छठा बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chhatha Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

छठा बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chhatha Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Chhatha Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Chhatha Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

पाठक, जसवंतसिंह का बेहोश हो जाना कोई ताज्जुब की बात न थी बल्कि वाजिब ही था। हाय जिस शक्ल पर उसका दोस्त आशिक हुआ, जिसकी पत्थर की मूरत ने उसके दिली दोस्त का दिमाग बिगाड़ दिया, जिस सत्यानाशी सूरत ने उसके मित्र रनबीरसिंह का घर चौपट कर दिया, वही जानघातक सूरत इस समय फिर उसे अपने सामने नजर आ रही थी!

उस पत्थर की मूरत ने जिसमें हाथ-पैर हिलाने या चलने-फिरने या बोलने की ताकत न थी जब इतनी आफत मचाई तो यह मूरत तो हाथ-पैर हिलाने, चलने-फिरने, बोलने और हंसने की ताकत रखती है। वह बेजान थी यह जानदार है, वह स्थिर थी यह चंचल है, वह नकल थी यह असल है। जब उसने इतना किया तो यह क्या नहीं कर सकती है? फिर क्यों न जसवंतसिंह की यह दशा हो! यह सब कुछ तो है ही उस पर से अफसोस की बात यह कि जमाना भी बहुत बुरा है। किसी की बात का कोई विश्वास नहीं, किसी के दिल का कोई ठिकाना नहीं, किसी की दोस्ती का कोई भरोसा नहीं–अथवा है तो क्यों नहीं, लेकिन हुस्न और इश्क का झगड़ा बुरा होता है, खूबसूरती जी का जंजाल हो जाती है, और आदमी को शैतान बना देती है। यह वही जसवंतसिंह है जिसे अभी तक हम रनबीरसिंह का पक्का और सच्चा दिली दोस्त लिखते चले आए मगर देखा चाहिए कि इन महापुरुष के लिए आगे अब क्या लिखाना पड़ता है।

जसवंतसिंह को बेहोश होकर गिरते देख महारानी ने लौंडियों को कहा, ‘‘देखो-देखो, सम्हालो, यह रनबीरसिंह का दिली दोस्त है, इसे कुछ न होने पावे, बेदमिश्क वगैरह लाकर जल्द इस पर छिड़को!

मुंह पर अर्क बेदमिश्क इत्यादि छिड़कने से थोड़ी देर में जसवंतसिंह होश में आए और रानी के सामने बैठकर बोले– ‘‘क्या मैं स्वप्न देख रहा हूं या जाग रहा हूं? नहीं-नहीं, यह स्वप्न नहीं है, मगर स्वप्न नहीं, तो आखिर है क्या? क्या आप ही की मूरत उस पहाड़ी के ऊपर थी? नहीं-नहीं, इसमें तो कोई शक ही नहीं कि वह आप ही की मूरत थी जिसकी बदौलत मेरे दोस्त पर यह आफत आई और मुझको उनके साथ से अलग होना पड़ा! ठीक है, वह संगीन मूरत (पत्थर की मूरत) आप ही की थी जिसे कारीगर संगतराश ने बड़ी मेहनत और कारीगरी से बनाया था, मगर इतनी नजाकत और सफाई उस तसवीर में वह कहां से ला सकता था जो आप में है। रनबीर के नसीब ही में यह लिखा था कि वह उस मूरत ही को देखकर पागल हो जाए और आप तक न पहुंच सके, इसे कोई क्या करे? अपनी-अपनी किस्मत अपने-अपने साथ है!!

इतना कह जसवंतसिंह चुप हो रहे, मगर महारानी से न रहा गया। एक ‘हाय’ के साथ ऊंची सांस लेकर धीमी आवाज से बोलीं– ‘‘हां, वह पत्थर की मूरत तो मेरी ही थी मगर अफसोस, सोचा था कुछ और हो गया कुछ! खैर, अब ईश्वर मालिक है, देखा चाहिए क्या होता है, मैं अपने दुश्मन को खूब पहचानती हूं, आखिर वह जाता कहां है!’’

