चौदहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chaudahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

चौदहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chaudahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Chaudahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Chaudahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

आधी रात का समय होने पर भी किले में सन्नाटा नहीं है। दीवान साहब मुस्तैदी के साथ सब इंतजाम कर रहे हैं। कोई सलहखाने से हर्बे निकाल कर बांट रहा है, कोई मेगजीन की दुरुस्ती में जी जान से लगा हुआ है, कोई तोपों के लिए बारूद की थैलियां भरवा रहा है, कोई बंदूकों के लिए बारूद और गिन-गिनकर गोलियां तक्सीम कर रहा है, किसी तरफ कड़ाबीनवालों को कड़ाबीन में भरकर चलाने के लिए गोरखपुरी पैसे तौल-तौल के दिए जा रहे हैं। एक तरफ गल्ले का बंदोबस्त हो रहा है, हजारों बोरे अन्न से भरे हुए भंडार में जा रहे हैं, और दीवान साहब घूम-घूमकर हर एक काम देख रहे हैं।

इधर तो यह धूमधाम मची है मगर उधर महल की तरफ सन्नाटा है, सिवाय पहरा देनेवाले सिपाहियों के और कोई दिखाई नहीं देता। महारानी के महल के पास ही दीवान साहब का मकान है जिसके दरवाजे पर तो पहरा पड़ रहा है मगर पिछवाड़े की तरफ देखिए एक आदमी कमंद लगाकर ऊपर चढ़ जाने की फिक्र में है। लीजिए वह छत पर पहुंच भी गया, अब मालूम होना चाहिए, कि यह कौन है, जो इतना बड़ा हौसला करके राजदीवान के मकान पर चढ़ गया है, नकाब की जगह मामूली एक कपड़ा मुंह पर डाले हुए है जिसे देखते हुए इतना कह सकते हैं कि चोर नहीं है।

यह आदमी छत पर होकर जब तक मकान के अंदर जाए, हम पहले ही चलकर देखें कि इस मकान में कौन-कौन जाग रहा है और कहां क्या हो रहा है।

ऊपरवाले खंड में एक सजा हुआ कमरा है जिसमें जाने के लिए पांच दरवाजे हैं, उसके आगे पटा हुआ आठ दर का दालान है, जिसके हर एक खंभों और महराबों पर मालती लता चढ़ी हुई है, कुछ फूल भी खिले हुए हैं, जिनकी भीनी-भीनी खुशबू इस दालान और कमरे को मुअत्तर कर रही है। इस कमरे में यो तो बहुत-सी बिल्लौरी हांडियां और दीवारगीरें लगी हुई हैं, मगर बिचले दरवाजे के दोनों बगलवाली सिर्फ दो तिशाखी दीवारगीरों और गद्दी के पासवाले दो छोटे-छोटे शमादानों में मोमबत्तियां जल रही हैं। ये दोनों बैठकी सुनहरे शमादान बिल्लौरी मृदंगियों से ढके हुए थे, जिनकी रोशनी उस खूबसूरत कमसिन नौजवान औरत के गुलाबी चेहरे पर बसूबी पड़ रही है, जो गावतकिए के सहारे गद्दी पर बैठी हुई है और जिसके पास ही एक दूसरी हसीन औरत गद्दी का कोना दबाए बैठी उसके मुंह की तरफ देख रही है।

यह औरत बला की खूबसूरत थी, इसके हर एक अंग मानों सांचे में ढले हुए थे। इसके गालों पर गुलाब के फूलों की सी रंगत थी। इसके ओंठ नाजुक और पतले थे मगर ऊंची सांस लेकर जब वह अपना निचला ओंठ दबाती तब इसके चेहरे की रंगत फौरन बदल जाती और गम के साथ ही गुस्से निशानी पाई जाती। इसके नाजुक हाथों में स्याह चूड़ियां और हीरे के कड़े पड़े हुए थे, उंगलियों में दो-चार मानिक की अंगूठियां भी थीं जिनकी चमक कभी-कभी बिजली की तरह उसके चेहरे पर घूम जाती थी। हुस्न और खूबसूरती के साथ ही चेहरे पर गजब और गुस्से की निशानी भी पाई जाती थी। इसके तेवरों से मालूम होता था कि यह जितनी हसीन है उतनी ही बेदर्द और जालिम भी है। तेवर बदलने के साथ ही जब कभी यह अपने ओंठों को न मालूम तौर पर हिलाती तो साफ मालूम हो जाता कि इसके दिल में खुटाई भी परले सिरे की भरी हुई है। मगर वो सब जो कुछ भी हो लेकिन देखने में इसकी छवि बहुत ही प्यारी मालूम होती थी।

