चैप्टर 9 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 9 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 9 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 9 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 9 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 9 Badnaam Gulshan Nanda Novel

सखीचंद और सविता, सविता और सखीचंद, दोनों तूफान एक्सप्रेस में बैठे चले जा रहे थे, सुदूर, जहाँ अपना कोई न था। न कोई जाना-पहचाना ही था, न हितू रिश्तेदार ही। जहाँ के लोग दोनों को देखकर समझ सकते हैं कि दोनों पति-पत्नी हो सकते हैं। हालाँकि सविता का ध्यान सूनी मांग की ओर एकदम ही नहीं गया था। उसकी मांग सूनी थी , जो कुमारी या विधवा की निशानी है। मांग में लाल सिंदूर न था, जो धवा और विवाहिता के लक्षण हैं। उसे इस बात का तनिक भी ध्यान न था कि उसकी मांग को देखकर पति-पत्नी होने में कोई शक कर सकेगा ।

तूफान एक्सप्रेस दोनों को अपने उदर में छिपाये, बिना मंजिल के भागी जा रही थी। उसे किसी के दुःख और सुख की चिंता न थी । मिलन और बिछुड़न का गम न था । किसी-किसी जगह हांफती हुई, कुछ देर रुकती और पानी लेकर धुआं छोड़ती आगे बढ़ जाती। हजारों लोग सिर छिपाकर बैठे थे। कोई नौकरी पर जा रहा था, तो कोई घर । कोई देश रक्षा-हित सीमा पर जा रहा था, तो कोई भ्रमण करने ही। इसमें जाति-पाति का भेद न था। हिन्दू-मुसलिम का हिसाब न था । गाड़ी सभी की है। सभी गाड़ी के हैं। 

दोनों में अभी तक यह तय नहीं हो पाया था कि दोनों कहाँ जायेंगे तथा आगे किस तरह का कार्य कर जीवन-यापन करेंगे। बस वे तो शाहाबाद की मिट्टी से दूर, बहुत दूर चले जाना चाहते थे, ताकि उनके प्यार के बीच दीवार न हो । श्रीमती स्वरूपा देवी के विचार बाधक न हो सकें। माली रामपूजन जैसा व्यक्ति प्रेम का उपदेश देने वाला न हो और न्यायाधीश महोदय जैसा बुजुर्ग कानून का भय न दिखा सके। जहाँ दोनों का प्रेम हो, अखंड प्रेम, सविता हो और सखीचंद । एक जवान स्त्री हो और दूसरा जवान मर्द और साथ में दोनों का एक-दूसरे के प्रति अटूट प्यार हो, जहाँ खुली धरती हो और खुला आकाश । जहां अनगिनत तटों के मध्य एक चन्द्रमा अठखेलियां खेल रहा हो । बस !

मुगलसराय पार करने के बाद सविता ने पूछा – “कहाँ चला जाएगा ?”

“जहां तुम उचित समझो।”

“फिर भी कुछ तो कहना चाहिये ।” सविता ने कहा ।

“मेरे लिए सभी जगह एक-सी है ।” सखीचंद ने कहा – “मैं नहीं जानता कि कौन शहर कैसा है तथा वहाँ किस तरह के उद्योग धन्धे होते हैं ।”

“दिल्ली कैसा रहेगा ?”

“वहां क्या है ?” सखीचंद ने पूछा ।

“भारत की राजधानी | विदेशों के अनेकों राजदूत । सारे देश के संसद सदस्य, जो कानून बनाते हैं।” सविता ने कहा ।

“कानून बनाने वाले संसद सदस्य ?” सखीचंद ने कहा- “जिनके चलते आज देश की हालत इतनी पतली हो गई है कि भोजन के लिए विदेशों से अनाज मंगवाना पड़ रहा है। जिस देश के निवासी एकदम कंगाल हो गये हैं। एक तरह से भारत भिखमंगा बन गया है। नहीं, वह शहर जाली फरेबों का है। अमीरों का है । वहां हम लोगों का गुजर न होगा। कोई ऐसी जगह का नाम बताओ,, जहां हमारे लिए रोजी-रोटी का प्रबन्ध हो सके।”

“तुम ही बताओ ।” सविता ने कहा ।

“मेरे ख्याल से जोधपुर चला जाए, जहाँ पत्थरों का काम होता है ।” सखीचंद ने कहा -“वहां पहुंचते ही मुझे कहीं न कहीं काम मिल ही जाएगा।”

“तो जोधपुर ही चलने का विचार है ?”

