चैप्टर 7 नारी सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 7 Nari Siyaramsharan Gupt Novel
Chapter 7 Nari Siyaramsharan Gupt Novel
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दो-तीन दिन बाद जमना अपनी पौर में दरवाजे की ओर पीठ किये कुछ काम कर रही थी। किसी की आहट से चौंककर उसने देखा – अजीत है। माथे पर धोती का किनारा कुछ आगे खींचती हुई वह सँभलकर खड़ी हो गई।
अजीत ने पूछा- क्या हो रहा है? जमना ने कुछ उत्तर नहीं दिया। अजीत को भी उसकी कुछ बहुत आवश्यकता दिखाई न दी।
पौर में दरवाजे तक आधे हिस्से में एक चबूतरा है, जिसकी एक भुजा पताका की डंडी की तरह दरवाजे के सामने तक फैली है। दरवाजे से भीतर जाते हुए दाँयें ओर चबूतरे में एक आला है, इसमें किसी समय तमाखू का सामान और उसके नीचे ही आग की अँगीठी रहा करती होगी। इस स्थान ने निरन्तर लिप-पुत कर पहले की इस स्मृति का चिह्न तक अपनी छाती पर से दूर कर दिया है। उस आले के पास ही नीचे पैर लटकाकर अजीत चबूतरे पर बैठ गया ।
वह बोला- मैं बाहर गया हुआ था, आज ही लौटा हूँ । सुना हल्ली ने कुछ रुपये खो दिये, यह तो बहुत बुरी बात है। कैसे खोये, क्या बात हुई?
जिस तिसको कैफियत देते-देते जमना सँग आ गई थी। फिर भी शान्तिपूर्वक उसने कहा-लड़का है, जानें क्या हुआ ?
“वह लड़का है, पर लड़कपन इसमें तुम्हारा है। ऐसे बच्चों के हाथ में रुपये कहीं दिये जाते हैं?” – अजीत ने कहा ।
जमना हँस दी। मीठी झिड़की देकर अजीत फिर कहने लगा- तुम हँसती हो, यह और बुरी बात है। यह लड़कपन नहीं है तो क्या है, तुम्हीं बताओ। भूल तुमने की और मार खाई हल्ली ने। कहीं ऐसा होता है! मैं होता तो लड़के को न पीटकर तुम्हारी खबर लेता। हम लोग कहीं के राजा – नब्बाब नहीं हैं, जो इस तरह लड़कों के हाथ रुपये बरबाद कराते फिरें ।
जमना गंभीर हो गई। यह जिस अधिकार के स्वर में बात कर रहा है वह उसे अप्रिय जान पड़ा। पर इन बातों में उसे कुछ ऐसा पकड़ाई न दिया जिसे लेकर वह अपनी अप्रसन्नता कर सके। जैसे किसी पहाड़ी सरोवर को दूर से देखकर पहले उसे उसके मलिन और दूषित होने का भान हुआ, किन्तु अञ्जलि भरकर देखने पर फिर उसने सन्तोष कर लिया हो। वह चुप रह गई ।
अजीत ने प्रसङ्ग बदलकर कहा- कैसा साफ-सुथरा घर है ! इतनी सफाई तो बाम्हन ठाकुरों के यहाँ भी नहीं देखी। आदमी जब निठल्ला होता है, तब करे क्या । गोबर से घर लीप-पोतकर ही समय काटे । यहाँ आकर ऐसा लगता है, जैसे दिवाली आने वाली हो। पर कुछ हो, इतना बड़ा घर अकेले भूतखाने जैसा लगता होगा। लगता है ना?
जिस घर में हल्ली रहता है उसे यह भूतखाना सोचता है! जमना ने बहुत चाहा फिर भी अपने को रोक न सकी। बोल उठी- यही भूतखाने की सराप देने आये थे ?
