चैप्टर 9 गुनाहों का देवता : धर्मवीर भारती का उपन्यास Chapter 9 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 9 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 9 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

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लेकिन बुआ तो दूसरे दिन गयी नहीं। जब तीन-चार दिन बाद चंदर गया, तो देखा बाहर के सहन में डॉ० शुक्ला बैठे हुए हैं और दरवाजा पकड़कर बुआजी खड़ी बातें कर रही हैं। लेकिन इस वक़्त बुआजी काफ़ी गंभीर थीं और किसी विषय पर मंत्रणा कर रही थी। चंदर के पास पहुँचने पर फौरन वे चुप हो गयी और चन्दर की शकि नेत्रो से देखने लगी। डॉ० शुक्ला बोले – “आमो चन्दर बैठो ।” चंदर बगल की कुर्सी खींचकर बैठ गया, तो डॉ० साहब बुआजी से बोले, “हाँ…हाँ! बात करो, अरे ये तो घर के आदमी हैं। इनके बारे में सुधा ने नहीं बताया तुम्हें? ये चंदर हैं, हमारे शिष्य, बहुत अच्छा लड़का है।”

“अच्छा, अच्छा भइया बइठो, तू तो एक दिन अउर आये रह्यो, बी0ए0 में पढत हो सुधा के संगे?”

“नहीं बुआ जी, मैं रिसर्च कर रहा हूँ।”

“वाह, बहुत खुशी भई तोको देख के-हाँ तो सुकुल!” वे अपने से बोली, “फिर यही ठीक होई। बिनती का बियाह टाल देव और अगर ई लड़का ठीक हुइ जाय, तो सुधा का वियाह अषाढ़-भर में निपटा देव। अब अच्छा नाही लागत। ठूंठ ऐसी बिटिया, सूनी माँग लिये छररावा करत है एहर-ओहर!” बुआ बोली।

“हाँ ये तो ठीक है।” डॉ० शुक्ला बोले – “मैं खुद सुधा का ब्याह अब टालना नहीं चाहता। बी०ए० तक की शिक्षा बहुत काफ़ी है, वरना फिर हमारी जाति में तो लडके नहीं मिलते। लेकिन ये जो लड़का तुम बता रही हो तो घर वाले कुछ एतराज़ तो नहीं करेंगे। और फिर, लड़का तो हमें अच्छा लगा लेकिन घर वाले पता नहीं कैसे हों?”

“अरे तो घरवालन से का करै का है तो को। लड़का तो अलग है, अपने-आप पढ़ रहा है और लड़की अलग रहिए, न सास का डर न ननद की घौंस। हम पत्री मँगवाये देइत ही, मिलवाय लेव।”

डॉ० शुक्ला ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

“तो फिर बिनती के बारे में का कहत हो? अगहन तक टाल दिया जाय न।” बुआ जी ने पूछा।

“हाँ, हाँ!” डॉक्टर शुक्ला ने विचार में डूबे हुए कहा।

“तो फिर तुम ही इन जूतापिटऊ, बड़नक्कू से कह दियो, आय के कल से हमरो छाती पर मूँग दलत है।” बुझा जी ने चंदर की ओर किसी को निर्देशित करते हुए कहा और चली गयी।

चंदर चुपचाप बैठा था। जाने क्या सोच रहा था। शायद कुछ भी नहीं सोच रहा था। मगर फिर भी अपनी विचार-शून्यता में ही खोया हुआ-सा था। जब डॉक्टर शुक्ला उस की ओर मुड़े और कहा – “चंदर!” तो वह एकदम से चौंक गया और जाने किस दुनिया से लौट आया।

डॉ० से साहब ने कहा – “अरे । तुम्हारी तबीयत खराब है क्या?”

