चैप्टर 8 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 8 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 8 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 8 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 8 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 8 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

जगदीशपुर की रानी देवप्रिया का जीवन केवल दो शब्दों में समाप्त हो जाता था-विनोद और विलास। इस वृद्धावस्था में भी उनकी विलास वृत्ति अणुमात्र भी कम न हुई थी। हमारी कर्मेन्द्रियां भले ही जर्जर हो जाएं, चेष्टाएं तो वृद्ध नहीं होती! कहते हैं, बुढ़ापा मरी हुई अभिलाषाओं की समाधि है या पुराने पापों का पश्चात्ताप; पर रानी देवप्रिया का बुढ़ापा अतृप्त तृष्णा थी और अपूर्ण विलासाराधना। वह दान-पुण्य बहुत करती थीं; साल दो-चार यज्ञ भी कर लिया करती थीं, साधु-संतों पर उनकी असीम श्रद्धा थी और धर्मनिष्ठा में उनका ऐहिक स्वार्थ छिपा होता था। परलोक की उन्हें कभी भूलकर भी याद न आती थी। वह भूल गई थीं कि इस जीवन के बाद भी कुछ है। उनके दान और स्नान का मुख्य उद्देश्य था-शारीरिक विकारों से निवृत्ति, विलास में रत रहने की परम योग्यता। यदि वह किसी देवता को प्रसन्न कर सकतीं, तो कदाचित् उससे यही वरदान मांगतीं कि वह कभी बूढ़ी न हों। इस पूजा और व्रत के सिवा वह इस महान् उद्देश्य को पूरा करने के लिए भांति-भांति के रसों और पुष्टिकारक औषधियों का सेवन करती रहती थीं। झुर्रियां मिटाने और रंग को चमकाने के लिए कितने ही प्रकार के पाउडरों, उबटनों और तेलों से काम लिया जाता था। वृद्धावस्था उनके लिए नरक से कम भयंकर न थी। चिंता को तो वह अपने पास न फटकने देती थीं। रियासत उनके भोग-विलास का साधन मात्र थी। प्रजा को क्या कष्ट होता है, उन पर कैसे-कैसे अत्याचार होते हैं, सूखे-झूरे की विपत्ति क्योंकर उनका सर्वनाश कर देती है, इन बातों की ओर कभी उनका ध्यान न जाता था। उन्हें जिस समय जितने धन की जरूरत हो, उतना तुरंत देना मैनेजर का काम था। वह ऋण लेकर दे, चोरी करे या प्रजा का गला काटे, इससे उन्हें कोई प्रयोजन न था।

यों तो रानी साहब को हर एक प्रकार के विनोद से समान प्रेम था। चाहे वह थियेटर हो, या पहलवानों का दंगल या अंगरेजी नाच, पर उनके जीवन की सबसे आनंदमय घड़ियां वे होती थीं, जब वह युवकों और युवतियों के साथ प्रेम क्रीड़ा करती थीं। इस मंडली में बैठकर उन्हें आत्मप्रवंचना का सबसे अच्छा अवसर मिलता था। वह भूल जाती थीं कि मेरा यौवन काल बीत चुका है। अपने बुझे हुए यौवन-दीपक को युवा की प्रज्वलित स्फूर्ति से जलाना चाहती थीं; किंतु इस धुन में वह कितने ही अन्य विलासांध प्राणियों की भांति नीचों को मुंह न लगाती थीं। काशी आनेवाले राजकुमारों और राजकुमारियों ही से उनका सहवास रहता था। आनेवालों की कमी न थी। एकन-एक हमेशा ही आता रहता था। रानी की अतिथिशाला हमेशा आबाद रहती थी। उन्हें युवकों की आंखों में खुब जाने की सनक-सी थी। वह चाहती थीं कि मेरे सौंदर्य-दीपक पर युवक पतंगे की भांति आकर गिरें। उनकी रसमयी कल्पना प्रेम के आघात-प्रत्याघात से एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव करती थी।

एक दिन ठाकुर हरिसेवकसिंह मनोरमा को रानी साहब के पास ले गए। रानी उसे देखकर मोहित हो गईं। तब से दिन में एक बार उससे जरूर मिलतीं। वह किसी कारण से न आती, तो उसे बुला भेजतीं। उसका मधुर गाना सुनकर वह मुग्ध हो जाती थीं। हरिसेवकसिंह का उद्देश्य कदाचित् यही था कि वहां मनोरमा को रईसों और राजकुमारों को आकर्षित करने का मौका मिलेगा।

