चैप्टर 7 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 7 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 7 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 7 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 7 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 7 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

प्रभावती दूर बहकर लगी। जब किनारे आई, तब दोनों नावें एक साथ बँध चुकी थी। राजकुमार उठाकर ले जाए गए थे। यमुना का कोई निशान न था। दासियाँ दूसरी नाव पर थीं। देखकर शंका बढ़ी; किनारे-किनारे, कुछ पीछे रहकर चलने लगी। वस्त्र निचोड़ लिया था, देह के ताप से वह सूख चला था। ठंडक कुछ थी-नहा जाने पर अधिक हो गई, पर हृदय और मस्तिष्क में इतनी गरमी थी और स्थिति इतनी अस्वाभाविक कि जाड़े का स्वाभाविक बोध न रहा।

प्रभावती की इच्छा कुमार को छोड़ने की न थी, पर पिता की कल्पना कर वह विचलित हो गई। पिता के प्रति यदि पुत्री की दृष्टि वह अन्त तक न रख सके, तो अनर्थ होगा। पुनः पिता ऐसे पिता नहीं जो अपने राज्यार्थ को पुत्री के स्नेह-स्वार्थ के मुकाबले कमजोर होने देंगे; यदि बलवन्त ऐसी विवाहित अवस्था में भी, कुमार देव को नीचा दिखाने के अभिप्राय से, उसे स्वीकार करना मंजूर करेगा, और यदि पिता इस विवाह को विवाह करार न देकर उसको सम्प्रदान करना चाहेंगे तो उस अवस्था में आत्महत्या या वीर नारी की तरह सती होना ही पथ होगा; पुनः बाहर बचने-बचाने की जितनी आशा है, उतनी बँध जाने पर नहीं; ऐसे अनेक प्रकार से युक्ति, भय और दबाव के कारण वह कुमार को छोड़कर कूदी थी। अब चलती हुई सोच रही थी कि अगर कहीं रह गई होती, तो कुमार के साथ दुःख में भी रहने का सुख प्राप्त हुआ होता। फिर बिगड़कर बदले के लिए तुलकर सोचने लगी। बलवन्त का बहुत शीघ्र युद्ध के लिए आह्वान कर सकी, तो सारी शिक्षा व्यर्थ है; जिस तरह इसने दल-बल के साथ एकमात्र का अपमान किया है, इस तरह की कायरता से नहीं-बराबर की लड़ाई लड़कर ऐसी उधेड़बुन में चली आ रही थी। काफी दूर चली आई। नाव, कुमार, यमुना और बलवन्त की बातों में भूली थी-पैर आप उठते जा रहे थे; ऐसे समय यमुना सामने से आती हुई देख पड़ी। किनारे से प्रभा को आते हुए यमुना ने देख लिया था जब वह खुद किनारे लग रही थी, और प्रभा के लिए उसे परिश्रम न करना पड़ा, इससे आश्वस्त भी हुई थी।

यमुना ही इतनी देर तक मनःशक्ति से जल में रह सकी। किनारे चढ़कर कपड़े निचोड़े। अंग जकड़े जा रहे थे। धैर्य से बढ़ती गई। कुछ चलकर दौड़ने लगी।

आगे प्रभा मिली। “कुमार!” करुण स्वर से पूछकर लिपट गई।

“संयत होओ!” ‘तुम’ से प्रभा के प्राणों को यह पहली प्रिय सहानुभूति मिली। इससे उसके बड़प्पनवाला भाव दूर हो गया। राजकुमारी प्रेम के पथ पर उतना ही अधिकार रखती है जितना एक साधारण युवती, इस सम्बोधन की सहृदयता ने उसे समझा दिया और इस ज्ञान से उसकी गति विश्व की सभी गलियों में फैल गई, उसने यमुना की सहानुभूति में जो विस्तार देखा, वहाँ सबकुछ था- राजकुमार थे, यमुना थी और था छाँह में प्रेम का मधुर आलाप। केवल बड़प्पन था, और जैसे इस अकृत्रिम सुख का कारण यही हुआ। प्रभा ने पलकें मूँद लीं।

यमुना बोली, “आगे सब बातें कहूँगी; सखी, जो कुछ हुआ, वह बड़ी चिन्ता का विषय नहीं। अभी हमें कुछ स्वस्थ हो लेना है। यहाँ से जल्द निकल चलना है, कल यहाँ बहुत गहरी खोज हो सकती है। चलो, कछार के पार बस्ती की ओर चलें।”

दोनों कछार पार करने लगीं।

“अब क्या होना चाहिए?”प्रभा ने पूछा।

“तुम्हारे पास अभी कुछ गहने हैं?”

“हाँ, जल्दी में सब नहीं उतार सकी, इन्हें फेंक दूँ?”

“नहीं, इनका होना अच्छा हुआ, हमें खर्च की जरूरत पड़ेगी। अब इधर का रास्ता तो बन्द ही है। दूसरी जगह से काम होगा। हाँ, आओ, गहने उतारकर साड़ी के एक छोर में, फाड़कर, बाँध लूँ, आवश्यक चीजें खरीदनी होंगी और ठिकाने तक पहुँचने का प्रबन्ध करना है।”

“कहाँ चलेंगे?”

“कान्यकुब्ज।”

प्रभा गहने उतारने चली। हारों का कवच उतार डाला था, पर कंठी बँधी रह गई थी। ऐसे ही बाहों में, नाक-कान और हाथों में गहने रह गए थे। यमुना एक-एक कर उतारने लगी। नाक का हीरा रहने दिया। कहा, “फिर जरूरत पर उतार डालना।”

“अब तो जी सँभल गया होगा; वहाँ क्या हाल रहा-राजकुमार कहाँ हैं?”

दोनों चलती जा रही हैं। प्रभा आग्रह से भरी हुई। यमुना ने एक गहरी साँस ली।

“नहीं, इस ओर से जाना ठीक नहीं। तुम्हारी साड़ी बहुत भड़कीली है। लोगों को शंका होगी। कल खोज हुई, तो पकड़े जाने की सम्भावना है। फिर इधर साधारण गाँव है। सवारियाँ मिलें, न मिलें। यहाँ हीरे भी कैसे बिकेंगे? थोड़ा-बाड़ा खर्च, मंजिल-दो मंजिल का रथ-रब्बे का किराया कैसे दिया जाएगा? हमें उतरकर किनारे से चलना चाहिए। आगे कोस-भर में नाव-घाट होगा। ज्यादा किराए पर नाव करके प्रयाग चलें। रास्ते में एक हीरा बेच लेंगे।”

यमुना लौट पड़ी प्रभावती के साथ-साथ यन्त्र की तरह, “तू मेरी बात का जवाब नहीं देती।” स्नेह की रुखाई से पूछा।

“देखो, सवेरा होता है। अब ये बातें न करो। कुमार के लिए चिन्ता न करो। कह दिया, वे बन्दी कर लिए गए हैं। हमारा काम है, उन्हें जहाँ तक जल्द हो, छुड़ावें।”

कुछ देर प्रभावती मौन रही। फिर कहा, “यमुना! आज तुझे ऐसा देखा कि जितना समझा था, सब बदल गया। पहले तू ऐसा न बोलती थी!”

“तुम्हारी शिक्षा इतनी नहीं हुई कि तुम मुझे पहचान सकतीं। तुम बड़े घर की थीं, पर छोटे ही घरों के लोगों ने तुम्हें कुछ सिखाया है। जिन्हें बदले में अर्थ देकर अपने को तुमने बड़ा समझा, मन-ही-मन उन्हें दबाया, में वैसी ही छोटी हूँ, पर तुमसे अधिक पढ़ी हूँ और अधिक शक्ति रखती हूँ, यही तुम्हें समझना था, मैंने आज समझा भी दिया; तुम्हारी शिक्षा को मुझे पूरा करना है, जैसे कहूँ, करती चलो; मुझे तुम प्राणों से प्रिय पहली सखी मिलीं। जिन देवी यमुना को तुम प्यार करती हो, उन्हें में भी करती हूँ। तुमने उन्हें नहीं देखा, मैंने देखा है। हमारे लिए उनकी शिक्षा बड़ी गहन है। मैं तुम्हें बताती रहूँगी। फिलहाल चुप रहो।”

