चैप्टर 7 रेबेका उपन्यास डेफ्ने ड्यू मौरिएर | Chapter 7 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier

चैप्टर 7 रेबेका उपन्यास डेफ्ने ड्यू मौरिएर | Chapter 7 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier, Rebecca Upanyas, English Novel In Hindi 

Chapter 7 Rebecca Novel In Hindi

Chapter 7 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier

कल सुबह नाश्ते के समय जब मैं श्रीमती हार्पर के प्याले में कॉफी उड़ेल रही थी, उन्होंने मेरी और एक पत्र खेलते हुए कहा, “हेलन शनिवार को न्यूयॉर्क जा रही है। नैंसी को शायद अपेंडिसाइटिस हो गई है। हेलन के पास तार आया है कि वह फौरन घर चली आए। मैंने भी उसके साथ जाने का निश्चय किया है। अब मैं यूरोप से ऊब चुकी हूं। जाड़ा शुरू होते ही हम वापस जाएंगे। तुम्हें न्यूयॉर्क देखना कैसा लगेगा?”

यह विचार मुझे जेल जाने से भी बुरा मालूम दिया। निश्चय ही मेरी परेशानी मेरी आंखों पर उभर आई होगी, क्योंकि पहले तो श्रीमती हार्पर को कुछ आश्चर्य हुआ और फिर उन्हें क्रोध आ गया। वह बोली, ” कैसी अजीब लड़की हो तुम? अभी तक मैं तुम्हें ठीक से समझ ही नहीं पाई। क्या तुम इतना भी नहीं सोच पाती कि तुम जैसे गरीब लड़कियों को घर पहुंचकर कितना सुख मिलेगा। वहां लड़के ही लड़के होंगे और सभी तुम्हारे वर्ग के। उनसे तुम अपनी छोटी सी मित्र मंडली अलग बना सकती हो और वहां तुम्हें मेरे इशारों पर उतना नहीं नाचना पड़ेगा, जितना यहां। मैं तो समझती थी तुम्हें मोंटी कार्लो पसंद नहीं है।”

“यहां कि तुम्हें आदी हो गई हूं।” अपने विचारों से संघर्ष करते हुए मैंने हकलाकर कहा।

“ठीक है! तो इसी तरह तुम न्यूयॉर्क की भी आदी हो जाओगी। जिस जहाज से हेलेन जा रही है, उसी को हमें पकड़ना है। इसलिए सफर का इंतजाम फौरन करना होगा। तुम होटल के दफ्तर में चले जाओ और क्लर्क से जरा जल्दी जल्दी काम करने को कहो। सारे दिन के लिए तुम्हारे पास इतना काम है कि मोंटी कार्लो छोड़ने का रंज महसूस भी नहीं कर सकोगी। यह कहकर वह हंसी और सिगरेट के टोंटे को मक्खन के बर्तन में मसल कर अपने मित्रों को फोन करने चली गई।

मैं सीधी दफ्तर में नहीं जा सकती। गुसल खाने में जाकर मैंने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और दोनों हाथों में मुंह ढांप कर मैं चटाई पर बैठ गई। आखिर जाने का दिन आ ही गया। मैं सोचने लगी – कल शाम को मैं श्रीमती हार्पर के आभूषणों का डब्बा और लोई लिए हुए एक दासी की तरह ट्रेन में सफर कर रही होंगी। गाड़ी का हर झटका मुझे श्री द विंतर से दूर ले जा रहा होगा और वह होंगे कि बिना इन सब बातों की परवाह किए रेस्तरां में अकेले उस जनी पहचानी मेज़ पर निश्चिंत भाव से बैठे कोई किताब पढ़ रहे होंगे।

जाने से पहले मुझे उनसे विदा ले लेनी चाहिए, मैंने अपने मन में सोचा। मैं जानती थी कि श्रीमती हार्पर के कारण ये विदाई भी बड़ी जल्दी जल्दी और घबराहट में लेनी होगी। कुछ मुस्कुराहट और थोड़ी से शब्दों का आदान-प्रदान होगा। वह कहेंगे, “देखो पत्र जरूर लिखना” और मैं कहूंगी, “आपकी कृपा के लिए मैं कभी उऋण नहीं हो सकती।” वह कहेंगे, “अच्छा तुम्हारा पता क्या होगा?” और मैं कहूंगी, “यह तो मैं बाद में पूछकर लिखूंगी।” फिर सहसा वह सिगरेट जलाने के लिए पास से जाते हुए बैठे से माचिस मांगेंगे और तब भी मैं यही सोच रही होंगी, ” मेरे जाने में सिर्फ साढ़े चार मिनट रह गए हैं, इसके बाद से मैं फिर कभी नहीं देख पाऊंगी।”