“नहीं तो!” एक फीकी हँसो हँसकर चंदर ने कहा।

“तो मेहनत बहुत कर रहे होगे। कितने अध्याय लिखे अपनी थीसिस के? अब मार्च खत्म हो रहा है और पूरा अप्रैल तुम्हें थीसिस टाइप कराने में लगेगा और मई में हर हालत में जमा हो जानी चाहिए।”

“जो, हाँ।” बड़े थके हुए स्वर में चंदर ने कहा – “दस अध्याय हो ही गये है। तीन अध्याय और होने हैं और अनुक्रमणिका बनानी है। अप्रैल के पहले सप्ताह तक खत्म हो ही जायेगा। अव सिवा थीसिस के और करना ही क्या है?” एक बहुत गहरी साँस लेते हुए चंदर ने कहा ने और माथा थामकर बैठ गया।

“कुछ तबीयत ठीक है नहीं तुम्हारी। चाय बनवा लो। लेकिन सुधा तो है नहीं, न महराजिन है।” डॉक्टर साहब बोले।

अरे सुधा, सुधा के नाम पर चंदर चौंक गया। हाँ, अभी वह सुधा के ही बारे में सोच रहा था जब बुआजी बात कर रही थी। क्या सोच रहा था। देखो उसने याद करने की कोशिश की, पर कुछ याद ही नहीं आ रहा था, पता नहीं क्या सोच रहा था। पता नहीं था….कुछ सुधा के ब्याह की बात हो रही थी शायद? क्या बात हो रही थी..?

“कहाँ गयी है सुधा?” चंदर ने पूछा।

“आज शायद साबिर साह के यहाँ गयी है। उनकी लड़की उसके साथ पढ़ती है न, वहींगयी है बिनती के साथ।”

“अब इम्तहान को कितने दिन रह गये हैं, अभी घूमना बंद नहीं हुआ उनका।“ चंदर बोला।

“नहीं दिन-भर पढ़ने के बाद उठी थी, उसके भी सिर में दर्द था, चली गयी। घूम-फिर लेने दो बेचारी को, अब तो जा रही है।” डॉक्टर शुक्ला बोले, एक ऐसी हँसी के साथ जिसमें आँसू छलके पड़ते थे।

“कहाँ तय हो रही है सुधा की शादी?” चंदर ने पूछा।

“बरेली में। अब उसकी बुझा ने बताया है। जन्मपत्री दी है मिलवा लो, फिर तुम जरा सब बातें देख लेना। तुम तो थीसिस में व्यस्त रहोगे, जाकर लड़का देख आऊंगा। फिर मई के बाद जुलाई तक में सुधा का ब्याह कर देंगे। तुम्हें डॉक्टरेट मिल जाये और यूनिवर्सिटी में जगह मिल जाये। बस हम तो लड़का-लड़की दोनों से फ़ारिग।” डॉ० शुक्ला बहुत अजब से स्वरों में बोले।

चंदर चुप रहा ।

“बिनती को देखा तुमने?” थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने पूछा।

“हाँ वही न, जिसको डांट रही थी ये उस दिन?”

“हाँ वही। उसके ससुर आये हुए हैं, उनसे कहना है कि अब शादी अगहन-पूस के लिए टाल दें। पहले सुधा की हो जाये, वह बड़ी है और हम चाहते हैं कि बिनती को तब तक विदुषी का दूसरा खण्ड भी दिला दें। आओ उनसे बात कर लें अभी।” डाक्टर शुक्ला उठे। चंदर भी उठा।

और उसने अंदर जाकर बिनती के ससुर के दिव्य दर्शन प्राप्त किये। वे एक पलंग पर बैठे थे, लेकिन वह अभागी पलंग उनके उदर के ही लिए नाकाफ़ी था। वे चित्त पड़े थे और साँस लेते थे, तो पुराणों की उस कथा का प्रदर्शन हो जाता था कि धीरे-धीरे पृथ्वी का गोला वाराह के मुँह पर कैसे ऊपर उठा होगा। सिर पर छोटे-छोटे बाल और कमर एक अंगोछे के अलावा सारा शरीर दिगम्बर। सुबह शायद गंगा नहाकर जाये थे, क्योंकि पेट तक में चंदन, रोली लगी हुई थी।

डॉक्टर शुक्ला जाकर बग़ल में कुर्सी पर बैठ गये, “कहिए दुबेजी, कुछ जलपान किया आपने?”

