चैप्टर 9 सेवासदन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद

Chapter 9 Sevasadan Novel By Munshi Premchand

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दूसरे दिन से सुमन ने चिक के पास खड़ा होना छोड़ दिया। खोंचेवाले आते और पुकार कर चले जाते। छैले गजल गाते हुए निकल जाते। चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने बहाना कर दिया कि मेरा जी अच्छा नहीं है। दो-तीन बार वह स्वयं आई, पर सुमन उससे खुलकर न मिली।

सुमन को यहां आए अब दो साल हो गए थे। उसकी रेशमी साड़ियां फट चली थीं। रेशमी जाकटें तार-तार हो गई थीं। सुमन अब अपनी मंडली की रानी न थी। उसकी बातें उतने आदर से न सुनी जाती थीं। उसका प्रभुत्व मिटा जाता था। उत्तम वस्त्र-विहीन होकर वह अपने उच्चासन से गिर गई थी। इसलिए वह पड़ोसिनों के घर भी न जाती। पड़ोसिनों का आना-जाना भी कम हो गया था। सारे दिन अपनी कोठरी में पड़ी रहती। कभी कुछ पढ़ती, कभी सोती।

बंद कोठरी में पड़े-पड़े उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। सिर में पीड़ा हुआ करती। कभी बुखार आ जाता, कभी दिल में धड़कन होने लगती। मंदाग्नि के लक्षण दिखाई देने लगे। साधारण कामों से भी जी घबराता। शरीर क्षीण हो गया और कमल-सा बदन मुरझा गया।

गजाधर को चिंता होने लगी। कभी-कभी वह सुमन पर झुंझलाता और कहता– जब देखो तब पड़ी रहती हो। जब तुम्हारे रहने से मुझे इतना भी सुख नहीं कि ठीक समय पर भोजन मिल जाए तो तुम्हारा रहना न रहना दोनों बराबर हैं।

पर शीघ्र ही उसे सुमन पर दया आ जाती। अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित होता। उसे धीरे-धीरे ज्ञान होने लगा कि सुमन के सारे रोग अपवित्र वायु के कारण हैं। कहां तो उसे चिक के पास खड़े होने से मना किया करता था, मेलों में जाने और गंगास्नान करने से रोकता था, कहां अब स्वयं चिक उठा देता और सुमन को गंगास्नान करने के लिए ताकीद करता। उसके आग्रह से सुमन कई दिन लगातार स्नान करने गई और उसे अनुभव हुआ कि उसका जी कुछ हल्का हो रहा है। फिर तो वह नियमित रूप से नहाने लगी। मुरझाया हुआ पौधा पानी पाकर फिर लहलहाने लगा।

माघ का महीना था। एक दिन सुमन की कई पड़ोसिनें भी उसके साथ नहाने चलीं। मार्ग में बेनी-बाग पड़ता था। उसमें नाना प्रकार के जीव-जन्तु पले हुए थे। पक्षियों के लिए लोहे के पतले तारों से एक विशाल गुंबद बनाया गया था। लौटती बार सबकी सलाह हुई कि बाग की सैर करनी चाहिए। सुमन तत्काल ही लौट आया करती थी, पर आज सहेलियों के आग्रह से उसे भी बाग में जाना पड़ा। सुमन बहुत देर वहां के अद्भुत जीवधारियों को देखती रही। अंत में वह थककर एक बेंच पर बैठ गई। सहसा कानों में आवाज आई– अरे यह कौन औरत बेंच पर बैठी है? उठ वहां से। क्या सरकार ने तेरे ही लिए बेंच रख दी है?