प्रभा पैरों से लिपट गई, “सखी, मुझे क्षमा करो। मेरा इससे बड़ा उपकार कौन करेगी? मेरे लिए तो तुम्हीं यमुना देवी हो। मैं छोटों से घृणा नहीं करती। क्षमा करो, स्वाभाववश जो कुछ कहा हो।”

यमुना ने प्रभावती को उठा लिया। कहने लगी, “हमारी जाति, धर्म और देश की रक्षा की जो समस्या पुरुषों के सामने है, वही हमारे सामने भी है। आज क्षत्रिय अपने दर्प से आप चूर्ण हो रहे हैं। बार-बार बाहरी घात होते जा रहे हैं, पर उन्हें सँभालकर उलटा जवाब वे नहीं दे सकते। महाराज पृथ्वीराज अवश्य इस प्रतिरोध-वीरता के लिए सक्षम हैं, पर वे भी राजनीति विशारद नहीं। मेरे गुरुदेव उनका समर्थन नहीं करते। उनमें बहुत बड़ी रुक्षता है। वीर कैमास को मारकर उन्होंने बड़ी ही घृण्य कृत्य किया है। वीर-वरेण्य सिर्सा सरदार मलखान को घेरकर अनुचित रीति से उन्होंने मारा। महोबे के ऊदल और ब्रह्मानन्द आदि वीर उनके इसी अनौचित्य को न सह सकने के कारण, अल्पसंख्या में बड़ी शक्ति का विरोध करके भी, विजय पाते हुए, डरपोक परमाल के भाग जाने से भगी सेना से निस्सहाय होकर मारे गए। यदि पृथ्वी चाहते, तो इन वीरों से स्नेह-सम्बन्ध जोड़ सकते थे। पर सम्पूर्ण दोष उनका भी नहीं। कान्यकुब्ज से पृथ्वी और भीमदेव का बड़ा जटिल सम्बन्ध हो गया है। महोबा कान्यकुब्ज का करद-मित्र था। क्षत्रियों में स्पर्धा से दबाने का जो भाव बढ़ा हुआ है, यह उन्हें ही दबाकर नष्ट कर देगा; यह प्राकृतिक सत्य है; मेरे गुरुदेव कहते थे, मुझे भी वह सत्य जान पड़ता है। वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा में बौद्धों पर विजय पानेवाले क्षत्रिय कदापि इस धर्म की रक्षा न कर सकेंगे; क्योंकि साधारण जातियाँ इनके तथा ब्राह्मणों के घृणाभावों से पीड़ित हैं। ये आपस में कटकर क्षीण हो जाएँगे। तब जो शक्ति बढ़ी हुई देख पड़ती है, वह विजय प्राप्त करेगी। हमारे यहाँ मुसलमानों के अनेक हमले हो चुके हैं। वे विजयी भी हुए हैं। उनका हौसला बढ़ गया है। आश्चर्य नहीं, हिन्दू संस्कृति पर मुसलमानों की विजय हो। उनमें हमसे अधिक एकता है। फिर हमारे लिए कौन-सा धर्म रह जाता है? क्या हम चुपचाप अपने ऐसे पुरुषों का अनुकरण करती रहें? मैं ऐसा नहीं समझती, यह ठीक है कि हमारी न चलेगी; पर तो भी हमें अपने लिए सचेत होना है। सती-धर्म स्त्री को पवित्र करता है। जिससे प्राणि-मात्र प्रीत हो, गुरुदेव कहते हैं, वह सती ब्राह्मण है; जिससे समस्त जाति प्रीत हो, शक्ति पाये, वह क्षत्राणी। हमें प्रजा की सेवा के लिए अपना सर्वस्व दे देना होगा-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और स्थूल शरीर से, इस क्षात्र ईर्ष्या में अमृत सींचकर प्रजा की प्रीति लेनी है, उन्हें जीवन देकर आदर्श सिखलाना है, फिर ईर्ष्यादग्ध या वीर-गति प्राप्त पति की चिता में जलकर पति-ब्रह्म में लीन होना, इस एक उद्देश्य के अनेक कार्य हैं। कुछ सीखकर तुम्हें जीवन में परिणत करना तो है।”

हृदय में एक प्रकार बल पाती हुई प्रभा साश्चर्य यमुना को देखती विचार करती चली। धूप फैलने लगी। कुछ दूर पर नाव-घाट देख पड़ने लगा।

क्रमश: 

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