चैप्टर 8 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 8 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

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Chapter 8 Badnaam Gulshan Nanda Novel 

Chapter 8 Badnaam Gulshan Nanda Novel

रविवार का दिन था, आज । सर्वत्र छुट्टी ही छुट्टी थी। सभी कार्यालय एवं उद्योग-धन्धे बंद थे। केवल पशु-पक्षी और मनुष्य के पेट का धन्धा चालू थे। पेट पूजा की कभी छुट्टी नहीं । सवेरा होते ही नाश्ता और भोजन की चिन्ता और शाम होते ही खाने की फिक्र । यह क्रम जारी रहता है। मनुष्य चाह कर भी इससे छुटकारा नहीं पाता। कुछ ऐसी कृत्रिम वस्तुओं का आविष्कार हुआ है, जो कुछ घन्टों तक भूख को मार डालती हैं, मगर निरंतर ऐसा करते रहने से भूख तो नहीं लग सकती, लेकिन शरीर दुबला-पतला हो जायेगा ।

गौरी बाबू आज तड़के ही उठे थे । नित्य क्रिया से निपटने के बाद उन्होंने दातुन भी किया और एक कुर्सी पर बैठकर कुछ विचार करने लगे । सविता का आज दो दिनों से कुछ पता नहीं चल सका । वह कहा जा सकती है ! किसी रिश्तेदार के यहां जाना तो संभव ही नहीं या । एक तो गौरी बाबू के कोई भी नजदीकी रिश्तेदार नहीं था, और कुछ जो दूर के थे, उनसे आना-जाना कम रहता था। यदि कहीं जाना ही था, तो कम से कम कहकर तो जाना चाहिए था। इस तरह आज मैं चिन्तित तो नहीं रहता। उन्होंने सोचा, सविता ने उचित किया है या अनुचित, इस पर विवाद नहीं। ऐसा करके उसने मुझको कष्ट दिया है, चिंता से ग्रस्त किया है, जिसको उचित नहीं कहा जा सकता ।

चाय का समय हो गया था और उसी का गौरी बाबू इंतज़ार कर रहे थे । उसी समय उनकी पत्नी श्रीमती स्वरूपी कमरे में आई और एक कुर्सी पर बैठते हुए पूछा – “कुछ पता चला ?” जवाब में न्यायाधीश महाशय का सिर झुक गया।

“ऐसा करने से पहले सविता ने तनिक भी नहीं सोचा कि एक नीच कर्म करके वह हम लोगों को कितना लज्जित कर रही है ।” गौरी बाबू की पत्नी ने कहा- “असल में उसने यही किया, जो एक जवान लड़की अपनी जवानी में करती है। लेकिन ताज्जुब है कि मंगनी होने के समय उसने कुछ भी संकेत नहीं किया कि उसका लक्ष्य इसके विपरीत हो सकता है।”

“यदि उस समय तनिक भी भनक मिल जाती, मुझे, तो मैं मंगनी स्थगित करवा देता।” गौरी बाबू ने कहा, ” और पूरी छानबीन करने के बाद ही अगला कदम उठाता। समझ से बाहर की बात है कि वह अकेली जा भी कहाँ सकती है। मेरी मझ में नहीं आता ।”

तब तक नौकर ट्रे में चाय का सामान लेकर और मेज पर रखने के बाद दो कदम पीछे हट कर खड़ा रहा। उसने सोचा, शायद और कुछ मांगा जाए । तभी श्रीमती स्वरूपादेवी ने नौकर की ओर देखकर कहा-

“अब तुम जा सकते हो ।’

और वह नौकर बाहर चला गया ।

नौकर के बाहर जाने के बाद श्रीमती स्वरूपा देवी ने ही कहा – “वह अकेली तो गई नहीं है !’

“अकेली नहीं गई है ?” गौरी बाबू ने कहा- “तुम्हारे कहने का क्या मतलब है ?”

“मतलब साफ है जी !” पति से वह बोली- “मैं उसकी हर एक चाल को अच्छी तरह परखती थी और उसके चले जाने के बाद से पता भी लगाया है। सविता सखीचंद के साथ ही भागी हैं।” 

“सखीचंद?” अचरज से उन्होंने पूछा – “कौन सखीचंद ?”

“वही जी ! श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा- “जिस एक गंवार लड़के को माली के साथ आज से दो-ढाई साल पहले रखा था।”

“वह तो निपट गंवार था।”

“प्यार गंवार और कुरूप नहीं देखता।” श्रीमती स्वरूपा देवी कहा – “उन दोनों की साठ-गांठ पहले से ही थी।” 

“पहले से थी ?” 