 “हां” और सखीचंद मौन रह गया ।

सवेरा हुआ। चिड़ियों का चहचहाना प्रारम्भ हो गया। दिन निकला। दोपहर हुआ और शाम होते-होते दोनों जोधपुर शहर में पहुंच गए। स्टेशन से निकलकर दोनों मुसाफिरखाने में आये और सामान रखकर बैठ गए। दोनों उस जगह के लिए अनजान थे। यह बात किसी चालक व्यक्ति से नहीं छिप सकती है। एक आदमी दोनों को देखते ही भांप गया कि दोनों परदेशी हैं। पास जाकर उसने पूछा – ” आप लोग कहां जायेंगे ?”

सविता ने सखीचंद की ओर देखा और सखीचंद ने सविता की ओर। जैसे दोनों एक-दूसरे से पूछ रहे हों कि क्या जवाब दिया जाए। अन्त में सविता ने ही उससे कहा – “हम नहीं जायेंगे ।” 

“कोई ठौर-ठिकाना तो होगा ही ?”

“जी नहीं ।” सविता ने कहा – “हम लोग पहले-पहल यहाँ आये हैं। आज से पहले कभी नहीं आये थे यहां ।”

” घूम-फिर कर चले जाइयेगा आप लोग । या यहीं ठहरियेगा ?”

“अभी तो कुछ दिन ठहरने का ही विचार है।” सविता बोली, “साल-दो साल बाद देखा जायेगा ।”

“आप लोग किस देश से आए हैं ?

उस अनजान व्यक्ति के इतना पूछने पर इस बार सविता को कुछ शंका हुई । वह आश्चर्य से सखीचंद की ओर देखने लगी। वह उचित जवाब भी नहीं देना चाहती थी और इन्कार भी नहीं करना चाहती थी।

इसी असमंजस में थी कि उस व्यक्ति ने कहा – “बेटी, आप कोई दूसरा न समझें। मैं यहीं का निवासी हूँ, मेरा यहाँ पर अपना मकान है । मैंने आपकी कठिनाई देखकर ही पूछा था।” 

“हम लोग शाहाबाद प्रान्त बिहार से आ रहे हैं।’

“यदि आपको इस शहर में रहना है, तो आप लोग मेरे साथ मेरे घर चलें ।” उस व्यक्ति ने कहा । वह प्रौढ़ावस्था का था। वेषभूषा’से शरीफ ज्ञात होता था – “वहां रहने के लिए कोठरी का प्रबन्ध हो जाएगा। और इच्छा न हो, तो आप लोग न जायें।”

“तो चलिए, हम लोग भी साथ ही चलेंगे ।” सविता ने कहा तो सखीचंद को भी साहस हुआ और सारा सामान बटोरकर वे लोग उस अनजान और अपरिचित व्यक्ति के साथ हो लिए ।

रिक्शा पर आधा घन्टा सफर करने के पश्चात् वे एक मकान के पास उतर गये । उस अधेड़ व्यक्ति ने आगे बढ़कर ताला खोला और अन्दर प्रवेश करता हुआ बोला – “आइए आप लोग भी । भाग्य ने मुझे अकेले ही रहने को बाध्य किया है। इसी कारण मैं अधिकतर तीर्थयात्रा पर ही रहता हूं। बहुत मुश्किल से दो चार दिन इस मकान में रह लेता हूँ ।” अन्दर जाकर उसने पूरब की ओर का दरवाजा खोल दिया ।

पूरब की ओर मकान से आगे सड़क पड़ती थी। आगे दुकान थी। एक छोटा-सा आंगन । आंगन के तीन ओर बरामदा और दो ओर बड़े-बड़े कमरे । अधेड़ व्यक्ति ने ही पुनः कहा- “आंगन का एक कमरा आप लोग मेरे लिए छोड़ दें, बाकी एक कमरा, तीनों ओर का बरामदा, दुकान और आने-जाने का रास्ता आप लोगों के जिम्मे रहा। रही किराए की बात, तो आप जो भी उचित समझियेगा, महीने में दे दीजियेगा। क्योंकि परदेशी जानकर मैंने आपको रखा है। किराये पर देकर रुपया कमाना मेरा ध्येय नहीं ।” और अपना कमरा खोलने के बाद उसने कुछ सामान इकट्ठा किया और आंगन में आकर कहने लगा- “बिटिया मैं बैजनाथधाम, आरा की ग्रामीण देवी और पटना की पटनदेवी के दर्शनार्थ जा रहा हूँ। आप लोग आराम से इस घर को अपना घर समझ कर रहें।”