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहने के बाद उस औरत ने जिसका हुलिया ऊपर लिख आए हैं, ऊंची सांस ले शमादान की तरफ देखते हुए कहा–‘‘बहन मालती, तुम सच कहती हो। मैं खूब जानती हूं कि बीरसेन का दर्जा किसी तरह कम नहीं है, महारानी के फौज का सेनापति है, उसकी वीरता किसी से छिपी नहीं है और मुझे भी बहुत चाहता है, मगर क्या करूं, मेरा दिल तो दूसरे ही के फंदे में जा फंसा है और अपने काबू में नहीं है।’’

मालती–ठीक है मगर तुम्हारे पिता ने तो बीरसेन के साथ तुम्हारा संबंध कर दिया है और सभी को यह बात मालूम भी हो गई है कि कालिंदी की शादी बहुत जल्द बीरसेन के साथ होगी।

कालिंदी–जो हो, पर मुझे यह मंजूर नहीं है।

मालती–भला यह तो सोचो कि इस समय बेचारी महारानी पर कैसा संकट आ पड़ा है। तुम्हारे पिता दीवान साहब किस तरह महारानी के नमक का हक अदा कर रहे है, और दुश्मन से जान बचाने की फिक्र में पड़े हैं। अफसोस कि तुम उनकी लड़की होकर दुश्मन ही से मुहब्बत किया चाहती हो!! खैर, इसे जाने दो, तुम खूब जानती हो कि जसवंतसिंह महारानी पर आशिक है और उन्हीं के लिए इतना बखेड़ा मचा रहा है, वह जानता भी नहीं कि तुम कौन हो, तुम्हारी सूरत तक कभी उसने नहीं देखी, फिर किस उम्मीद पर तुम ऐसा करने का हौसला रखती हो? उसे क्या पड़ी है जो तुमसे शादी करे।

कालिंदी–वह झख मारेगा और मुझसे शादी करेगा।

मालती–(ओंठ बिचकाकर) वाह, क्या अनोखा इश्क है!

कालिंदी–बेशक, जब वह मुझे देखना खुशामद करेगा।

मालती–शायद तुमने अपने को महारानी से भी ज्यादे खूबसूरत समझ रखा है!!

कालिंदी–नहीं-नहीं, इस कहने से मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं महारानी से बढ़कर हसीन हूं।

मालती–तब दूसरा कौन मतलब है?

कालिंदी–नहीं-नहीं, इस कहने से मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं महारानी से बढ़कर हसीन हूं।

मालती–तब दूसरा कौन मतलब है?

कालिंदी–मैं उसे इस किले के फतह करने की तरकीब बताऊंगी जिसमें सहज में उसका मतलब निकल जाए और लड़ाई दंगे की नौबत न आवे। क्या तब भी वह मुझसे राजी न होगा?

यह सुनते ही मालती का चेहरा जर्द हो गया और बदन के रोंगटे खड़े हो गए। उसकी आंखों में एक अजीब तरह की चमक पैदा हुई। उसने सोचा कि यह कंबख्त तो गजब किया चाहती है, अब महारानी की कुशल नहीं। मगर बड़ी मुश्किल से उसने अपने भाव को रोका और पूछा–

मालती–भला तुम उसकी क्या मदद करोगी और कैसे यह किला फतह करा दोगी?

