चैप्टर 7 सेवासदन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद

Chapter 7 Sevasadan Novel By Munshi Premchand

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सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियाँ आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूँ, पर अब उसके उत्तर अपनी विपत्ति की कथाओं से भरे होते थे। मेरे जीवन के दिन रो-रोकर कट रहे हैं। मैंने आप लोगों का क्या बिगाड़ा था कि मुझे इस अंधे कुएं में धकेल दिया। यहाँ न रहने को घर है, न पहनने को वस्त्र, न खाने को अन्न। पशुओं की भांति रहती हूँ।

उसने अपनी पड़ोसिनों से मैके का बखान करना छोड़ दिया। कहां तो उनसे अपने पति की सराहना किया करती थी, कहां अब उसकी निंदा करने लगी। मेरा कोई पूछनेवाला नहीं है। घरवालों ने समझ लिया कि मर गई। घर में सब कुछ हैं; पर मेरे किस काम का? वह समझते होंगे, यहाँ मैं फूलों की सेज पर सो रही हूँ, और मेरे ऊपर जो बीत रही है, वह मैं ही जानती हूँ।

गजाधरप्रसाद के साथ उसका बर्ताव पहले से कहीं रूखा हो गया। वह उन्हीं को अपनी इस दशा का उत्तरदायी समझती थी। वह देर में सोकर उठती, कई दिन घर में झाड़ू नहीं देती। कभी-कभी गजाधर को बिना भोजन किए काम पर जाना पड़ता। उसकी समझ में न आता कि यह क्या मामला है, यह कायापलट क्यों हो गई है।

सुमन को अपना घर अच्छा न लगता। चित्त हर घड़ी उचटा रहता। दिन-दिन पड़ोसिनों के घर बैठी रहती।

एक दिन गजाधर आठ बजे लौटे, तो घर का दरवाजा बंद पाया। अंधेरा छाया हुआ था। सोचने लगे, रात को वह कहाँ गई है? अब यहाँ तक नौबत पहुँच गई? किवाड़ खटखटाने लगे कि कहीं पड़ोस में होगी, तो सुनकर चली आवेगी। मन में निश्चय कर लिया था कि आज उसकी खबर लूंगा। सुमन उस समय भोलीबाई के कोठे पर बैठी हुई बातें कर रही थी। भोली ने आज उसे बहुत आग्रह करके बुलाया था। सुमन इंकार कैसे करती? उसने अपने दरवाजे का खटखटाना सुना, तो घबराकर उठ खड़ी हुई और भागी हुई अपने घर आई। बातों में उसे मालूम ही न हुआ कि कितनी रात चली गई। उसने जल्दी से किवाड़ खोले, चटपट दिया जलाया और चूल्हे में आग जलाने लगी। उसका मन अपना अपराध स्वीकार कर रहा था। एकाएक गजाधर ने क्रुद्ध भाव से कहा– तुम इतनी रात तक वहाँ बैठी क्या कर रही थीं? क्या लाज-शर्म बिल्कुल घोलकर पी ली है?

सुमन ने दीन भाव से उत्तर दिया– उसने कई बार बुलाया तो चली गई। कपड़े उतारो, अभी खाना तैयार हुआ जाता है। आज तुम और दिनों से जल्दी आए हो।

गजाधर– खाना पीछे बनाना, मैं ऐसा भूखा नहीं हूँ। पहले यह बताओं कि तुम वहाँ मुझसे पूछे बिना गई क्यों? क्या तुमने मुझे बिल्कुल मिट्टी का लोंदा ही समझ लिया है?

सुमन– सारे दिन अकेले इस कुप्पी में बैठे भी तो नहीं रहा जाता।

गजाधर– तो इसलिए अब वेश्याओं से मेल-जोल करोगी? तुम्हें अपनी इज्जत आबरू का भी कुछ विचार है?

