चौथा बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chautha Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

चौथा बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chautha Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Chautha Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Chautha Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

सवेरा हो गया था जब बाबाजी को साथ लिए हुए ये ग्यारहों सवार उस पहाड़ी के नीचे पहुंचे। देखा कि उनके साथी सवारों में से बहुत से उसी जगह खड़े हैं।

हरीसिंह ने उनसे पूछा, ‘‘क्या हाल है?’’

एक सवार ने जवाब दिया, ‘‘कुछ साथी लोग उनको लेने के लिए ऊपर गए हैं।’’

हरीसिंह ने एक लंबी सांस लेकर कहा, ‘‘ऊपर है कौन जिसे लेने गए हैं, वहां तो मामला ही दूसरा हो गया। क्या जाने ईश्वर की क्या मर्जी है? (जसवंतसिंह की तरफ देखकर) आइए बाबाजी, हम और आप भी ऊपर चलें।’’

हरीसिंह और जसवंतसिंह घोड़े पर से उतर पहाड़ी के ऊपर गए और बाग में जाकर, अपने साथियों को रनबीरसिंह की खोज में चारों तरफ घूमते देखा।

हरीसिंह और बाबाजी को देख एक सवार जो सभी का बल्कि हरीसिंह का भी सरदार मालूम होता था आगे बढ़ आया और बोला, ‘‘हरीसिंह, यहां तो कोई भी नहीं है! माली ने बिलकुल गप्प उड़ाकर हम लोगों को फजूल ही हैरान किया।’’

हरीसिंह–नहीं-नहीं, माली ने झूठी खबर नहीं पहुंचाई थी।

सरदार–क्या इन बाबाजी से कोई हाल तुम्हें मिला है?

हरीसिंह–हां, बहुत कुछ हाल मिला है। यह कहते हैं कि पांच सवारों ने यहां आकर रनबीरसिंह को गिरफ्तार कर लिया और अपने साथ ले गए।

सरदार–(चौंककर) है, यह क्या गजब हो गया! (बाबाजी की तरफ देखकर) बाबाजी, क्या यह बात ठीक है?

जसवंत–हां, मैं बहुत ठीक कह रहा हूं।

इसके बाद हरीसिंह ने अपने सरदार से वे सब बातें कहीं जो रास्ते में बाबाजी से हुई थीं और आखिर में यह भी कहा कि यह बाबाजी हमें असली बाबाजी नहीं मालूम होते, जरूर इन्होंने अपनी सूरत बदली है। जब से यह घोड़े पर सवार होकर हमारे साथ चले हैं तभी से मैं इस बात को सोच रहा हूँ, क्योंकि जिस तरह सवार होकर ये बराबर हम लोगों के साथ घोड़ा फेंके चले आए हैं, इस तरह की सवारी करना किसी बाबाजी का काम नहीं है, कौन ऐसे बाबाजी होंगे?

हरीसिंह की बातें सुनकर सरदार ने गौर से जसंवतसिंह की तरफ देखा और कहा–

‘‘कृपानिधान, अब आप अपना ठीक-ठीक हाल कहिए, यह तो आपको भी मालूम हो गया कि हम लोग रनबीरसिंह के खैरख्वाह हैं, और मुझे भी यकीन होता है कि आप भी रनबीरसिंह की भलाई चहानेवालों में से है, फिर छिपे रहने की जरूरत ही क्या है?’’

जसवंतसिंह ने कहा, ‘‘मैं अपना हाल जरूर कहूंगा! मैंने अपनी ऐसी सूरत इसीलिए बनाई थी कि जब इस तरफ कोई मेरा मददगार नहीं है तो अपने दोस्त रनबीरसिंह को किस तरह छुडाऊंगा? मेरा नाम जसवंतसिंह है, मुझसे और रनबीरसिंह से दिली दोस्ती है।’’

जसवंतसिंह इतना ही कहने पाए थे कि सरदार ने रोक दिया लपककर जसवंतसिंह का हाथ पकड़ के कहने लगा, ‘‘बस-बस, मालूम हो गया, अहा! क्या, जसवंतसिंह आपही का नाम है? बेशक आपसे और रनबीरसिंह से दिली दोस्ती है!

अब ज्यादे पूछने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ इतना कहिए कि आपसे और उनसे जुदाई कैसे हुई?’’

जसवंतसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा, ‘‘पहले यह तो बताइए कि आपने मेरा नाम कब और कैसे सुना?’’

सरदार–यह किसी दूसरे वक्त पूछिएगा, पहले मेरी बातों का जवाब दीजिए।

जसवंत–मैं और रनबीरसिंह दोनों दोस्त एक साथ ही भूले-भटके यहां तक आ पहुंचे। (हाथ का इशारा करके) उस मंदिर में जो औरत की मूर्ति है उसे देखते ही रनबीरसिंह के सिर पर इश्क सवार हो गया और पूरे पागल हो गए। जब मेरे समझाने-बुझाने से न उठे तब लाचार हो उनके लिए कुछ खाने-पीने का बंदोबस्त करने मैं उस गांव की तरफ जा रहा था, जिसके पास आप लोगों से मुलाकात हुई थी, बस उसी वक्त से हम दोनों जुदा हुए।

सरदार–उन सवारों को आपने कहां देखा था, जो रनबीरसिंह को कैद करके ले गए हैं?

जसवंत–मैं उस गांव के पास पहुंचा भी न था कि पांचों सवारों के दर्शन हुए। उन्होंने मुझसे रोक-टोक की पर मैंने अपना ठीक पता नहीं दिया फिर भी उनकी बातचीत से मुझे शक हुआ, नहीं बल्कि निश्चय हो गया कि वे लोग इस पहाड़ी पर जरूर पहुंचेंगे क्योंकि उनके सरदार ने अपने जेब से एक तस्वीर निकालकर देखी और कहा, ‘‘मैं उस दूसरे आदमी की खोज में निकला हूं–इससे कोई मतलब नहीं, चलो देरी होती है।’’ इतना कह साथियों को साथ ले वह तेजी से इसी पहाड़ी की तरफ रवाना हुआ। मुझे यकीन हो गया कि ये लोग जरूर मेरे दोस्त को परेशान करेंगे इसलिए मैं भी तुरंत इसी तरफ लौटा मगर अब क्या हो सकता था, वे लोग घोड़ों पर थे और मैं पैदल, जब तक यहां पहुंचूं, वे लोग मेरे प्यारे दोस्त को गिरफ्तार करके ले गए। यहां आकर जब मैंने अपने लंगोटिए दोस्त को न देखा, जी में बड़ा दुःख हुआ। यह बाग राक्षस की तरह खाने को दौड़ने लगा। उसी वक्त पहाड़ी के नीचे उतर गया और जहां हमारे घोड़े मरे पड़े थे वहीं बैठकर रनबीरसिंह के बारे में सोचने लगा। आखिर अपने कपड़े उतारकर फेंक दिए और इस फकीरी सूरत में दोस्त को खोजने निकला, दिल में निश्चय कर लिया कि बिना उनसे मिले खुद भी अपने घर न लौटूंगा, इसी सूरत में रहूंगा। उन्हीं की खोज में फिर उसी गांव की तरफ जा रहा था कि रास्ते में आप लोगों से मुलाकात हुई। इसके आगे का हाल आप जानते ही है, मैं क्या कहूं।’’

इतना कह जसवंतसिंह दोस्त के गम में आंसू गिराने लगे, यहां तक कि हिचकी बंध गई।

सरदार ने उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया और दिलासा देकर कहा, ‘‘आप इतना सोच न कीजिए। हम लोग आपके साथ है, जब तक दम है आपके मित्र का पता लगाने में कसर न करेंगे और न उनके दुश्मन से बदला लिए बिना ही छोड़ेंगे। मगर आपका यह सोचना ठीक नहीं कि जब तक दोस्त न मिले तब तक बाबाजी बने रहें, आप अकेले ढूंढने निकलते तो जोगी बनना वाजिब था, मगर हम लोगों के साथ फकीरी भेष में चलना ठीक नहीं है क्योंकि इसका कोई ठिकाना नहीं कि हम लोगों को कब लड़ने-भिड़ने का मौका आ पड़े तो, क्या आप क्षत्रिय होकर उस वक्त खड़े मुंह देखेंगे?’’

ऐसी-ऐसी बातें करके उस सरदार ने जिसका नाम चेतसिंह था, जसवंतसिंह को अपने कपड़े पहनने और हरबे लगाने पर राजी किया और सब कोई वहां से उठ पहाड़ी के नीचे आए।

रनबीरसिंह और जसवंतसिंह के दोनों मरे हुए घोड़े अभी तक उसी तरह पड़े हुए थे, किसी जानवर ने भी नहीं खाया था, और उन्हीं के पास ही जसवंतसिंह के कपड़े जहां से छोड़ गए थे उसी तरह ज्यों के त्यों पड़े थे जिसे उन्होंने झाड़ पोंछकर फिर पहन लिया।

सरदार चेतसिंह ने अपनी सवारी का घोड़ा जसवंतसिंह को दिया और जिस घोड़े पर जसवंतसिंह आए थे वह हरीसिंह को दे उनका घोड़ा आप ले लिया।

थोड़ी देर तक यह मंडली उस पहाड़ी के नीचे बैठकर यह सोचती रही कि अब क्या करना चाहिए। आखिर सरदार चेतसिंह ने कहा, ‘‘पहले महारानी के पास चलकर यह सब हाल कहना चाहिए, शायद उनको पता हो कि उनका दुश्मन कौन है। हम लोग तो कुछ नहीं जानते कि महारानी का दुश्मन भी कोई है और न इसी बात का विश्वास होता है कि ऐसी नेक रहमदिल गरीब परवर और बुद्धिमान महारानी का कोई दुश्मन भी होगा।’’

आखिर यही राय ठीक रही और अपने-अपने घोड़ों पर सवार हो सब उसी गांव की तरफ रवाना हुए। जसवंतसिंह ने सरदार चेतसिंह से बहुत पूछा कि वह महारानी कौन है और रनबीरसिंह से उनसे क्या वास्ता, परंतु सरदार चेतसिंह ने कुछ भी खुल के न कहा और न उनके इस सवाल का कोई जवाब दिया कि मैं तो लड़कपन से रनबीरसिंह के साथ हूं, उन्हें कभी कहीं आते-जाते नहीं देखा, तब महारानी से उनकी जान-पहचान कब हुई?

ये सब के सब सवार जो गिनती में जसवंतसिंह सहित इक्यावन थे, उस गांव में पहुंचे जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है। यह गांव बहुत छोटा था और इसमें पचास-साठ घर से ज्यादे की बस्ती न होगी।

जसवंतसिंह ने पूछा, ‘‘यह गांव किसके इलाके में है?’’

सरदार चेतसिंह–हमारे ही सरकार का है।

जसवंत–इसी राह से वे पांचों सवार आए थे जिन्होंने रनबीरसिंह को गिरफ्तार किया है। अगर मुनासिब हो तो यहां के रहनेवालों से कुछ पूछिए।

चेतसिंह–नहीं, मेरी समझ में यह बात जाहिर करने लायक नहीं है।

जसवंत–जैसा मुनासिब समझिए।

ठीक शाम के वक्त ये लोग एक लंबे-चौड़े मैदान में पहुंचे, जहां पल्टनी सिपाहियों के रहने लायक कई खंभे खड़े थे और बहुत से आदमी खाने की चीजें तैयार कर रहे थे, पास ही एक बहुत बड़ा कुआं भी था।

सरदार चेतसिंह ने घोड़ा रोककर जसवंतसिंह से कहा, ‘‘यह हम लोगों का पड़ाव (टिकने की जगह) है। हम लोगों के घोड़े बहुत थक गए हैं और हम लोग खुद भी बहुत भूखे-प्यासे हैं। इस वक्त रात को इस जगह खा-पीकर आराम करना मुनासिब होगा, कल सवेरे कुछ रात रहते हम लोग फिर रवाना होंगे।’’ जसवंत सिंह ने जवाब दिया, जो आप बेहतर समझिए वही ठीक है, मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि कहां जाना है या क्या करना है और कितनी दूर का सफर बाकी है।’’

सरदार चेतसिंह ने इसका जवाब कुछ न दिया। खेमों के पास पहुंचकर कुल सवार घोड़ों पर से उतर पड़े। यहां पर बहुत से साईस भी मौजूद थे जिन्होंने उसी वक्त आगे बढ़कर अपने-अपने घोड़े थाम लिए और मलने-दलने की फिक्र में लगे।

सरदार चेतसिंह जसवंतसिंह को साथ लिए एक खेमे में गए जो वनिस्बत और खेमों के छोटा मगर खूबसूरत था और जिसके अंदर एक सफरी चारपाई और एक खूबसूरत पंलग बिछा हुआ था। सरदार चेतसिंह ने पलंग की तरफ इशारा करके जसवंतसिंह से कहा, ‘‘रनबीरसिंह के लिए यह मसहरी बिछाई गई थी। हम लोग सोचते थे कि आज उनको अपने साथ लाकर इसी मैदान में डेरा करेंगे, मगर अफसोस, बिलकुल मेहनत बर्बाद गई। अब आप इस मसहरी पर आराम कीजिए।’’

सरदार चेतसिंह की बातें सुन और मसहरी के पास बैठ रनबीर सिंह को याद कर जसवंतसिंह खूब रोए। सरदार ने उन्हें बहुत कुछ समझाया और हिम्मत दिलाकर आंसू पोंछ हाथ-मुंह धुलवाया। घंटे भर बाद खाने की तैयारी हुई और सरदार ने जसवंतसिंह को खाने के लिए कहा।

जसवंतसिंह तीन दिन के भूखे थे तिस पर भी खाने से इनकार किया। सरदार चेतसिंह के बहुत कहने-सुनने और कसम देने पर मुश्किल से दो-चार ग्राम खाकर उठ खड़े हुए और हाथ-मुंह धो खेमे के अंदर आ उसी सफरी चारपाई पर लेट रहे, जो सरदार चेतसिंह के लिए बिछी हुई थी और पड़े-पड़े रनबीरसिंह की याद में आंसू बहाने लगे।

सरदार ने आकर देखा कि जसवंतसिंह मसहरी छोड़ उसकी चारपाई पर लेटे हैं। समझ गए कि इनको रनबीरसिंह का गम हद्द से ज्यादे है, उनके वास्ते लगाई मसहरी पर कभी न सोवेंगे और इसके लिए जिद्द करना उन्हें दुःख देना होगा, लाचार दूसरी चारपाई मंगवाकर आप उस पर लेट रहे।

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