भादों की अंधेरी रात थी। मूसलाधार वर्षा हो रही थी। रानी साहब को आज कुछ ज्वर था, चेष्टा गिरी हुई थी, सिर उठाने को जी न चाहता था; पर पड़े रहने का अवसर न था। हर्षपुर के राजकुमार को आज उन्होंने निमंत्रित किया था। उनके आदर-सत्कार का काम करना जरूरी था। उनके सहवास के सुख से वह अपने को वंचित न कर सकती थीं। उनके आने का समय भी निकट था। रानी ने बड़ी मुश्किल से उठकर आईने में अपनी सूरत देखी। उनके हृदय पर आघात-सा हुआ। मुख प्रभात-चंद्र की भांति मंद हो रहा था।

रानी ने सोचा, अभी राजकुमार आते होंगे। क्या मैं उनसे इसी दशा में मिलूंगी? संसार में क्या कोई ऐसी संजीवनी नहीं है जो काल के कुटिल चिह्न को मिटा दे? ऐसी वस्तु कहीं मिल जाती, तो मैं अपना सारा राज्य बेचकर उसे ले लेती। जब भोगने की सामर्थ्य ही न हो, तो राज्य से और सुख ही क्या ! हा निर्दयी काल! तूने मेरा कोई प्रयत्न सफल न होने दिया।

राजकुमार अब आते होंगे, मुझे तैयार हो जाना चाहिए। ज्वर है, कोई परवाह नहीं। मालूम नहीं, जीवन में फिर ऐसा अवसर मिले या न मिले।

सामने मेज पर एक अलबम रखा था। रानी ने राजकुमार का चित्र निकालकर देखा। कितना सहास्य मुख था, कितना तपस्वी स्वरूप, कितनी सुधामयी छवि !

रानी एक आरामकुर्सी पर लेटकर सोचने लगीं-यह चित्र न जाने क्यों मेरे चित्त को इतने जोर से खींच रहा है। मेरा चित्त कभी इतना चंचल न हुआ था। इसी अलबम में और भी कई चित्र हैं, जो इससे कहीं सुंदर हैं, लेकिन उन नवयुवकों को मैंने कठपुतलियों की तरह नचाकर छोड़ा। यह एक ऐसा चित्र है, जो मेरे हृदय में भूली हुई बातों की याद दिला रहा है, जिसके सामने ताकते हुए मुझे लज्जा-सी आती है!

रानी ने घड़ी की ओर आतुर नेत्रों से देखा। नौ बज रहे थे। अब वह लेटी न रह सकीं; संभलकर उठीं; आलमारी में से एक शीशी निकाली। उसमें से कई बूंदें एक प्याली में डाली और आंखें बंद करके पी गईं। इसका चमत्कारिक असर हुआ, मानो कोई कुम्हलाया फूल ताजा हो जाए; कोई सूखी पत्ती हरी हो जाए। उनके मुखमंडल पर आभा दौड़ गई। आंखों में चंचल सजीवता का विकास हो गया, शरीर में नए रक्त का प्रवाह-सा होने लगा। उन्होंने फिर आईने की ओर देखा और उनके अधरों पर एक मूदुल हास्य की झलक दिखाई दी। उनके उठने की आहट पाकर लौंडी कमरे में आकर खड़ी हो गई। यह उनकी नाइन थी। गुजराती नाम था।

रानी-समय बहुत थोड़ा है, जल्दी कर। गुजराती-रानियों को कैसी जल्दी ! जिसे मिलना होगा, वह स्वयं आएगा और बैठा रहेगा! रानी-नहीं, आज ऐसा ही अवसर है।

नाइन बड़ी निपुण थी, तुरंत शृंगारदान खोलकर बैठ गई और रानी का शृंगार करने लगी, मानो कोई चित्रकार तसवीर में रंग भर रहा हो। आध घंटा भी न गुजरा था कि उसने रानी के केश गूंथकर नागिन की-सी लटें डाल दीं। कपोलों पर एक ऐसा रंग भरा कि झुर्रियां गायब हो गईं और मुख पर मनोहर आभा झलकने लगी। ऐसा मालूम होने लगा, मानो कोई सुंदरी युवती सोकर उठी है। वही अलसाया हुआ अंग था, वही मतवाली आंखें। रानी ने आईने की ओर देखा और प्रसन्न होकर बोलीं-गुजराती, तेरे हाथ में कोई जादू है। मैं तुझे अपने साथ स्वर्ग में ले चलूंगी। वहां तो देवता लोग होंगे, तेरी मदद की और भी जरूरत होगी।

गुजराती-आप कभी इनाम तो देतीं नहीं। बस, बखान करके रह जाती हैं !