जब तक वह यह सब कहता और करता रहा, सविता और सखीचंद आश्चर्य से उसकी ओर देखते रहे। उनका सामान आंगन के बरामदे में ही रखा हुआ था। उस व्यक्ति के चले जाने के बाद सखीचंद ने कहा- “अजीब व्यक्ति है यह ।”

“यह दुनिया है ।” सविता ने कहा- “यहां हर तरह के लोग रहते हैं तथा भला-बुरा हर तरह की वारदातें होती रहती है।”

अन्दर का कमरा खाली था। दोनों ने अपना सामान लगाया और एक साथ ही बैठ गए। सविता ने ही मौनता भंग की – “बाजार से कुछ आवश्यक सामान तो लाना होगा न ?”

“हां।” सखीचंद ने कहा- “रोटी पकाने के लिए तवा, चौकी और बेलना, तरकारी पकाने के लिए कड़ाही, छलनी और करकुल, भात के लिए एक छोटी पतीली और दाल के लिए भी। साथ ही एक गिलास, दो कटोरे तथा एक छोटी-सी चम्मच जरूर चाहिए।”

“और राशन नहीं ?”

” राशन नहीं आयेगा तो पकेगा क्या ?” बक्सा खोलकर रुपए देती हुई सविता ने कहा – “बाजार से जल्दी आना । तब तक मैं चूल्हे का इंतज़ाम करती हूं।”

सखीचंद सामान लेने बाजार की तरफ चला गया । सविता ने आंगन, तीनों बरामदे कमरा और बाहर की दुकान को अच्छी तरह बुहार दिया। आज वह ज्यादा प्रसन्न थी। उसके ऊपर किसी प्रकार का बन्धन न था । बेसहारा होने पर भी वह इस तरह की आजादी से खुश थी ।

एक घन्टा बाद सखीचंद सारा सामान लेकर लौट आया।

उस दिन दोनों ने मिल-जुलकर भोजन तैयार किया और खा- पीकर अलग-अलग बिस्तरे पर सो रहे । सोते समय दोनों मौन थे, परन्तु दोनों को नींद नहीं आ रही थी। आपस में एक-दूसरे के प्रति कुछ सोचते-सोचते दोनों सो गए, क्योंकि गाड़ी के सफर से थके थे।

सवेरा हुआ। दोपहर बीता और शाम हो चली । इसी तरह दो दिन बीत गए। दोनों की राय से एक पंडितजी बुलवाये गए और ब्याह की तैयारी हो गई। पंडितजी के कहे अनुसार शादी का सारा सामान सखीचंद बाजार से ले आया और उसी रात दोनों का विवाह हो गया । दोनों ने एक-दूसरे को जीवन पर्यन्त अपनाने तथा खुश रखने के लिए कसमें खाई, वायदे किये। पंडितजी ने कुछ उपदेश दिये और आज से दोनों दो होते हुए भी एक हो गये । पति और पत्नी पति-पत्नी । दो शरीर लेकिन आत्मा एक ही !

पंडितजी ने अपनी दान-दक्षिणा बटोरी और भोजन करने के पश्चात चले गए । आंगन में बहुत-सा सामान बिखरा पड़ा था। दोनों ने मिलकर साफ किया। इसी में दोपहर बीत गई। भोजन पकाना था नहीं। बाकी भोजन दोनों से खाया नहीं गया। कुछ गरीबों को दे दिया ।

आज की रात उसकी सुहागरात थी, पहली रात ! वैसे तो दोनों जाने-पहचाने थे। दोनों एक-दूसरे को प्यार भी करते थे, लेकिन ऐसा अवसर अभी तक नहीं आया था। सच्चे प्रेमी की तरह दोनों एक-दूसरे से अपना दुखड़ा रोते और याद लिए हुए लौट जाते थे । सविता भी नहीं जानती थी कि पहली रात में क्या होता है और सखीचंद चूंकि गांव का गंवार और अनपढ़ युवक था, नहीं जानता था कि सुहागरात को इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है।

परन्तु शिक्षा के आधार पर सविता पहली रात के महत्व अनुभव कर रही थी और उम्र के आधार पर सखीचंद भी कुछ-कुछ जानने की योग्यता रखता था।

सविता लाज छिपाने के लिए पहले ही कमरे में चली गयी थी। उसे डर था कि यदि सखीचंद ने उसका हाथ पकड़ लिया, तो वह शरम से मर जायेगी ।

रात हो चली थी। सखीचंद ने आवाज दी- “ सविता ! ” उसकी आवाज चारो ओर गूंजकर रह गई।

“सविता ”!” उसने पुनः आवाज दी। “

सखीचंद को इसका भी कोई जवाब न दिया ।

“सविता-‘! ” चिल्लाता हुआ सखीचंद कमरे में गया और देखा कि सविता सिकुड़ सिमटकर गठरी-सी बनी बैठी है। नजदीक पहुंचकर उसने कहा- “सविता !”