“हाँ!” चाय का प्याला गौरी बाबू की ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा–‘ जब वह रखा गया था, तभी से सविता उसकी ओर आकर्षित हो गई थी। दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे थे और आपस में घुल मिलकर बातें करते थे। ‘

गौरी बाबू ने चाय का प्याला उठा लिया और एक चुस्की लेते हुए कहने लगे- ‘तुमका कैसे पता चला यह सब ?”

“मुझको सब-कुछ पता चल गया था।” यहाँ पर श्रीमती स्वरूपादेवी ने सावित्री की बात जान-बूझकर छिपाई, ताकि सविता गौरी बाबू की निगाहों में हमेशा के लिये गिर जाए। इस कारण कि न्यायाधीश महोदय सविता को ही अधिक मानते थे, चाहते थे । सावित्री को भी मानते थे, लेकिन साविता के बनिस्बत कम । किसी बात की तकरार में जब सविता और सवित्री में वाद- विवाद होता, तो गौरी बाबू का फैसला सविता के पक्ष की ओर होता, चाहे वह गलत ही क्यों न होता । इसी कारण श्रीमती स्वरूपादेवी ने सविता की ही बात छेड़ी–“उन दोनों की यह चाल रामपूजन माली ने एक दिन अपनी आंखों से देख ली थी और उसने मुझसे कह दिया था। और एक दिन जब सविता और सखीचंद पास-पास बैठे बाग में बातें कर रहे थे, तो रामपूजन मेरे पास आया और सारा वृत्तांत कहकर वहाँ चलने को कहा। पहले तो मैंने सोचा कि ऐसे समय में घटना स्थल पर जाना उचित नहीं । न जाने वह किस दशा में होंगे। फिर यह सोच कर कि सच्चाई का वास्तविक पता लग सकेगा, मैं चली गई और अपनी आंखों से बातें करते देखा और सुना।”

“तुमने अपनी आंखों से देखा था ?” गौरी बाबू को शायद विश्वास नहीं हो रहा था। क्योंकि वह जानते थे कि दोनों बहनें हमेशा एक साथ ही रहती थीं, साथ खाती थीं, साथ पीती थीं और साथ ही सोती भी थीं। जब देखो दोनों एक साथ, फिर सविता का अकेली सखीचंद से बातें करना कुछ जंचता नहीं था । उनका हृदय गवाही दे रहा था कि उसकी पत्नी श्रीमती स्वरूपादेवी उनसे कुछ छिपा रही हैं।

“जी हां !” स्वरूपा देवी ने कहा।

“क्या वहीं सखीचंद के साथ अकेली सविता ही थी ?” गौरी बाबू ने पूछा।

गौरी बाबू के इस प्रश्न से श्रीमती स्वरूपा देवी चौंकीं श्रीर मन ही मन कहने लगीं – – क्या इनको मेरी बातों पर यकीन नहीं हुआ ? क्या इनको पता चल गया है कि वहाँ सखीचंद के पास सावित्री भी जाती थी ? क्या इस तरह का उल्टा-पुल्टा प्रश्न कर सच्चाई जानने की चेष्टा में तो नहीं है ? कहीं रामपूजन ने तो सारी गाथा नहीं कह दी है ? तब भी उन्होंने हिम्मत बांध कर सीधा-सा जवाब दिया- “जी हाँ! सखीचंद के पास अकेली सविता को ही मैंने देखा था ।”

“कितनी बार ?”

“अनेकों बार मैंने उन्हें एक साथ देखा था ।” श्रीमती स्वरूपा देवी ने कहा और चाय का प्याला उठाकर चाय पीने लगीं। ऐसा देख गौरी बाबू ने भी चाय पीनी प्रारंभ कर दी ।