रानी-अच्छा, बता क्या लेगी?

गुजराती-मैं लूंगी तो वही लूंगी, जो कई बार मांग चुकी हूँ। रुपए-पैसे लेकर मुझे क्या करना है!

यह एक दीवारगीर पर रखी हुई मदन की छोटी-सी मूर्ति थी। चतुर मूर्तिकार ने इस पर कुछ ऐसी कारीगरी की थी जिससे कि दिन के साथ उसका भी रंग बदलता रहता था।

गुजराती-अच्छा, तो न दीजिए, लेकिन फिर मुझसे कभी न पूछिएगा कि क्या लेगी?

रानी-क्या मुझसे नाराज हो गई? (चौंककर)वह रोशनी दिखाई दी? कुंवर साहब आ गए ! मैं झूलाघर में जाती हूँ। वहीं लाना।

यह कहकर रानी ने फिर वही शीशी निकाली और दुगुनी मात्रा में दवा पीकर झूलाघर की ओर चलीं। यह एक विशाल भवन था, बहुत ऊंचा और इतना लंबा-चौड़ा कि झूले पर बैठकर खूब पेंगें ली जा सकती थीं। रेशम की डोरियों में पड़ा हुआ एक पटरा छत से लटक रहा था; पर चित्रकारों ने ऐसी कारीगरी की थी कि मालूम होता था, किसी वृक्ष की डाल में पड़ा हुआ है। पौधों, झाड़ियों और लताओं ने उसे यमुना-तट का कुंज-सा बना दिया था। कई हिरन और मोर इधर-उधर विचरा करते थे। रात को उस भवन में पहुँचकर सहसा यह ज्ञान न होता था कि यह कोई भवन है। पानी का रिमझिम बरसना, ऊपर से हल्की-हल्की फुहारों का पड़ना, हौज में जलपक्षियों का क्रीड़ा करना-यह सब किसी उपवन की शोभा दर्शाता था।

रानी झूले की डोरी पकड़कर खड़ी हो गईं और एक हिरन के बच्चे को बुलाकर उसका मुंह सहलाने लगीं। सहसा कदमों की आहट हुई। रानी मेहमान का स्वागत करने के लिए द्वार पर आईं, पर यह राजकुमार न थे, मनोरमा थी। रानी को कुछ निराशा तो हुई; किंतु मनोरमा भी आज के अभिनय की पात्री थी। उन्होंने उसे बुलवा भेजा था।

रानी-बड़ी देर लगाई! तेरी राह देखते-देखते आंखें थक गईं।

मनोरमा-पानी के मारे घर से निकलने की हिम्मत ही न पड़ती थी।

रानी-राजकुमार ने न जाने क्यों देर की। आ, तब तक कोई गीत सुना।

यहीं हौज के किनारे एक संगमरमर का चबूतरा था। दोनों जाकर उस पर बैठ गईं।

रानी-क्या मैं बहुत बुरी लगती हूँ।

मनोरमा-आप तो सौंदर्य की देवी मालूम होती हैं!

रानी-चल, झूठी। मुझसे अपना रूप बदलेगी?

मनोरमा-मैं तो आपकी लौंडी की तरह भी नहीं हूँ। मुझे आपके साथ बैठते शरम आती है।

रानी-अच्छा बता, संसार में सबसे अमूल्य रत्न कौन-सा है?

मनोरमा-कोहनूर हीरा होगा, और क्या?

रानी-दुत् पगली ! संसार की सबसे उत्तम, देव-दुर्लभ वस्तु यौवन है। बता, तूने किसी से प्रेम किया है?

