चैप्टर 9 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास, Chapter 9 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel
Chapter 9 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel
डाक्टर प्रशान्तकुमार !
जात ?…
नाम पूछने के बाद ही लोग यहाँ पूछते हैं-जात ? जीवन में बहुत कम लोगों ने प्रशान्त से उसकी जाति के बारे में पूछा है। लेकिन यहाँ तो हर आदमी जाति पूछता है। प्रशान्त हँसकर कभी कहता है-“जाति ? डाक्टर !”
“डाक्टर ! जाति डाक्टर ! बंगाली है या बिहारी ?”
“हिन्दुस्तानी,” डाक्टर जवाब देता है।
जाति बहुत बड़ी चीज़ है। जात-पात नहीं माननेवालों की भी जाति होती है। सिर्फ हिन्दू कहने से ही पिंड नहीं छूट सकता। ब्राह्मण हैं ?…कौन ब्राह्मण ! गोत्र क्या है ? मूल कौन है ?…शहर में कोई किसी से जात नहीं पूछता। शहर के लोगों की जाति का क्या ठिकाना ! लेकिन गाँव में तो बिना जाति के आपका पानी नहीं चल सकता।
प्रशान्त अपनी जाति छिपाता है। सच्ची बात यह है कि वह अपनी जाति के बारे में खुद नहीं जानता। यदि उसे अपनी जाति का पता होता तो शायद उसे बताने में झिझक नहीं होती। तब शायद जाति-पाति के भेद-भाव पर से उसका भी पूर्ण विश्वास नहीं हटता। तब शायद ब्राह्मण कहने में वह गर्व महसूस करता।
हिन्दू विश्वविद्यालय में नाम लिखाने के दिन भी प्रशान्त को कुछ ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा था। रात-भर वह जगा रह गया था।…प्रशान्तकुमार, पिता का नाम अनिलकुमार बनर्जी, हिन्दू, ब्राह्मण। सब झूठ ! बेचारा डा. अनिलकुमार बनर्जी, नेपाल की तराई के किसी गाँव में अपने परिवार के साथ सुख की नींद सो रहा होगा। प्रशान्तकुमार नामक उसका कोई पुत्र हिन्दू विश्वविद्यालय में नाम लिखा रहा है, ऐसा वह सपना भी नहीं देख सकता।…लेकिन प्रशान्त अपने तथाकथित पिता डा. अनिलकुमार को जानता है। मैट्रिक परीक्षा के लिए फार्म भरने के दिन डा. अनिल उसके पिता के रिक्तकोष्ठ में आकर बैठ गए थे।
बचपन से ही वह अपने जन्म की कहानी सुन रहा है। घर की नौकरानी, बाग का माली और पड़ोस का हलवाई भी उसके जन्म की कहानी जानता था। लोग बरबस उसकी ओर उँगली उठाकर कहने लगते थे-‘उस लड़के को देखते हो न ? उसे उपाध्याय जी ने कोशी नदी में पाया था। बंगालिन डाक्टरनी ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। फिर लोगों के चेहरों पर जो आश्चर्य की रेखा खिंच जाती थी और आँखों में जो करुणा की हल्की छाया उतर आती थी, उसे प्रशान्त ने सैकड़ों बार देखा है।…एक लावारिस लाश को भी लोग वैसी ही दृष्टि से देखते हैं।
प्रशान्त अज्ञात कुलशील है। उसकी माँ ने एक मिट्टी की हाँड़ी में डालकर बाढ़ से उमड़ती हुई कोशी मैया की गोद में उसे सौंप दिया था। नेपाल के प्रसिद्ध उपाध्याय-परिवार ने, नेपाल सरकार द्वारा निष्कासित होकर, उन दिनों सहरसा अंचल में ‘आदर्श आश्रम’ की स्थापना की थी। एक दिन उपाध्याय जी बाढ़-पीड़ितों की सहायता के लिए रिलीफ की नाव लेकर निकले, झाऊ की झाड़ी के पास एक मिट्टी की हाँड़ी देखी-नई हाँड़ी। उनकी स्त्री को कौतूहल हुआ, ‘जरा देखो न, उस हाँड़ी में क्या है ?’ नाव झाड़ी के पास पहुँची, पानी के हिलोर से हाँड़ी हिली और उससे एक ढोढ़ा साँप गर्दन निकालकर ‘फों-फों’ करने लगा। साँप धीरे-धीरे पानी में उतर गया और हाँड़ी से नवजात शिशु के रोने की आवाज आई, मानो माँ ने थपकी देना बन्द कर दिया।…बस, यही उसके जन्म की कथा है, जिसे हर आदमी अपने-अपने ढंग से सुनाता है।