सुमन ने पीछे फिरकर कातर नेत्रों से देखा। बाग का रक्षक खड़ा डांट बता रहा था।

सुमन लज्जित होकर बेंच पर से उठ गई और इस अपमान को भुलाने के लिए चिड़ियों को देखने लगी। मन में पछता रही थी कि कहां मैं इस बेंच पर बैठी। इतने में एक किराए की गाड़ी आकर चिड़ियाघर के सामने रुकी। बाग के रक्षक ने दौड़कर गाड़ी के पट खोले। दो महिलाएं उतर पड़ीं। उनमें से एक वही सुमन की पड़ोसिन भोली थी। सुमन एक पेड़ की आड़ में छुप गई और वह दोनों स्त्रियां बाग की सैर करने लगीं। उन्होंने बंदरों को चने खिलाए, चिड़ियों को दाने चुगाए, कछुए की पीठ पर खड़ी हुईं, फिर सरोवर में मछलियों को देखने चली गईं। रक्षक उनके पीछे-पीछे सेवकों की भांति चल रहा था। वे सरोवर के किनारे मछलियों की क्रीड़ा देख रही थीं, तब तक रक्षक ने दौड़कर दो गुलदस्ते बनाए और उन महिलाओं को भेंट किए। थोड़ी देर बाद वह दोनों आकर उसी बेंच पर बैठ गईं, जिस पर से सुमन उठा दी गई थी। रक्षक एक किनारे अदब से खड़ा था।

यह दशा देखकर सुमन की आंखों से क्रोध के मारे चिनगारियां निकलने लगीं। उसके एक-एक रोम से पसीना निकल आया। देह तृण के समान कांपने लगी। हृदय में अग्नि की एक प्रचंड ज्वाला दहक उठी। वह आंचल में मुंह छिपाकर रोने लगी। ज्योंही दोनों वेश्याएं वहां से चली गईं, सुमन सिंहनी की भांति लपककर रक्षक के सम्मुख आ खड़ी हुई और क्रोध से कांपती हुई बोली– क्यों जी, तुमने तो बेंच पर से उठा दिया, जैसे तुम्हारे बाप ही की है, पर उन दोनों रांडों से कुछ न बोले?

रक्षक ने अपमानसूचक भाव से कहा– वह और तुम बारबर।

आग पर घी जो काम करता है, वह इस वाक्य ने सुमन के हृदय पर किया। ओठ चबाकर बोली– चुप रह मूर्ख! टके के लिए वेश्याओं की जूतियां उठाता है, उस पर लज्जा नहीं आती। ले देख तेरे सामने बेंच पर बैठती हूं। देखूं, तू मुझे कैसे उठाता है।

रक्षक पहले तो कुछ डरा, किंतु सुमन के बैंच पर बैठते ही वह उसकी ओर लपका कि उसका हाथ पकड़कर उठा दे। सुमन सिंहनी की भांति आग्नेय नेत्रों से ताकती हुई उठ खड़ी हुई। उसकी एंडियां उछल पड़ती थीं। सिसकियों के आवेग को बलपूर्वक रोकने के कारण मुंह से शब्द न निकलते थे। उसकी सहेलियां, जो इस समय चारों ओर से घूमघाम कर चिड़ियाघर के पास आ गईं थीं, दूर से खड़ी यह तमाशा देख रही थीं। किसी की बोलने की हिम्मत न पड़ती थी।

इतने में फिर एक गाड़ी सामने से आ पहुंची। रक्षक अभी सुमन से हाथापाई कर ही रहा था कि गाड़ी में से एक भलेमानस उतरकर चौकीदार के पास झपटे हुए आए और उसे जोर से धक्का देकर बोले– क्यों बे, इनका हाथ क्यों पकड़ता? दूर हट।

चौकीदार हकलाकर पीछे हट गया। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। बोला– सरकार क्या यह आपके घर की हैं?

भद्र पुरुष ने क्रोध में कहा– हमारे घर की हो या न हों, तू इनसे हाथापाई क्यों कर रहा था? अभी रिपोर्ट कर दूं तो नौकरी से हाथ धो बैठेगा।

चौकीदार हाथ-पैर जोड़ने लगा। इतने में गाड़ी में बैठी हुई महिला ने सुमन को इशारे से बुलाया और पूछा– यह तुमसे क्या कह रहा था?

सुमन– कुछ नहीं। मैं इस बेंच पर बैठी थी, वह मुझे उठाना चाहता था। अभी दो वेश्याएं इसी बेंच पर बैठी थीं। क्या मैं ऐसी गई बीती हूं कि वह मुझे वेश्याओं से भी नीच समझे?