मनोरमा-जाइए, मैं आपसे नहीं बोलती।

रानी-आह ! तूने तीर मार दिया। यही बिगड़ना तो पुरुषों पर जादू का काम करता है। काश, मेरे मुंह से ऐसी बातें निकलतीं। सच बता, तूने किसी युवक से कभी प्रेम किया है? अच्छा आ, आज मैं सिखा दूं।

मनोरमा-आप मुझे छेड़ेंगी, तो मैं चली जाऊंगी।

रानी-ऐं, तो इतना चिढ़ती क्यों है? ऐसी कोई बालिका तो नहीं। देख, सबसे पहली बात है, कटाक्ष करने की कला में निपुण होना। जिसे यह कला आती है, वह चाहे चन्द्रमुखी न हो; फिर भी पुरुष का हृदय छीन सकती है। सौंदर्य स्वयं कुछ नहीं कर सकता, उसी तरह जैसे कोई सिपाही शस्त्रों से कुछ नहीं कर सकता, जब तक वह उन्हें चलाना न जानता हो। चतुर खिलाड़ी एक बांस की छड़ी से वह काम कर सकता है, जो दूसरे संगीन और बंदूक से भी नहीं कर सकते। मान ले, मैं तेरा प्रेमी हूँ। बता, मेरी ओर कैसे ताकेगी?

मनोरमा ने लज्जा से सिर झुका लिया। उसे रानी की रसिकता पर कुतूहल हो रहा था। वह कितनी ही बार यहां आई थी; पर रानी को कभी इतना मदमत्त न पाया था।

रानी ने उसकी ठुड्डी पकड़कर मुंह उठा दिया और बोली-पगली, इस भांति सिर झुकाने से क्या होगा ! पुरुष समझेगा, यह कुछ जानती ही नहीं। अच्छा, समझ ले कि तू पुरुष है; देख, मैं तेरी ओर कैसे ताकती हूँ। सिर उठाकर मेरी ओर देख। कहती हूँ सिर उठा, नहीं तो मैं चुटकी काट लूंगी। हां, इस तरह।

यह कहकर रानी ने मनोरमा को भ्रकुटि-विलास और लोचन-कटाक्ष का ऐसा कौशल दिखाया कि मनोरमा का अज्ञात मन भी एक क्षण के लिए चंचल हो उठा। कटाक्ष में कितनी उत्तेजक शक्ति है, इसका कुछ अनुमान हो गया।

रानी-तुझे कुछ मालूम हुआ?

मनोरमा-मुझे तो तीर-सा लगा। आप मोहिनी मंत्र जानती होंगी।

रानी-तू युवक होती, तो इस समय छाती पर हाथ धरे आहतों की भांति खड़ी होती; यह तो कटाक्ष हुआ। आ, अब तुझे बताऊं कि आंखों से प्रेम की बातें कैसे की जाती हैं। मेरी ओर देख !

यह कहते-कहते रानी को फिर शिथिलता का अनुभव हुआ। ‘सुधाविंदु’ का प्रकाश मंद होने लगा। विकल होकर पूछा-क्यों री, देख तो मेरा मुख कुछ उतरा जाता है?

मनोरमा ने चौंककर कहा-आपको यह क्या हो गया? मुख बिल्कुल पीला पड़ गया है। क्या आप बीमार हैं?

रानी-हां बेटी, बीमार हूँ। राजकुमार अब भी नहीं आए? तू जाकर गुजराती से ‘सुधाविंदु’ की शीशी और प्याला मांग ला। जल्द आना, नहीं तो मैं गिर पडूंगी !

मनोरमा दवा लाने गई, तो राजकुमार इन्द्रविक्रम को मोटर से उतरते देखा। कोई तीस वर्ष की अवस्था थी। मुख से संयम, तेज और संकल्प झलक रहा था। ऊंचा कद था, गोरा रंग, चौड़ी छाती, ऊंचा मस्तक, आंखों में इतनी चमक और तेजी थी कि हृदय में चुभ जाती थी। वह केवल एक पीले रंग का रेशमी कुर्ता पहने हुए थे और गले में सफेद चादर डाल ली थी। मनोरमा ने किसी देव ऋषि का एक चित्र देखा था। मालूम होता था, इन्हीं को देखकर वह चित्र खींचा गया था।

उनके मोटर से उतरते ही चपरासी ने सलाम किया और लाकर दीवानखाने में बैठा दिया। इधर मनोरमा ने गुजराती से शीशी ली और जाकर रानी से यह समाचार कहा। रानी चबूतरे पर लेटी हुई थीं। सुनते ही उठ बैठी और मनोरमा के हाथ से शीशी ले, प्याली में बिना गिने कई बूंद निकाल, पी गईं।