गुसल खाने की चटाई पर बैठी बैठी में इन्हीं विचारों में लीन थी कि श्रीमती हार्पर ने आकर दरवाज़ा खटखटाया, ” तुम क्या कर रही हो?”

“कुछ नहीं, मैं अभी आती हूं।” मैंने नल खोलने और जल्दी-जल्दी तौलिए को तह करके खूंटी पर रखने का बहाना करते हुए कहा।

और जब मैंने दरवाजा खोला था, तब उन्होंने मुझे घूर कर देखा फिर कड़क कर कहा कितनी देर लगा दी तुमने? आज भी क्या सपने देखने का समय है तुम्हारे पास? इतना काम करने को पड़ा है।”

अपनी बीमारी के बाद श्रीमती हार्पर उस दिन पहली बार रेस्तरां में खाना खाने गई और जब मैं उनके साथ कमरे में पहुंची तब मेरी टुंडी के नीचे दर्द सा हो रहा था। श्री द विंतर बाहर गए हैं, यह तो मुझे मालूम था। लेकिन डर लग रहा था कि कहीं बैरा यह न पूछ बैठे कि क्या रोज की तरह आज भी आप मिस्टर द विंतर के साथ खाएंगी। इसलिए जब कभी बैरा मेरी मेज़ के पास आता, तभी मुझे अजीब परेशानी सी होने लगती। लेकिन उसने कुछ भी नहीं कहा।

असबाब बांधने में सारा दिन निकल गया और संध्या समय लोग बाग हमें विदाई देने आए। खाने के बाद श्रीमती हार्पर सोने चली गई। आज मैं अभी तक द विंतर से नहीं मिल पाई थी। साढ़े नौ बजे के करीब मैं असबाब पर लगाने के लिए चिट लेने के बहाने आराम करने वाले कमरे में गई, लेकिन वह वहां नहीं मिले। क्लर्क ने मुस्कुरा कर कहा, ” आप श्री द विंतर को तो नहीं ढूंढ रही हैं। उनका संदेश आया है कि वह आधी रात से पहले नहीं लौट सकेंगे।”

मैंने जैसे सुना ही नहीं और कहा, ” मुझे असबाब पर लगाने के लिए चिटों की जरूरत है। लेकिन उसके देखने के ढंग से मैं समझ गई कि वह मेरे झांसे में नहीं आया है।

तो आज की अंतिम संध्या मैं उनके साथ नहीं बिता पाऊंगी। जिस घड़ी की प्रतीक्षा में मैंने दिन का एक-एक पल गिन कर काटा है, वह मुझे अकेले ही अपने सोने के कमरे में पड़े पड़े बितानी पड़ेगी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस रात में खूब रोई थी। ऐसे आंसू आज नहीं निकल सकते। इक्कीस वर्ष से बड़ी हो जाने के बाद कहीं लड़कियां इस तरह तकिए में मुंह छुपाकर रो सकती है। सहसा मोंटी कार्लो में मुझे चारों ओर आकर्षण ही आकर्षक दिखाई देने लगा था। मुझे ऐसा लगने लगा था, मानो सारी दुनिया में यही एक जगह है, जहां सच्चाई और आदमी का का वास है। मैं उसे प्यार करने लगी थी। मेरे मन में उसके लिए ममता उमड़ आई थी। मैं वहां अपना सारा जीवन बिता देना चाहती थी। लेकिन आज मौसी को छोड़ रही थी।

सुबह नाश्ते के समय श्रीमती हार्पर ने मुझसे पूछा, ” तुम्हें जुकाम हो गया है क्या?”

