चैप्टर 9 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 9 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 9 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 9 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 9 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 9 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

जहाँ भारत के राजा पारस्परिक विरोध में पागल थे, वहीं कमजोरियों को समझने के लिए मुहम्मद गोरी तत्पर हो रहा था। सारे देश में उसने डेरे डाल रखे थे। गुप्तचरों का जाल बिछा रखा था। कोई खंजर बेचता हुआ खबर पहुँचा रहा था, कोई दूसरी तरह खरीद-फरोख्त करता हुआ, कोई ऊँट और कोई घोड़े बेचता हुआ-जो शाहवाले घोड़ों से कमजोर नस्ल के होते थे, कोई केसर लिए हुए, कोई कच्ची तलवारें तथा अन्यान्य वस्तुएँ। किसकी कितनी सेना है, युद्ध कौशल कैसे हैं, किस-किस राजा की आपस में मैत्री है, आचार-व्यवहार कैसे हैं, जनता के लिए राजा क्या-क्या भाव रखते हैं, प्रजा प्रसन्न है या पीड़ित, पूरे ब्यौरे के साथ ये खबरें शहाबुद्दीन के पास पहुँच रही थीं। कई बार हार खाकर भी वह ज्यों-ज्यों यहाँ की बिगड़ी राजनीति का अध्ययन करता जा रहा था, उसे विजय की आशा बँधती जा रही थी। पंजाब से सिन्ध तक उसका राज्य विस्तार हो गया था। पर भारत के किसी भी दूसरे प्रदेश के राजा को यह बुरा नहीं लगा, किसी ने इसके लिए मुहम्मद के विरोध की चर्चा नहीं की। सब अपनी ही सीमा को स्वाधीनता की हद मानते थे, धर्म का भी बुरा हाल था। मुहम्मद ज्यों-ज्यों सोचता था, उसकी दृष्टि में आशा के रंगीन फूल त्यों-त्यों खिलते जाते थे-हृदय का रुद्ध प्रवाह वेग से भारतधरा को प्लावित करने के लिए बह चलता था, इस्लाम की दूर-दूर तक फैली महाशक्ति का विश्वास उसे बार-बार नए जीवन से बाँधकर भर देता था; उसके प्रयत्न पहले से और क्षिप्र गति धारण कर लेते थे, अर्थ-संग्रह और सैन्य-शिक्षा के लिए और दत्तचित्त हो जाता था।

इसी समय, कान्यकुब्ज से कुछ दूर, एक सुन्दर निर्जन स्थान पर, धीरसिंह धूनी रमाए बैठे हैं। पीपल की छाँह, इधर-उधर कुछ और वृक्षावली, सामने पक्का कुआँ-किसी धनी ने पथिकों के उपकार के लिए बनवाया है, दिन का तीसरा पहर, सुनहली धूप छनकर आती हुई, जैसे वृक्षाकृति तरुणियाँ नए कोपलों की वासन्ती, गुलाबी और लाल साड़ियाँ पहने रंग खेलने के लिए तैयार हों और प्रिय सूर्य की पिचकारियों से स्वर्ण मिश्रित, साड़ी के अनुरूप ही रंग, उन पर चल रहा हो- उनकी साड़ियाँ और चमक रही हों, और गलती-स्वर्ण-रेणुओं में हँसती, पलकें झुकाए, प्रेम की सुखद-मन्द समीर में अल्प-अल्प डोल रही हों। सामने सजा एक घोड़ा बँधा है। राजपरिच्छदधारी, शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित, राज-पुरुष के तौर पर एक पच्चीस-छब्बीस साल का युवा स्वामीजी के सामने बैठा वार्तालाप कर रहा है। स्वामीजी की उम्र पैंतीस साल के लगभग होगी। सामने गीता की पुस्तक खुली रखी है। नक्शा हाथ में लिए देखते और उत्तर देते जा रहे हैं।

“फिर कहाँ जाना होगा, धीरसिंह?” राजपरिच्छदधारी युवा ने स्वामीजी से पूछा।

“अभी कहीं नहीं।” गम्भीर दृष्टि से नक्शा देखते हुए धीरसिंह ने कहा।

“क्यों?”