सविता ने सिर उठाकर सखीचंद की ओर देखा और पुनः उसने अपना सिर झुका लिया ।

“तुम यहाँ चुपचाप दुबकर बैठी हो और चिल्लाते-चिल्लाते मेरा गला फटा जा रहा है।” उसके पास बैठता हुआ सखीचंद बोला- “क्या बात है ?”

इस बार भी सविता ने उसकी बात का कुछ भी जवाब नहीं दिया ।

“लगता है मेरे साथ यहाँ आने का तुमको अफसोस है ।” सविता की मौनता ने सखीचंद के मन में यह बात पैदा कर दी। वह नहीं जानता था कि पहली रात की शाम से सविता यहां अकेली कमरे में चुप बैठी है और आवाज सुनने पर भी कुछ बोल नहीं रही है ।

“नहीं।” सविता ने संक्षिप्त में इतना ही कहा और उसने अपना सिर फिर झुका लिया। यह तो वही जानती थी कि यहां आने से उसे दुःख था या सुख, अफसोस था या खुशी, लेकिन शरम का आवरण उसके ऊपर इतना चढ़ गया था कि वह साफ-साफ कुछ कह भी नहीं सकती थी । आज की रात !

आज की रात ने सविता को गूंगी बना दिया था। सारी चंचलता हर ली थी। चपलता का नाम भी नहीं था, उसमें । बस, शांत थी, मौन, किसी पत्थर की मूर्ति की तरह ।

“फिर तुम चुपचाप क्यों बैठी हो ?” सखीचंद ने पूछा ।

सखीचंद का ऐसा प्रश्न पूछना उसको अच्छा नहीं लगा । इस प्रश्न का वह क्या जवाब दे उसकी समझ में नहीं आया। क्या नारी, जो पहले-पहल ब्याज कर ससुराल आयी है, कमरे में बैठी है, इस तरह के प्रश्न का उत्तर दे सकती है ? कदापि नहीं । जवाब देना बेहयायों का ही काम हो सकता है, लज्जाशील औरत का नहीं ।

फिर भी कुछ कहना ही उसने उपयुक्त समझा-“योंहीं ।”

“मुझे एक सलाह लेनी थी ।” सखीचंद ने कहा । “क्या ?” सविता का आधा ललाट, जो घूंघट से ढका हुआ था, हटाते हुए उसने पूछा – “क्या सलाह लेनी है ?” और उसने समझा, शायद सखीचंद के मन में अभी तक सुहाग रात, या पहली रात को गुदगुदी नहीं उठी है। लगता है, इसे रोजी और रोजगार की चिंता सता रही है। ऐसे अवसर पर भला यह सब भी सोचा जाता है ? रोजी-रोजगार की फिक्र तो आजीवन करनी होती है, मगर यह रात, इस तरह की मनोहारी, कजरारी रात जीवन में कभी नहीं आ सकती | जिन्दगी में केवल एक रात ! जब पति और पत्नी आपस में पहले पहल मिलते हैं। सविता को सखीचंद की बुद्धि पर तरस आया। फिर दो क्षण बाद उसके दिमाग में यह बात जम गई कि किसी नारी को पति मिले, तो इसी तरह का, जिसे सुहागरात तक की फिक्र नहीं है, रोजी के आगे। इस तरह के विचार वाले पति ही तो अपनी औरतों को खुश रख सकेंगे ।””

“मैं सोच रहा हूं कि “कहते कहते जैसे अटक गया हो, सखीचंद और उसने सविता की ओर देखा । आज नये परिधान में सजी वह गुड़िया-सी सुन्दर और कोमल लग रही थी। आज जितना सुन्दर कभी नहीं दिख पड़ी थी, सविता मांग पर लाल-लाल सिन्दूर मानों उसकी सुन्दरता में चार चांद लगा रहा था। चेहरा गुलाबी हो रहा था । आँखें कजरारी हो रही थीं। पांव में महावर और हाथों में मेंहदी रचाई थी, उसने ।

“क्या सोच रहे हो ?” सविता ने आखिर पूछा ही ।

“पहले आमदनी के लिए कुछ उपाय सोचा जाए ।” सखीचंद ने भूमिका बांधते हुए कहा ।

“तुम अब कलाकार हो ही।” सविता ने कहा – “इसके अलावा में भी कुछ उपार्जना कर सकती हूं।”