पलंग चरमराया। उस विशाल मास-पिण्ड में एक भूडोल आया और दुबेजी जलपान की याद करके गद्गद होकर हँसने लगे। एक थलथलाहट हुई और कमरे की दीवारें गिरते-गिरते बचीं। दुबेजी ने उठकर बैठने को कोशिश की, लेकिन असफल होकर लेटे-ही-लेटे कहा, “हो-हो! सब आप की कृपा है। खूब छक के मिष्ठान्न पाया। अब जरा सरबत-उरबत कुछ मिलै, तो जो कुछ पेट में जलन है, सो शांत होय!” उन्होंने पेट पर अपना हाथ फेरते हुए कहा।

“अच्छा, अरे भाई ज़रा शरबत बना देना।” डॉ० शुक्ला ने दरवाजे की लोट में खड़ी हुई बुआजी से कहा। बुआजी की आवाज सुनाई पड़ी — “बाप रे! ई ढाई मन की लहास कम से कम मसक-भर के शरबत तो उलीचे लैईहै।”

चंदर को हँसी आ गयी, डॉ शुक्ला मुस्कुराने लगे, लेकिन दुबेजी के दिव्य मुखमण्डल पर कही क्षोभ या उल्लास की रेखा तक न आयी। चंदर मन-ही-मन सोचने लगा, प्राचीन काल के ब्रह्मानन्द सिद्ध महात्मा ऐसे ही होते होंगे।

बुआ एक गिलास मे शरबत आयी। दुबेजी काँख-काँख कर उठे और एक सांस में शरबत गले से नीचे उतारकर, गिलास नीचे रख दिया।

“दुबेजी, एक प्रार्थना है आपसे।” डॉ० शुक्ला ने हाथ जोड़कर बड़े विनीत स्वर में कहा।

“नहीं! नहीं!” बात काटकर दुबेजी बोले – “बस अब हम न कुछ खावै। आप बहुत सत्कार किये। हम एही से छक गये। आपको देख के तो हमें बड़ी प्रसन्नता भई। आप सचमुच दिव्य पुरुष हो। और फिर आप तो लड़की के मामा हो, और बियाहसादी में जो है, सो मामा का पक्ष देखा जात है। ई तो भगवान ऐसा जोड़ मिलाइन हैं कि वरपक्ष अउर कन्यापक्ष दुइन के मामा बडे ज्ञानी हैं। आप हैं तौन कालिज में पुरफ़ेसर हैं और ओहर हमार सार-लडकाकेर मामी जौन है तौन डाकघर में मुंशी हैं, आप की किरपा से।” दुबेजी ने गर्व से कहा। चंदर मुस्कुराने लगा।

“अरे सो तो आपकी नम्रता है, लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि गरमियो में अगर ब्याह न रखकर जाड़े में रखा जाये, तो ज्यादा अच्छा होगा। तब तक आप के सत्कार की हम कुछ तैयारी भी कर लेंगे।” डॉ० शुक्ला बोले।

दुबेजी इस के लिए तैयार नहीं थे। वे बड़े अचरज में भरकर उनकी ओर देखने लगे। लेकिन बहुत कहने-सुनने के बाद अंत में वे इस शर्त पर राजी हुए कि अगहन तक हर तीज-त्यौहार पर लड़के के लिए कुर्ता-धोती का कपड़ा और ग्यारह रुपये नज़राना जायेगा और अगहन में अगर ब्याह हो रहा है, तो सास, ननद और जिठानी के लिए गरम साड़ी जायेगी और जब-जब दुबेजी गंगा नहाने प्रयागराज आएंगे, तो उन का रोचना एक थाल, कपड़े और एक स्वर्णमण्डित जौ से होगा। जब डॉ० शुक्ला ने यह स्वीकार कर लिया, तो दुबेजी ने उठकर अपना झालम-झोला कुरता गले में लटकाया और अपनी गठरी हाथ में उठा कर बोले –

“अच्छा तो अब आज्ञा देव, हम चली अव, और ई रुपिया लड़की को दै दियो, जब बात पक्की है।” और अपनी टेंट से उन्होंने एक मुड़ा मुड़ाया तेल लगा हुआ पाँच रुपये का नोट निकाला और डॉ० साहब को दे दिया।

“चंदर एक तांगा कर दो, दुबेजी को। अच्छा आओ हम भी चलें।” जब ये लोग लौटे, तो बुआाजी एक थैली से कुछ धर-निकाल रही थी। डॉ० शुक्ला ने नोट बुआजी को देते हुए कहा, “लो ये दे गये तुम्हारे समधी जी, लड़की को।”

पाँच का नोट देखा, तो बुआजी सुलग उठी – “न गहना न गुरिया, बियाह पक्का कर गये ई कागज के टुकड़े से। अपना-आप तो सोना और रुपिया और कपड़ा सब लीलै को तैयार और देत के दांई पेट पिरात है जूता-पिटक का। अरे राम चाही, तो जमदूत ई लहास को बोटी-चोटी करके रामजी के कुत्तन को खिलइहै।”