खाली कप और प्याली को मेज पर रखकर वह सोचने लगे- गरम चाय के प्यालों को धुएं की भांति एकाएक क्यों गायब हो गयी, सविता ? उन्हें पूर्ण पता था कि सखीचंद के साथ ही वह गयी है । सखीचंद युवक था। गंवार तो था, मगर वह सुन्दर था। उसका बदन सुघड़ था, तन्दुरुस्त था। वह खूबसूरत भी तो था । एक जवान पुरुष के साथ एक जवान नारी का भागना, क्या अर्थ रखता है, गौरी बाबू अच्छी तरह जानते थे । सविता चालाक थी, पढ़ी-लिखी थी और उसे यह भी तो पता नहीं था कि वह हमारी जन्मी नहीं थी, फिर हमारा भी तो ख्याल रहा होगा, उसे एक गंवार के साथ भागना उसने कैसे स्वीकार किया ? जिसके साथ उसकी मंगनी हुई थी, वह एक बैरिस्टर था, पैतृक सम्पत्ति थी, उसके पास । सुन्दर जवान था। एक योग्य पति के सभी लक्षण उसमें मौजूद थे । और सविता ने स्वयं अपने होने वाले पति को देखा भी था, मगर मंगनी होने के बाद उसने ऐसा क्यों किया ? शहरी, शिक्षित और बड़े घरों की युवतियां तो शादी के मामले में खुलकर अपने माता और पिता के सामने आती हैं। वह शरमाती नहीं, क्योंकि यह सम्बन्ध जीवन भर का सम्बन्ध होता है, क्षणिक नहीं । अतः सविता को किसी-न-किसी प्रकार कुछ कहना ही चाहिए था । यदि उसकी इच्छा जानने के बाद भी उसके साथ ज्यादती की जाती, तो वह ऐसा पग उठा सकती थी । गौरी बाबू को कभी किसी प्रकार का मलाल न होता । क्या बात थी जो आधुनिक, धनी और शिक्षित युवक को छोड़कर वह एक गांव के गंवार और मूर्ख छोकरे के साथ चली गई ? किन्तु इसका जवाब उनके हृदय ने नहीं दिया। इतना सोचने के बाद भी उनका हृदय शांत नहीं हुआ, अतः उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा – “तुम बता सकती हो कि एक शिक्षित और धनी युवक को त्यागकर एक गंवार को सविता ने क्यों अपनाया ?”

श्रीमती स्वरूपा देवी ने नौकर को बुलाकर सारा सामान अन्दर भिजवा दिया और अपने पति की बेचनी को अनुभव कर कहने लगी- ” इसका असली जवाब मेरे पास नहीं है। एक शिक्षित और धनी युवक को उसने क्यों नहीं अपनाया, इसका असली कारण तो सविता ही बता सकती है या उसका हृदय । परन्तु अपने अनुभवों और जो कुछ भी जानती हूँ, उसके आधार पर में इतना ही कह सकती हूँ कि उस गंवार युवक की बेहद सुन्दरता ने ही सविता को मोह लिया था।”

गौरी बाबू ने अपना सिर झुका लिया। उनके हृदय से वह आवाज उठी- सुन्दरता ने किसी युवती का हृदय मोह लिया है। तो क्षणिक लिप्सा के लिए ही तो । और क्षणिक आवेश से जीवन का सम्बन्ध नहीं हो सकता । सिनेमाघर में परदों पर चल रहे दृश्यों को देखते ही कभी उमंग, कभी खुशी और कभी रोना आ जाता है, मगर सिनेमा घर के बाहर आते ही वह परदे का दृश्य कल्पना मात्र होता है । वैसे ही यदि भोग के लिए किसी गंवार और खूबसूरत पुरुष पर आसक्त हो जाया जाए, तो आवेश कुछ ही दिनों में शांत हो जाना चाहिए। मगर यहाँ तो सविता ने उसको जीवन-साथी बनाया उसने ऐसा तो नहीं सोचा होगा कि कुछ दिन साथ रहने के बाद वह घर लौट आयेगी । इतनी हिम्मत नहीं कर सकती वह। मेरी इज्जत का उसे पूर्णतया ध्यान होगा। भले ही वह चली गयी है, तो एक तरह से ठीक ही किया ।

श्रीमती स्वरूपा देवी ने अपना कहना जारी रखा – “आप तो घर की ओर से हमेशा से ही बेफिक्र रहे। सविता के साथ साठ- गांठ बढ़ाने के बाद, सखीचंद ने सावित्री को भी अपने जाल में फंसाना चाहा था। परन्तु रामपूजन ने मुझे प्रथम ही सचेत कर दिया था, अतः मैं हमेशा सचेत रहती थी। मैंने खुद ही सुना था- एक दिन सविता न जाने क्या-क्या सावित्री से कह रही थी, जिसका आशय कुछ अच्छा नहीं था। लेकिन मैंने सावित्री पर बंधन लगा दिया और उसकी आजादी छिन गयी। यदि सावित्री भी आज सविता की तरह आाजाद होती, तो यह भी हाथ न आती ।”

