चैप्टर 8 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 8 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 8 Aankh Ki Kirkiri Novel By Rabindranath Tagore

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आशा को डर लगा। क्या हुआ यह? माँ चली गईं, मौसी चली गईं। उन दोनों का सुख मानो सबको खल रहा है, अब उसकी बारी है शायद। सूने घर में दांपत्य की नई प्रेम-लीला उसे न जाने कैसी लगने लगी।

संसार के कठोर कर्तव्यों से प्रेम को फूल के समान तोड़ कर अलग कर लेने पर यह अपने ही रस से अपने को संजीवित नहीं रख पाता, धीरे-धीरे मुरझा कर विकृत हो जाता है। आशा को भी ऐसा लगने लगा कि उनके अथक मिलन में एक थकान और कमजोरी है। वह मिलन रह-रह कर मानो शिथिल हो जाता है- प्रेम की जड़ अगर कामों में न हो तो भोग का विकास पूर्ण और स्थायी नहीं होता।

महेंद्र ने भी अपने विमुख संसार के खिलाफ विद्रोह करके अपने प्रेमोत्सव के सभी दीपों को एक साथ जला कर बड़ी धूम-धाम से सूने घर के अमंगल में ही उसने आशा से कहा – ‘तुम्हें इन दिनों हो क्या गया है, चुन्नी! मौसी चली गईं तो इस तरह मुँह लटकाए क्या रहती हो? हम दोनों के प्रेम में क्या सभी प्रेम समाए हुए नहीं हैं?’

आशा दुखी हो कर सोचती- ‘अपने प्रेम में कोई अपूर्णता तो है। मैं तो मौसी की बात सोचा करती हूँ। सास चली गई हैं, इसका मुझे डर लगता है।’

घर के काम-काज अब ठीक से नहीं चलते। नौकर-चाकर कन्नी काटने लगे। ‘तबीयत खराब है’ कह कर नौकरानी एक दिन नहीं आई। रसोई पकाने वाला ब्राह्मण शराब पी कर गायब हो गया। महेंद्र ने आशा से कहा – ‘खूब मजा आया, आज हम लोगों ने खुद ही रसोई बनाई।’

गाड़ी से महेंद्र न्यू मार्केट गया। कौन-सी चीज कितनी चाहिए, इसका उसे कुछ भी पता न था, बहुत-सा सामान उठा कर खुशी-खुशी घर लौटा। उन चीजों का किया क्या जाए, यह आशा भी ठीक से न जानती थी। प्रयोग में ही दिन के दो-तीन बज गए और बहुत-से अजीबो-गरीब खाना तैयार करके महेंद्र को बड़ा मजा आया। लेकिन आशा महेंद्र के उस मजे में साथ न दे सकी। अपनी अज्ञता पर उसे मन-ही-मन बड़ी लज्जा और कुढ़न हुई।

कमरे की चीजें इस कदर बिखर गई थीं किज रूरत पर कुछ पाना ही कठिन था। महेंद्र की डॉक्टरी वाली छुरी एक दिन तरकारी काटने के काम आई और कूड़ों के ढेर में जा छिपी; जिस पर वह नोट लिखा करता था, वह कापी पंखे का काम करके अंत में रसोई की राख में आराम करने लगी।

इन अनहोनी घटनाओं से महेंद्र के कौतूहल की सीमा न रही, लेकिन आशा को इससे तकलीफ होने लगी। बे-तरतीबी के बहाव में सारी गृहस्थी को बहा कर हँसते हुए उसी के साथ बहते चलना उस बालिका को विभीषिका जैसा लगा।

एक दिन शाम को दोनों बरामदे में बैठे थे। सामने खुली छत। बारिश खुल जाने से कलकत्ता की दूर तक फैली इमारतों की चोटियाँ चाँदनी में नहा रही थीं। बगीचे से मौलसिरी के बहुत-से ओदे फूल ला कर आशा माथा झुकाए माला गूँथ रही थी। महेंद्र खींचातानी करके, रुकावट डाल कर, उल्टा-सीधा सुना कर नाहक ही झगड़ा करना चाह रहा था। बे-वजह इस तरह सताए जाने के कारण आशा उसे झिड़कना चाहती थी कि किसी बनावटी उपाय से उसका मुँह दबा कर महेंद्र उसकी कहन को अँकुराते ही कुचल रहा था।

किसी पड़ोसी के पिंजरे की कोयलिया कूक उठी। महेंद्र ने उसी दम अपने सिर पर झूलते हुए पिंजरे को देखा। अपनी कोयल पड़ोसी की कोयल की बोली चुपचाप कभी नहीं सह सकती- आज वह चुप क्यों है?

महेंद्र ने कहा – ‘तुम्हारी आवाज से लजा गई है।

उत्कंठित हो कर आशा ने कहा – ‘आज इसे हो क्या गया।’

आशा ने निहोरा करके कहा – ‘मजाक नहीं, देखो न, उसे क्या हुआ है?’

महेंद्र ने पिंजरे को उतारा। पिंजरे पर लिपटे हुए कपड़ों को हटाया। देखा, कोयल मरी पड़ी थी। अन्नपूर्णा के जाने के बाद खानसामा छुट्टी पर चला गया था। कोयल का किसी ने खयाल ही न किया था।

देखते-ही-देखते आशा का चेहरा फीका पड़ गया। उसकी अगुलियाँ चल न सकीं, फूल यों ही पड़े रह गए। चोट तो महेंद्र को भी लगी, लेकिन नाहक ही रस भंग होगा, इसलिए उसने इसे हँस कर टाल जाने की कोशिश की। बोला – ‘अच्छा ही हुआ। मैं इधर डॉक्टरी को निकलता और उधर यह कमबख्त ‘कू-कू’ करके तुम्हें जलाया करती थी।’

कह कर अपने बाहु-पाश में लपेट कर उसने आशा को अपने पास खींच लेना चाहा। अपने को धीरे-धीरे उसके बंधन से छुड़ा कर आशा ने आँचल से मौलसिरी के सब फूल गिरा दिए। बोली – ‘छि:-छि: अब देर क्यों? जल्दी जा कर माँ को ले आओ!’

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