चंदर हँसी के मारे पागल हो गया।

बुआजी ने थैली का मुँह बांधा और बोली, “अबहिन तक बिनती का पता नै, और ऊ तुरकन मलेच्छन के हियां कुछ खा-पी लिहिस, तो फिर हमरे हियाँ गुजारा नहि ना ओका। बड़ी आजाद हुई गयी है सुधा की सह पाय के। नावै देव, आज हम भद्रा उतारित ही।”

डॉ० शुक्ला अपने कमरे में चले गये। चंदर को प्यास लगी थी। उसने बुआजी से एक गिलास में पानी मांगा। बुआ ने एक गिलास में उस पानी दिया और बोली – “बैठ के पियो बेटा, बैठ के। कुछ खाय को देई?”

“नहीं बुआजी!” बुआ बैठ कर हँसिया से कटहल छीलने लगी और चंदर पानी पीता हुआ सोचने लगा, बुआजी सभी से इतनी मीठी बात करती है, तो आखिर बिनती से ही इतनी कटु क्यों हैं?

इतने में अंदर चप्पलों की आहट सुनाई पड़ी। चंदर ने देखा। सुधा और बिनती आ गयी थीं। सुधा अपनी चप्पल उतारकर अपने कमरे में चली गयी और बिनती आँगन में आयी। बुआजी के पास जाकर बोली – “लाओ, हम तरकारी काट दें।”

“चल हट ओहर। पहिले नहाव जाय के। कुछ खाये तो नै रह्यो। एत्ती देर कहाँ घूमती रह्यो? हम खूब अच्छी तरह जानित ही तूं हमार नाक कटाइन के रह्यो। पतुरियन के ढंग सीखे है।”

बिनती चुप। एक तीखी वेदना का भाव उस के मुँह पर आया। उसने आँखें झुका ली। रोयी नहीं और चुपचाप सिर झुकाये हुए सुधा के कमरे में चली गयी।

चंदर क्षण भर खड़ा रहा। फिर सुधा के पास गया। सुधा के कमरे में अकेले विनती खाट पर पड़ी थी। औंधे मुँह, तकिया में मुँह छिपाये। चंदर को जाने कैसा लगा। उसके मन में बेहद तरस आ रहा था, इस बेचारी लड़की के लिए, जिसके पिता हैं ही नहीं, और जिसे प्रताड़ना के सिवा कुछ नहीं मिला। चंदर को बहुत ही ममता लग रही थी इस अभागिनी के लिए। वह सोचने लगा कितना अंतर है दोनों बहिनों में। एक बचपन से ही कितने असीम दुलार, वैभव और स्नेह में पली है और दूसरी प्रताडना और कितने अपमान में पली और वह अपनी ही सगी माँ से, जो दुनिया भर के प्रति स्नेहमयी है, अपनी लड़की को छोड़कर।

वह कुर्सी पर बैठकर चुपचाप यही सोचने लगा – अब आगे भी इस बेचारी को क्या सुख मिलेगा। ससुराल कैसी है, यह तो ससुर को देखकर ही मालूम देता है।

इतने में सुधा कपड़े बदलकर हाथ में एक किताब लिये उसे पढ़ती हुई उसी में डूबी हुई आई और खाट पर बैठ गयी।

“अरे! बिनती! कैसे पड़ी हो? अच्छा तुम हो चंदर! बिनती। उठो।” उसने विनती की पीठ पर हाथ रखकर कहा।

बिनती जो अभी तक निश्चेष्ट पड़ी थी, सुधा के ममता-भरे स्पर्श पर फूट-फूट कर रो पड़ी। तो सुधा ने चंदर से कहा – “क्या हुआ बिनती रानी को।” और जब बिनती और भी जोरो से सिसकियाँ भरने लगी, तो सुधा ने चंदर से कहा – “कुछ तुमने कहा होगा। चौदह दिन बाद आये और आते ही लगे रुलाने उसे। कुछ कहा होगा तुमने? समझ गये। घूमने के लिए उसे भी डाँटा होगा। हम साफ-साफ बताये देते हैं चंदर, हम तुम्हारी डाँट सह लेते है, इसके ये मतलब नहीं कि अब तुम उस बेचारी पर भी रौब झाड़ने लगो। उससे कभी कुछ कहा, तो अच्छी बात नहीं होगी!”