“जब तुमने अपनी आंखों से देखा था।” गौरी बाबू ने कहा, “तुमको कह देना चाहिये था और साफ-साफ कह देना चाहिये था। किन्तु न जाने क्यों तुमने मुझसे भी नहीं कहा। आज हमारी कितनी जग हंसाई हो रही है? यदि सामने पा जाऊँ, तो दोनों को गोलियों से उड़ा दूँ ।” उनका चेहरा तमतमा गया था। श्रीमती स्वरूपा देवी ने देखा आज न्यायाधीश महाशय काफी नाराज हैं। आज से पहले उन्होंने कभी इस तरह अपने पति को गुस्सा होते नहीं देखा था। आंखों की पुतलियां लाल हो गयीं थीं, चेहरा भयंकर लग रहा था ।

“अब गुस्सा करने से क्या लाभ?” श्रीमती स्वरूपा देवी ने नम्र वाणी में कहा – “जो होना था, वह हो ही गया । अब तो यह सोचना है कि क्या किया जाए। क्या चुप बैठा रहना अच्छा होगा ? …या खुद खोज–खबर ली जाएगी।”

गौरी बाबू ने कुछ नहीं कहा। 

“जीवन में आज की तरह हम लोगों को कभी अपमानित नहीं होना पड़ा था।” श्रीमती स्वरूपा देवी ने ही पुनः कहा- “अपनी ही सन्तान से मात होना पड़ता है। सविता ने बहुत बड़ी गलती की है। यदि वह जहर खाकर मर जाती, तो हमारे लिये अच्छा होता। बुढ़ापे में ऐसा दिन भी देखना हमारे नसीब में बदा था।”

अब भी गौरी बाबू ने कुछ नहीं कहा। लगता था वह कुछ सोचने में व्यस्त थे । शायद श्रीमती स्वरूपा देवी की बात भी नहीं सुन रहे थे। बस विचारो से घिरे दिख रहे थे, वे।

“सचमुच में सब कुछ जानते हुए भी मैंने आपसे सविता का हाल कहना उचित नहीं समझा।” श्रीमती स्वरूपा देवी ने कहा- “इस बात के लिये आप भमले ही मुझसे नाराज हो, लेकिन मेरे लिये अच्छा है। यदि सविता की बात उठाती, तो आप मुझ पर ही नाराज होते और यही सोचते कि सविता को गैर समझ कर हमने ऐसा लांछन लगाया है, ताकि सविता बदनाम हो जाए। इसलिये कि सावित्री मेरे उपर से जन्मी थी और ऐसे मौके पर होता ही यही है। किसी के दोषों को उसके सामने खोलकर रखा जाए, ताकि वह अपना दोष छोड़ दे, तो वह बहुत ज्यादा क्रोधित हो जाता है। और अपने को बचाने के लिये कहने वाले को दोष दिया जाता है । यदि शराबी को शराबी कहा जाए, तो वह गुस्से से पागल हो जाता है । यदि वेश्या को रण्डी कहा जाए, तो वह नाराज हो जायगी । यही समझने के बाद मैंने आपसे कहना उचित नहीं समझा। सोचा- समय आने पर स्वत: ही सब कुछ आपको ज्ञात हो जाएगा। उस वक्त अविश्वास का नाम भी नहीं रहेगा ।” और वह चुप होकर अपने पति की ओर देखने लगी।