रमणी ने उसे समझाया कि यह छोटे आदमी, जिससे चार पैसे पाते है, उसी की गुलामी करते हैं। इनके मुंह लगना अच्छा नहीं।

दोनों स्त्रियों में परिचय हुआ। रमणी का नाम सुभद्रा था। वह भी सुमन के मुहल्ले में, पर उसके मकान से जरा दूर रहती थी। उसके पति वकील थे। स्त्री-पुरुष गंगास्नान करके घर जा रहे थे। यहां पहुंचकर उसके पति ने देखा कि चौकीदार एक भले घर की स्त्री से झगड़ा कर रहा है, तो गाड़ी से उतर पड़े।

सुभद्रा सुमन के रंग-रूप, बातचीत पर ऐसी मोहित हुई कि उसे अपनी गाड़ी में बैठा लिया। वकील साहब कोचबक्स पर जा बैठे। गाड़ी चली। सुमन को ऐसा मालूम हो रहा था कि वह विमान पर बैठी स्वर्ग को जा रही है। सुभद्रा यद्यपि बहुत रूपवती न थी और उसके वस्त्राभूषण भी साधारण ही थे, पर उसका स्वभाव ऐसा नम्र, व्यवहार ऐसा सरल तथा विनयपूर्ण था कि सुमन का हृदय पुलकित हो गया। रास्ते में उसने उसकी सहेलियों को जाते देख, खिड़की खोलकर उनकी ओर गर्व से देखा, मानो कह रही थी, तुम्हें भी कभी यह सौभाग्य प्राप्त हो सकता है? इस पर गर्व के साथ ही उसे यह भय भी था कि कहीं मेरा मकान देखकर सुभद्रा मेरा तिरस्कार न करने लगे। जरूर यही होगा। यह क्या जानती है कि मैं ऐसे फटेहालों रहती हूं। यह कैसी भाग्यवान स्त्री है! कैसा देवरूप पुरुष है। यह न आ जाते, तो वह निर्दयी चौकीदार न जाने मेरी क्या दुर्गति करता। कितनी सज्जनता है कि मुझे भीतर बिठा दिया और आप कोचवान के साथ जा बैठे। वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि उसका घर आ गया। उसने सकुचाते हुए सुभद्रा से कहा– गाड़ी रुकवा दीजिए, मेरा घर आ गया।

सुभद्रा ने गाड़ी रुकवा दी। सुमन ने एक बार भोलीबाई के मकान की ओर ताका। वह अपने छज्जे पर टहल रही थी। दोनों की आंखें मिलीं, भोली ने मानो कहा, अच्छे ये ठाट हैं! सुमन ने जैसे उत्तर दिया, अच्छी तरह देख लो, यह कौन लोग हैं। तुम मर भी जाओ, तो इस देवी के साथ बैठना नसीब न हो।

सुमन उठ खड़ी हुई और सुभद्रा की ओर सजल नेत्रों से देखती हुई बोली– इतना प्रेम लगाकर बिसार मत देना। मेरा मन लगा रहेगा।

सुभद्रा ने कहा– नहीं बहन, अभी तो तुमसे कुछ बातें भी न करने पाई। मैं तुम्हें कल बुलाऊंगी।

सुमन उतर पड़ी। गाड़ी चली गई। सुमन अपने घर में गई, तो उसे मालूम हुआ, मानो कोई आनंदमय स्वप्न देखकर जागी है।

गजाधर ने पूछा– यह गाड़ी किसकी थी?

सुमन– यहीं के कोई वकील हैं। बेनीबाग में उनकी स्त्री से भेंट हो गई। जिद करके गाड़ी पर बिठा लिया। मानती ही न थीं।

गजाधर– तो क्या तुम वकील के साथ बैठी थी?

सुमन– कैसी बातें करते हो? वह बेचारे तो कोचवान के साथ बैठे थे।

गजाधर– तभी इतनी देर हुई।

सुमन– दोनों सज्जनता के अवतार हैं।

गजाधर– अच्छा, चल के चूल्हा जलाओं, बहुत बखान हो चुका।

सुमन– तुम वकील साहब को जानते तो होगे?

गजाधर– इस मुहल्ले में तो यही एक पद्मसिंह वकील हैं? वही रहे होंगे?

सुमन– गोरे-गोरे लंबे आदमी हैं। ऐनक लगाते हैं।

गजाधर– हां, हां, वही हैं। यह क्या पूरब की ओर रहते हैं।

सुमन– कोई बड़े वकील हैं?

गजाधर– मैं उनके जमाखर्च थोड़े ही लिखता हूं। आते-जाते कभी-कभी देख लेता हूं। आदमी अच्छे हैं।

सुमन ताड़ गई कि वकील साहब की चर्चा गजाधर को अच्छी नहीं मालूम होती। उसने कपड़े बदले और भोजन बनाने लगी।

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