कालिंदी–मैं खुद उसके पास जाऊंगी और अपने मतलब का वादा कराके समझा दूंगी कि फलानी सुरंग की राह से तुम इस किले में मय फौज के पहुंच सकते हो क्योंकि मैं खूब जानती हूं कि शनीचर के दिन उस सुरंग का दरवाजा बीरसेन के आने की उम्मीद में खुला रहेगा।

अब मालती अपने गम और गुस्से को सम्हाल न सकी और भौं सिकोड़कर बोली–‘‘तब तो तुम इस राज्य ही को गारत किया चाहती हो!’’

कालिंदी–मेरी बला से, राज्य रहे या जाए।

मालती–क्या महारानी पर तुम्हें रहम नहीं आता?

महारानी भी तो एक गैर के लिए जान दे रही है! फिर मैं अपने दोस्त की मदद करूं तो क्या हर्ज है?

मालती–महारानी ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे किसी को दुःख हो, लेकिन तुम्हारी करतूत से तो हजारों घर चौपट होंगे, सो भी एक ऐसे आदमी के लिए जिससे किसी तरह की उम्मीद नहीं।

कालिंदी–तुम्हें चाहे उम्मीद न हो पर मुझे तो बहुत कुछ उम्मीद है। मैं सोचे हुए थी कि तुम मेरी मदद करोगी मगर हाय, तुम तो पूरी दुश्मन निकलीं।

मालती–और तुम इस राज्यभर के लिए काल हो गई!

कालिंदी–क्या सचमुच तुम मेरा साथ न दोगी?

मालती–कभी नहीं, जब तुम्हारी बुद्धि यहां तक भ्रष्ट हो गई है तो साथ देना कैसा, मैं इस भेद को खोलकर इस आफत से महारानी को बचाऊंगी?

कालिंदी–आह, लड़कपन से तुम मेरे साथ रहती आई, जो जो मैंने कहा तुमने माना, आज मुझे इस दशा में छोड़ अलग हुआ चाहती हो? क्या तुम कसम खाकर कहती हो कि मेरी मदद न करोगी?

मालती–हां-हां, मैं कसम खाकर कहती हूं कि तुम्हारी खातिर महारानी की जान पर आफत न लाऊंगी, तुम मुझसे किसी तरह की उम्मीद मत रखो। मैं फिर भी कहे देती हूं कि इस काम में तुम्हें कभी खुशी न होगी, पीछे हाथ मल-मल के पछताओगी और कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। अफसोस, तुम दीवान सुमेरसिंह की इज्जत मिट्टी में मिलाकर क्षत्रिकुल की कलंक बना चाहती हो, तुम्हारे तो मुंह देखने का पाप है सिवाय…

बेचारी मालती कुछ और कहा चाहती थी मगर मौका न मिला। बाघिन की तरह उछलकर कालिंदी उसकी छाती पर चढ़ बैठी और कमर से खंजर निकाल, जो शायद इसी काम के लिए पहले से रख छोड़ा था, यह कहकर उसके कलेजे के पार कर दिया कि–‘‘देखें तुम मेरा भेद क्योंकर खोलती हो!!’’

हाय, बेचारी नेक महारानी की खैरख्वाह और नमकहलाल मालती ने दो ही चार दफा हाथ-पांव पटक हमेशा के लिए इस बदकार नमकहराम कालिंदी का साथ छोड़ दिया और किसी-दूसरी ही दुनिया में जा बसी। मगर उसी समय बाहर के दालान के एक कोने से यह आवाज आई ‘‘ऐ कालिंदी! खूब याद रखियो कि तेरी यह शैतानी छिपी न रहेगी, जो कुछ तैंने सोचा है कभी वह काम पूरा न होगा और बहुत जल्दी तुझे इस बदकारी की सजा मिलेगी!’’

