चैप्टर 9 रेबेका उपन्यास डेफ्ने ड्यू मौरिएर Chapter 9 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier, Rebecca Novel Upanyas Daphne du Maurier
Chapter 9 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier
वह कविता की किताब मेरे बिस्तर के पास पड़ी थी। जम्हाई लेती हुई मैं उधर बढ़ी और मैंने किताब उठा ली। मेरा पैर लैंप के तार में उलझ गया और मैं गिर पड़ी। किताब मेरे हाथ से छूटकर फर्श पर जा पड़ी। उसका प्रथम पृष्ठ, जिस पर मैक्स को रेबेका की प्रथम भेंट लिखा था, अचानक खुल गया। वह मर चुकी है और हमें मरो की बातें नहीं सोचनी चाहिए। वे तो शांति के साथ अपनी अपनी समाधि में सोए रहते हैं, जिनके ऊपर घास लहलहाती रहती है। लेकिन इसकी लिपि अब भी कितनी सजीव कितनी प्रेरणामयी है। ऐसा लगता है, मानो ये शब्द कल ही लिखे गए हैं। मैंने दराज में से नाखून काटने की कैंची निकाली और एक अपराधी की तरह पीछे फिर कर देखते हुए मैंने उस पृष्ठ को काट डाला। आप किताब बिल्कुल सफेद और साफ दिख रही थी। उस पृष्ठ को टुकड़े-टुकड़े करके मैंने रद्दी की टोकरी में डाल दिया और एक बार फिर मैं खिड़की के पास जाकर बैठ गई। लेकिन मैं अपना ध्यान उन फटे हुए टुकड़ों पर से हटा ना सकी और क्षण भर बाद ही मैंने उठकर फिर टोकरी में झांका। काली और गहरी स्याही उन छिन्न भिन्न टुकड़ों पर अभी साफ-साफ चमक रही थी और वह लिखावट नष्ट नहीं हुई थी। मुझ से रहा न गया और मैंने माचिस का डिब्बा उठाकर उन टुकड़ों में आग लगा दी। लपट बड़ी सुंदर लग रही थी। उसकी लपेट में कागज के टुकड़े काले पड़ते जा रहे थे और उनके किनारे ऐंठते जा रहे थे। अब उस तिरछी लिपि को पहचाना असंभव हो गया था और वह कागज के टुकड़े फड़फड़ा फड़फड़ा कर भूरे रंग की राख बनते जा रहे थे। आर शब्द की सबसे अंत में बारी आई। लपट में बल खाता हुआ वह क्षण भर के लिए पहले से भी बड़ा दिखाई दिया और फिर ढेर हो गया। लपट ने उसे निगल लिया और वह राख ही नहीं बल्कि धूल बन गया। मैं उठी और हाथ धोने वाले बर्तन के पास जाकर मैंने हाथ धो डाले। अब मैं अपने आप को पहले से बहुत अच्छा महसूस कर रही थी। मुझे वैसे ही प्रसन्नता, वैसी ही नवीनता की अनुभूति हो रही थी, जैसी दीवार पर नए वर्ष का कैलेंडर टांगते समय हुआ करती है। तभी दरवाजा खोल कर श्री द विंतर ने कमरे में प्रवेश किया और कहा, “सब कुछ ठीक हो गया। पहले पहल तो उन्हें इतना धक्का लगा कि उनके मुंह से बोल भी नहीं निकला। लेकिन अब कुछ-कुछ संभल रही हैं। मैं नीचे ऑफिस में जाकर अभी इस बात का इंतजाम किए देता हूं कि उन्हें पहली ही गाड़ी मिल जाए। क्षण भर के लिए तो उनका जाने का विचार डगमगा गया था। शायद वह शादी में गवा बनना चाहती थी। लेकिन मैं डटा रहा। अब तुम जाकर उनसे बातचीत कर लो।
यह कहकर उन्होंने ना तो किसी प्रकार की प्रसन्नता प्रकट की और ना ही मेरी बाह में बाहें डाल कर वह मुझे अपने साथ बैठक में ले गए। उन्होंने मुस्कुरा कर मेरी तरफ हाथ हिलाया और अकेले ही वह नीचे चले गए। मैं कुछ अनिश्चित सी लेकिन आत्मसम्मान की भावना लिए श्रीमती हार्पर के पास गई – ठीक वैसे ही जैसे कोई नौकरानी किसी मित्र के द्वारा अपना त्यागपत्र भिजवा चुकने के बाद अपनी मालकिन के पास आती है। वह खिड़की के पास खड़ी सिगरेट पी रही थी – एक भोंडी, नाटी आकृति जिसे अब मैं कभी नहीं देखूंगी। उनका कोट उनके भारी वक्ष पर कसा हुआ था और उनका हास्यपद टोप सिर पर एक तरह बुरी तरह से झुका हुआ था। मुझे देखकर वह बोली, ” तो यह गुल खिल रहा था। अच्छा, यह बताओ यह सब हुआ कैसे?” उनकी आवाज एकदम कड़ी और रूखी थी। निश्चय ही श्री द विंतर से बातें करते समय उनका स्वर ऐसा नहीं रहा होगा।