जमना का मुख क्रोध से तमतमा उठा; किसी ने जैसे सोने को आग से तरल कर दिया हो ।
सोना गरम हो या ठंडा रहता सोना ही है। अथवा यह भी कह सकते हैं कि तरल होकर सोने की विशुद्धता ही बढ़ती है। इसी से जमना के क्रोध का अजीत पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा। शान्त भाव से उसने कहा—जमना, सराप की बात नहीं है। मुझे अपने भूतखाने की याद आ गई थी।
अहेरी निशाना मार चुकने के बाद ही बहुधा जान जाता है कि उसकी गोली बहक गई या ठीक ठिकाने जाकर लगी। जमना ने अजीत की ओर देखा नहीं, फिर भी उसने जान लिया कि अजीत पर उसके क्रोध ने चोट नहीं की। कहीं के किसी निर्दोष प्राणी को बाल-बाल बचाती हुई गोली के निकल जाने से जो अनुताप मिश्रित हर्ष गोली चलाने वाले को होता है, वही जमना को हुआ ।
अजीत के लिए जमना के मन में उस दिन खेत से लौटते हुए आदर – भाव आ गया था। कितनी ही बार वह उसकी एक बात – “आनन्द इसमें भी है !” – मन्त्र की तरह जप चुकी थी। उसमें और कुछ अच्छा है या नहीं; यह देखना अब वह नहीं चाहती। खान की मिट्टी में से सोना निकलता है, इसलिए सोने को मिट्टी कहकर वह कैसे फेंक दे ? अजीत स्वयं खरा न हो, पर उसका दिया मन्त्र खरा है। इसी से क्रोध में वैसी बात उसके लिए निकल जाने से जमना तुरन्त अपने आप लज्जित हो उठी थी। उसकी यह लज्जा उस समय और बढ़ गई जब स्वयं अपने घर के लिए अजीत ने भूतखाना कह दिया।
कुछ ठहरकर अजीत ने पूछा- उस दिन जैसा बुरा सपना फिर तो नहीं दिखाई दिया?
जमना ने जो सपना देखा था, उसे अपने मन में ही रखना चाहती थी। परन्तु इस समय उसकी चर्चा छिड़ जाने से भी उसे अच्छा लगा । वह बोली- नहीं दिखाई दिया।
अजीत ने गम्भीर होकर दुःखित के से भाव से कहा- यह अच्छाई का लच्छन नहीं है। सपना झूठा होता है तो उसी से मिलते-जुलते तीन सपने एक महीने के भीतर और दिखाई पड़ते हैं। दिखाई न पड़ें तो पहले वाला सच होता है। जो झूठा हो वही अपनी बात बार-बार दुहराता है। सच की एक को छोड़ दूसरी बात नहीं होती।
उस स्वप्न की सचाई के बारे में जमना को भी कुछ-कुछ विश्वास- सा था । उसे चिन्तित देखकर अजीत ने कहा- जमना, इसके लिए तुम डरो मत। गुरूजी की कृपा से सपने का बुरा फल बदला जा सकता है। वह मैं सब ठीक कर दूँगा। पर इस समय मैं एक दूसरे बहुत जरूरी काम से आया था।
सुनने के लिए उत्सुक होकर जमना चुपचाप खड़ी रही। अजीत भी चुपचाप कुछ सोचने लगा। इसी बीच में नीचे के ताक से कुछ आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा। उतर कर दोनों हाथ धरती पर टेकते हुए ध्यान से उसने ताक के भीतर कुछ देखा और तुरन्त बोल उठा – अरे इसमें नाग है !
जमना एकाकए घबरा गई। कहने लगी- अरी मैया री, यह कहाँ से आ गया ! इस ताक में हल्ली के खेलने का काठ कवाड़ रहता है। ऐसे में कहीं इसमें वह हाथ डाल देता तो क्या होता?
थोड़ी देर बाद मुहल्ले के तमाम लोगों के सामने अजीत ने उस काले साँप को मारे बिना जिस होशयारी से पकड़कर मिट्टी के घड़े में बन्द कर लिया, उसे देखकर जमना वैसी ही रह गई। इस गड़बड़ी में वह यह भूल गई कि अजीत इस समय किसी दूसरे आवश्यक कार्य से आया था।
क्रमश:
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