गौरी बाबू ने मन ही मन सोचा कि श्रीमती स्वरूपा देवी ने अपने उदर से जन्मी सावित्री को बंधन में बांधकर एकदम बदनामी से बचा लिया और सविता को बहती गंगा में डुबकी लगाने के लिये छोड़ दिया। वह पुरुष होकर क्या दिन-रात घर की लड़कियों के पीछे पड़े रहते ! घर की ओर देखना नारी का काम है। पुरुष बाहर का राजा है और औरत घर की रानी, मर्द का वास्ता केवल धन कमाने और बाहरी वातावरण से सभी को सुरक्षित रखना है और औरत का काम है, प्रत्येक परिवार को देखना तथा समय पर भोजन का प्रबन्ध करना । सावित्री के जन्म लेने के बाद ही गौरी बाबू को श्रीमती स्वरूपा देवी की चाल पर शक होने लगा था कि उसका मन सविता की ओर नहीं जा रहा है। लेकिन गौरी बाबू से उसने कभी खोल कर यह बात नहीं कही । या यों कहिये कि श्रीमती स्वरूपा देवी को कहने का साहस ही नहीं हुआ । संतान के प्रभाव में जब यह परिवार एकदम निराश हो गया था, तब सविता को अस्पताल से उठाकर श्रद्धा और प्रेम से घर लाया था, ताकि सूने परिवार में एक बहार आये। गौरी बाबू यह अच्छी तरह जानते थे कि श्रीमती स्वरूपा देवी का सारा प्यार सावित्री को मिल रहा है, इसी कारण उनका सविता पर अधिक स्नेह रहता था। कचहरी से आते ही सविता को पुकारते और जब तक उनके सामने न आ जाती, वे चैन नहीं लेते थे । उन्हें पूर्णतया विश्वास हो गया कि सविता के प्रति श्रीमती स्वरूपा देवी ने अन्याय किया है और आज जो कुछ देखना पड़ा है, उनकी जड़ में स्वरूपा देवी का विचार है । अंत में उन्होंने कहा – “अपनी आंखों से देखने के बाद तो तुमको, दोनों को जान से मार डालना चाहिये था । “

“ऐसा करना मुझे जंचा नहीं था।” श्रीमती स्वरूपा देवी ने कहना प्रारम्भ किया—“आप पुरुष हैं और आप इस समय क्रोध के अधीन बोल रहे हैं, मगर औरतों में इतनी हिम्मत या धैर्य कहां, ऐसे मौके पर सन्तुलन से काम ले सके ।” 

“जब सावित्री भी सविता के साथ थी, तब तुमने सावित्री पर रोक क्यों नहीं लगाई ?”

श्रीमती स्वरूपा देवी अपने पति गौरी बाबू के प्रश्न से एकदम तिलमिला गयीं। उनकी कुछ क्रोध भी हुआ और कुछ अचरज भी । वह जान गई कि उनके पति सब कुछ खुलवाना चाहते हैं, जिसे स्वयं श्रीमती स्वरूपा देवी खोलना नहीं चाहती थी। वह चुप रह गयी । उनको समझ में नहीं आया कि वह क्या जवाब दें ।

“सावित्री पर रोक लगाकर तुमने अच्छा नहीं किया ।” गौरी बाबू ने पुन: वही प्रश्न दुहराया। उन्होंने समझा, श्रीमती स्वरूपादेवी सब कुछ समझ गयी हैं ।

“सब कुछ देखकर भी यदि सावित्री को न रोकती, तो क्या करती।” श्रीमती स्वरूपा देवी ने कहा- “सविता चाहती थी कि सावित्री भी उसका अनुसरण करे, मगर मैं यह सब पसन्द नहीं कर सकी ।”

“सविता को ही तुमने क्यों आजाद छोड़ दिया ?” गौरी बाबू कहने लगे – “इस कारण न, कि वह गलत रास्ते पर जाए और उसके साथ-साथ हमारी भी बदनामी हो । सविता को आजादी देकर तुमने यह साफ-साफ कह दिया कि सविता को तुमने अपना नहीं, गैर समझा था । और आज हम उसी का परिणाम भुगत रहे हैं।”

“ओह!” श्रीमती स्वरूपादेवी ने अपना माथा पकड़ लिया । शायद उसकी चोरी पकड़ ली गई थी। जिस बात को वह आज तक खोलना नहीं चाहती थी, वह खुलकर ही रही। उसको भय भी हुआ कि आज वह गौरी बाबू की नजरों में गिर गयी, जबकि वे श्रीमती स्वरूपा देवी को बहुत अधिक प्यार करते थे ।

“अफसोस करने से क्या फायदा, जब सब कुछ सामने ही है।” गौरी बाबू ने कहा- “इधर सावित्री की तबीयत खराब रहती है ।”

श्रीमती स्वरूपा देवी एकदम कांप गयीं। उन्होंने सोचा – अब तो लगता है, सारा चिट्ठा ही खुलकर रहेगा। अपने पति की जानकारी पर उसको अचंभा भी हुआ । इन्हें यह सब कैसे मालूम हो गया ?