“तुम्हारे दिमाग़ का कोई पुरजा ढीला हो गया है क्या? मैं क्यो कहूंगा विनती को कुछ?”

“बस फिर यही बात तुम्हारी बुरी लगती है।” सुधा बिगड़ कर बोली, “क्यों नहीं कहोगे विनती को कुछ? जब हमें कहते हो, तो उसे क्यों नहीं कहोगे? हम तुम्हारे अपने हैं, तो क्या वो तुम्हारी अपनी नहीं है?”

चंदर हँस पड़ा — “सो क्यों नहीं है, लेकिन न तुम्हारे साथ ऐसे निबाह न वैसे निबाह!”

“ये सब हम कुछ नहीं जानते। क्यों रो रही है यह?” धमकी के स्वर में सुधा बोली।

“बुआजी ने कुछ कहा था।” चंदर बोला।

“अरे तो उसके लिए क्या रोना। इतना समझाया तुझे कि उनकी तो आदत है। हँस कर टाल दिया कर, चल उठ। हँसती है कि गुदगुदाऊं।” सुधा ने गुदगुदाते हुए कहा। विनती ने उसका हाथ पकड़कर झटक दिया और फिर सिसकियाँ भरने लगी।

“नाहीं मानेगी न?” सुधा बोली – “अभी ठीक करती हूँ तुझे मैं। चंदर पकड़ो तो इसका हाथ।”

चंदर चुपचाप रहा।

“नहीं उठे। उठो, तुम इसका हाथ पकड़ लो, तो हम अभी इसे हँसाते हैं।” सुधा ने चंदर का हाथ पकड़कर बिनती की ओर बढ़ते हुए कहा। चंदर ने अपना हाथ खींच लिया और बोला – “वह तो रो रही है और तुम बजाय समझाने के, उसे परेशान कर रही हो।”

“अरे जानते हो, क्यों रो रही है? अभी इस के ससुर आये थे, वो बहुत मोटे थे। ये सोच रही है कहीं ‘वो’ भी मोटे हों।” सुधा ने फिर इसकी गरदन गुदगुदाकर कहा।

विनती हँस पडी। सुधा उछल पड़ी – “लो ये तो हँस पड़ी, अब रोओगी।” और फिर सुधा ने गुदगुदाना शुरू किया। विनती पहले तो हँसी से लोट गयी, फिर पल्ला सम्हालते हुए बोली – “छि दीदी! वो बैठे हैं कि नही।” और उठकर बाहर जाने लगी।

“कहाँ चली?” सुधा ने पूछा।

“जा रही हूँ नहाने।” बिनती पल्ले से सिर ढंकते हुए चल दी।

“क्यों मैंने तेरा बदन छू दिया इसलिए?” सुधा हँस कर बोली “ए चंदर, वो गेसू का छोटा भाई है न हसरत, मैंने उसे छू लिया, तो फ़ौरन उसने जाकर अपना मुँह साबुन से धोया और अम्मीजान बोला – “मेरा मुँह जूठा हो गया।” और आज हमने गेसू के अख्तर मियां को देखा। बड़े मजे के हैं। मैं तो गेसु से बात करती रही, लेकिन बिनती और फूल ने बहुत छेड़ा उन्हें। बेचारे घबरा गये। फूल बहुत चुलबुली है, बड़ी नाज़ुक है। बड़ी बोलने वाली है और बिनती और फूल का खूब जोड़ मिला। दोनो खूब गाती हैं।”

“बिनती गाती भी है?” चंदर ने पूछा, “हमने तो रोते ही देखा।”

“अरे बहुत अच्छा गाती है। इसने एक गाँव का गाना बहुत अच्छा गाया था।…’अरे देखो वे सब बताने में हम तुम पर गुस्सा होना तो भूल गये। कहाँ रहे चार रोज? बोलो, बताको जल्दी से।”

“व्यस्त थे। सुधा, अब थीसिस तीन हिस्सा लिख गयी। इधर हम लगातार पाँच घण्टे बैठ कर लिखते थे।” चंदर बोला।

“पाँच घण्टे!” सुधा बोली – “दूध आज-कल पीते हो कि नहीं?”

