छब्बीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chhabbeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

छब्बीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chhabbeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Chhabbeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Chhabbeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

रनबीर को साथ लिए हुए साधु महाशय धीरे-धीरे पश्चिम की तरफ रवाना हुए और सूर्य अस्त होते-होते तक जंगल ही जंगल बराबर चले गए। यद्यपि धूप की तेजी दुःखदाई थी, परन्तु घने पेड़ों की बदौलत दोनों मुसाफिरों को कोई कष्ट न हुआ। इस बीच में उन दोनों में विशेष बातचीत न हुई, हां, दो-चार बातें मतलब की हुईं जिन्हें हम नीचे लिखते हैं–

साधु–तुमने समझा होगा कि जसवंत को मारकर और बालेसिंह को बेकाम करके हम निश्चिन्त हो गए मगर नहीं, तुम्हें उस भारी दुश्मन की कुछ भी खबर नहीं है जिसकी बदौलत तुम्हारे पिता ने दुःख भोगा और जो तुमको भी सुख की नींद सोने न देगा।

रनबीर–उस कागज के पढ़ने से मुझे बहुत कुछ हाल मालूम हुआ है। आशा है कि उस दुश्मन का पता आप मुझे देंगे और मैं जिस तरह हो सकेगा उससे बदला ले सकूंगा।

साधु–बेशक ऐसा ही होना चाहिए। तुम वीर-पुत्र हो इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम स्वयं बहादुर हो, इसलिए दुश्मन से अपना बदला अवश्य लोगे। मैं एक आदमी से तुम्हारी मुलाकात कराता हूं, जो समय पर तुम्हारी सहायता करेगा। ताज्जुब नहीं कि इस काम को करते-करते बहुत से दीन दुःखियाओं का भला भी तुम्हारे हाथ से हो जाए। तुम्हें इस समय कुसुम का ध्यान भला देना चाहिए क्योंकि उस कागज के पढ़ने से तुम समझ ही गए होगे कि कुसुम की भलाई भी इस काम के साथ ही साथ होगी।

रनबीर–बेशक ऐसा ही है।

इसके अतिरिक्त और जो कुछ बातें हुईं उनके लिखने की हम कोई आवश्यकता नहीं समझते।

सूर्य अस्त होने पर ये दोनों यात्री उस घने जंगल से बाहर हुए और एक पहाड़ी के नीचे पहुंचे, अब साधु महाशय उस पहाड़ी के नीचे-नीचे दक्खिन की तरफ जाने लगे। लगभग आध कोस के जाने बाद एक छोटी-सी बावली और उसके किनारे एक बारहदरी दिखाई पड़ी जिसके पास पहुंचने पर साधु महाशय ने रनबीर की तरफ देखा, ‘‘दो-तीन घंटे यहां आराम करना उचित है, इसके बाद पहाड़ी पर चढ़ेंगे।’’ इसके जवाब में रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा ।’’

पहर भर से ज्यादे रात जा चुकी है, चन्द्रमा के दर्शन की कोई आशा नहीं है परन्तु साधु महाशय को इसकी कोई परवाह नहीं, वह रनबीरसिंह को साथ ले पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। इस समय रनबीरसिंह के दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होती थीं परन्तु न जाने क्यों उन्हें साधु पर इतना विश्वास हो गया था कि उसकी आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी करने का जरा भी साहस नहीं कर सकते थे। आधी रात जाने के पहले ही दोनों मुसाफिर उस पहाड़ी के ऊपर जा पहुंचे।