” तबियत तो कोई खराबी नहीं है, उसकी ।” श्रीमती स्वरूपा देवी ने कहा- “हाँ, मन ही है …! “

“मुझे पता है, वह भी।” और गौरी बाबू चुप रह गए। उन्होंने जान-बूझकर इस वाक्य को पूरा नहीं किया। सोचा, इससे पत्नी के मन का भाव ही ज्ञात हो जाए या, कुछ आवेश में आकर उगल ही दे ।

श्रीमती स्वरूपा देवी ने इस बार कुछ नहीं कहा। केवल सिर झुका लिया उसने ।

“तुमसे एक गलती हो गयी है।”

श्रीमती स्वरूपा देवी ने कुछ भी बोलना उचित नहीं समझा । गौरी बाबू ने मेज पर रखी घन्टी बजायी “टन…..! टन…!! टन…!!!”

दो मिनट बाद ही नौकर आया और हाथ जोड़कर बोला- “जी सरकार ! “

“चक्रवर्ती बाबू को बुला लायो ?”

“बहुत अच्छा हुजूर “”।” और नौकर वहाँ से चला गया “अब चक्रवर्ती बाबू से क्या कहियेगा ? नौकर के चले जाने के बाद श्रीमती स्वरूपादेवी ने अपने पति से पूछा। उससे अब रहा नहीं गया था। वह नहीं चाहती थी कि इस बात का सब जगह ढिंढोरा पीटा जाए और लोग उसकी खिल्ली उड़ाएं।

किन्तु गौरी बाबू ने कोई जवाब नहीं दिया। वे सिर झुकाकर मौन बैठे रहे ।

” आपके दुलार ने उसको बिगाड़कर मिट्टी बना दिया था ।” श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा ।

इस बार भी गौरी बाबू ने कुछ नहीं कहा ।

“मैं पहले ही कहती थी कि आप सविता पर कड़ी नजर रखें, उसको इतना न चढ़ाइये।” गौरी बाबू की मौनता ने श्रीमती स्वरूपा देवी को बोलने का साहस भर दिया। वह कहने लगी- – “लड़की जात को अधिक चढ़ाना परिवार के लिए हितकर नहीं होता । मगर आपको तो लड़की सचरित्र और आदर्श दिख रही थी। आपकी सेवा करने के रूप में वह बिस्तरा क्या लगा दिया करती थी, आपकी निगाहों में चरित्रवान और निष्ठापान बन गयी थी । शंका के कारण कई बार मैंने टोका भी था कि यह लड़की न जाने किस जाति की है, कैसे खानदान की है, मगर आपने कतई ध्यान नहीं दिया था। उसकी माँ थोड़ी पढ़ी-लिखी थी, तो इससे क्या ? क्या कोई प्रमाण है कि उसकी मां उच्च कुल की नारी थी ?”

गौरी बाबू ने इस बार भी कुछ नहीं कहा, चुपचाप बैठे रहे । उनका ध्यान श्रीमती स्वरूपा देवी की बातों पर नहीं था। वे सोच रहे थे कि चक्रवर्ती बाबू से बात किस तरह कही जाएगी। आज तक जितने भी केस थे, सभी का फैसला उन्होंने चक्रवर्ती बाबू की गुप्त रिपोर्ट पर ही किया था और कभी ऐसा नहीं हुआ था कि निरपराध को सजा मिली हो चक्रवर्ती बाबू पर उनको पूरा विश्वास था। अतः पारिवारिक कठिनाइयों को भी उनसे कहकर पता लगवाने में कोई दिक्कत नहीं जान पड़ी, उन्हें । यही कारण था कि श्रीमती स्वरूपा देवी कहती जा रही थी और गौरी बाबू सुनते जा रहे थे।

श्रीमती स्वरूपा देवी कहती जा रही थी” अब मुझे पूर्णतया ख्याल आ रहा है कि सविता के विरुद्ध में जो भी शिकायत आपसे करती थी, आप उस पर कतई नहीं सोचते थे । शायद उस वक्त आप यही सोचकर चुप रह जाते होंगे कि मैं सविता की मां नहीं हूं या सविता ने मेरे गर्भ से जन्म नहीं लिया है, इसलिए मैं उसकी शिकायत कर रही हूं । और उसी का यह कुफल आज हम लोगों को भुगतना पड़ रहा है । हमारी नाक ही कट गई, आज। “

गौरी बाबू ने सिर उठाकर बाहर दरवाजे की ओर देखा और तब एक लम्बी सांस लेकर रह गए।

“आपकी तबीयत ठीक नहीं लगती है ।” और श्रीमती स्वरूपा देवी ने अपने हाथ से उनका बदन स्पर्श किया। बोली – “काफी चिन्ताग्रस्त हैं आप | बुढ़ापे में ऐसी चोट बर्दाश्त नहीं की जाती, आप अन्दर चलकर आराम करें।” और उसने अपने पति की ओर देखा ।

गोरी बाबू हिले-डुले नहीं और न ही उन्होंने मुंह से कुछ कहा हो ।

श्रीमती स्वरूपा देवी कुर्सी छोड़कर खड़ी हो गयी और गौरी बाबू के नजदीक जाकर बोली- आप अन्दर जाकर आराम करें न !”