इतना कह महारानी चुप हो रही। जसवंतसिंह भी मुंह बंद किए बैठे रहे। थोड़ी देर तक बिलकुल सन्नाटा रहा, इसके बाद महारानी ने फिर जसवंतसिंह से कहा, ‘‘आज मैं अपने जासूसों को इस बात का पता लगाने के लिए भेंजूगी कि रनबीरसिंह कहां और किस हालत में हैं।’’

जसवंत–जरूर भेजना चाहिए।

महारानी–अभी आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं।

जसवंत–मैं जानता ही नहीं कि वह कहां है।

महारानी–अगर जान भी जाओ तो क्या करोगे?

जसवंत–जो बन पड़ेगा करूंगा! भला बताइए तो सही कि उनका वह दुश्मन कौन है और कहां है?

महारानी–यहां से बीस कोस दक्खिन की तरफ एक गांव है, जिसका मालिक बालेसिंह नामी एक क्षत्रिय है। कहने को तो वह एक जमींदार है, मगर पुराना डाकू है और उसके संगी-साथी इतने दुष्ट हैं कि वह राजाओं को भी कुछ नहीं समझता। जहां तक मैं समझती हूं यह काम उसी का है।

महारानी–(कुछ शर्माकर और नीची गर्दन करके) आपसे कहने में तो कोई हर्ज नहीं, खैर कहती हूं। एक वर्ष के लगभग हुआ कि उसने अपनी एक तसवीर मेरे पास भेजा और कहला भेजा कि तुम मेरे साथ शादी कर लो, पर मैंने इसे कबूल न किया। क्योंकि मेरा दिल अपने काबू में न था। बहुत पहले ही से वह रनबीरसिंह के काबू में जा चुका था और मैं दिल में उनको अपना मालिक बना चुकी थी, जिस बात को किसी तरह बालेसिंह भी सुन चुका था। उसने बहुत जोर मारा मगर कुछ न कर सका, बस यही असल सबब है।

जसवंत–(ताज्जुब में आकर) आपने रनबीरसिंह को कब देखा? क्या आप ही ने उस पहाड़ी पर अपनी रनबीरसिंह की मूरत बनवाई थी?

महारानी–हां, मगर वह सब हाल मैं, अभी न कहूंगी, मौका आवेगा तो तुम्हें आप ही मालूम हो जाएगा।

जसवंत–अच्छा उस बालेसिंह की वह तसवीर कहां है? जरा मैं देखूं?

महारानी–हां देखो, (एक लौंडी से) वह तस्वीर तो ले आ।

महारानी का हुक्म पाते ही लौंडी लपकी हुई गई और वह तसवीर जो हाथ भर से कुछ छोटी होगी, ले आई। जसवंतसिंह ने उसे गौर से देखा। अजीब तसवीर थी, उसके एक अंग से बहादुरी और दिलावरी झलकती थी, मगर साथ ही इसकी सूरत बहुत ही डरावनी, रंग काला, बड़ी-बड़ी सुर्ख आंखे, ऊपर की तरफ चढ़ी हुई कड़ी-कड़ी मूंछें–देखने ही से रोंगटे खड़े होते थे। मोटे-मोटे मजबूत ऐठे हुए अंगो पर की चुस्त पोशाक और ढाल तलवार पर निगाह डालने ही से बहादुरी छिपी फिरती थी, मगर जसवंतसिंह उसे देखकर हंस पड़ा और बोला–‘‘वाह! क्या सूरत है। कैसे हाथ पैर हैं! मजा तो तभी था न कि बहादुरी के साथ-साथ मेरे जैसी मुलायमियत और खूबसूरती भी होती। खैर आज ही कल में मुझसे और इस दुष्ट से हाथापाई होगी ही! देखें कितनी बहादुरी दिखाता है!’’