मेरी समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दूं। उनका मुस्कुराना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था।
“तो मेरी बीमारी तुम्हारे लिए वरदान बन गई।” उन्होंने फिर कहा, “अब मेरी समझ में आ रहा है कि उन दिनों तुम खोई हुई क्यों रहती थी। टेनिस सीखने का भी तुमने खूब बहाना बनाया। लेकिन तुम्हें मुझे बता देना चाहिए था।”
“मुझे बड़ा खेद है।” मैंने उत्तर दिया।
उन्होंने कौतूहल के साथ मुझे नीचे से ऊपर तक देखा और कहा, ” वह कह रहे थे कि दो-चार दिन में ही वह तुमसे शादी कर लेना चाहते हैं। यह भी तुम्हारे लिए सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा कुछ सगा संबंधी नहीं, जो तुमसे कुछ पूछताछ करे। खैर, मुझे अब से कोई सरोकार नहीं। मैं तो हाथ धो चुकी। मुझे तो बस इस बात का ख्याल आ रहा है कि उनके मित्र भला क्या सोचेंगे। लेकिन इसमें भी मुझे क्या वास्ता? यह सोचना तो उनका काम है। जानती हो तुमसे कितने बड़े हैं?”
“वह केवल बायलीस बरस के हैं।” मैंने कहा, ” और मैं भी तो काफी बड़ी हो गई हूं।”
उन्होंने हंसते भी सिगरेट की राख फर्श पर झटक दी और कहा, “तुम सचमुच बड़ी हो गई हो।” और फिर कुछ देर तक वह मुझे इस तरह देखती रही, जैसे पहले कभी नहीं देखा था। उनकी आंखों में कुछ ढूंढ निकालने की भावना थी, अप्रसन्नता की झलक थी।
“अच्छा एक बात बताओ!” उन्होंने घनिष्ठता दिखाते हुए कहा, जैसे एक सहेली दूसरी सहेली से पूछ रही हो, ” तुम ऐसी बातें तो नहीं करती रही हो, जो तुम्हें नहीं करनी चाहिए थी।”
“मैं आपका मतलब नहीं समझी।” मैंने उत्तर दिया।
उन्होंने हंसकर अपने कंधे हिलाए, “खैर कोई बात नहीं। अच्छा तो मुझे पेरिस अकेले ही जाना होगा और तब तक के लिए तुम्हें यही छोड़ देना होगा, जब तक कि तुम्हारे प्रेमी को शादी का सर्टिफिकेट ना मिल जाए। उन्होंने मुझे शादी के लिए निमंत्रित नहीं किया है।”
“मेरे ख्याल में वह किसी को भी निमंत्रित नहीं करना चाहते और फिर उस समय तक तो आप जहाज में भी चढ़ की होंगी।” मैंने उत्तर दिया।
उन्होंने श्रृंगारपेटी निकाल कर अपनी नाक पर पाउडर लगाते लगाते कहा, ” मैं समझती हूं कि तुम जो कुछ भी करने जा रही हो, उसे तुमने अपनी ओर से खूब अच्छी तरह सोच समझ लिया है। कुछ भी हो, बात बड़ी जल्दी में तय हुई है, कुछ हफ्तों में ही। क्यों है ना ठीक! मैं समझती हूं कि वह इतने सीधे साधे नहीं है और तुम्हें अपने को उनकी इच्छा के अनुसार ढालना होगा। अभी तक तुम एक अभिभावक की छाया में रही हो, यह तुम अच्छी तरह जानती हो और मैंने तुम्हें कभी गलत रास्ते पर नहीं चलने दिया। अब तुम्हें मैंदरले की स्वामिनी की तरह व्यवहार करना पड़ेगा। सच पूछो तो मुझे इस बात का विश्वास नहीं है कि तुम यह सब कुछ कर सकोगी।”