इतने पर भी गौरी बाबू ने कुछ नहीं कहा। वे कुर्सी छोड़कर उठे और बाहर बरामदे में आकर टहलने लगे ।

उनकी इस बेचनी को श्रीमती स्वरूपा देवी ने महसूस किया,

उसके हृदय में विश्वास हो गया कि इस वक्त उसके पति होश में नहीं हैं। अपने आपे में नहीं हैं। सविता का उनके साथ ऐसा विश्वासघात करना, उनकी ममता का गला घोंटना या सविता का उनकी आंखों से ओझल हो जाना ही शायद उनकी चुपी, मौनता या जड़ का कारण हो । जब आत्मीय स्वजनों का एकाएक पलायन हो जाता है, तो हृदय को एक जबर्दस्त धक्का लगता है, शरीर में सुरसुरी समा जाती है और कण्ठ से कुछ आवाज नहीं निकलती । ठीक यही हालत गौरी बाबू की थी।

श्रीमती स्वरूपा देवी भी बरामदे में ही एक ओर खड़ी हो गयी । कुछ देर बाद नौकर आया और कहा – ” चक्रवर्ती बाबू अभी आ ही रहे हैं।” और वह भी बाहर खड़ा हो गया ।

श्रीमती स्वरूपा देवी ने उसको चले जाने का इशारा किया और वह वहां से चला गया ।

गौरी बाबू बेचनी और बेसब्री से बरामदे में टहलते रहे और चक्रवर्ती बाबू के आने का इंतज़ार करते रहे ।

श्रीमती स्वरूपा देवी भी इस बात का इंतज़ार कर रही थी कि उसके पति चक्रवर्ती बाबू से किस तरह का कदम उठाने को कहते हैं, जिसका परिणाम क्या हो सकता है।

दस-पन्द्रह मिनट बाद चक्रवर्ती बाबू आये और हाथ जोड़कर दोनों पति-पत्नी को बारी-बारी से प्रणाम किया। चक्रवर्ती बाबू की उम्र साठ के लगभग थी। मगर खाने का आराम एवं चिन्ता नहीं होने के कारण इस वक्त भी वे काफी तन्दुरुस्त दिखायी दे रहे थे। चक्रवर्ती बाबू सरकारी नौकर थे और गौरी बाबू उनको जो भी कहते, वही काम वह करते थे। गौरी बाबू के साथ रहते उनको बीस वर्ष हो गये थे । न्यायाधीश महाशय को वे श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे ।

चक्रवर्तीबाबू को आया देख गौरी बाबू अन्दर कमरे में चले गए और एक कुर्सी में धंस गये। उन्होंने चक्रवर्ती बाबू का ओर देखकर कहा – “आप बैठ जाएं ।”

चक्रवर्ती बाबू ने श्रीमती स्वरूपा देवी को देखा। तब तक श्रीमती स्वरूपा देवी भी एक कुर्सी पर बैठ गयी थी, अतः ये भी एक कुर्सी पर बैठ गये और गौरी बाबू की ओर देखने लगे । गौरी बाबू ने एक बार अपनी पत्नी की ओर देखा और फिर चक्रवर्ती बाबू की ओर4 देखकर कहा “सविता को तो आप जानते ही थे।”

“जी।”

“वह कहीं चली गई है।” गौरी बाबू बोले।

“जी ?” चक्रवर्ती बाबू को आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा – यदि चली गई है कहीं सविता, तो घबड़ाने की क्या बात है ! मगर गौरी बाबू की बातों से साफ पता चला कि वह बिना कहे सुने ही कहीं चली गई है।

“परसों रात से ही वह गायब है। अभी तक तो उसका कुछ भी पता नहीं चल सका है। उसके बिस्तरे पर कोई पत्र वगैरह भी नहीं मिला।” गौरी बाबू ने कहा । 

“ताज्जुब है, सर !”

