चैप्टर 7 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास, Chapter 7 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Chapter 7 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas
Chapter 7 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu
प्यारू को सबों ने चारों ओर से घेर लिया। डागडर साहेब का नौकर है। डागडर साहेब कब तक आएँगे? तुम्हारा क्या नाम है ? कौन जात है ? दुसाध मत कहो, गहलोत बोलो गहलोत ! जनेऊ नहीं है ?
बालदेव जी प्यारू को भीड़ से बाहर ले आते हैं। “भाई, तुम लोगों ने आदमी नहीं देखा है कभी ? जाओ, अपना काम देखो ! हलवाई जी लोगों के पास कौन है ?”
बालदेव जी सबों के नाम के साथ ‘जी’ लगाकर बोलते हैं। रामकिसून आसरम में लीडर लोग इसी तरह सबों के नाम के साथ ‘जी’ लगाकर बोलते हैं-‘ड्राइवर जी’, ‘ठेकेदार जी’, ‘हरिजन जी’ !
पूछताछ के बाद मालूम हुआ, प्यारू डागडर साहेब के पास नौकरी करने आया है। रौतहट टीसन में जो हेमापोथी डागडर साहेब थे, प्यारू उनके यहाँ पाँच साल नौकरी कर चुका है। डागडर साहेब देश चले गए। सुना कि मेरीगंज में एक डागडरबाबू आ रहे हैं। सो प्यारू डागडरबाबू के पास नौकरी करने आया है।
चूड़ा-गूड़ का जलखै (जलपान) करके प्यारू बालदेव जी से कहता है, “डागडरबाबू का सामान कहाँ है ? टेबल-कुरसी लगाना होगा। अलमारी को झाड़ना-पोंछना होगा। पानी के ढोल के पास एक बोल (कठौत) रखना होगा, एक साबुन और एक गमछा। डागडरबाबू आते ही पहले साबुन से हाथ धोएँगे…”
सचमुच प्यारू डाक्टर का पुराना नौकर है। टेबल-कुरसी ठीक से लगा दिया है। तीन पैरवाली लोहे की सीढ़ी पर पानी का ढोल रख दिया; सीढ़ी में ही लगी हुई गोल कड़ी में ललमुनियाँ (अलमुनियम) का कठौत बिठा दिया है। ढोल में कल लगा हुआ है। कल टीपने से पानी गिरने लगता है। बक्से से गमछा निकालकर वहीं लटका दिया है। खस्सी-बकरी की अंतड़ी का भीतरी हिस्सा जैसा रोयाँदार होता है, वैसा ही गमछा है। साबुन ? साबुन नहीं है ? अरे, कपड़ा धोनेवाला साबुन नहीं, गमकौआ साबुन चाहिए। भगत की दूकान में गमकौआ साबुन कहाँ से आवेगा ? कटिहार में मिलता है। तहसीलदार साहब की बेटी कमली जब गमकौआ साबुन से नहाने लगती है तो सारा गाँव गमगम करने लगता है। तहसीलदार साहब कहते हैं, कमली दीदी से साबुन माँगकर ला दो !…सचमुच प्यारू पुराना डागडरी नौकर है। बड़े मौके से वह आ गया, नहीं तो इतना इन्तजाम कौन करता ? बेला झुक गया है, अब डागडरबाबू भी आ जाएँगे। तहसीलदार साहब कहते हैं, “भुरुकुवा उगने के पहले ही बैलगाड़ियों को रवाना कर दिया है। साथ में गया है अगमू चौकीदार।”
सारा गाँव महक रहा है। मेले में ठीक ऐसी ही महक रहती है। तहसीलदार साहब के गुहाल में हलवाई लोग सुबह से ही पूड़ी-जिलेबी बना रहे हैं। पूड़ी बनाकर ढेर लगा दिया है। गाँव के बच्चे सुबह से ही जमा हैं। राजपूत और कायस्थों के बच्चे दूसरे टोले के बच्चों को उधर नहीं जाने देते हैं- “भागो, छू जाएगा !”
सिंघ जी खुद जाकर खेलावनसिंह यादव को पकड़ लाते हैं। “तहसीलदार देखो, इसके पेट में बाय उखड़ गया है। भोज खाने के पहले ही अन्नसर्जी हो गई है। अरे भाई, औरतों की तरह रूठने से क्या फायदा ! तुम्हीं कहो तहसीलदार, हम ठीक कहते हैं या नहीं। लड़ो-झगड़ो और फिर गले-गले मिलो। यह रूठने का क्या माने ? हमको तो बालदेव से मालूम हुआ। जाकर देखो तो कागभुसुंडी इसके कान में मन्तर पढ़ रहा है।…ऐ बालदेव, सुनो, डागडर साहेब आएँ तो पहले इसी का इलाज कराओ। कहना कि आठवाँ महीना है…”
हा हा हा हा हा…हा…हा !
“रामकिरपाल भाई, लड़कों के सामने भी आप दिल्लगी करते हैं ? अच्छा हाथ छोड़िए। सब कोई तो हैं ही, सिर्फ हमारे नहीं रहने से कौन काम हरज हो रहा था ?”