“तुम्हें अनुभव नहीं है।” वह कहती रही, ” तुम वहां के तौर तरीकों के बारे में कुछ भी नहीं जानती। तुम जब मेरे साथ खेलने आने वाले दो चार मित्रों को चाय पिलाते समय दो वाक्य एक साथ नहीं बोल पाती, तब फिर उनके मित्रों से कैसे बातें करोगी, समझ में नहीं आता। रेबेका के रहते मैंदरले में जो पार्टियां हुआ करती थी, उनकी चर्चा बच्चे बच्चे की जबान पर हैm वैसे तो उन्होंने सब बातें तुम्हें बता ही दी होंगी।”
मैं कुछ कसमसाई। लेकिन ईश्वर की कृपा से वह मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही बोलती रही, “खैर, सुखी होना तो सभी चाहते हैं और मैं स्वीकार करती हूं कि वह एक बहुत आकर्षक व्यक्ति हैं। लेकिन मैं समझती हूं और मुझे इसका अफसोस है कि तुम अपने जीवन के बहुत भारी भूल कर रही हो। ऐसी भूल जिसके लिए तुम्हें बड़ा पछताना पड़ेगा।”
पाउडर का डिब्बा नीचे रखकर उन्होंने अपने कंधे के ऊपर से मुझे देखा। शायद उस समय वह सहृदयता से बातें कर रही थी। लेकिन मुझे उसकी आवश्यकता नहीं थी। मैंने कुछ भी जवाब नहीं दिया। मैं प्रसन्न थी कि वह जा रही हैं और उन्हें अब कभी नहीं देख पाऊंगी। मुझे इस बात का अफसोस हो रहा था कि इतने दिनों तक मैंने उनकी नौकरी की, उनका रुपया लिया और उनके साथ एक गूंगी छाया की तरह लगी रही। यह ठीक है कि मैं अनुभव हीन हूं, मूर्ख हूं, शर्मीली हूं और छोटी उम्र की हूं, लेकिन श्रीमती हार्पर को यह सब बातें मुझसे कहनी नहीं चाहिए थी। मेरे ख्याल से उन्होंने यह सब जानबूझकर ईर्ष्या के कारण कही है, क्योंकि उन्हें यह शादी नापसंद है और उन्होंने मेरा जो मूल्य लगाया था, उसमें उन्हें धोखा हुआ है।
जब से मैंने उस पन्ने को जलाया था, मुझ में एक विश्वास की भावना उत्पन्न हो गई थी। अतीत अब हमारे लिए समाप्त हो चुका था और हमने सिरे से जीवन आरंभ करने जा रहे थे। रद्दी की टोकरी की राख की तरह ही अतीत भी मानो हवा के झोंके में उड़ गया था। अब मैं श्रीमती द विंतर बनने वाली थी। अब मुझे मैंदरले में जाकर रहना था।
श्रीमती हार्पर जल्दी ही चली जायेंगी और हम दोनों खाने वाले कमरे में एक साथ एक ही मेज़ का भोजन करते हुए अपने भविष्य के बारे में बातें करेंगे। हम एक महान रोमांच के कगार पर खड़े थे। शायद श्रीमती हार्पर के चले जाने के बाद वह मुझसे प्रेम की बातें करेंगे और कहेंगे कि मुझे पाकर वे कितने सुखी हैं। अभी तक तो इन बातों के अवसर नहीं मिला है। और जो बातें आसानी से नहीं कही जा सकती, उनके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। मैंने ऊपर की ओर दृष्टि उठाई, तो श्रीमती हार्पर की परछाई शीशे में दिखाई दी। वो मुझे ध्यान से देख रही थी और धीरे-धीरे मुस्कुरा रही थी। उनकी उस मुस्कुराहट में सहनशीलता की झलक थी और मैं समझी कि अब वह सहृदय बनकर मेरा हाथ अपने हाथ में लेंगी और मुझे बधाई देंगी, मुझे उत्साहित करेंगी और कहेंगी कि सब कुछ भला ही होगा। लेकिन वह मुस्कुराती रहें और टोप के नीचे से निकले हुए एक अकेले बाल को उमेंठती रही।
“यह तो तुम जानती ही होगी कि वह तुमसे शादी क्यों कर रहे हैं?” वह बोलीं, “तुम इस बहकावे में तो नहीं हो कि वह तुमसे प्रेम करते हैं। असली बात यह है कि खाली खाली घर से वह इतने घबरा उठे हैं कि उनका दिमाग ही फिर गया है। तुम्हारे कमरे में आने से पहले उन्होंने स्वीकार किया था कि उनके लिए अब मैंदरले में अकेला रहना असंभव हो गया है।”
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