चैप्टर 8 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 8 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 8 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 8 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 8 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 8 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

वह और ही युग था। एक ओर गाँव में गरीब किसान छप्परों के नीचे, दूसरी ओर दुर्ग में महाराज धन्य-धान्य और हीरे-मोतियों के भरे प्रासादों में, फिर भी उन्हीं के पास फैसले के लिए-न्याय के लिए जाना और उन्हें भगवान का रूप मानना पड़ता था।

ब्राह्मणों ने यह शिक्षा दी। यदि राजा दरिद्र को भगवान् का रूप न मानता – उसके लिए अपना सर्वस्व न देता, तो कौन-सी हानि होती मालूम नहीं, पर अधीन दरिद्र की ओर से हुई इस त्रुटि का फल मालूम है-राजा अपनी अपूर्व भगवद्भक्ति के प्रमाण के रूप में उसे साकार से निराकार तत्त्व में लीन कर देता था।

इससे वेतन पाने न पानेवाले दरिद्र सभी देशवासी उसके सिपाही थे। राज-भक्ति के प्रदर्शन में उन्हें लड़ना पड़ता था। उधर जरा-जरा-सी बात पर लड़ाई क्षत्रियत्व की सूचना दी। देशवासियों को, यहाँ तक कि किसानों को भी हल की मूठ छोड़कर भगवद्धर्म का पालन करना पड़ता था।

गाँव में वर्णाश्रम धर्म की धाक थी। राजवंश के क्षत्रियों को छोड़कर और सभी जातियों को चाहे वृद्ध की बगल से बच्चा आ निकले, यदि ब्राह्मणवंश का हो, चारपाई छोड़कर उठना पड़ता था, गाँवों में दिन-भर यह कसरत जारी रहती थी।

राजनीति सब समय एक-सी है। राजा या राज्य की ऐश्वर्य-सत्ता का भोग करनेवाले कभी बृहत् अंश साधारण की भलाई के लिए नहीं छोड़ सकते। यह भोग अपनी सार्वकालिका महिमा में एक-रूप है, परिवर्तन भोग के उपायों में हुए हैं। यहाँ व्यक्तिवाद भी है। शक्ति का विकास होने पर दूसरे अशक्तों से मनुष्य भिन्न हो जाता है। यह भिन्नता समाज, शासन और अध्यात्म में सब जगह, बड़े-बड़े मनुष्यों में प्रत्यक्ष होती है। पर किसी समय यह कुछ दूर तक सहा होती है, किसी समय सम्पूर्ण असह्य। उस समय भारत जिस भिन्नता में था, वह साधारण जनों को आत्मा से असह्य थी। जिस तरह वनों के प्राण शून्य में प्यासी पुकार भरते हुए वारिवर्षण कराते हैं, उसी तरह भारत की जनता को मौन करुणा-ध्वनि ने दूसरी-दूसरी सत्ताओं को शासन के लिए बुलाया। संसार के सभी अधिकार उच्च-से-उच्च होकर बुराइयों से भरकर चूर्ण-विचूर्ण हो गए हैं। क्षात्र-शक्ति के लिए यह जरूरी हो रहा था। चिरकाल से क्षत्रियों की युद्ध-ज्वाला भारत को दग्ध कर रही थी। कृषि, जनपद तथा जीवन अकारण युद्ध के कारण नष्ट हो रहे थे। साधारण जनों के दृश्य बड़े करुणोत्पादक थे। उन दृश्यों की छाया आज भी है, पर आज पतितों के उन्नत होने की माया महत्त्व रखती है। इसी तरह एक महत्त्व के बिना किसी शासन की प्रतिष्ठा नहीं होती -यही, दोनों के प्राणों को पुकार के अनुकूल मिला आश्वासन या खाद्य है।

समान धर्मवालों का मैत्री सम्बन्ध में बँधना स्वाभाविक नियम है। कान्यकुब्जेश्वर के सरदार भी एक-एक गोष्ठी में बँधे थे। प्रायः पास-पड़ोस के रहनेवाले, एक-एक, दो-दो दुर्गों के मालिक आपस में मिले रहते थे। इनकी तकरार भी इन्हीं में होती थी। तब इनमें भी दो दल हो जाते थे या दो दलों में वैमनस्य चलता था, कुछ तटस्थ रहते थे। मार-पीट, लड़ाई-दंगे यहाँ तक कि युद्ध भी होते थे। न बड़े राजाओं को युद्ध से फुरसत थी, न इन्हें। ऐसा ही गाँव-गाँव तथा टोले-टोले में था। खासतौर से सुनाई भी न होती थी। महाराज अपने लड़े हुए सरदारों की इसलिए न सुनते थे कि उन्हें कर तथा सम्मान, दोनों ओर से मिलता रहता था। उनके स्वार्थ में बाधा न लगती थी, फलतः ऐसे झगड़ों का आपस में फैसला होता था, या पुश्त-दर-पुश्त शत्रुता चलती थी, या महाराजा के कान भरकर बदला चुकाने की सोची जाती थी। कोई बड़ी बात हो जाने पर अधिक सरदारों के रुख देखकर महाराज साधारण न्याय करते थे। दलमऊ और लालगढ़ का वैमनस्य ऐसा ही बहुत साधारण था। दलमऊ के सरदार ने कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ बलवन्तसिंह की पृष्ठपोषकता की थी-लालगढ़ेश के विरुद्ध गवाही दी थी, यमुना और वीरसिंह के मामले में, बलवन्तसिंह से मैत्री-सूत्र सुदृढ़ करने के लिए और अपनी तरफ लालगढ़ के सीमान्त के एक दूसरे सरदार को लेकर पक्ष पुष्ट करने के लिए। बलवन्तसिंह का बढ़ता राज्य-सम्मान भी पक्ष-ग्रहण का एक कारण था। एक प्रकार लालगढ़ के दो सीमान्त में दो शत्रु थे। प्रभावती का बलवन्त से विवाह करके महेश्वरसिंह चाहते थे कि साधारण-सा कारण भी मिले, तो सम्मिलित शक्ति से बदला चुका लें। इसी बीच यह वैवाहिक अनर्थ हुआ। बलवन्तसिंह कुमार देव पर अधिक अत्याचार न कर सकता था, कारण लालगढ़ से उसका पहला वैमनस्य साबित था। उसने सोचा कि देवसिंह को कैद में रखकर महेश्वरसिंह से ऐसा साक्ष्य दिलवाए कि वे अपनी कन्या प्रभावती का उसी से विवाह करना चाहते थे। देवसिंह को पता चला तो उसने महेश्वरसिंह तथा बलवन्तसिंह को पहले के वैमनस्य के कारण नीचा दिखाने के लिए बलात् प्रभावती से विवाह कर लिया। इस विवाह से दो सरदारों की इज्जत इसने धूल में मिलाई; देखकर, मूँछों पर ताव देता हुआ चलेगा, तो यह एक बराबरवाले के लिए कैसे बरदाश्त कर जाने की बात होगी-ऐसी और-और बातें भी सोचीं, ताकि फैसले में लानगढ़ की जो बेइज्जती हो, थोड़ी और मार-पीट हमलेवाली बात दब जाए, बल्कि देव का ही चढ़ जाना साबित हो। यह निश्चय कर देव को अपने यहाँ स्थल-मार्ग से ले जाने का निश्चय किया।

नाव पर विवाह के साक्ष्य मिल चुके थे, दासियों ने जो-जो कुछ देखा था, कह दिया था; यह मालूम हो चुका था कि प्रभावती बचने के विचार से नाव से कूदी थी। ऐसी बही हुई लड़की का बह जाना अच्छा-घृणापूर्वक सोचकर महेश्वरसिंह ने बड़े मित्र-भाव से बलवन्तसिंह से उसके सम्बन्ध में आगे का कार्यक्रम पूछा। बलवन्तसिंह ने यह सलाह दी कि पिता की आज्ञा न माननेवाली लड़की की मनुष्य द्वारा कोई सजा नहीं हो सकती, पिता के लिए यह उचित है कि उसकी सदा उपेक्षा करे, कभी भी आश्रय न दे।

कुमार देव काफी जख्मी हो चुके थे। कई सिपाहियों के पहरे में बन्दी थे। बार-बार होश में आकर बेहोश हो रहे थे। रक्त-स्राव अभी तक बन्द न हुआ था। कोई मरहम-पट्टी भी न हुई थी।

दिन एक पहर होने से पहले ही सब लोग दुर्ग पहुँच चुके थे। बलवन्त का जोरदार आतिथ्य हो रहा था। नाव के सब लोग गत प्रसंग से मौन थे। अभी शहर में अच्छी तरह खबर न फैली थी। महाराज शिवस्वरूप प्रातः कृत्य से निवृत्त होकर कसरत में जुटे थे जब महेश्वरसिंह वगैरह आए थे; उन्हें नाली में दंड करते हुए पचास-पचास के बाद कितनी गोटें सरकाईं, यह भी न मालूम था। इसी समय दुर्ग के भव्य कक्ष में बलवन्त के पास बैठे हुए महेश्वरसिंह को दासियों की बताई महाराज शिवस्वरूप की बात याद आई। अपने खवास को कुछ प्रश्न पूछ आने के लिए भेजा। यह भी बलवन्त को खुश करने की एक उद्भावना थी। आत्मप्रसाद पा बलवन्त ने सीना कुछ तानकर गर्दन उठाई।

खवास के दरवाजे पर ‘शिवस्वरूप महाराज हो’ की आवाज लगाई। महाराज दूसरों की निगाह से बचकर दहलीज में दंड कर रहे थे। यजमान आया जानकर गर्व से एक उँगली से माथे का पसीना काँछते हुए बाहर आए। घोड़ा बाहर ही बँधा हुआ था। खवास को देख कुछ खिंचे।

खवास ने गर्व से पूछा, “रावजी पूछते हैं, कल कौन तुम्हारे यहाँ आया?”

“हमारे यहाँ कल पच्चीसों यजमान आए-कुछ गाँव के, कुछ जात्री।”

“शाम को भी कोई आया था?”

“दुपहर लौटे हम निकले तो गेगासों से पहर रात गए घर आए।”

“यह घोड़ा किसका है?”

“हमारा; मनवा के राजा ने बाप की बैतरनी में दिया है।”

खवास मुस्कुराता लौट गया। महाराज को शंका हो गई। दौड़े किनारे गए। संक्षेप में हाल मिल गया।

फाटक से होता हुआ खवास महेश्वरसिंह के सामने आकर खड़ा हुआ। उस समय एक दूसरी बातचीत चल रही थी। खत्म होने पर महेश्वरसिंह ने पूछा। नौकर यथाक्रम प्रश्नोत्तर कहता गया। महेश्वरसिंह और बलवन्तसिंह का क्रोध बढ़ता गया। अन्त में बड़े कष्ट से हँसी को रोककर खवास ने घोड़े के मिलने का कारण कहा। बलवन्त के बदन में आग लग गई। मनवा के राजा का इससे बढ़कर अपमान न हो सकता था। महाराज शिवस्वरूप को सिर्फ मनवा का नाम मालूम था, वहाँ बलवन्त राज कर रहे हैं या ज्ञानवन्त, वे न जानते थे; उन्होंने अपनी समझ से काफी दूर के राजा का नाम बताया था। महेश्वरसिंह तथा कुछ सिपाहियों को साथ लेकर गुस्ताख को सजा देने के लिए बलवन्त महाराज के मकान को चले। मन में सोच रहे थे कि ब्राह्मण अवध्य है, उसे क्या दंड दिया जाना चाहिए। दान लेनेवाले ब्राह्मण की यह तेजी महेश्वरसिंह को अक्षम्य जान पड़ी। यह उनका भी अपमान था। खवास रास्ता दिखाता हुआ लिए जा रहा था। दरवाजे पर पहुँचकर देखा, द्वार बन्द थे, वहाँ कोई न था।

माता को किनारे से होकर (यजमानों के) गाँव रहने की सलाह देकर उसी वक्त घोड़ा सजाकर पाई-पूँजी-समेत महाराज लम्बे पड़े थे।

क्रमश: 

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