आदर्श आश्रम’ में एक दुखिया युवती थी-स्नेहमयी। स्नेहमयी को उसके पति डा. अनिलकुमार बनर्जी ने त्यागकर एक नेपालिन से शादी कर ली थी। उपाध्याय जी के आदर्श आश्रम में रहकर वह हिरण, खरगोश, मयूर और बन्दर के बच्चों पर अपना / स्नेह बरसाती रहती थी। तरह-तरह के पिंजड़ों को लेकर वह दिन काट लेती थी। जब उस दिन उपाध्याय-दम्पति ने उसकी गोद में सोया हुआ शिशु दिया, तो वह आनन्दविभोर होकर चीख उठी थी-‘प्रशान्त !…आमार प्रशान्त !’ उस दिन से प्रशान्त स्नेहमयी का एकलौता बेटा हो गया। कुछ दिनों के बाद नेपाल सरकार ने निष्कासन की आज्ञा रद्द करके उपाध्याय-परिवार को नेपाल बुला लिया-आदर्श आश्रम के पशु-पक्षियों के साथ। स्नेहमयी और प्रशान्त भी उपाध्याय-परिवार के ही सदस्य थे। उपाध्याय जी ने नेपाल की तराई के विराटनगर में आदर्श-विद्यालय की स्थापना की। स्नेहमयी उसी स्कूल में सिलाई-कटाई की मास्टरनी नियुक्त हुई।
स्नेहमयी के स्नेहांचल में पलते हुए किशोर प्रशान्त पर कर्मठ उपाध्याय-परिवार की रोशनी नहीं पड़ती तो वह सितार के झलार और रवीन्द्र-संगीत के बसन्त-बहार के दायरे से बाहर नहीं जा सकता था। उपाध्याय जी का ज्येष्ठ पुत्र बिहार विद्यापीठ का स्नातक था और मँझला देहरादून के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी स्कूल का विद्यार्थी । पुत्री शान्तिनिकेतन में शिक्षा पा रही थी। छुट्टियों में जब वे एक जगह इकट्ठे होते तो शान्तिनिकेतन में शिक्षा पानेवाली बहन चर्खा चलाना सीखती, विद्यापीठ के स्नातक आश्रम-भजनावली की पंक्तियों पर राविन्द्रिक सुर चढ़ाते और अंग्रेजी स्कूल का स्टूडेंट सेवादल के कवायदों के हिन्दी कमांड के वैज्ञानिक पहलू पर बहस करता-‘एटेंशन’ में जो फोर्स है वह ‘सावधान’ में नहीं ! एटेंशन सुनते ही लगता है कि दर्जनों जोड़े बूट चटख उठे।
ऐसे ही वातावरण में प्रशान्त के व्यक्तित्व का विकास हुआ।
हिन्दू विश्वविद्यालय से आई.एस-सी. पास करने के बाद वह पटना मेडिकल कालेज में दाखिल हुआ। माँ की इच्छा थी कि वह डाक्टर बने। लेकिन अपने प्रशान्त को वह डाक्टर के रूप में नहीं देख पाई। काशीवास करते-करते, काशी की किसी गली में वह हमेशा के लिए खो गई !…एक बार लाहौर से प्रशान्त के नाम पर एक मनिआर्डर आया था-विजया का आशीर्वाद लेकर। भेजनेवाली श्री-श्रीमती स्नेहमयी चोपड़ा।…एक माँ ने जन्म लेते ही कोशी मैया की गोद में सौंप दिया और दूसरी ने जनसमुद्र की लहर को समर्पित कर दिया।
डाक्टरी पास करने के बाद जब वह हाउस सर्जन का काम कर रहा था, 1942 का देशव्यापी आन्दोलन छिड़ा। नेपाल में उपाध्याय-परिवार का बच्चा-बच्चा गिरफ्तार किया जा चुका था। अंग्रेजी सरकार को पूरा पता था कि उपाध्याय-परिवार हिन्दुस्तान के फ़रार नेताओं की सिर्फ मदद ही नहीं करता है, गुप्त आन्दोलन को सक्रिय रूप से चला भी रहा है। मँझला पुत्र बिहार की सोशलिस्ट पार्टी का कार्यकर्ता था, वह पहले ही नजरबन्द हो गया था। प्रशान्त भी तो उपाध्याय-परिवार का था, वह कैसे बच सकता था, उसे भी नजरबन्द कर लिया गया। जेल में विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के निकट सम्पर्क में रहने का मौका मिला…सभी दल के लोग उसे प्यार करते थे।
1946 में जब कांग्रेसी मन्त्रिमंडल का गठन हुआ तो एक दिन वह हेल्थ मिनिस्टर के बँगले पर हाजिर हुआ। वह पूर्णिया के किसी गाँव में रहकर मलेरिया और काला आजार के सम्बन्ध में रिसर्च करना चाहता है। उसे सरकारी सहायता दी जाए। मिनिस्टर साहब ने कहा था-“लेकिन सरकार तुमको विदेश भेज रही है। स्कालरशिप…”
“जी, मैं विदेश नहीं जाऊँगा,” पूर्णिया और सहरसा के नक्शे को फैलाते हुए उसने कहा था, “मैं इसी नक्शे के किसी हिस्से में रहना चाहता हूँ। यह देखिए, यह है सहरसा का वह हिस्सा, जहाँ हर साल कोशी का तांडव नृत्य होता है। और यह पूर्णिया का पूर्वी अंचल जहाँ मलेरिया और काला-आजार हर साल मृत्यु की बाढ़ ले आते हैं।”
मिनिस्टर साहब प्रशान्त को अच्छी तरह जानते थे। इस विषय पर प्रशान्त से तर्क में जीतना मुश्किल है। “लेकिन सवाल यह है कि…”
“सवाल-जवाब कुछ नहीं। मुझे किसी मलेरिया सेंटर में ही भेज दीजिए !”