इस आवाज ने कालिंदी की अजीब हालत कर दी और वह एकदम घबराकर चारों तरफ देखने लगी, मगर थोड़ी ही देर में उसकी दशा बदली और वह खून से भरा खंजर मालती के कलेजे से निकाल हाथ में ले कमरे से बाहर निकली और भूखी राक्षसी की तरह इधर-उधर घूम-घूमकर देखने लगी जिसमें उस आदमी का भी काम तमाम करे जिसने उसकी कार्रवाई देख-सुन ली है, मगर उसने मकान भर में किसी जानदार की सूरत न देखी। कई दफे ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर गई मगर कुछ पता न लगा, तब खड़ी होकर सोचने लगी। इसी बीच में कई दफे उसकी सूरत ने पलटा खाया जिससे मालूम होता था वह डर और तरद्दुद में पड़ी हुई है, मगर यकायक वह ठमक पड़ी और तब चौंककर आप ही आप बोली, ‘‘ओफ! मुझे डर किस बात का है? मगर किसी ने मेरी कार्रवाई देख ही ली तो क्या हुआ? अब मुझे यहां रहना थोड़े ही है। हां, अब जल्दी करनी चाहिए, बहुत जल्दी करनी चाहिए!’’

कालिंदी तेजी के साथ एक दूसरी कोठरी में घुस गई जिसमें उसके पहनने के कपड़े रहते थे और थोड़ी ही देर बाद मर्दानी पोशाक पहने हुए बाहर निकली नकाब की जगह रेशमी रूमाल मुंह पर बांधे हुए थी जिसमें देखने के लिए आंख के सामने दो छेद किए हुए थे, कमर में खंजर खोंसे और हाथ में कमंद लिए वह छत पर चढ़ गई और उसी के सहारे बेधड़क पिछवाड़े की तरफ उतर एक तरफ को रवाना हुई।

यह मकान बैठक की तौर पर सजसजाकर कालिंदी को रहने के दिया गया था। इसके साथ ही सटा हुआ एक दूसरा आलीशान मकान था जिसमें कालिंदी की मां और लौंडियां वगैरह रहा करती थीं। कालिंदी बहुत ही टेढ़ी और जल्दी रंज हो जानेवाली औरत थी इसलिए उसके डर से बिना बुलाए कोई उसके पास न जाता और घंटे-दो घंटे या जब तक जी चाहता वह अकेली ही इस बैठक में रहा करती थी।

कालिंदी शहरपनाह के फाटक पर पहुंची, जहां कई सिपाही संगीन लिए पहरा दे रहे थे। उसने पहुंचने ही जल्द फाटक की खिड़की खोलने के लिए कहा।

एक सिपाही–तुम कौन हो?

कालिंदि–मेरा नाम रामभरोस है, दीवान साहब का खास खिदमतगार हूं, उनकी चिट्ठी लेकर बीरसेन के पास जा रहा हूं, क्योंकि बहुत जल्द उन्हें बुला लाने का हुक्म हुआ है।

सिपाही–तुमने अपनी सूरत क्यों छिपाई हुई है?

कालिंदी–इसलिए कि शायद कोई दुश्मन का आदमी मिल जाए तो पहचान न सके। मगर मुझे देर हो रही है, जल्दी फाटक खोलो, दमभर भी कहीं रुकने का हुक्म नहीं और यह मौका भी ऐसा नहीं है।

पहरेवाले सिपाही ने यह सोचकर कि अंदर से बाहर किसी को जाने देने में कोई हर्ज नहीं है, हमारा काम यही है कि कोई गैर आदमी बाहर से किले के अंदर आने न पावे। खिड़की खोल दी और कालिंदी खुशी-खुशी बाहर हो गई।

बालेसिंह का लश्कर यहां से लगभग डेढ़ कोस की दूरी पर था। घंटेभर में यह रास्ता कालिंदी ने तय किया मगर फौज के पास पहुंचते ही रोकी गई। पहरेवालों के पूछने पर उसने जवाब दिया, ‘‘महारानी कुसुम कुमारी की चिट्ठी लेकर जसवंतसिंह के पास आया हूं, मुनासिब है कि तुममें से एक आदमी मेरे साथ चलो और मुझे उनके पास पहुंचा दो।’’