दवा ने जाते ही अपना असर दिखाया। रानी के मुखमंडल पर फिर वही मनोरम छवि, अंगों में फिर वही चपलता, वाणी में फिर वही सरसता, आंखों में फिर वही मधुर हास्य, कपोलों पर वही अरुण ज्योति शोभा देने लगी। वह उठकर झूले पर जा बैठीं। झूला धीरे-धीरे झूलने लगा। रानी का अंचल हवा से उड़ने लगा और केश बिखर गए। यही मोहिनी छवि वह राजकुमार को दिखाना चाहती थीं।

एक क्षण में राजकुमार ने झूलाघर में प्रवेश किया। रानी झूले से उतरना ही चाहती थीं कि वह उनके पास आ गए और बोले-क्या मधुर कल्पना स्वप्न-साम्राज्य में विहार कर रही हैं?

रानी-जी नहीं, प्रतीक्षा नैराश्य की गोद में विश्राम कर रही है। इतनी देर क्यों राह दिखाई?

राजकुमार-मेरा अपराध नहीं। मैं आ ही रहा था कि विश्वविद्यालय के कई छात्र आ पहुंचे और मुझे एक गंभीर विषय पर व्याख्यान देने के लिए घसीट ले गए। बहुत हीले-हवाले किए, लेकिन उन सबों ने एक न सुनी।

रानी-मैं तो आपसे शिकायत कब करती हूँ? आप आ गए, यही क्या कम अनुग्रह है? न आते तो मैं क्या कर लेती? लेकिन इसका प्रायश्चित करना पड़ेगा, याद रखिए। आज रात भर कैद रखूंगी।

राजकुमार-अगर प्रेम के कारावास में प्रायश्चित है, तो मैं उसमें जीवन पर्यंत रहने को तैयार हूँ।

रानी-आप बातें बनाने में निपुण मालूम होते हैं। इन निर्दयी केशों को जरा संभाल दीजिए, बार-बार मुख पर आ जाते हैं।

राजकुमार-मेरे कठोर हाथ उन्हें स्पर्श करने योग्य नहीं हैं।

रानी ने कनखियों से-मर्मभेदी कनखियों से-राजकुमार को देखा। यह असाधारण जवाब था। उन कोमल, सुगंधित, लहराते हुए केशों के स्पर्श का अवसर पाकर ऐसा कौन था, जो अपना धन्य भाग न समझता ! रानी दिल में कटकर रह गईं। उन्होंने पुरुष को सदैव विलास की एक वस्तु समझा था। प्रेम से उनका हृदय कभी आंदोलित न हुआ था। वह लालसा ही को प्रेम समझती थीं। उस प्रेम से, जिसमें त्याग और भक्ति है, वह वंचित थीं; लेकिन इस समय उन्हें इसी प्रेम का अनुभव हो रहा था। उन्होंने दिल को बहुत संभालकर राजकुमार से इतनी बातें की थीं। उनका अंत:करण उन्हें राजकुमार से यह वासनामय व्यवहार करने पर धिक्कार रहा था। राजकुमार का देव स्वरूप ही उनकी वासना-वृत्ति को लज्जित कर रहा था। सिर नीचा करके कहा-यदि हाथों की भांति हृदय भी कठोर है, तो वहां प्रेम का प्रवेश कैसे होगा?

राजकुमार-बिना प्रेम के तो कोई उपासक देवी के सम्मुख नहीं जाता। प्यास के बिना भी आपने किसी को सागर की ओर जाते देखा है?

रानी अब झूले पर न रह सकीं। इन शब्दों में निर्मल प्रेम झलक रहा था। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि देवप्रिया के कानों में ऐसे सच्चे अनुराग में डूबे हुए शब्द पड़े। उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि इनकी आंखें मेरे मर्मस्थल में चुभी जा रही हैं। वह उन तीव्र नेत्रों से बचना चाहती थीं। झूले से उतरकर रानी ने अपने केश समेट लिए और बूंघट से माथा छिपाती हुई बोलीं-श्रद्धा देवताओं को भी खींच लाती है। भक्त के पास सागर भी उमड़ता चला आता है।

यह कहकर वह हौज के किनारे जा बैठीं और फौवारे को घुमाकर खोला, तो राजकुमार पर गुलाब जल की फुहारें पड़ने लगीं। उन्होंने मुस्कराकर कहा-गुलाब से सिंचा हुआ पौधा लू के झोंके न सह सकेगा। इसका खयाल रखिएगा।

रानी ने प्रेम सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा-अभी गुलाब से सींचती हूँ, फिर अपने प्राण जल से सींचुगी, पर उसका फल खाना मेरे भाग्य में है या नहीं, कौन जाने! उस वस्तु का आशा कैसे करूं, जिसे मैं जानती हूँ कि मेरे लिए दुर्लभ है।

दवप्रिया ने यह कहते-कहते एक लंबी सांस ली और आकाश की ओर देखने लगी। उसके मन में एक शंका हो उठी, क्या यह दुर्लभ वस्तु मुझे मिल सकती है? मेरा यह मुंह कहाँ?