“मलेरिया सेंटर में ? लेकिन तुम एम.बी.बी.एस. हो और मलेरिया काला-आजार सेंटरों में एल.एम.पी. डाक्टर लिए जाते हैं।’
“जब तक मैं यह रिसर्च पूरा नहीं कर लेता, मैं कुछ भी नहीं हूँ। मेरी डिग्री किस काम की ?”
बहुत मेहनत से नई और पुरानी फाइलों को उलटकर और पूर्णिया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन से लिखा-पढ़ी करके मिनिस्टर साहब ने मि. मार्टिन की दी हुई जमीन के बारे में पता लगाया। बीस-बाईस वर्ष पहले मिनिस्टर साहब पूर्णिया में ही वकालत करते थे। पगले मार्टिन को उन्होंने देखा था।
अन्त में केन्द्रीय सरकार से सलाह-परामर्श के बाद एक दिन प्रेस-नोट में यह खबर प्रकाशित हुई कि पूर्णिया जिले के मेरीगंज नामक गाँव में मलेरिया स्टेशन खोला गया है (…दि स्टेशन विल अंडरटेक मलेरिया ऐंड काला-आजार इन्वेस्टिगेशन इन ऑल ऐस्पेक्ट्स-प्रिवेन्विट, क्यूरेटिव ऐंड इकोनामिक)।
प्रशान्त के इस फैसले को सुनकर मेडिकल कालेज के अधिकारियों, अध्यापकों और विद्यार्थियों पर तरह-तरह की प्रतिक्रिया हुई। मशहूर सर्जन डा. पटवर्धन ने कहा, “बेवकूफ है!
ई.एन.टी. के प्रधान डाक्टर नायक बोले, “पीछे आँखें खुलेंगी।”
मेडिसन के डाक्टर तरफदार की राय थी, “भावुकता का दौरा भी एक खतरनाक रोग है। मालूम ?”
लेकिन प्रिंसिपल साहब खुश थे, “तुमसे यही उम्मीद थी। मैं तुम्हारी सफलता की कामना करता हूँ ! जब कभी तुम्हें किसी सहायता की आवश्यकता हो, हमें लिखना।”
प्रशान्त का गला भर आया था।
मद्रास के मेडिकल गजट ने सम्पादकीय लिखकर डा. प्रशान्त का अभिनन्दन किया।
…और जिस दिन वह पूर्णिया आ रहा था, स्टीमर खुलने में सिर्फ पाँच मिनट की – देरी थी, उसने देखा, एक युवती सीढ़ी से जल्दी-जल्दी उतर रही है। कौन है ? ममता ! “हाँ, ममता ही थी। आते ही बोली, “आखिर तुम्हारा भी माथा खराब हो गया। तुमने तो कभी बताया नहीं। बलिहारी है तुम्हारा !…ओह, प्रशान्त, तुम कितने बड़े हो, कितने महान् !…मैं तो अभी आ रही हूँ बनारस से। आते ही चुन्नी ने तुम्हारी चिट्ठी दी।”
रूमाल से फूल और बेलपत्र निकालकर प्रशान्त के सिर से छुलाते हुए ममता ने कहा था, “बाबा विश्वनाथ जी का प्रसाद है। बाबा विश्वनाथ तुम्हारा मंगल करें। पहुँचते ही पत्र देना।”
Prev | Next | All Chapters
चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास
आंख की किरकिरी रबीन्द्रनाथ टैगोर का उपन्यास
देवांगाना आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास