चैप्टर 7 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Chapter 7 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
Chapter 7 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
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उरुबेला तीर्थ : वैशाली की नगरवधू
उन दिनों उरुबेला तीर्थ में निरंजना नदी के किनारे बहुत-से तपस्वी तप किया करते थे। नदी-किनारे दूर तक उनकी कुटियों के छप्पर दीख पड़ते थे, जिनमें अग्निहोत्र का धूम सदा उठा करता था। वे तपस्वी विविध सम्प्रदायों को मानते और अपने शिष्यों-सहित जत्थे बनाकर रहते थे। उनमें से अनेक नगर में भिक्षा मांगते, अपने आश्रमों में पशु पालते और श्रद्धालु जनों से प्रचुर दान पाकर खूब सम्पन्न हालत में रहते थे। बहुत-से बड़े-बड़े कठोर व्रत करते, कुछ कृच्छ्र चान्द्रायण करते, अर्थात् चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ ही एक-एक ग्रास भोजन घटाते-बढ़ाते थे। इस प्रकार वे अमावस को उपवास रखकर प्रतिपदा को एक, द्वितीया को दो, इसी प्रकार पूर्णिमा तक पन्द्रह ग्रास भोजन कर फिर क्रमशः कम करते थे। बहुत-से केवल दूध ही आहार करते, कितने ही एक पैर से खड़े होकर वृक्षों में लटककर, आकण्ठ जल में खड़े होकर, शूल शय्याओं पर पड़े रहकर विविध भांति से शरीर को कष्ट देते। बहुत-से शीत में, खुली हवा में, नंगे पड़े रहते और ग्रीष्म में पंचाग्नि तापते, बहुत-से महीनों समाधिस्थ रहते। कितने ही नंगे दिगम्बर रहते, कितने ही जटिल और कितने ही मुण्डित। नदी-तट में तनिक हटकर जो पर्वत शृंग हैं, उनमें बहुत-सी गुफाएं थीं। कुछ तपस्वी उन गुफाओं में एकान्त बन्द रहकर सप्ताहों और महीनों की समाधि लगाया करते थे। पर्वत-कन्दराओं में बहुत-से तपस्वी निरीह दिगम्बर वेश में पड़े रहते। वे भूख-प्यास, शीत-उष्ण, सब ईतियों और भीतियों से मुक्त थे। वे देह का सब त्याग चुके थे। बहुत से तपस्वी रात-भर हठपूर्वक जागरण करते थे। बहुत-से इनमें सर्वत्यागी थे। बहुत-से अवधूत नंग-धड़ंग निर्भय विचरण करते, बहुत-से कापालिक मुर्दों की खोपड़ी की मुण्डमाला गले में धारण कर पशु की ताज़ा रक्तचूती खाल अंग में लपेटे तन्त्र–वाक्यों का उच्चारण करते घूमते, श्मशान में रात्रिवास करते, विविध कुत्सित और वीभत्स क्रियाएं और चेष्टाएं करते। वे यह दावा करते थे कि उन्होंने इन्द्रियों की वासनाओं को जीत लिया है और वे सिद्ध पुरुष हैं। बहुत तान्त्रिक मारण-मोहन-उच्चाटन के अभिचार करते थे। उनसे लोग बहुत भय खाते थे। इन सब सन्तों में तीन जटिल बहुत प्रसिद्ध थे। वे जटाधारी होने से जटिल कहलाते थे। उनके शिष्य भी मुण्डन नहीं कराते थे। इनमें एक उरुबेल-काश्यप थे, जिनके अधीन 500 जटिल ब्रह्मचारी थे। दूसरे नदी-काश्यप तीन सौ जटिलों के और तीसरे गया-काश्यप दो सौ जटिलों के स्वामी थे। ये तीनों महाकाश्यप के नाम से प्रसिद्ध थे। इनके शास्त्रज्ञान, सिद्धि, तप और निष्ठा की बड़ी धूम थी। दूर-दूर के राजा और श्रीमन्त, सेट्ठीगण विविध स्वर्ण-रत्न-अन्न भेंट करके उनका प्रसाद ग्रहण करते थे। लोग उन्हें महाशक्तिसम्पन्न, महाचमत्कारी सिद्ध समझते थे और ये तीनों भी अपने को अर्हत् कहते थे। ये महाकाश्यप बहुधा बड़े-बड़े यज्ञ किया करते थे, जिनमें वत्स, मगध, कोसल और अंग निवासी श्रद्धापूर्वक अन्न, घृत, रत्न, कौशेय और मधु आदि लेकर आते थे। उस समय उरुबेला में पक्ष-पर्यन्त बड़ा भारी मेला लगा रहता था।
आज उसी उरुबेला तीर्थ को बुद्धगया के नाम से लोग जानते हैं, और वह निरंजना नदी फल्गु के नाम से पुकारी जाती है। अब वहां भारत भर के हिन्दू श्रद्धापूर्वक अपने पितरों को पिण्ड दान देते और बड़े-बड़े दान करते हैं। यहीं पर लोकविश्रुत बोधिवृक्ष और बुद्ध की अप्रतिम मूर्ति है। आज भी वहां के चारों ओर के वातावरण को देखकर कहा जा सकता है कि कभी अत्यन्त प्राचीनकाल में यह स्थान भारी तीर्थ रहा होगा।
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