राजकुमार ने करुण स्वर में कहा-जिस वस्तु को आप दुर्लभ समझ रही हैं, वह आज से बहुत पहले आपको भेंट हो चुकी है। आप मुझे नहीं जानती; पर मैं आपको जानता हूँ-बहुत दिनों से जानता हूँ। अब आपके मुंह से केवल यह सुनना चाहता हूँ कि आपने मेरी भेंट स्वीकार कर ली?

रानी-उस रत्न को ग्रहण करने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है। आपकी दया के योग्य हूँ, प्रेम के योग्य नहीं।

राजकुमार-कोई ऐसा धब्बा नहीं है, जो प्रेम के जल से छूट न जाए। ।

रानी-समय के चिह्न को कौन मिटा सकता है? हाय ! आपने मेरा असली रूप नहीं देखा। यह मोहिनी छवि, जो आप देख रहे हैं, बहुत दिन हुए, मेरा साथ छोड़ चुकी। अब मैं अपने यौवनकाल का चित्र-मात्र हूँ। आप मेरी असली सूरत देखेंगे, तो कदाचित् घृणा से मुंह फेर लेंगे।

यह कहते-कहते रानी को अपनी देह शिथिल होती हुई जान पड़ी। ‘सुधाविंदु’ का असर मिटने लगा। उनका चेहरा पीला पड़ गया, झुर्रियां दिखाई देने लगीं। उन्होंने लज्जा से मुंह छिपा लिया और यह सोचकर कि शीघ्र ही यह प्रेमाभिनय समाप्त हो जाएगा, वह फूट-फूटकर रोने लगीं। राजकुमार ने धीरे से उनका हाथ पकड़ लिया और प्रेम-मधुर-स्वर में बोले-प्रिये, मैं तुम्हारे इसी रूप पर मुग्ध हूँ, उस बने हुए रूप पर नहीं। मैं वह वस्तु चाहता हूँ, जो इस पर्दे के पीछे छिपी हुई है। वह बहुत दिनों से मेरी थी; हां, इधर कुछ दिनों से उस पर मेरा अधिकार न था। मेरी तरफ ध्यान से देखो, मुझे पहचानती हो? कभी देखा है?

रानी ने हैरत में आकर राजकुमार के मुंह पर नजर डाली। ऐसा मालूम हुआ, मानो आंखों के सामने से पर्दा हट गया। याद आया, मैंने इन्हें कहीं देखा है। जरूर देखा है। वह सोचने लगीं मैंने इन्हें कहाँ देखा है? याद न आया। बोलीं-मैंने आपको कहीं पहले देखा है।

राजकुमार-खूब याद है कि आपने मुझे देखा है? भ्रम तो नहीं हो रहा है?

रानी-नहीं, मैंने आपको अवश्य देखा है। संभव है, कभी रेलगाड़ी में देखा हो; मगर मुझे ऐसा मालूम होता है कि आप और मैं कभी बहुत दिनों एक ही जगह रहे हैं। मुझे तो याद नहीं आता। आप ही बताइए।

राजकुमार-खूब याद कर लिया?

रानी-(सोचकर) हां, कुछ ठीक याद नहीं आता। शायद तब आपकी उम्र कुछ कम थी; मगर थे आप ही।

राजकुमार ने गंभीर भाव से कहा-हां प्रिये, मैं ही था। तुमने मुझे अवश्य देखा है, हम और तुम एक साथ रहे हैं और इसी घर में। यही मेरा घर था। तुम स्त्री थीं मैं पुरुष था। तुम्हें याद है, हम और तुम इसी जगह, हौज के किनारे शाम को बैठा करते थे? अब पहचाना?

देवप्रिया की आंखें फिर राजकुमार की ओर उठीं। आईने की गर्द साफ हो गई। बोलींप्राणेश! तुम्ही हो इस रूप में?

यह कहते-कहते वह मूर्च्छित हो गईं।

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