इस पहाड़ी के ऊपर से चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखना और विचित्र छटा का आनन्द लेना इस समय कठिन है क्योंकि रात का समय तिस पर चन्द्रदेव के दर्शन अभी तक नहीं हुए, हां, इतना मालूम हुआ कि पश्चिम तरफ मैदान है। रनबीरसिंह को साथ लिए हुए साधु महाशय उसी मैदान की तरफ रवाना हुए और लगभग आध कोस के जाकर रुके क्योंकि आगे की जमीन ढालवी थी और उन दोनों को नीचे की तरफ उतरना था। रनबीरसिंह को चलने में परिश्रम हुआ होगा और थक गए होंगे यह सोचकर साधु महाशय रनबीरसिंह को एक चट्टान पर बैठने का इशारा करके आप भी उसी पर बैठ गए मगर थोड़ी देर दम लेकर फिर उठ खड़े हुए और बाईं तरफ झुकते हुए ढालवी पहाड़ी उतरने लगे। लगभग सौ कदम के जाकर एक गुफा के मुंह पर साधु खड़े हुए और कुछ ऊंची आवाज में बोले, ‘‘महादेव,’’ इसके जवाब में गुफा के अन्दर से भी वैसी ही आवाज आई और साथ ही इसके एक संन्यासी बाहर निकल आया जिसने रनबीरसिंह की तरफ इशारा करके साधु महाशय से कुछ पूछा। संन्यासी की विचित्र बोली रनबीर की समझ में न आई और उसके जवाब में साधु ने भी जो कुछ कहा वह भी वे समझ न सके। इसके बाद दोनों को लिए हुए संन्यासी गुफा के अन्दर चला गया और जब तक रात बाकी रही उस गुफा के अन्दर से कोई भी न निकला, सवेरा होने पर बल्कि कुछ दिन निकलने पर तीनों आदमी गुफा के बाहर आए। मगर इस समय रनबीर सिंह की सूरत कुछ विचित्र ही हो रही थी, उनका तमाम बदन इतना काला हो गया था कि उनका संगी-साथी भी उन्हें नहीं पहचान सकता था। रनबीरसिंह अपने बदन की तरफ देखकर हंसे और बोले, ‘‘बूटी तो लाल थी परन्तु उसके रस ने मुझे बिलकुल ही काला कर दिया।’’

संन्यासी–धूप लगने पर यह रंग और भी काला और चमकीला होगा और महीने भर तक इसमें किसी तरह की कमी न होगी, इसके अन्दर तुम्हारा काम न हुआ तो एक दफे फिर उसी बूटी का रस लगाना।

रनबीर–बहुत अच्छा।

संन्यासी–उसी बूटी को तुमने बखूबी पहचान लिया है न?

रनबीर–जी हां, मैं बखूबी पहचान गया।

संन्यासी–इस पहाड़ी में वह बूटी बहुतायत से मिलेगी। अच्छा अब वहां जाने का रास्ता तुम्हें समझा देना उचित है (इशारा करके) तुम इस तरफ जाओ, थोड़ी-थोड़ी दूर पर स्याह पत्थर की छोटी-छोटी ढेरियां तुम्हें मिलेंगी, उन्हें बाईं तरफ रखते चले जाना, अर्थात उन ढेरियों के दाहिनी पगडण्डी पर बराबर चले जाना, और वहां का हाल तो तुम्हें अच्छी तरह समझा ही चुके हैं। और कुछ पूछना है या सब बातें ध्यान में अच्छी तरह आ गई?

रनबीर–अब कुछ नहीं पूछना है, सब बातें मैं अच्छी तरह समझ गया।

इसके बाद साधु और संन्यासी से रनबीरसिंह विदा हुए और पश्चिम तरफ चल निकले। इस समय सूरत शक्ल के साथ ही साथ रनबीरसिंह की पोशाक भी बदली हुई थी। वह फकीरी के वेश में थे और हाथ में एक लकड़ी के सिवाय एक छोटी-सी कटार भी कमर में छिपाए हुए थे। दो सौ कदम जाकर एक स्याह पत्थर की ढेरी नजर आई जिसके दाहिनी तरफ पगडण्डी थी। रनबीरसिंह उसी पगडण्डी पर चलने लगे और इसी तरह स्याह पत्थर की ढेरियों को अपना निशान मान कर दो पहर दिन चढ़े तक एक चश्मे के किनारे पहुंचे जिसके दोनों तरफ सायेदार और घने पेड़ लगे हुए थे। रनबीरसिंह ने पीछे फिर कर देखा तो बहुत ऊंचा पहाड़ दिखाई दिया क्योंकि अभी तक वे बराबर नीचे अर्थात् ढाल की तरफ ही उतरते चले गए थे। सामने और दाहिनी तरफ भी ऊंचा पहाड़ था मगर बाईं तरफ जहां तक निगाह काम करती थी बराबर जमीन और घना जंगल दिखाई देता था और यह चश्मा भी उसी तरफ बह कर गया था।