“उस पाख की तीजवाली जो चिट्ठी गुजरात और कान्यकुब्ज के रास्ते पकड़ी थी, वह हमारे महाराज के हक में बुरी थी। हालाँकि हमें तुम्हें भी कुछ न बताना चाहिए, पर तुम्हें सब राहें सुझा देना हमारा धर्म है जबकि तुम छोटे भाई की तरह सच्चे दिल से मिले। महाराज की तरफ से उस चिट्ठी का उत्तर हमें यहाँ मिलेगा। उत्तर मिलने की तिथि लिख दी है।”

“धीरसिंह, तुम्हारे साथ कितनी बातें मालूम हुई। अब मुझे हर एक मुसलमान व्यापारी पर शंका होती है। तुमने कितनों को मौत के घाट उतारा? अच्छा किया, नहीं तो भेद न खुलता। हमारा मतलब समझने के लिए कितने भेदिये लगे हैं?”

“हाँ, बहुत-सी खराबियाँ हममें पैठ गयी हैं। खैर, तुम पढ़ते जाओ, धीरे-धीरे समझोगे। हाँ, देखो, रामसिंह,” धीरसिंह ने नक्शा एक बगल किया, रामसिंह झुककर देखने लगा, “यही वह मुकाम है। जिस तिथि तक भीमदेव ने उत्तर पाने के लिए लिखा था-उत्तर अवश्य नहीं पहुँच सकता। उसके बाद वह दूसरा दूत रवाना करेगा। सम्भव है, दूसरे रास्ते से करे; यह भी कि अलग-अलग राहों से दो-तीन भेजे, पर…पर अब हमें पीछे न पड़ना चाहिए, पहली खबर तो मिल ही चुकी है, बाद वाली रोकी नहीं जा सकती, कुछ फायदा भी नहीं। अगर रोकने के लिए महाराज लिखेंगे तो चला जाएगा, कान्यकुब्ज के और-और लोगों को भी साथ ले लेंगे।”

“अच्छा, धीरसिंह!” धीरसिंह के मुखातिब होने पर रामसिंह ने कहा, “इस नक्शे के साथ तुम पकड़ जाओ तो?”

“तो क्या होगा? कहेंगे कि देश का मानचित्र साधुओं को रखना पड़ता है, इससे घूमने की सुगमता रहती है, और विद्यार्थियों को भिन्न देशों की ज्ञानप्राप्ति की सहूलियत होती है।”

“धीरसिंह!” शंका के स्वर से रामसिंह ने कहा, “वह एक सवार आ रहा है।” दोनों निगाह उठाकर देखने लगे।

“तुम तैयार हो जाओ,” धीरसिंह ने कहा, “इस रास्ते आनेवाला हमारा अपना आदमी नहीं हो सकता-या तो गुप्तचर होगा या संवादवाहक। फंदा ठीक कर लो। न उतरा तो पीछे लगकर अवश्य पकड़ना।”

“कोई भला आदमी न हो!”

“भला आदमी हुआ, तो कुछ छीनकर छोड़ देना। समझेगा, डाकू थे। हरकारा हुआ, तो खबर मालूम होगी।”

“फिर यह जगह छोड़नी होगी, महाराज का हाल कैसे मालूम करोगे?”

“तर्क मत करो। रास्ता नहीं बन्द होता।”

रामसिंह तैयार हो गया। घोड़ा सजा था। बैठकर आगे के रास्ते धीरे-धीरे बढ़ाया। अगर आता सवार उतरकर स्वामीजी से बातें करता, तो स्वामीजी उससे समझते, बढ़ने पर आगे वह था।

सवार तेजी ने बढ़ता हुआ स्वामीजी को पार कर निकल गया। रामसिंह की बगल से निकला तो फन्दा डालकर फॉस लिया। घोड़े की चाल तेज होने के कारण वह गिर गया। घोड़ा कुछ कदम बढ़कर खड़ा हो गया। साधारण सिपाही था। घबराकर मिन्नतें करने लगा। रामसिंह ने परिचय पूछा। उसने प्रभावतीवाला हाल बतलाया और कहा कि बलवन्त और महेश्वरसिंह के पत्र कान्यकुब्जेश्वर के पास लिए जा रहा था। तब तक रामसिंह ने देखा कि उसी रास्ते में आगे धूल उड़ रही है। कोई आता है जानकर उससे पत्र लेकर कहा, “उस दूसरी राह से सीधे वापस चले जाओ। घोड़ा बेचकर अपने मालिक से कहना कि डाकुओं ने लूट लिया है। रास्ते में चिट्ठियों का हाल किसी से कहा तो खैर न समझना।”

यह कहकर रामसिंह कन्नौज के रास्ते हवा हो गया।

क्रमश: 

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