सुमन– क्यों, भोली के घर जाने में कोई हानि है? उसके घर तो बड़े-बड़े लोग आते हैं, मेरी क्या गिनती है।

गजाधर– बड़े-बड़े भले ही आवें, लेकिन तुम्हारा वहाँ जाना बड़ी लज्जा की बात है। मैं अपनी स्त्री को वेश्या से मेल-जोल करते नहीं देख सकता। तुम क्या जानती हो कि जो बड़े-बड़े लोग उसके घर आते हैं, वह कौन लोग हैं? केवल धन से कोई बड़ा थोड़े ही हो जाता है? धर्म का महत्त्व धन से कहीं बढ़कर है। तुम उस मौलूद के दिन जमाव देखकर धोखे में आ गई होगी, पर यह समझ लो कि उनमें से एक भी सज्जन पुरुष नहीं था। मेरे सेठजी लाख धनी हों, पर उन्हें मैं अपनी चौखट न लांघने दूंगा। यह लोग धन के घमंड में धर्म की परवाह नहीं करते। उनके आने से भोली पवित्र नहीं हो गई है। मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ कि आज से फिर कभी उधर मत जाना, नहीं तो अच्छा न होगा।

सुमन के मन में बात आ गई। ठीक ही है, मैं क्या जानती हूँ कि वह कौन लोग थे। धनी लोग तो वेश्याओं के दास हुआ ही करते हैं। यह बात रामभोली भी कह रही थी। मुझे बड़ा धोखा हो गया था।

सुमन को इस विचार से बड़ा संतोष हुआ। उसे विश्वास हो गया कि वे लोग प्रकृति के विषय-वासनावाले मनुष्य थे। उसे अपनी दशा अब उतनी दुखदायी न प्रतीत होती थी। उसे भोली से अपने को ऊँचा समझने के लिए एक आधार मिल गया था।

सुमन की धर्मनिष्ठा जागृत हो गई। वह भोली पर अपनी धार्मिकता का सिक्का जमाने के लिए नित्य गंगास्नान करने लगी। एक रामायण मंगवाई और कभी-कभी अपनी सहेलियों को उसकी कथायें सुनाती। कभी अपने-आप उच्च स्वर में पढ़ती। इससे उसकी आत्मा को तो शांति क्या होती, पर मन को बहुत संतोष होता था।

चैत का महीना था। रामनवमी के दिन सुमन कई सहेलियों के साथ एक बड़े मंदिर में जन्मोत्सव देखने गई। मंदिर खूब सजाया हुआ था। बिजली की बत्तियों से दिन का-सा प्रकाश हो रहा था, बड़ी भीड़ थी। मंदिर के आंगन में तिल धरने की भी जगह न थी। संगीत की मधुर ध्वनि आ रही थी।

सुमन ने खिड़की से आंगन में झांका, तो क्या देखती है कि वही पड़ोसिन भोली बैठी हुई गा रही है। सभा में एक-से-एक आदमी बैठे हुए थे, कोई वैष्णव तिलक लगाए, कोई भस्म रमाए, कोई गले में कंठी-माला डाले और राम-नाम की चादर ओढ़े, कोई गेरुए वस्त्र पहने। उनमें से कितनों ही को सुमन नित्य गंगास्नान करते देखती थी। वह उन्हें धर्मात्मा, विद्वान समझती थी। वही लोग यहाँ इस भांति तन्मय हो रहे थे, मानो स्वर्गलोक में पहुंच गए हैं। भोली जिसकी ओर कटाक्षपूर्ण नेत्रों से देखती थी, वह मुग्ध हो जाता था, मानो साक्षात् राधाकृष्ण के दर्शन हो गए।

इस दृश्य ने सुमन के हृदय पर वज्र का-सा आघात किया। उसका अभिमान चूर-चूर हो गया। वह आधार जिस पर वह पैर जमाए खड़ी थी, पैरों के नीचे से सरक गया। सुमन वहां एक क्षण भी न खड़ी रह सकी। भोली के सामने केवल धन ही सिर नहीं झुकाता, धर्म ही उसका कृपाकांक्षी है। धर्मात्मा लोग भी उसका आदर करते हैं वही वेश्या– जिसे मैं अपने धर्म-पाखंड से परास्त करना चाहती हूँ– यहाँ महात्माओं की सभा में, ठाकुरजी के पवित्र निवास-स्थान में आदर और सम्मान का पात्र बनी हुई है और मेरे लिए कहीं खड़े होने की जगह नहीं।

सुमन ने अपने घर में आकर रामायण बस्ते में बांधकर रख दी, गंगास्नान तथा व्रत से उसका मन फिर गया। कर्णधार-रहित नौका के समान उसका जीवन फिर डांवाडोल होने लगा।

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