“वह कैसे ? “

“पढ़ी-लिखी हूँ ही। लड़कियों के किसी विद्यालय में मास्टरनी का काम कर लूंगी।” सविता ने कहा ।

“तुम्हारा ऐसा करना, मैं पसन्द नहीं करूंगा ।” सखीचंद ने अपना मत व्यक्त किया, जो वह प्रायः गांवों में सुना करता था- “यह नहीं हो सकता कि मर्द के रहते औरत अर्थ-व्यवस्था के प्रयत्न करे। उसको पढ़ाया इसलिए नहीं जाता कि नौकरी करके वह धन पैदा करे और कार्यालयों में मर्दों के मनोरंजन का साधन बने । बल्कि औरतों को पढ़ाया इसलिए जाता है कि वह घर की व्यवस्था भली-भांति कर सके। पैसा पैदा करना पुरुषों का काम है । और घर चलाने का भार औरतों पर है। इसी कारण औरतों को घर की रानी और मर्दों को बाहर का राजा कहा गया है। परिवार के यही दो स्तम्भ पहिये हैं और जब दोनों पहिये अपना-अपना काम इसी आधार पर ईमानदारी से करेंगे, तो परिवार सुखी होगा, सम्पन्न होगा !!!

“यहाँ तो पत्थरों का काम बहुतायत से होता होगा ?” सविता ने पूछा। वह जानती थी कि सखीचंद उसका पति पत्थर का काम अच्छी तरह जानता है और इसी के लालच में वह यहाँ आया भी है । अतः उसको खुश करने और उसके मन की बात रखने के लिए उसने यह प्रश्न किया ।

और सविता का कहना अक्षरशः सत्य निकला। इसी प्रश्न से सखीचंद मुस्कुराया और कहने लगा- “हां यहाँ पत्थरों का धन्धा प्रमुख है।”

“तब ?”

“तब यदि किसी दुकान पर रहकर केवल मजदूरी की जाए, तो हमारा पेट नहीं भर सकता।” सखीचंद ने कहा- “और हम

योंही इस जिन्दगी को गंवाने को मजबूर हो जायेंगे। फिर हमारी माली हालत एकदम खराब हो जायेगी और हम एक बार फिर धन कमाने की ही चिंता में लग जायेंगे ।”

सविता के मन में भी यही भाव जगे । यदि मजदूरी की जाए, तो हम दाने-दाने को मोहताज हुए रहेंगे, क्योंकि इस देश में मजदूरों को कभी सुख नहीं हुआ है। मजदूरी ही पर्याप्त नहीं मिल पाती है। मनुष्य जीवन, मशीन बनकर देश की आवश्यकताओं को पूरा करता है, पसीना और खून एक कर खुद मशीन बन जाता है, पर बदले में मिलता है – भूख और गरीबी, अपमान और चिंता । वह दिन-रात काम में जुटा रहता है, उसे दुनिया की खबरों से कोई वास्ता नहीं रहता। दिन-रात काम । यदि लड़का या पत्नी बीमार हो जाये, तो पैसे और दवा की कमी के कारण वह छटपटाता रहता है । घर में जेवर वासन जो होते हैं, उन्हें अच्छे सूद पर गिरवी रखता है और तब इलाज करवाता है। इस पर भी यदि वह काम न करे, तो खायेगा क्या ? अतः काम की चिंता हरदम बनी ही रहती है। मजदूरी और गरीबी, आधुनिक भारत के लिए, गणतंत्र भारत के लिए, एक खुली चुनौती है, जिसे अपनी शान समझ कर आज के नेताओं को स्वीकार करना चाहिए और ईमानदारी से इसे दूर करने में जुट जाना चाहिए। लेकिन आज के नेताओं में ऐसी सद्बुद्धि जग सकती है ? यहाँ तो सुनने में आ रहा है कि अमुक मंत्री ने इतने लाख की सम्पत्ति बना ली, अमुक नेता का इतना करोड़ विदेशों में बैंक में जमा है । यह सब क्या ईमानदारी की आवाजें हैं..?