“नहीं तो!” मैंने उत्तर दिया।

“सामान बंध जाने के बाद मुझे रुकना बुरा लगता है।” वह बोली, ” हमें पहले ही वाली गाड़ी से जाने का निश्चय कर लेना चाहिए था। इससे पेरिस में हमें अधिक समय मिल जाता। मैं समझती हूं कि..” क्षण भर को रुककर उन्होंने अपनी घड़ी पर दृष्टि डाली और फिर कहा, ” मैं समझती हूं कि टिकट अब भी बदले जा सकते हैं। जो हो, चेष्टा तो करनी ही चाहिए। दफ्तर में जाकर मालूम तो करो।”

“अच्छी बात है!” मैंने उनकी हां में हां मिलाई और सोने के कमरे में जाकर कपड़े बदलने लगी। श्रीमती हार्पर के प्रति मेरी उपेक्षा की भावना ने घृणा का रूप ले लिया था, क्योंकि वह प्रातः काल का समय भी मुझसे छीने ले रही थी। मुझे श्री विंतर से विदा लेने के लिए दस मिनट भी नहीं मिल पा रहे थे और यह सब केवल इसलिए कि श्रीमती हार्पर ने नाश्ता आशा से पहले ही कर लिया था और अब वह बैठी बैठी उकता रही थी।

तो फिर मुझे अपना संतोष छोड़ना ही पड़ेगा, अपने अभिमान त्यागना ही होगा – मैंने सोचा और बैठक का दरवाजा बंद कर मैं भाग कर गैलरी को पार कर गई। मैंने लिफ्ट की भी प्रतीक्षा नहीं की और एक एक साथ तीन तीन सीढ़ियां लांघती हुई तीसरी मंजिल पर जा पहुंची। मुझे उनके कमरे का नंबर याद था – 148। वहां पहुंचकर मैंने हांफते हुए जोर से दरवाजा खटखटाया।

“अंदर आ जाओ।” उन्होंने ऊंचे स्वर ने कहा। दरवाजा खोलते हुए मुझे कुछ घबराहट सी हुई, क्योंकि मुझे महसूस होने लगा था कि इस समय आने में मैंने भूल की है। मैंने सोचा कि रात को देर से सोने के कारण उनकी आंखें भी अभी खुली होगी और सिर भारी होने के कारण शायद वह अभी बिस्तर में पड़े होंगे। लेकिन जब मैं भीतर पहुंची, तब वह खिड़की के पास हजामत बना रहे थे। पजामे के ऊपर उन्होंने भूरे रंग की बालदार जाकर पहन रखी थी। अमेठी की फलालैन का सूट और भारी जूते डाले हुए थी। निश्चय ही उस समय मैं बड़ी भद्दी लग रही होंगी।

“कहो कैसे आई? कोई खास बात है क्या?” उन्होंने पूछा।

“मैं आपसे विदा लेने आई हूं। हम अभी सुबह ही जा रहे हैं।”

उन्होंने मुझे घूरकर देखा और अपना उस्तरा वाश स्टैंड पर रखते हुए कहा, ” दरवाजा बंद कर दो।”

मैंने पीछे से दरवाजा बंद कर लिया और कुछ खोई खोई सी मैं दोनों हाथ लटकाए खड़ी रही।

“तुम क्या कर रही हो?” उन्होंने पूछा।

“मैं ठीक कर रही हूं। हम आज ही जा रहे हैं। पहले हम बाद वाली गाड़ी से जाने वाले थे, लेकिन अब श्रीमती हार्पर पहले वाली गाड़ी पकड़ना चाहती हैं। मुझे डर लग रहा था कि कहीं ऐसा ना हो कि आप से मिल ही ना पाऊं। इसलिए मैंने सोचा कि जाने से पहले आपसे मिलकर आपको धन्यवाद तो दे आऊं।”

“लेकिन इस बारे में तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?” उन्होंने पूछा।

“उन्होंने कल ही तो जाने की तय की हैm उनकी लड़की शनिचर को न्यूयॉर्क जा रही है और हम उसके साथ जा रहे हैं।”

“वह तुम्हें अपने साथ न्यूयॉर्क के लिए जा रही है?”

“हां पर मैं जाना नहीं चाहती। मुझे उस जगह से नफरत है। मैं वहां बड़ी दुखी रहूंगी।”

“फिर तुम उनके साथ जा क्यों हो रही हो?”