सिंघ जी मजेदार आदमी हैं। सुबह से ही सबों को हँसा रहे हैं। खेलावन यादव रूठे थे, उसको भी पकड़ लाए। जोतखी जी नहीं आए। बोले, दाँत में दर्द है। सिंघ जी कहते हैं, “पता नहीं उनके पेट के दाँत में दरद है शायद । सुनते हैं आजकल डागडर लोग पत्थर का नकली दाँत लगा देते हैं। डागडर साहेब से कहकर जोतखी जी का दाँत बनवा दो भाई !” अजी, सभागाछी (विवाहार्थी मैथिलों का मेला) में लड़कीवाले दाँत को हिला-डुलाकर देखते हैं थोड़ो !”
“डागडर साहेब आ रहे हैं।”
“आ रहे हैं ? कहाँ ?
“पछियारीटोला के पास पाँचों बैलगाड़ियाँ आ रही हैं। अगर चौकीदार आगे-आगे दौड़ता हुआ आ रहा है। डागडर साहेब टोपा पहने हुए हैं।”
अगमू आ गया। “कन्धे पर क्या है, बक्सा ?”
कामकाज छोड़कर सभी जमा हो गए-डाक्टर साहब आ रहे हैं।
“हट जाइए !” अगमू कहता है, “डागडर साहब बोले हैं, इन्तजाम से रखना ठेस नहीं लगे। बेतार का खबर है।”
बालदेव जी कहते हैं, “रेडी (रेडियो) है या रेडा ! अब सुनिएगा रोज बम्बै-कलकत्ता का गाना। महतमा जी का खबर, पटुआ का भाव सब आएगा इसमें। तार में ठेस लगते ही गुस्साकर बोलेगा-बेकूफ। बिना मुँह धोए पास में बैठते ही तुरत कहेगा-क्या आपने आज मुँह नहीं धोया है ?”
“जुलुम बात !”
डाकडर साहेब !
सभी हाथ जोड़कर खड़े हैं। डाक्टर साहब भी हँसते हुए हाथ जोड़ते हैं। बालदेवजी ‘जाय हिन्द’ कहते हैं। देखादेखी कालिया भी आजकल ‘जाय हिन्द’ कहता है। प्यारू शामियाने में कुर्सी लाकर रखता है, डाक्टर साहब के हाथ से टोप ले लेता है। डाक्टर साहब के चेहरे का रंग एकदम लाल है। ‘लालटेस’ ! मोंछ नहीं है क्या ? नहीं मोंछ सफाचट कटाए हैं।
बालदेव जी हाथ जोड़कर पूछते हैं, रास्ते में कहीं तकलीफ तो नहीं हुई ?…सब तैयार है, भोजन कर लिया जाए। इनका नाम विश्वनाथपरसाद है, राजपारबगा के तहसीलदार हैं। इनका नाम रामकिरपालसिंघ है, सिपै…राजपूतटोली के मालिक हैं। इनका नाम खेलावनसिंह यादव है, यादव छत्रीटोले के ‘मड़र’ हैं। इनका नाम कालीचरन है, बड़ा बहादुर लौजवान है। और ये लोग ‘इसकुलिया’ हैं।…आइए बाबू साहब, आप लोग डागडर साहेब से बतियाइए। इस गाँव के महन्थ साहेब ने इसपिताल होने की खुशी में गाँववालों को आज भंडारा दिया है।
डाक्टर साहब हाथ जोड़कर सबों को फिर नमस्कार करते हैं। कहते हैं “हम अभी नहीं खाएंगे। सबको खिलाइए।”
सचमुच प्यारू पुराना नौकर है। देखो, डागडरबाबू ने सबसे पहले साबुन से हाथ धोया।
मठ से महन्थ साहेब, कोठारिन लछमी दासिन, रामदास और दो मुरती आए हैं। महन्थ साहेब की बैलगाड़ी के आगे एक साधु तुरही फूंकता हुआ आ रहा है। धु तु तु तु ऽ ऽ…धु तु तु ! और तुरही की आवाज सुनते ही गाँव के कुत्ते दल बाँधकर भोंकना शुरू कर देते हैं। छोटे-छोटे नवजात पिल्ले तो भोंकते-भोंकते परेशान हैं। नया-नया भोंकना सीखा है न !
सबसे पहले कालीथान में पूड़ी चढ़ाई जाती है। इसके बाद कोठी के जंगल की ओर दो पूड़ियाँ फेंक दी जाती हैं, जंगल के देव-देवी और भूत-पिशाच के लिए। इसके बाद साधु और बाभन भोजन ! बालदेव जी ने बहुत कहा, लेकिन डाक्टर साहब नहीं माने। प्यारू ठीक कहता था, डागडर लोग हलवाई की बनाई हुई पूड़ी-जिलेबी नहीं खाते हैं। ‘कल के चूल्हे’ पर प्यारू डागडरबाबू के लिए भात बना रहा है। जल्दी से बिजे (खाना-पीना) खत्म हो तो बेतार के खबर का गाना सुनें। क्या ? आज गाना नहीं होगा ? हाँ भाई, कल-कब्जा की बात है। इतना जल्दी कैसे होगा ! फिर कटिहार जंकशन में रेलगाड़ियों और मिलों का अभी इतना शोरगुल होता होगा कि यहाँ तक खबर आ भी नहीं सकेगी।”
“बिझै ! बिझै !”
