चैप्टर 7 गुनाहों का देवता : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 7 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 7 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

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एक गमकदे की शाम, मन उदास, तबीयत उचटी-सी, सितारों की रोशनी फीकी लग रही थी। मार्च की शुरूआत थी और फिर भी जाने शाम इतनी गरम थी, या सुधा को ही इतनी बेचैनी लग रही थी। पहले वह जाकर सामने की लॉन में बैठी, लेकिन सामने के मौलसिरी के पेड में छोटी-छोटी गौरैयों ने मिलकर इतनी ज़ोर से चहचहाना शुरू किया कि उसकी तबीयत घबड़ा उठी। वह इस वक्त एकांत चाहती थी और सब बढ़कर सन्नाटा चाहती थी, जहाँ कोई न बोले, कोई न बात करे, सभी खामोशी में डूबे हुए हों।

वह उठकर टहलने लगी और जब लगा कि पैरों में ताक़त ही नहीं रही, तो फिर लेट गयी, हरी-हरी घास पर। मंगलवार की शाम थी और अभी तक पापा नहीं आये थे। आना तो दूर वह पापा या चंदर के हाथ के एक पुरजे के लिए तरस गयी थी। किसी ने यह भी नहीं लिखा कि वे लोग कहाँ रह गये है, या कब तक आयेंगे। किसी को भी सुधा का खयाल नहीं। शनिवार या इतवार को तो वह रोज खाना खाते वक्त रोयी, चाय पीना तो उसने उसी दिन से छोड़ दिया था और सोमवार को सुबह पापा नहीं आये, तो वह इतना फूट-फूट कर रोयी कि महराजिन को सिंकती हुई रोटी छोड़ कर चूल्हे की आँच निकाल र सुधा को समझाने आना पड़ा। और सुधा की रुलाई देख कर तो महराजिन के हाथ-पाँव ढीले हो गये थे। उसकी सारी डांट हवा हो गयी थी और वह सुधा का मुँह-ही-मुँह देखती थी। कल से वह कॉलेज भी नहीं गयी थी और दोनों दिन इंतज़ार करती रही कि कहीं दोपहर को पापा न आ जायें। गेसू से भी दो दिन से मुलाकात नहीं हुई थी।

लेकिन मंगल को दोपहर तक जब कोई खबर न आयी, तो उसकी घबराहट बेकाबू हो गयी। इस वक्त उसने बिसरिया से कोई बात नहीं की। आधे घण्टे पढ़ने के बाद उसने कहा कि उसके सिर में दर्द हो रहा है और उसके बाद खूब रोयी, खूब रोयी। उसके बाद उठी, चाय पी, मुँह-हाथ धोया और सामने के लॉन में टहलने लगी। और फिर लेट गयी हरी-हरी घास पर।

बड़ी ही उदास शाम थी और क्षितिज की लाली के होंठ भी स्याह पड़ गये थे। बादल सांस रोके पड़े थे और खामोश सितारे टिमटिमा रहे थे| बगुलों की धुंधली-धुंधली कतारें पर मारती हुई गुज़र रही थीं। सुधा ने एक लंबी सांस लेकर सोचा कि अगर वह चिड़िया होती, तो एक क्षण में उड़कर जहाँ चाहती वहाँ की खबरें ले आती। पापा इस वक्त घूमने गये होगे। चंदर अपने दोस्तो की टोली में बैठा रंगरेलियाँ कर रहा होगा। वहाँ भी दोस्त बना ही लिये होंगे उसने, बड़ा बातूनी है चंदर और बड़ा मीठे स्वभाव का। आज तक किसी से सुधा ने उसकी बुराई नहीं सुनी। सभी उसको प्यार करते थे। यहाँ तक की महराजिन, जो सुधा को हमेशा डांटती रहती थी, चंदर का हमेशा पक्ष लेती थी। और सुधा हरेक से पूछ लेती थी कि चंदर के बारे में उसकी क्या राय है? लेकिन सब लोग जितनी चंदर की तारीफ करते, वह उतना अच्छा उसे नहीं समझती थी। आदमी की परख तब होती है, जब दिन-रात कोई बरते। चंदर उसका ऊन कभी नहीं ला देता था, बादामी रंग का रेशम मंगाओ, तो केसरिया रंग का ला देता था। इतने नक़्शे बनाता रहता था, और सुधा ने हमेशा उससे कहा कि मेज़पोश की कोई डिजाइन बना दो, तो उसने कभी नहीं बनायी। एक बार सुधा ने वायल कानपुर से मंगवायी और चंदर ने कहा – “लाओ, ये तो बहुत अच्छी है, इस पर हम किनारे की डिजाइन बना देंगे।” और उसके बाद उसने उसमें तमाम पान जैसा जाने क्या बना दिया और जब सुधा ने पूछा – “ये क्या है ?” तो बोला – “लंका का नक्शा है।” तब सुधा बिगड़ी, तो बोला — “लड़कियों के हृदय में रावण से लेकर मेघनाद तक करोड़ों राक्षसों का वास होता है, इसलिए उनकी पोशाक में लंका का नक्शा सबसे सुशोभित होता है। मारे गुस्से के सुधा ने वह धोती अपनी मालिन को दे डाली थी। यह सब बातें तो किसी को मालूम नहीं। उनके सामने तो ज़रा-सा कपूर साहब हँस दिये, चार मज़ाक की बातें कर दी, छोटे-मोटे उनके काम कर दिये, मीठी-मीठी बातें कर ली और सब समझे कपूर साहब तो बिल्कुल गुलाब के फूल हैं। लेकिन कपूर साहब एक तेज तीखे कांटे हैं, जो दिन-रात सुधा के मन में चुभते रहते है, यह तो दुनिया को नहीं मालूम। दुनिया क्या जाने कि सुधा कितनी परेशान रहती है चंदर की आदतों से। अगर दुनिया को मालूम हो जाये, तो कोई चंदर की ज़रा भी तारीफ़ न करे, सब सुधा को ही ज्यादा अच्छा कहें, लेकिन सुधा कभी किसी से कुछ नहीं कहती, मगर आज उस का मन हो रहा था कि किसी से चंदर की जी भर कर बुराई कर ले, तो उसका मन बहुत हल्का हो जाये।

