, वह चिरकुमारी रहेगी, विद्या की साधना में ही उसके दिन बीतेंगे।

पिता ने इसका अर्थ नहीं समझा, उन्हें स्मरण हो आई लीलावती की बात। माँ ने समझा आड़ में रो रही है। अंत में एक दिन माँ ने मेरे हाथों में एक काग़ज़ थमाकर कहा, “यह सुनेत्रा की जन्मपत्री है। इसे दिखाकर अपनी जन्मपत्री में संशोधन कर लाओ, अपनी लड़की का अकारण दुःख नहीं सह सकूँगी।”

बाद में क्या हुआ, यह कहने की ज़रूरत नहीं। जन्मपत्री के अंकजाल से सुनेत्रा का उद्धार किया। आँसू पोंछते-पोंछते माँ बोली, “बड़े पुण्य का काम किया है बेटा तुमने।”

उसके बाद इक्कीस वर्ष बीत गए।

हवा का वेग बढ़ चला था। वर्षा का विराम नहीं। सुनेत्रा से उसने कहा, “रोशनी आँखों में लग रही है, बुझा दूँ।” बत्ती बुझा दी गई।

वर्षा की धारा के बीच रास्ते की बत्ती का अस्पष्ट प्रकाश अँधेरे कमरे में पहुँचा। सोफ़े पर सुनेत्रा को अपनी बग़ल में बिठाया। बोला, “सुनी, तुम मुझे अपना सच्चा साथी मानती हो न?”

“तुम्हारा यह कैसा प्रश्न है? इसका कोई उत्तर देना होगा?”

“तुम्हारे ग्रह-नक्षत्र यदि न मानें।”

“अवश्य मानते हैं, मैं क्या नहीं जानती।”

“इतने दिनों तक तो हम दोनों का साथ निभा। क्या कोई संदेह किसी दिन तुम्हारे मन में जगा?”

“ये सब बेकार की बातें यदि पूछोगे तो मैं ग़ुस्सा हो जाऊँगी।”

“सुनी, बहुत बार दोनों ने साथ-साथ कष्ट झेले हैं। हम दोनों का पहला बेटा आठ महीने में ही चल बसा। टायफ़ायड से मैं जब मरणासन्न था, तभी पिताजी की मृत्यु हुई। अंत में देखा जाली वसीयतनामा बनाकर भैया ने सारी संपत्ति हड़प ली। आज नौकरी ही मेरा एकमात्र सहारा है। तुम्हारी माँ का स्नेह ही था मेरे जीवन का ध्रुवतारा। पूजा की छुट्टी में घर जाते हुए मार्ग में नौका डूबने से वे पति के साथ मेघना नदी के गर्भ में चली गईं। मैंने देखा, सांसारिक बुद्धि के अभाव में अध्यापक भारी क़र्ज़ छोड़ गए; उस क़र्ज़ को स्वीकार लिया। कैसे जानूँ कि ये सारी विपत्तियाँ मेरे ही दुष्ट ग्रहों के कारण न घटित हुई हों। पहले से यदि तुम जानती तो मुझसे विवाह न करतीं।”

सुनेत्रा बिना कोई उत्तर दिए मुझसे लिपट गई। मैंने कहा, “सारे दुःख-दुर्लक्षणों से प्रेम ही बड़ा है, हमारे जीवन में क्या इसका प्रमाण नहीं मिला है?”

“अवश्य, अवश्य मिला है।”

“सोचो, यदि ग्रह के अनुग्रह से तुम्हारे पहले ही मेरी मृत्यु हो तो उस क्षति को क्या मैं जीवित रहने पर पूरा नहीं कर सकता।”

“रहने दो, रहने दो, अधिक मत बोलो।”

“सावित्री के लिए सत्यवान के साथ एक दिन का मिलन भी चिर-वियोग से बड़ा था, उन्होंने तो मृत्यु ग्रह का भय नहीं माना था।”

सुनेत्रा चुप ही रही। मैंने कहा, “तुम्हारी अरुणा शैलेन से प्रेम करती है, इतना भर जानना ही पर्याप्त है, बाक़ी सारा कुछ अनजाना रहे, क्या कहती हो, सुनी?”

सुनेत्रा ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया।

“तुमसे जब प्रथम प्रेम किया, बाधा आई। मैं जीवन में दुबारा किसी ग्रह की मंत्रणा से ही उस निष्ठुर दुःख को आने न दूँगा। उन दोनों की जन्मपत्रियों को मिलाकर जैसे भी हो, कोई संशय नहीं उठने दूँगा।”

ठीक उसी समय सीढ़ी पर पैरों की आहट सुनाई दी। शैलेन उतरकर जा रहा है। सुनेत्रा जल्दी से उठ जाकर बोली, “बेटा शैलेन, क्या तुम जा रहे हो?”

शैलेन ने डरते-डरते ही कहा, “कुछ देर हो गई, घड़ी नहीं थी, मालूम नहीं पड़ा।”

सुनेत्रा बोली, “नहीं, कोई देर नहीं हुई। आज रात तुम्हें यहीं भोजन करके जाना है।”

इसी को तो कहते हैं प्रश्रय!

उसी रात अपनी जन्मपत्री संशोधन का सारा ब्योरा सुनेत्रा को कह सुनाया। वह कह उठी, “न बताते तो ही अच्छा था।”

“क्यों?”

“अब से केवल डरते-डरते रहना होगा।”

“किसका भय? वैधव्य योग का?”

बहुत देर तक सुनी चुप रही। फिर बोली, “नहीं, मैं भय नहीं मानूँगी। मैं यदि तुम्हें छोड़कर पहले चली जाऊँ तो फिर मेरी मृत्यु होगी, दोहरी मृत्यु।”

**समाप्त**

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