रनबीरसिंह को सफर की थकावट और भूख ने आगे चलने न दिया इसलिए थोड़ी देर तक आराम करना उन्हें उचित जान पड़ा। पास ही के पेड़ों में से जंगली फल जो वहां बहुतायत से लगे हुए थे, तोड़कर खाए और चश्मे के पानी से प्यास बुझा कर पत्थर की एक चट्टान पर लेट रहे, जो चश्मे के किनारे ही सायेदार पेड़ों के नीचे थी। जंगली पेड़ों से छनी हुई निरोग और ठंडी-ठंडी हवा लगने से उन्हें नींद आ गई और वे ऐसा बेखबर सोए कि सूर्यास्त तक उठने की नौबत न आई। सन्ध्या होते-होते दस-पन्द्रह सिपाही एक पालकी को घेरे हुए वहां आ पहुंचे और दम लेने के लिए उसी चश्मे के किनारे थोड़ी दूर तक ठहर गए। उन लोगों की आवाज से रनबीरसिंह की नींद उचट गई। वे घबरा कर उठ बैठे और आसमान की तरफ देख कर अफसोस करने लगे क्योंकि शाम होने के पहले ही उन्हें उस जगह पहुंच जाना चाहिए था, जहां ये जा रहे थे। यद्यपि वह जगह अब बहुत दूर न थी परन्तु रात के समय उन निशानों का पाना बहुत ही मुश्किल था जिनके सहारे वे चश्मे के आगे बढ़कर अपने नियत स्थान पर पहुंचते।

थोड़ी देर तक चिन्ता करने के बाद रनबीरसिंह उठ खड़े हुए और यह जानने के लिए पालकी की तरफ बढ़े कि उसके अन्दर कौन है और इतने सिपाही उस पालकी को घेर कर क्यों और कहां चले जाते हैं। इस विचार के साथ ही रनबीरसिंह को यह भी शक हुआ कि इन सिपाहियों को हमने कहीं देखा है, यह इनकी चाल-ढाल से जानकार अवश्य हैं। आखिर दिल ने गवाही दी और बता दिया कि बेशक ये सब बालेसिंह के सिपाही हैं।

हम ऊपर लिख आए हैं कि इस सफर में रनबीरसिंह फकीराना भेष में थे, साथ ही उनका शरीर भी इतना काला हो गया था कि उनकी मां भी यदि देखती तो शायद पहचान न सकती, इसलिए हमारे बहादुर ने निश्चय कर लिया कि ये लोग मुझे कदापि न पहचान सकेंगे अस्तु पास चलकर टोह लेना चाहिए कि ये लोग कहां जा रहे हैं और इस पालकी के अन्दर कौन है।

रनबीरसिंह मस्त साधु की नकल करते हुए उस पालकी की तरफ चले अर्थात कभी जमीन और कभी आसपास की तरफ देखते और यह बकते हुए आगे बढ़े कि–‘‘अहा! तू ही तो है!’’ जब पालकी के पास पहुंचे तो सिपाहियों ने हाथ जोड़ा और अनोखे बाबाजी ने पालकी की तरफ देख के कहा–अहा! तू ही तो है! फिर आसमान की तरफ देखके कहा-अहा! तू ही तो है! उस पालकी का पट खुला हुआ था इसलिए रनबीरसिंह ने देख लिया कि उसके अन्दर बालेसिंह लेटा हुआ है।’’

ऐसे उजाड़ और बीहड़ स्थान में बालेसिंह को देखकर रनबीरसिंह को ताज्जुब नहीं हुआ क्योंकि स्वामीजी की बदौलत वे बालेसिंह के गुप्त भेदों को अच्छी तरह जान चुके थे और उन्हें यह भी निश्चय हो गया था कि जहां मैं जा रहा हूं बालेसिंह भी उसी जगह जाएगा। बालेसिंह के सिपाहियों ने भी रनबीरसिंह को अच्छी तरह गौर से देखा मगर महात्मा जानकर चुप हो रहे, कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ी। रनबीरसिंह भी ज्यादा देर तक पालकी के पास न रहे, वहां से लौट कर चश्मे के पार उतर गए और एक पेड़ के नीचे बैठकर देखने लगे कि वे लगे कि अब वे लोग क्या करते हैं या किधर जाते हैं।

घंटे ही भर के बाद अन्धकार ने धीरे-धीरे अपना दखल जमा लिया। बालेसिंह के सिपाहियों ने मशालें जलाईं, कहारों ने पालकी उठाई और सभी ने उस तरफ का रास्ता लिया जिधर चश्मे का पानी बहकर जा रहा था। रनबीरसिंह को भी उसी तरह जाना था मगर एक तो संध्या हो गई थी दूसरे बालेसिंह के साथ जाना भी मुनासिब न जाना, लाचार यह निश्चय किया कि रात इसी जंगल में बितावेंगे और सवेरा होने पर रवाना होंगे। रनबीरसिंह एक पत्थर की चट्टान पर लेट रहे मगर दिन को सो जाने और इस समय तरह-तरह के विचारों मे डूबे रहने के कारण उन्हें नींद न आई। पहर रात जाते-जाते तक जंगली जानवरों के बोलने की आवाज आने लगी। ऐसी अवस्था में वहां ठहरना उचित न जान रनबीरसिंह एक ऊंचे और घने पेड़ पर चढ़ गए।

उन्हें पेड़ पर चढ़े आधी घड़ी से ज्यादे न बीती थी कि दूर से मशाल की रोशनी नजर आई जो इन्हीं की तरफ चली आ रही थी, कुछ पास आने पर मालूम हुआ कि एक आदमी हाथ में मशाल लिए हुए आगे है और उसके पीछे पांच औरतें और हाथ में नंगी तलवार लिए हुए एक सिपाही है। कुछ ही देर में वे औरतें उसी पेड़ के नीचे आ पहुंची जिस पर रनबीरसिंह चढ़े हुए थे। वे पांचो औरतें कमसिन और खूबसूरत थीं लेकिन पोशाक उनकी बिलकुल ही सादी यद्यपि साफ थी, बदन में जेवर का नाम निशान न था। ये औरतें बहुत ही खूबसूरत और भोली-भाली थी मगर इनके चेहरे पर रंज गम और तरद्दुद की निशानी साफ-साफ पाई जाती थी। ये सब औरतें एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गईं जो उसी पेड़ के नीचे था, एक तरफ मशालची खड़ा हो गया और दूसरी तरफ वह सिपाही भी हुकूमत की निगाह से उन औरतों की तरफ देखता हुआ खड़ा हो गया।

अन्दाज से मालूम होता था कि इन सभी को शीघ्र ही किसी के आने की आशा है, क्योंकि वे पांचों औरतें सिर झुकाए बैठी हुई थीं। मशालची अपना काम कर रहा था, सिपाही को केवल हिफाजत का खयाल था पूरी तौर से सन्नाटा था, कोई किसी से बात करने की इच्छा भी नहीं करता था। आधे घंटे तक यही हालत रही, इसके बाद घोड़े की टापों की नर्म आवाज आने लगी, जिससे साफ जाना जाता था कि कोई आदमी घोड़े पर सवार धीरे-धीरे इसी तरफ आ रहा है। टापों की आवाज ने सभी को चौंका दिया, मशालची ने कुप्पी में से तेल उलट कर मशाल की रोशनी तेज कर दी, सिपाही अपने कुर्ते को जो कई जगह से सिकुड़ गया था, खींच-तानकर और चपरास को ठीक कर मुस्तैदी के साथ खड़ा हो गया, मगर उन पांचों औरतों के चेहरे पर बदहवासी का हिस्सा बहुत ज्यादा हो गया और वे तरद्दुद भरी निगाहों से एक दूसरी को देखने और आंसू की बूंदे गिराने लगीं। बात की बात में वह सवार वहां आ पहुंचा जिसके आने की आहट ने सभी की हालत बदल दी थी। उसे देखते ही वे औरतें उठी और हाथ जोड़कर मगर सिर झुकाए हुए सामने खड़ी हो गई। पेड़ पर बैठे हुए रनबीरसिंह सोच रहे थे कि वह बेशक कोई जालिम और भयानक रूपधारी मनुष्य होगा जिसके आने की आहट से वे औरतें ज्यादे दुःखी और परेशान हो गई थीं, मगर नहीं यह आदमी बहुत ही हसीन और नौजवान था। इसकी पोशाक भी बेशकीमती थी, इसका मुश्की घोड़ा भी बहुत ही खूबसूरत और चंचल था, और सूरत देखने से यह जवान नेक और रहमदिल भी मालूम पड़ता था, फिर भी न मालूम वे औरतें उसके आने से इतना क्यों डरी थीं। हां, एक बात और कहने के लायक है जो यह कि उस अभी आए हुए नौजवान की सूरत से भी रंज और गम की निशानी पाई जाती थी। वह अपने घोड़े से नहीं उतरा मगर हसरत भरी निगाहों से उन औरतों की तरफ देखने लगा।

उन औरतों में से जो अभी तक हाथ जोड़े खड़ी थीं, एक ने सिर उठाया और नौजवान की तरफ देखकर पूछा, ‘‘क्या हम लोगों के लिए जो कुछ हुक्म हुआ था वह बहाल ही रहा?’’

इसके जवाब में नौजवान ने एक लम्बी सांस लेकर कहा, ‘‘अफसोस! क्या करूं लाचार हूं!!’’

उस औरत ने फिर पूछा, ‘‘क्या कुसुम कुमारी के लिए भी वही हुक्म दिया गया है?’’

अबकी दफे जवान ‘‘हां!’’ करके रह गया!

अभी तक तो रनबीरसिंह बड़ी सावधानी से इन सभी की बातें सुन रहे थे मगर आखिरी दो बातों ने उन्हें भी उदास करके तरद्दुद में डाल दिया। वह सोचने लगे कि ये औरतें कौन हैं। यह नौजवान कहां से आया। इन औरतों से और कुसुम कुमारी से क्या निस्बत या इस नौजवान से और कुसुम कुमारी से क्या सम्बन्ध। और इस भयानक जंगल में कुसुम कुमारी पर हुकूमत करने वाला कौन है और कहां रहता है। आह, इस जगह उन्हें एक दूसरे की तरद्दुद ने घेर लिया और वे मन ही मन सोचने लगे, ‘अब मुझमें इतनी ताकत न रही कि इन बातों का पता लगाए बिना आगे बढ़ूं। खैर, देखना चाहिए अब ये औरतें कहां जाती हैं और यह नौजवान इन सभी के साथ कैसा बर्ताव करता है!!’’

उन सभी में फिर कुछ बातें न हुई, हां उस नौजवान ने उन पांचों की तरफ देखकर केवल इतना कहा, ‘‘अच्छा मेरे पीछे-पीछे चले आओ।’’ नौजवान ने धीरे-धीरे घने जंगल की तरफ घोड़ा बढ़ाया। सिपाही मशालची और औरतें पीछे-पीछे जाने लगीं। रनबीर से भी रहा न गया, उन सभी के कुछ आगे बढ़ जाने पर वे भी पेड़ से उतरे और छिपते हुए उन सभी के पीछे-पीछे रवाना हुए।

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