“चलो बिटिया रानी, तई खाय लेव, फिर भीतर लेटो। अबहिन बाहर लेटे का बखत नहीं आवा।” सहसा महराजिन ने आकर सुधा की स्वप्न श्रृंखला तोड़ते हुए कहा।

“अब हम नहीं खायेंगे, भूख नहीं।” सुधा ने अपने सुनहले सपनों में ही डूबी हुई बेहोश आवाज में जवाब दिया।

“खाय लेव बिटिया, खाय पियै छोड़े से कसम काम चली, आव उठौ।” महराजिन ने बहुत दुलार से कहा। सुधा, पीछा छूटने की कोई आशा न देख कर उठ गयी और चल दी खाने। कौर उठाते ही उसकी आँख में आँसू छलक आये, लेकिन अपने को रोक लिया उसने। दूसरों के सामने अपने को बहुत शांत रखना आता था उसे, दो कौर खाने के बाद वह महराजिन से बोली – “आज कोई चिट्ठी तो नहीं आयी?”

“नहीं बिटिया, आज तो दिन भर घरै में रह्यो !” महराजिन ने पराठे उलटते हुए जवाब दिया – “काहे बिटिया, बाबू जी कुछौ नाही लिखिन तो छोटे बाबू तो लिख देते।”

“अरे महराजिन यही तो हमारी जान का रोना है। हम चाहे रो-रो कर मर जायें, मगर न पापा को खयाल, न पापा के शिष्य को और चंदर तो ऐसे खराब हैं कि हम क्या करें। ऐसे स्वार्थी हैं, अपने मतलब के कि बस! सुबह-शाम आयें और हम या पापा न मिलें, तो आफ़त ढा देंगे, बहुत घूमने लगी हो तुम, बहुत बाहर कदम निकल गया है तुम्हारा और सच पूछो तो चंदर की वजह से हमने सब जगह आना-जाना बंद कर दिया और ख़ुद हैं कि आज लखनऊ, कल कलकत्ता और एक चिठ्ठी भेजने का वक्त नहीं मिला! अभी हम ऐसा करते, तो हमारी जान नोंच खाते! और पापा को देखो, उनके दुलारे उनके साथ हैं, तो बस और किसी की फ़िक्र नहीं। अब तुम महराजिन, चंदर को तो कभी कुछ चाय-वाय बना के मत देना।”

“काहे विटिया, काहे कोसत हो। कैसा चाँद-से तो हैं छोटे बाबू, और कैसा हँस के बातें करत हैं। माई का जाने कैसे हियाब पड़ा कि उन्हें अलग कै दिहिस। बेचारा होटल में जाने कैसे रोटी खात होई। उन्हें हिंयई बुलाय लेव तो हम अपने हाथ की खिलाय के दुई महीना माँ मोटा कै देई। हमें तोसे ज्यादा उनकी ममता लगत है।”

“बीबीजी, बाहर एक ठो मेम पूछत है – हिंया कोनो डाकदर रहत हैं, हम कहा, नाही, हिंया तो बाबूजी रहत हैं तो कहत हैं, नहीं यही मकान आय।” मालिन ने सहसा आकर बहुत स्वतंत्र स्वरों में कहा।

“बैठाओ उन्हें, हम आते हैं।” सुधा ने कहा और जल्दी-जल्दी खाना शुरू किया और जल्दी-जल्दी खत्म कर दिया।