जसवंतसिंह की बात सुन और उसके चेहरे की तरफ गौर से देख, महारानी गुस्से में लाल आंखें कर उठ खड़ी हुईं और जब तक जसवंतसिंह आंख उठाकर उनकी तरफ देखें तब तक बिजली की तरह लपककर दूसरे कमरे में चली गई।

जसवंतसिंह ताज्जुब से उस तरफ देखने लगा बल्कि कुछ देरी तक देखता रहा लेकिन फिर महारानी न दिखाई पड़ीं हां, लौंडियां जितनी उस वक्त उस जगह खड़ी थीं ज्यों की त्यों जसवंतसिंह को घेरे खड़ी रहीं।

अब तो जसवंत के दिल में बड़े-बड़े खयाल पैदा होने लगे। महारानी क्यों चली गई? जाती वक्त मुझसे कुछ कहा भी नहीं? कुछ रंज तो नहीं हो गईं! इस तसवीर की निंदा करने से कुछ गुस्सा तो नहीं आ गया। वह तो इस डाकू से अपना रंज और रनबीरसिंह से मुहब्बत दिखाती थीं! फिर यह क्या हो गया? हाय, क्या भोली सूरत है! रनबीरसिंह का इस पर आशिक होना ठीक ही था मगर वह पत्थर की मूरत इतनी खूबसूरत कहां जितनी यह खुद है! वाह वाह, मेरी भी किस्मत कितनी अच्छी थी, जो अपनी आंखों से इनकी मोहिनी मूरत देख ली। कंबख्त रनबीरसिंह की ऐसी किस्मत कहां? वाह क्या मजे में सामने बैठी बातचीत कर रही थीं, यकायक न मालूम क्यों उठकर चली गईं और अभी तक न लौटीं। मेरा तो यही जी चाहता है कि दिन-रात बैठे-बैठे इनकी सूरत ही देखा करूं, रनबीरसिंह की खोज में कहां टक्करें मारता फिरूंगा! यह तो अपनी किस्मत है, जो जिसके नसीब में लिखा है होगा ही, किसी की मदद से क्या होता जाता है? मगर अफसोस तो यही है कि यह रनबीरसिंह पर आशिक है। कोई तरकीब ऐसी करनी चाहिए। जिससे यह रनबीरसिंह को भूल जाय और मेरे साथ ब्याह करने पर राजी हो जाय। क्या मैं किसी तरह रनबीरसिंह से खूबसूरती में कम हूं? बात यह है कि इसने पहले किसी तरह रनबीर को देख लिया है या उसकी तसवीर ही देख ली है और इसी से उसके ऊपर जान दे बैठी है। रनबीर के बदले में पहले मुझे देखती तो मेरी ही किस्मत जाग जाती। खैर, रनबीर तो इस वक्त जहन्नुम में जा पड़ा है, किसी तरह न छूटे सो ही ठीक है, आखिर दस-पांच दिन में यह मेरे साथ मिल ही जाएगी, मगर जब तक रनबीर की उम्मीद है, तब तक यह मुझे न कबूल करेगी! अगर उस डाकू ने रनबीर को मार डाला हो तो बड़ी खुशी की बात है, नहीं तो जिस तरह हो सके उससे मिलकर रनबीर को खत्म करा देना चाहिए, तब मेरा काम होगा, ऐसी खूबसूरत औरत भी मिलेगी और इस राज्य का मालिक भी बनूंगा।

दुष्ट और बेईमान जसवंत सिंह वहां बैठा-बैठा इसी किस्म की बातें सोच रहा था कि इतने में एक लौंडी वहां आई जिसे जसवंत ने पहले नहीं देखा था और उसने कहा, ‘‘भोजन तैयार है, चलिए खा लीजिए।’’

जसवंत– कहां चलूं? तुम्हारी महारानी कहां गई! क्या अब वह न आवेंगी?

लौड़ी– जी नहीं, अब इस वक्त उनसे मुलाकात न होगी, आपको दूसरे मकान में ले चल कर, भोजन कराने के लिए हुक्म दिया है।

जसंवत–अच्छा चलिए, उनका हुक्म मानना जरूरी है।

जसवंतसिंह को साथ लिए हुए वह लौंडी उस महल के बाहर हुई और अलग एक दूसरे मकान में ले गई, जहां खाने-पीने तथा आराम करने और सोने का बिलकुल सामान दुरुस्त था और दो लौंडियां भी हाजिर थीं।

जसवंत ने आज खूब पेट भर के भोजन किया और चारपाई पर लेटकर रनबीरसिंह और महारानी के बारे में क्या-क्या करने चाहिए, यही सब सोचने लगा।

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