“काम तो तुम्हें यहाँ मिल ही जायेगा ?” फिर भी सविता ने पूछा ।

“सच पूछो, तो यही जानने की इच्छा से आज में बाजार में दूर तक चला गया था।” सखीचंद कहने लगा–” सामान वगैरह तो लाना था ही, साथ ही यह भी देखता आया हूं कि यहाँ की कारीगरी किस तरह की है ।”

सविता ने अपने भाग्य को सराहा। कभी-कभी उसका मन यह जानकर कचोट उठता था कि पति मिला मनचाहा, मगर गंवार और अशिक्षित । मगर पति को पत्नी के साथ जीवन निर्वाह की चिंता है। वह बहुत आश्वस्त हुई। मन ही मन खुश भी हुई कि जीवन अच्छी तरह कट जायेगा, ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हो सकता। फिर भी उसने पूछा – “कैसा अनुभव हुआ ?”

सखीचंद ने यह सुनने के बाद सविता की ओर ताका और सविता के नजदीक सरकता हुआ कहने लगा- ” मैंने देखा और कारीगरों से बहुत कुछ पूछा भी । यहां की कारीगरी तो अच्छी है। उच्च कोटि की भी कही जायेगी, मगर यहाँ के कारीगरों को सफाई नही आती । मूर्ति को गढ़ देना ही यहां के कारीगर ज्यादा अच्छा समझते हैं। मूर्ति पर पालिश करना या साफ रखना नहीं जानते। जिस तरह सोने का गहना बनाकर साफ न किया जाए या उस पर पालिश न की जाय तो वह नया नहीं दिखाई देता, इसी प्रकार यदि पत्थर की कारीगरी को पालिश से चमकाया नहीं गया, तो वह मूर्ति कुछ जंचती नहीं। भट्टी दिखाई देती हैं, ये मूर्तियां | यदि इन्हें थोड़ा-सा सफाई का ज्ञान हो जाए, तो यहाँ की मूर्तियां सर्वत्र आसानी से बिक सकती हैं और इनकी कारीगरी में एक निखार आ सकता है।”

सविता चुप बैठी यह सब सुन रही थी।

रात हो रही थी । सर्वत्र सन्नाटा छा गया था। पशु-पक्षी सभी अपनी अपनी नीदों में बच्चों के साथ बैठ सुख की निद्रा सो रहे थे। पृथ्वी भी शांत थी, लेकिन अपनी धुरी पर निरंतर घूम रही थी ।

“यहाँ कारीगरों में एक गलत प्रवृत्ति मुझे देखने को मिली, जिसे भले ही कोई सह ले, परन्तु मैं इसको बर्दाश्त नहीं कर सकता।” सखीचंद ने कहना प्रारम्भ किया और सविता ने सुनना और वह कह रहा था – “जो कारीगर थोड़ा कला जानते हैं या थोड़ा काम करते-करते जिनका हाथ साफ हो गया है, वह नये या कम काम जानने वाले कारीगरों पर हमेशा रौब जमाये रहते हैं, रौब से काम लेते हैं। ठीक मछलियों की भांति, जो बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है और वह छोटी मछली अपने से छोटी मछलियों को खा जाती है, इसी क्रम में एक तो अधिकांश वे मजदूर गरीब होते हैं बेचारे और दूसरे ऊपर से उस्तादों का रौब- धोब, इस पच्चड़ में उनकी विकसित आत्मा कुम्हला जाती है, मरा जाती है, दब जाती है !!! यही कारण है कि उनका हाथ निखरता नहीं ।”

“यह तो महा अन्याय कहा जायगा ।” सविता ने कहा । “ठीक दल-बदुला विधायक की भांति ।” सखीचंद ने मुस्कुरा कर सविता का घूंघट खींच दिया और कहने लगा–“जो स्वार्थ के लिए अपने मतदाताओं की तनिक भी परवाह न कर दूसरे दल में शामिल होकर जनता के कामों में बाधा डालते हैं ।”

घूंघट खींचने के बाद सविता थोड़ी शरमाई थी। उसे ध्यान आ गया कि आज पहली रात है, सुहाग की रात और वह शादी के वाद एकान्त कमरे में पति के पास बैठी है। लेकिन दल-बदुला विधायकों की बात ने उनका मूड फेर दिया और वह भी कहने लगी, चूंकि वह सब कुछ जानती थी- ” इसमें जनता बेचारी क्या कर सकती है। उसे तो मत देने के बाद पांच वर्ष तक कर्म पर हाथ रखकर चुप बैठकर सब कुछ केवल देखते रहना है। चाहे उस क्षेत्र का विधायक, विधान सभा में नहीं जाए, बेचारी जनता चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती। केन्द्रीय सरकार की स्वार्थपूर्ण नीति का परिहास अब हो रहा है। जब एक विधायक अपने क्षेत्र का काम नहीं करता या दूसरे दल में जा मिलता है, तब विधायक पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती और जनता चाहकर भी उस विधायक को वापस नहीं बुला सकती। इस तरह की दल-बदल से राज्य का काम ठप्प पड़ जाता है और गरीब जनता मारी जाती है।”

 “यह तो राजनीति की बातें हैं ।”

“नहीं, मैं राजनीति नहीं जानती।” सविता ने कहा- – “मगर जिस राजनीति से जनता का नुकसान होगा, उसे सभी जानते हैं और जानना चाहिए भी और जानने के बाद उसका विरोध भी खुल कर करना चाहिए ।”

“तब जीवन की गाड़ी को किस तरह आगे ले जाया जायेगा ?”