“हां, अचरज की बात ही है।” गौरी बाबू ने रखा – “आपको याद होगा, आज से ढाई-तीन वर्ष पहले मैंने राम पूजन के साथ एक गंवार लड़के को रख लिया था!” 

“जी !” ‘चक्रवर्ती बाबू ने कहा- “शायद उसका नाम सखीचंद था।”

“सखीचंद ही उसका नाम था । हमारे यहां से हटने के बाद वह बाजार में एक पत्थर की दुकान पर काम करता था। अनुमान किया जा रहा है कि सविता उसके साथ हो गई है।”

“सर! मुझे तो विश्वास नहीं होता।” चक्रवर्ती बाबू ने डरते-डरते ही कहा – ” कहां सविता रानी और कहाँ वह गंवार सखीचंद ! मुझे तो कुछ और ही बात लगती है।”

” बात क्या है, किसी को पता नहीं ।” गौरी बाबू ने कहा- “आप पूरी तरह उसकी दुकान पर जाकर पता लगाइये कि वह मालिक से क्या कहकर गया है। कब गया है। इसी से भले ही कुछ पता चल सके, वर्ना क्या पता मेरी सविता, इस समय किस दशा में होगी।” और उन्होंने अपने माथे पर एक हाथ रख दिया ।

चक्रवर्ती बाबू ने भी गौरी बाबू की बेचैनी को महसूस किया और काफी दुखी हुए। काफी देर बाद जब कोई कुछ न बोला तो चक्रवती बाबू ने ही मौनता भंग की “सर ! में जा रहा हूँ ।” 

” जाइए ! ” गौरी बाबू ने कहा और चुप हो गए । और चक्रवर्ती बाबू वहाँ ने चले गए ।

चक्रवर्ती बाबू के चले जाने के बाद श्रीमती स्वरूपा देवी ने अपने पति की ओर देखा और तब कहने लगी- “सविता का पता लगाने में समय लगेगा।”

“उस बैरिस्टर युवक से क्या कहा जायगा ?’ गौरी बाबू ने अपनी पत्नी की ओर देखा । ” अब तो वह सविता से शादी कर नहीं सकता।” “

“…!”

“मेरी सलाह मानिए, तो उसी युवक से सावित्री की शादी कर दीजिए !”

श्रीमती स्वरूपा के इतना कहते ही गोरी बाबू ने लाल-लाल अपनी आंखों से पत्नी को देखा और अचम्भे से पूछा – “क्या कहा, तुमने ? … उसी युवक से सावित्री की शादी ?”

“जी, हाँ !” धीमे स्वर में वह बोली ।

“मुझे कोई एतराज नहीं हो सकता ! ” गौरी बाबू ने न जाने एकाएक ऐसा जवाब क्यों दिया। शायद कुछ सोच-विचार कर ही ऐसा कहा होगा ।

श्रीमती स्वरूपा देवी को साहस हुआ। वह बोली – ” तब उस लड़के को बुलाकर मैं कुछ बातें कर लूं…।”

बीच से बात काटकर गौरी बाबू ने कहा- “नहीं ।” 

स्वरूपा देवी असमंजस में पड़ी। कभी हां, कभी ना, यह उसकी समझ में नहीं आया। पति की ओर देखकर पूछ बैठी- ” मेरी समझ में नहीं आया कि आप क्या चाहते हैं ।”

“शायद सावित्री की तबीयत ठीक नहीं है।” गौरी बाबू ने कहा – “उसको समझा-बुझाकर राजी कर लो, तो मुझे कोई आपत्ति न होगी । सविता गई तो गई अब मैं सावित्री को भी हाथ से जाने नहीं देना चाहता ।”

“वह कब इन्कार कर सकती है !”

“किसी अनुमान के पीछे मैं दौड़ नहीं सकता ।” गौरी बाबू ने एक लम्बी सांस लेकर कहा- “सावित्री से बातें कर लो समझायो । तबीयत ठीक हो जाने के बाद वह राजी हो जाए, तो सब ठीक ही है।”

श्रीमती स्वरूपा देवी ने उठते हुए कहा- “मैं उसे राजी कर लूंगी।” 

“राजी तो कर लोगी उसे । लेकिन देखना कहीं तुमसे दूसरी गलती न हो जाए ।” और वह बाग की ओर चले गए।

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वापसी गुलशन नंदा का उपन्यास 

काली घटा गुलशान नंदा का उपन्यास

कांच की चूड़ियां गुलशन नंदा का उपन्यास 

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