“हाँ-हाँ, तीन गायें खरीद ली है।” चंदर बोला।

“नहीं मजाक नहीं, कुछ खाते-पीते रहना, कहीं तबीयत खराब हुई, तो जब हमारा इम्तहान है, पड़े-पड़े मक्खी मारोगे और अब हम देखने भी नहीं जा सकेंगे।”

“अब कितना कोर्स बाकी है तुम्हारा?”

“कोर्स तो खत्म था हमारा। कुछ कठिनाइयाँ थी, सो पिछले दो-तीन हफ्ते में मास्टर साहब ने बता दी थी। अब दोहराना है। लेकिन बिनती का इम्तहान मई में है, उसे भी तो पढ़ाना है।”

“अच्छा अब चलें हम।”

“अरे बैठो | फिर जाने के दिन बाद आओगे। आज बुआ तो चली जायेंगी, फिर कल से यही पढ़ो न। तुमने बिनती के ससुर को देखा था।“

“हाँ देखा था।” चंदर उनकी रूपरेखा याद करके हँस पड़ा – “बाप रे। पूरे टैंक थे वे तो।”

“बिनती की ननद से तुम्हारा ब्याह करवा दें। करोगे?” सुधा बोली – “लड़की इतनी ही मोटी है। उसे कभी डाँट लेना, तो देखेंगे तुम्हारी हिम्मत।” सुधा बोली।

ब्याह! एकदम से चंदरर को याद आ गया। अभी बुआ ने बात की थी सुधा के ब्याह की। तब उसे कैसा लगा था? कैसा लगा था? उसका दिमाग घूम गया। लगा जैसे एक असहनीय दर्द था या क्या था। क्या था. जो जो उसकी नस नस को तोड़ गया। एकदम!

“क्या हुआ चंदर? अरे चुप क्यों हो गये? डर गये मोटी लडकी के नाम से?” सुधा ने चंदर का कंधा पकड़कर झकझोरते हुए कहा।

चंदर एक फीकी हँसी हँस कर रह गया और चुपचाप सुधा की ओर देखने लगा। सुधा चंदर की निगाह से सहम गयी। चंदर की निगाह में जाने क्या था, एक अजब-सा पथराया सूनापन, एक जाने किस दर्द की अमंगल छाया, एक जाने किस पीड़ा की मूक आवाज, एक जाने कैसी पिघलती हुई-सी उदासी और वह भी गहरी, जाने कितनी गहरी…और चंदर था कि एकटक देखता जा रहा था, एकटक अपलक।

सुधा को जाने कैसा लगा। ये अपना चंदर तो नहीं, ये अपने चंदर की निगाह तो नहीं है। चंदर तो ऐसी निगाह से, इस तरह अपलक तो सुधा को कभी नहीं देखता था। नहीं यह चंदर की निगाह तो नहीं। इस निगाह में न शरारत है, न डांट, न दुलार और न करुणा। इसमें कुछ ऐसा है, जिससे सुधा बिल्कुल परिचित नहीं, जो आज चंदर में उसे पहली बार दिखाई पड़ रहा है। सुधा को जैसे डर लगने लगा, जैसे वह कांप उठी। नहीं यह कोई दूसरा चंदर है, जो उसे इस तरह देख रहा है। यह कोई अपरिचित है, कोई अजनबी, किसी दूसरे देश का कोई व्यक्ति जो सुधा को…

“चंदर, चंदर! तुम्हें क्या हो गया।” सुधा की आवाज़ मारे डर के कांप रही थी, उस का मुँह पीला पड़ गया, उस की साँस बैठने लगी थी — “चंदर” और जब उसका कुछ बस न चला, तो उसकी आँखो में आँसू छलक आये।

हाथों पर एक गरम-गरम बूंद आकर पड़ते ही चंदर चौंक गया। “अरे सुधी! रोओ मत। नहीं पगली। हमारी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। एक गिलास पानी तो ले आओ।”

सुधा अब भी कांप रही थी। चंदर की आवाज में अभी भी वह मुलायमियत नहीं आ पायी थी। वह पानी लाने के लिए उठी।

“नहीं तुम कहीं जाना मत, तुम बैठो यही।” उसने उस को हथेली अपने माथे पर रख कर ज़ोर से अपने हाथो में दबा ली और कहा “सुधा!”

“क्यों चंदर!”