“क्या इरादा है आपका ?” तुम से अब सविता आप पर आ गई। वह महसूस करने लगी थी कि यह गांव का गंवार, अन- पढ़, रामपूजन के साथ काम करने वाला माली, तथा पत्थर की दुकान पर काम करने वाला नौकर नहीं, बल्कि उसका पति था, सर्वस्व ! उसने पूछा – ” आपको जो भी समझ में आया हो, कहिए ।”

” मेरा तो अपना विचार है कि एक दुकान खोल कर बैठा जाय ।” सखीचंद कह रहा था और सविता ध्यान से सुन रही थी और सखीचंद कह रहा था – “इससे एक तो यह फायदा होगा कि कोई बंधा हुआ काम नहीं करना पड़ेगा। दूसरे मजदूरी से जान बचेगी, तीसरे मूर्तियां बिकने पर मुनाफा अधिक होगा। तभी हम आदमी कहे जा सकेंगे, वरना एक नाली के कीड़े की भांति जीवन तो बीतेगा ही ।”

“इसके लिए तो पूंजी की आवश्यकता पड़ेगी ।” सखीचंद ने सविता की ओर ताका और बोला- “हाँ पैसों की आवश्यकता तो पड़ेगी ही । बिना पैसों के कोई काम भी तो नहीं हो सकेगा। यह बात सही है, यह मानव के पतन की पहली निशानी है ।”

” कितने रुपयों की आवश्यकता पड़ सकती है ?” सविता ने पूछा।

सखीचंद सोच रहा था कि लागत की बात वह कहे या न कहे । वह इस कारण कि पैसा तो सविता ही दे सकती है और इसके पास कितने रुपये है, उसको पता न था । बस वह तो प्रेम और प्यार पर विश्वास कर सविता के साथ चला आया था। अंतिम दिन गांगी पार बनीचे में सविता ने कहा भी था कि पैसा मेरे पास है, हम लोग कहीं दूर चले चलें । फिर भी कहने और न कहने की अदल- बदल में वह चुप भी तो नहीं रह सकता था। अंत में हिम्मत से काम लिया, उसने।

” पांच हजार तक लग सकता है ।” –

“पांच हजार ?” सविता की जैसे आंखें ही फट गयी हों। उसने आश्चर्य से पूछा और मन ही मन हिसाब लगाया कि इतने रुपये तो उसके पास हैं नहीं । अतः किस तरह इतनों का प्रबन्ध किया जा सकता है। यहाँ इस शहर में उसका परिचित भी कोई नहीं था । उसने सखीचंद को एक सलाह दी – “पहले किसी अच्छी दुकान पर कुछ दिन काम करें। इससे यह फायदा होगा कि आपकी कारीगरी यहां की तुलना में कैसी है, आपको ज्ञान हो जायेगा। तब जैसा उचित समझियेगा, करियेगा । मेरा सहयोग तो आपके साथ रहेगा ही ।”

हालांकि सविता ने अच्छी बात कही थी। यदि एक बार बिना सोचे समझे पूंजी लगा दी जाए, तो घाटा होने का भय बना रहेगा और सारी जानकारी के बाद यदि रुपये लगाये जाए, तो घाटा लगने की उम्मीद नहीं रहती है, भले ही कुछ नुकसान हो क्यों न हो जाए, लेकिन उस नुकसान से हिम्मत नहीं टूटती ।

साथ ही सखीचंद को सविता का यह सुझाव बहुत ही अच्छा लगा था। लेकिन कारीगरों का अभद्र व्यवहार करना, बात-बात पर गाली देना या डांट-डपट कर काम करने को कहना, उसको अच्छा नहीं लगा। उसका मन कांप गया कि एक कारीगर को यदि अनजाने में यहाँ के कारीगर अपमानित कर देंगे, तब क्या हो सकता है। उसने यह भी सोचा था कि दुकान खोलकर बैठ जाने से कारीगरों पर एक छाप पड़ेगी और कारीगरी अच्छी होने के नाते दुकानदारों पर भी। अतः उस वक्त पैसा और यश दोनों एक साथ मिल सकते हैं। उसने कहा- “किसी दूसरे कारीगर के मातहत मुझसे काम न होगा।”