बालेसिंह के यहां आज जसवंतसिंह की बड़ी कदर और इज्जत है। फौज का सेनापति होने के सिवाय बालेसिंह उसे जी-जान से मानता है क्योंकि अगर महारानी कुसुम कुमारी की फौज का पता बालेसिंह को वह न देता तो बेशक बालेसिंह की किस्मत फूट ही चुकी थी। एक तो रनबीरसिंह के जख्मी होने से दूसरे जसवंतसिंह के होशियार कर देने से बालेसिंह की जान बच गई। इससे भी बढ़कर जसवंतसिंह ने और एक काम किया था जिससे बालेसिंह बहुत ही खुश है और उसे अपनी जान के बराबर मानता है। इस जगह पर यह कहने की कोई जरूरत नहीं नजर आती कि जसवंत ने वह कौन-सा लासानी काम करके बालेसिंह को मुट्ठी में कर लिया है क्योंकि आगे मौके पर यह बात छिपी न रहेगी।

जसवंतसिंह का समय देखकर बालेसिंह के कुल मुलाजिम फौज और अफसर इसका हुक्म मानते हैं। समझते हैं कि यह जिससे रंज होगा उसके सिर पर आफत आएगी और वह उसी तरह तोप के आगे रखकर उड़ा दिया जाएगा जिस तरह वह जासूस उड़ा दिया गया था जिसने महारानी कुसुम कुमारी के मरने की खबर बालेसिंह को पहुंचाई थी। अस्तु जसवंतसिंह का नाम सुनते ही एक सिपाही कालिंदी के साथ हुआ और उसे जसवंतसिंह के पास पहुंचाकर अपने ठिकाने चला आया।

आसमान पर सफेदी आ रही थी और बुझती हुई चिनगारियों की तरह दस-बीस लुपलुपाते हुए तारे दिखाई दे रहे थे, जब कालिंदी जसवंतसिंह के खेमे के पास पहुंची। पहरेवालों से जाना गया कि वह अभी सो रहा है। साफ सबेरा हो जाने से मालूम हो जाएगा कि यह औरत है इसलिए कालिंदी ने उसी वक्त खेमे के अंदर जाने का इरादा किया, मगर हुक्म के खिलाफ समझकर पहरेवालों ने ऐसा करने से रोक दिया।

कालिंदी–अच्छा तुम अभी जाकर खबर करो कि महारानी का भेजा हुआ एक आदमी आया है।

एक सिपाही–सरकार अभी सो रहे हैं, किसकी मजाल है जो उन्हें जाकर उठावे।

कालिंदी–लड़ाई के वक्त सफर में कोई फौजीबहादुर ऐसा हुक्म जारी नहीं कर सकता, ऐसे मौके पर आराम को चाहनेवाला कभी फायदा नहीं उठायेगा, फौज इस वक्त दुश्मन के मुकाबले में पड़ी हुई है। मुझे विश्वास नहीं होता कि जसवंतसिंह ने काम पड़ने पर भी नींद से जगाने की मनाही कर दी हो।

पहरेवाला–तुम्हारा कहना ठीक है, ऐसा हुक्म तो नहीं दिया गया है, मगर…

कालिंदी–मगर-तगर की कोई जरूरत नहीं, तुम अभी जाकर जगाओ नहीं तो मैं तुरंत लौट जाऊंगा और इसका नतीजा तुम लोगों के हक में बहुत बुरा होगा।

लाचार पहरेवालों ने खेमे के अंदर पैर रखा, आहट पाते ही जसवंतसिंह की आंख खुल गई और पहरेवाले सिपाही को अंदर आते देख बोला–जसवंत–क्यों क्या है?

पहरेवाला–हुजूर एक आदमी आया है, वह कहता है कि महारानी का संदेशा लाया हूं अगर फौरन खबर न करोगे तो मैं वापस चला जाऊंगा।

जसवंत–(ताज्जुब से) महारानी कुसुम कुमारी का संदेशा लाया है! ठीक है मालूम होता है रनबीर चल बसा, तभी राह पर आई है, अच्छा उसे हाजिर करो।

कालिंदी खेमे के अंदर पहुंचाई गई, उसे देखते ही जसवंत उठ बैठा और उसने जल्दी में पहली बात यही पूछी, ‘‘कहो रनबीरसिंह की क्या-खबर है? महारानी का अब क्या इरादा है?’’