“कुछ नहीं।” चंदर ने आवाज दी, लेकिन लगता था वह आवाज चंदर की नहीं थी। न जाने कहाँ से आ रही थी।

“क्या सिर में दर्द है? बिनती, एक गिलास पानी लाओ जल्दी से। ” सुधा ने आवाज़ दी। चंदर जैसे पहले-सा हो गया – “अरे! अभी मुझे क्या हो गया था? तुम क्या बात कर रही थी सुधा?”

“पता नहीं! तुम्हें अभी क्या हो गया था?” सुधा ने घबरायी हुई गौरैया की तरह सहम कर कहा।

चंदर स्वस्थ हो गया – “कुछ नहीं सुधा। मैं ठीक हूँ। मैं तो यूँ ही तुम्हें परेशान करने के लिए चुप था।” उसने हँसकर कहा।

“हाँ, चलो रहने दो। तुम्हारे सिर में दर्द है ज़रूर से।” सुधा बोली। विनती पानी लेकर आ गयी थी।

“लो पानी पियो।”

“नहीं हमें कुछ नहीं चाहिए।” चंदर बोला।

“बिनती, जरा पेनबाम ले आओ।” सुधा ने गिलास जबर्दस्ती उसके मुँह से लगाते हुए कहा। बिनती पेनबाम ले आयी थी – “बिनती, तू जरा लगा तो दे इनके। अरे खड़ी क्यों है? कुर्सी के पीछे खड़ी होकर माथे पर जरा हलकी उंगली से लगा दे।”

विनती आज्ञाकारी लड़की की तरह आगे बढ़ी, लेकिन फिर हिचक गयी। किसी अजनबी लड़के के माथे पर कैसे पेनबाम लगा दे।

“चलती है या अभी काट के गाड़ देंगे यहीं। मोटकी कहीं की! खा-खा कर मुटानी है। जरा-सा काम नहीं होता।”

बिनती ने हारकर पेनबाम लगाया। चंदर ने उसका हाथ हटा दिया। सुधा ने बिनती के हाथ से पेनबाम लेकर कहा – “आओ हम लगा दें।”

बिनती पेनबाम देकर चली गयी। सुधा ने हाथ बढ़ाया, तो चंदर ने डांटा – “सीधे से बैठो। हाँ।”

सुधा चुपचाप बैठ गयी, तो चंदर वोला – “अब बताओ क्या बात कर रही थी? हाँ, बिनती के ब्याह की। ये उनके ससुर तो बहुत ही भद्दे मालूम पड़ रहे थे। क्या देख कर ब्याह कर रही हो तुम लोग।”

“पता नहीं क्या देखकर ब्याह कर रही है बुआ। असल में बुआ पता नहीं क्यों बिनती से इतनी चिढ़ती हैं, वह तो चाहती हैं किसी भी तरह से बोझ टले सिर से। लेकिन चंदर यह बिनती बड़ी खुश है। वह तो चाहती है किसी तरह जल्दी से ब्याह हो!” सुधा मुस्कुराती हुई बोली।

“अच्छा, ये खुद ब्याह करना चाहती है!” चंदर ने ताज्जुब से पूछा।

“और क्या? अपने ससुर की खूब सेवा कर रही थी सुबह। पापा तो कह रहे थे कि अभी यह बी०ए० करले, तब ब्याह करो। हमसे पापा ने कहा इससे पूछने को। हम ने पूछा, तो कहने लगी बी०ए० करके भी वही करना होगा, तो बेकार टालने से क्या फ़ायदा। फिर पापा हमसे बोले कि कुछ वजहों से अगहन में ब्याह होगा, तो बड़े ताज्जुब से बोली — “अगहन में!।”

“सुधी, तुम जानती हो अगहन में उस का ब्याह क्यों टल रहा है। पहले तुम्हारा ब्याह होगा।” चंदर हँसकर बोला। वह पूर्णतया शांत था और उसके स्वर में कम से कम बाहर सिवा एक चुहल के और कुछ भी न था।

“मेरा ब्याह, मेरा ब्याह!” आँखें फाड़कर, मुँह फैलाकर हाथ नचाकर, कुतूहल-भरे आश्चर्य से सुधा ने कहा और फिर हँस पड़ी, खूब हँसी – “कौन करेगा मेरा ब्याह? बुआ? पापा करने ही नहीं देंगे। हमारे बिना पापा का काम ही नहीं चलेगा और बाबूसाहब तुम किस पर आकर रंग जमाओगे? ब्याह मेरा। हूंיין सुधा ने मुँह बिचकाकर उपेक्षा से कहा।