“आपको तो मालूम ही है कि मुझे जाना पड़ेगा। मैं उसे तनख्वाह पाती हूं। मैं भी छोड़ कैसे सकती हूं।”

उन्होंने अपना उस्तरा उठाकर पहले मुंह पर का साबुन साफ किया।

“जरा बैठो, मुझे देर नहीं लगेगी। मैं गुसल खाने में कपड़े बदलकर अभी पांच मिनट में तैयार होकर आता हूं।”

उन्होंने अपने कपड़े कुर्सी पर से उठाए और अंदर जाकर गुसल खाने का दरवाजा बंद कर दिया। मैं पलंग पर बैठी हुई अपने नाखून दांतों से काटती रही। उस समय कि मेरी स्थिति बिल्कुल सपने जैसी थी और मैं समझ नहीं पा रही थी कि उनके मन में क्या विचार उठ रहे हैं और वह क्या करना चाहते हैं मैं कमरे में चारों ओर नजर डाली। कमरा एकदम अस्त-व्यस्त पड़ा था कहीं जूतों का ढेर लगा हुआ था, कहीं डोरी पर टाई लटक रही थी। श्रृंगार मेज़ पर केवल शैंपू की शीशी और दो हाथी दांत के ब्रश रखे थे। न वहां कोई चित्र था, न किसी का फोटो। मैंने सोचा था कि कम से कम एक फोटो अवश्य ही वहां किसी कार्निस पर या उनके बिस्तर के पास वाली मेज़ पर रखा होगा – एक बड़ा सा फोटो चमड़े के फ्रेम में जड़ा हुआ। लेकिन वहां या तो थोड़ी बहुत किताबें पड़ी थी या फिर सिगरेट का एक बॉक्स।

वह सचमुच ही 5 मिनट में तैयार होकर आ गए।

“तुम मेरे साथ नीचे चलो। मैं जरा नाश्ता कर लूं।” उन्होंने कहा।

“लेकिन मेरे पास समय नहीं है। मुझे अभी-अभी दफ्तर में जाकर सीटें रिजर्व करानी है।” अपनी घड़ी की ओर देखकर मैंने कहा।

“उसकी चिंता मत करो। मुझे तुमसे कुछ बातें करनी है।”

हम गैलरी में साथ-साथ गए और उन्होंने लिफ्ट के लिए एक घंटी बजाई। पता नहीं, वह यह समझ क्यों नहीं रहे थे कि पहली वाली गाड़ी के जाने में सिर्फ डेढ़ घंटा रह गया था। अभी-अभी श्रीमती हार्पर दफ्तर में फोन करके पूछने ही वाली होंगी कि मैं वहां हूं या नहीं।

हम बिना कुछ बोले लिफ्ट से नीचे उतरकर बरामदे में पहुंच गए, जहां नाश्ते के लिए मेजें लगी हुई थीं।

“तुम क्या खाओगी?” उन्होंने पूछा।

“मैं तू खा चुकी हूं और अब तीन चार मिनट से ज्यादा नहीं ठहर सकती।”

“मेरे लिए कॉफी, उबला हुआ अंडा, टोस्ट, मार्मलेड और एक टैंगरीन ले आओ।” उन्होंने बैरे से कहा।

“तो श्रीमती हार्पर मोंटी कार्लो से उकता गई हैं और घर वापस जाना चाहती हैं। मैं भी उकता गया हूं। वह न्यूयॉर्क जा रही हैं और मैं मैंदरले। तुम कहां जाना पसंद करोगी, न्यूयॉर्क या मैंदरले?”

“ऐसी बातों में मजाक अच्छा नहीं लगता। अब मैं टिकटों बारे में पूछताछ करने जा रही हूं और आपसे विदा लेती हूं।”

“अगर तुम समझती हो कि मुझे जैसा आदमी नाश्ते के समय मजाक करेगा, तो यह तुम्हारी भूल है। सुबह-सुबह तो मेरा स्वभाव बड़ा चिड़चिड़ा रहता है। मैं तुमसे फिर कहता हूं यह बिल्कुल तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है कि तुम मिसेज हार्पर के साथ अमेरिका जाओ या मेरे साथ मेरे घर मैंदरले।”

“आप का मतलब यह है कि आपको किसी सेक्रेटरी वेक्रेटरी…!”

“कितने बुद्धू हो तुम। अरे मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।”

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