“क्यों ? सविता को एकदम से आश्चर्य हुआ।

“किसी गैर का रौब मुझसे सहा नहीं जाता।” सखीचंद ने कहा – “वैसे समय में जबकि मुझसे गलती न हुई हो। काम, जब मैं ठीक कर ही रहा हूं, तब रौब का सवाल ही नहीं उठता। मेरे पास स्वाभिमान की ज्यादती है और इसी स्वाभिमान के चलते मैंने मेहनत करना सीखा है । सोचा है-यदि मैं अपना काम ईमानदारी से अच्छी तरह करूंगा, तब कोई रौब क्यों, जमायेगा ? इसी रौब, धौंस और बेगार के चलते मैंने अपना गांव छोड़ दिया, अपनी जन्मभूमि त्याग दी। हालांकि मुझे अपना जन्मस्थान छोड़ने का दुःख है, परन्तु तुम्हें पाने के बाद पुरानी सारी स्मृतियों को भूल-सा गया हूँ ।”

“दुकान के बारे में पक्की राय है न आपकी ?”

“हां, एकदम पक्की ।” सखीचंद ने कहा और सविता का एक हाथ पकड़ लिया और उसकी तलहथी को देखने लगा, जिस पर मेंहदी रची गई थी और तरह-तरह की नक्काशी की गई थी। नक्काशी की बारीकी और सफाई को ध्यान से देखने लगा। दो क्षण बाद वह उछल-सा गया और खुशी से कहने लगा- “यह क्या…?”

सविता मन ही मन हंस रही थी। वह समझ गई की सखीचंद ने असल बात समझ ली है।

” इसमें तो एक अभागे का नाम भी है…!”

सविता मौन रही।

सखीचंद ने उस हाथ को चूम लिया और कहने लगा तो दुकान के लिए तुम्हारे पास कितने रुपए हैं ?”

“कुल तीन हजार ।”

“तब दो हजार का कैसे इंतज़ाम होगा ?” सखीचंद ने कहा और सविता की ओर देखा । जब उसने कुछ नहीं कहा, तो उसने पुनः कहा- “तुम्हारे कुछ गहने बेचने पड़ेंगे ।”

सविता मौन मूर्ति की भांति बैठी रही। इस बार उसने अपना चेहरा अपने दोनों घुटनों के बीच छिपा लिया था ।

सखीचंद ने समझा, शायद गहना बेचने के नाम से सविता को अच्छा नहीं लगा है । अतः उसने कहा- “चुप हो गई. सविता ! यदि गहना बेचना नहीं चाहती हो, तो कोई बात न हम किसी दुकान पर ही काम करेंगे, परन्तु मैं तुमको दुखी नहीं देखना चाहता।”

“आप यह भी क्यों नहीं सोचते कि मैं आपको चिंताग्रस्त नहीं देखना चाहती ?” सविता ने साफ-साफ कह दिया “जब राज, सुख और वैभव छोड़कर आपके साथ चली आई हूँ, तब गहनों की कौन फिक्र करे ? आप सुरक्षित और सकुशल रहोगे तो बहुत सारे बन जायेंगे ।”

“सच ?” खुशी हुई सखीचंद को |

सविता ने सिर हिलाकर ‘हां’ कह दिया । “तब तो तुम बहुत अच्छी पत्नी हो ।” और उसने अपना हाथ सविता की ओर बढ़ाया ।

” हटिये !” और हाथ को झटकते हुए उसने कहा- “आप बड़े वो हैं !”

” नाराज होने से काम नहीं चलेगा, सविता ।” और सखीचंद ने टिमटिमाते हुए मिट्टी के दिये को बुझा दिया। फिर अंधेरे में ही कहा “इस रात तो मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।” कमरे में अंधेरा छा गया।

उसी समय कहीं से बारह का घन्टा सुनाई दिया। रात अपनी जवानी पर थी। आंधी रात हो गई थी। सर्वत्र नीरवता का साम्राज्य था। यहां तक कि पृथ्वी भी सो रही थी। मगर सविता और सखीचंद दोनों अब भी जाग रहे थे।

Prev | Next | All Chapters 

वापसी गुलशन नंदा का उपन्यास 

काली घटा गुलशान नंदा का उपन्यास

कांच की चूड़ियां गुलशन नंदा का उपन्यास 

Leave a Comment