“नहीं सुधा, मैं गंभीरता से कह रहा हूँ। तीन-चार महीने के अंदर तुम्हारा ब्याह हो जायेगा।“ चंदर उसे विश्वास दिलाते हुए बोला।

“अरे जाओ ” सुधा ने हँसते हुए कहा – “ऐसे हम तुम्हारे बनाने में आ जाये, तो हो चुका।”

“अच्छा जाने दो। तुम्हारे पास कोई पोस्टकार्ड है? लाओ जरा इस कॉमरेड को एक चिट्ठी तो लिख दें।” चंदर बात बदल कर बोला। पता नहीं क्यों इस विषय की बात के चलने में उसे जाने कैसा लगता था।

“कौन कॉमरेड?” सुधा ने पूछा – “तुम भी कम्युनिस्ट हो गये क्या?”

“नहीं, जी, वो बरेली का सोशलिस्ट लड़का कैलाश, जिसने झगडे में हम लोगो की जान बचायी थी। हमने तुम्हें बताया नहीं था सब किस्सा उस झगड़े का, जब हम और पापा बाहर गये थे।”

“हाँ, हाँ बताया था। उसे ज़रूर खत लिख दो।” सुधा ने पोस्टकार्ड देते हुए कहा  – “तुम्हें पता मालूम है?”

चंदर जब पोस्टकार्ड लिख रहा था, तो सुधा ने कहा – “सुनो, उसे लिख देना कि पापा की सुधा, पापा की जान बचाने के एवज में आप की बहुत कृतज्ञ है और कभी अगर हो सके, तो आप इलाहाबाद जरूर आवे। लिख दिया?”

“हाँ।” चंदर ने पोस्टकार्ड जेब में रखते हुए कहा।

“चंदर, हम भी सोशलिस्ट पार्टी के मेम्बर होंगे।” सुधा ने मचलते हुआ कहा।

“चलो, अब तुम्हें क्यों सनक सवार हुई। तुम क्या समझ रही हो सोशलिस्ट पार्टी को। राजनीतिक पार्टी है वह। यह मत करना कि सोशलिस्ट पार्टी में जाओ और लौटकर आओ, तो पापा से कहो – “अरे हम तो समझे पार्टी है, वहाँ चाय-पानी मिलेगा। वहाँ तो सब लोग लेक्चर देते हैं।”

“धत्त, हम कोई बेवकूफ़ हैं क्या?” सुधा ने बिगड़ कर कहा।

“नही, सो तो तुम बुद्धिसागर हो, लेकिन लड़कियों की राजनीतिक बुद्धि कुछ ऐसी ही होती है!” चंदर बोला।

“अच्छा रहने दो। लड़कियाँ न हो, तो काम ही न चले।” सुधा ने कहा।

“अच्छा सुधा! आज कुछ रुपये दोगी। हमारे पास पैसे ख़त्मम हैं। और सिनेमा देखना है ज़रा।” चंदर ने बहुत दुलार से कहा।

“हाँ, हाँ ज़रूर देंगे तुम्हें। मतलबी कहीं के!” सुधा बोली, “अभी-अभी तुम लड़कियों की बुराई कर रहे थे न?”

“तो तुम और लड़कियों में से थोड़े ही हो। तुम तो हमारी सुधा हो। सुधा महान्!”

सुधा पिघल गयी – “अच्छा कितना लोगे?” अपनी पाकेट में से पांच रुपये का नोट निकाल कर बोली – “इस से काम चल जायेगा?”

“हाँ हाँ, आज जरा सोच रहे हैं पम्मी के यहाँ जायें, तब सेकण्ड शो जायें।”

“पम्मी रानी के यहाँ जाओगे। समझ गये, तभी तुमने चाचाजी से ब्याह करने से इंकार कर दिया। लेकिन पम्मी तुमसे तीन साल बड़ी है। लोग क्या कहेंगे?” सुधा ने छेड़ा।

“उंह, तो क्या हुआ जी। सब यों हो चलता है!” चंदर हँसकर टाल गया।

“तो फिर खाना यहीं खाये जाओ और कार लेते जाओ।” सुधा ने कहा।

“मंगवा लो!” चंदर ने पलंग पर पैर फैलाते हुए कहा। खाना आ गया। और जब तक चंदर खाता रहा, सुधा सामने बैठी रही और बिनती दौड़ कर पूड़ी लाती रही।

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