कालिंदी–रनबीरसिंह अभी तक बेहोश पड़े हैं, मगर हकीमों के कहने से मालूम होता है कि दो-एक दिन में होश में आ जाएंगे, मेरे हाथ महारानी ने कोई संदेशा नहीं भेजा है, मैं उनसे लड़कर यहां आया हूं, आप मेरी खातिर करोगे तो दो ही दिन में यह किला फतह करा दूंगा, इस तरह आप सालभर में भी इसे पतह नहीं कर सकते। महारानी के यहां मेरा उतना ही अख्तियार है जितना बालेसिंह के यहां आपका।

इतना कह अपने मुंह से नकाब हटा चारपाई के पास जा खड़ी हुई, उसकी बातों का जवाब जसवंत क्या देगा इसका कुछ भी इंतजार न किया।

कालिंदी की बातों ने जसवंत को उलझन में डाल दिया, मगर जब मुंह खोलकर पास जा खड़ी हुई तो उसकी हालत बिलकुल बदल गई और उसके दिमाग में किसी दूसरे ही खयाल ने डेरा जमाया।

कंबख्त कालिंदी गजब की खूबसूरत थी, उसको देखते ही अच्छे-अच्छे ईमानदारों के ईमान में फर्क पड़ जाता था, बेईमान जसवंत की क्या हकीकत थी कि उसके लासानी हुस्न को देखे और चुप रह जाए। फौरन उठ खड़ा हुआ, हाथ पकड़कर अपने पास चारपाई पर बैठा लिया, और शमादान की रोशनी में जो इस वक्त खेमे के अंदर जल रहा था उसकी सूरत देखने लगा। कालिंदी के मन की भई, ईश्वर ने बेईमानों की अच्छी जोड़ी मिलाई, दोनों को एक दूसरे के देखने से संतोष नहीं होता था, मगर इसी समय किसी ने खेमे के दरवाजे पर ताली बजाई क्योंकि जब दो आदमी खेमे के अंदर बैठे बातें कर रहे हों तो ऐसे वक्त में किसी सिपाही या गैर की बिना इत्तला अंदर जाने की मजाल न थी।

कालिंदी उसके पास पलंग पर बैठी हुई थी, ऐसे मौके पर वह कब किसी दूसरे को अंदर आने देता! खुद उठकर बाहर गया और देखा कि कई सिपाही एक आदमी की मुश्कें बांधे खड़े हैं।

जसवंत–यह कौन है?

एक सिपाही–यह महारानी का जासूस है, कहीं जा रहा था कि हम लोगों ने गिरफ्तार कर लिया।

जसवंत–किस वक्त और कहां पकड़ा गया?

एक सिपाही–यहां से पांच कोस की दूरी पर कुछ दिन रहते ही यह गिरफ्तार हुआ था, यहां आते-आते बहुत रात हो गई। हुजूर आराम करने चले गए थे इसलिए इत्तिला न कर सके, अब सवेरा होने पर हाजिर किया है।

जसवंत–इसकी तलाशी लो गई या नहीं?

एक सिपाही–जी हां, तलाशी ली गई थी, एक चिट्ठी इसके पास से निकली और कुछ नहीं।

जसवंत–वह चिट्ठी कहां है, लाओ!

सिपाही ने वह चिट्ठी जसवंत के हाथ में ही जिसे पढ़कर वह बहुत ही खुश हुआ। पाठक समझ ही गए होंगे कि यह चिट्ठी वही थी, जो दीवान साहब ने बीरसेन के पास भेजी थी और जिसमें लिखा था कि–‘‘शनीचर के दिन मय फौज के सुरंग की राह तुम किले के अंदर चले आना, दरवाजा खुला रहेगा।’’

‘‘वह सुरंग कहां पर है इसका हाल वह औरत (कालिंदी) जो अभी आई है जानती होगी और वह जरूर मुझसे कह देगी, अब इस किले का फतह करना कोई बड़ी बात नहीं है!’’ यह सोचता हुआ जसवंत फिर खेमे के अंदर चला गया।

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