“हर टोले के लोग अलग-अलग पंगत में बैठो। अपने-अपने बगल में एक फाजिल पत्ता लगा देना भाई ! अपने-अपने घर की जनाना लोगों के लिए कमबेस नहीं।…”
गुअरटोली के रौदी बूढ़ा को सभी मिलकर चिढ़ा रहे हैं। रौदी गोप गाँव-गाँव में घूमकर दही बेचता है। उसकी चाल-चलन, उसकी बोला-बानी सबकुछ औरतों जैसी है। सिर और छाती पर से कपड़ा जरा-सा भी सरक जाने पर, औरतों की तरह लजाकर ठीक कर लेता है। मर्दो से बातें करने के समय लजाता है, औरतें उसके सामने किसी भी किस्म का परदा नहीं करतीं। हाट जाते और लौटते समय वह औरतों के झुंड में ही रहता है।…अभी सब मिलकर रौदी बूढ़ा को चिढ़ाते रहे हैं-“तुम्हारा हिस्सा आँगन में भेज दिया जाएगा। देखो, लालचन ने तुम्हारा पत्ता लगा दिया है।”
“दुर ! मुँहझौंसे ! बूड़े-पुराने से हँसी-दिल्लगी करते लाज नहीं आती ? हम पूछते हैं तुम लोगों से, कि तुम लोग अपनी बूढ़ी दादी और नानी से भी इसी तरह हँसीमसखरी करते हो? इस गाँव के लौंडे-छौंड़े बिगड़ गए हैं। और सारा दोख इसी सिंघवा का है। जहाँ बूढ़े ही बदचाल हों तो लौंडों का क्या हाल ! हम कह देते हैं, हाँ, सुन रखो ! हाँ।…”
महन्थ साहब रात में भोजन नहीं करते हैं।
“सतगुरु हो ! डागडर साहेब, आपको कितना मुसहरा मिलता है ? दो सौ ?…हाँ, यहाँ ऊपरी आमदनी भी होगी। असल आमदनी तो ऊपरी आमदनी है।…बहुत अच्छा हुआ।…गाँधी जी तो अवतारी पुरुख हैं।-डागडर साहेब ! आज से करीब पाँच साल पहले एक बार हमारी आँखें आईं, उसके बाद दो महीने तक आँखों में लाली छाई रही। पुरनियाँ के सिविलसार्जन साहेब को पचास रुपया फीस देकर दिखलाया। बहुत दिनों तक इलाज भी करवाया। मगर बेकार। अब तो आप आ गए हैं। अपने घर के डागडर हुए !…”
लछमी दासिन टकटकी लगाकर डाक्टर साहब को देख रही है।…कितना सुन्दर पुरुष है ! बेचारे का इस देहात में मन नहीं लग रहा है। नौकरी कोई भी हो, आखिर नौकरी ही है। मन घर पर टँगा हुआ होगा। बीवी-बच्चों की याद आती होगी।…कुछ दिनों में मन लग जाएगा। फिर बाल-बच्चों को भी ले आवेंगे। अचानक वह पूछ बैठती है, “आपके घर पर और कौन-कौन हैं डाक्टरबाबू ?”
“जी,” डाक्टर ने जरा हकलाते हुए कहा, “जी, मेरा कोई नहीं। माँ-बाप बचपन में ही गुजर गए।”
लछमी समझ लेती है कि यह सवाल पूछना उचित नहीं हुआ। उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि उसने ऐसा प्रश्न किया ही क्यों !…मेरा कोई नहीं !
“लछमी ! रामदास को बुलाओ। अच्छा तो डागडरबाबू, अब आज्ञा दीजिए। आप भी भोजन करके आराम कीजिए। कभी मठ की ओर भी आइएगा। सतगुरु साहेब कहीन हैं-‘दरस-परस सतसंग ते छूटे मन का मैल’।”
लछमी हाथ जोड़कर नमस्कार करती है।
ब्राह्मणटोली के लोग बालदेव जी से पूछते हैं, “डागडरबाबू का नौकर तो दुसाध है। और डागडरबाबू कौन जात हैं ? दुसाध का बनाया हुआ खाते हैं ?”
बोलिए प्रेम से…महतमा गन्ही की जै!
भंडारा समाप्त हो गया। कोई ‘तरुटी’ नहीं हुई। सबको ‘पूर्ण’ हो गया। जो भूल-चूक से छूट गए हैं, उनका हिस्सा कल ले जाइएगा।
बालदेव जी अगमू चौकीदार और बिरंची के साथ इसपिताल में ही सोएँगे। आज पहली रात है!
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तीसरी कसम फणीश्वर नाथ रेणु का उपन्यास