बाहर जाकर उसने देखा तो नीलकाँटे के झाड से टिकी हुई एक बाइसिकिल रखी थी और एक ईसाई लडकी लॉन पर टहल रही है। होगी करीब चौबीस-पचीस बरस की, लेकिन बहुत अच्छी लग रही थी।

“कहिए आप किसे पूछ रही हैं?” सुधा ने अंग्रेजी में पूछा।

“मैं डॉक्टर शुक्ला से मिलने आयी हूँ।” उस ने शुद्ध हिंदुस्तानी में कहा।

“वे तो बाहर गये हैं और कब आयेंगे कुछ पता नहीं। कोई खास काम है आपको ?” सुधा ने पूछा।

“नही, यूँ ही मिलने आ गयी। आप उनकी लड़की हैं?” उस ने साइकिल उठाते हुए कहा।

“जी, हाँ, लेकिन अपना नाम तो बताती जाइए।”

“मेरा नाम कोई महत्त्वपूर्ण नहीं। मैं उनसे मिल लूंगी। और हाँ, आप उसे जानती हैं, मिस्टर कपूर को ?”

“आहा! आप पम्मी है, मिस डिक्रूज!” सुधा को एकदम खयाल आ गया – “आइए, आइए, हम आपको ऐसे नहीं जाने देंगे। चलिए, बैठिये।” सुधा ने बड़ी बेतकल्लुफी से उसकी साइकिल पकड़ ली।

“अच्छा, अच्छा चलो।” कहकर पम्मी जाकर ड्राइंग रूम में बैठ गयी।

“मिस्टर कपूर रहते कहाँ हैं?” पम्मी ने बैठने के पहले पूछा।

“रहते तो ये चौक में हैं, लेकिन आजकल तो वे भी पापा के साथ बाहर गये हैं। वे तो आपकी एक दिन बहुत तारीफ़ कर रहे थे, बहुत तारीफ़। इतनी तारीफ़ किसी लड़की की करते तो हमने सुना नहीं।”

“सचमुच!” पम्मी का चेहरा लाल हो गया, “वह बहुत अच्छे हैं, बहुत अच्छे हैं!”

थोड़ी देर पम्मी चुप रही, फिर बोली – “क्या बताया था उन्होंने हमारे बारे में?”

“ओह तमाम! एक दिन शाम को तो हम लोग आप ही के बारे में बातें करते रहे। आपके भाई के बारे में बताते रहे। फिर आपके काम के बारे में बताया कि आप कितना तेज टाइप करती हैं, फिर आपकी रुचियों के बारे में बताया कि आपको साहित्य से बहुत शौक नहीं है और आप शादी से बेहद नफ़रत करती हैं और आप ज्यादा मिलती-जुलती नहीं, बाहर आती-जाती नहीं और मिस डिक्रूज़…. “

“न, आप पम्मी कहिए मुझे!”

“हाँ तो मिस पम्मी, शायद इसीलिए आप उसे इतनी अच्छी लगी कि आप कहीं आती-जाती नहीं, वह लड़कियों का आना-जाना और आजादी बहुत नापसंद करता है।” सुधा बोली।

“अन्हीं, वह ठीक सोचता है।” पम्मी बोली – “मैं शादी और तलाक के बाद इसी नतीजे पर पहुँची हूँ कि चौदह बरस से चौंतीस बरस तक लड़कियों को बहुत शासन में रखना चाहिए।” पम्मी ने गंभीरता से कहा।

एक ईसाई मेम के मुँह से यह बात सुनकर सुधा दांग रह गयी।

“क्यों?” उसने पूछा।

“इसलिए कि इस उम्र में लड़कियाँ बहुत नादान होती हैं और जो कोई भी चार मीठी बातें करता है, तो लडकियाँ समझती हैं कि इससे ज्यादा प्यार उन्हें कोई नहीं करता। और इस उम्र में जो कोई भी ऐरा-गैरा उनके संसर्ग में आ जाता है, उसे वे प्यार का देवता समझने लगती हैं और नतीजा यह होता है कि वे ऐसे जाल में फंस जाती हैं कि ज़िन्दगी भर उससे छुटकारा नहीं मिलता। मेरा तो यह विचार है कि या तो लड़कियाँ चौतीस बरस के बाद शादियाँ करे, जब वे अच्छा-बुरा समझने के लायक हो जायें और नहीं तो मुझे तो हिन्दुओं का कायदा सबसे ज्यादा पसंद आता है कि चौदह बरस के पहले ही लड़की की शादी कर दी जाये और उसके बाद उस का संसर्ग उसी आदमी से रहे, जिससे उन्हें ज़िन्दगी भर निबाह करना है और अपने विकास क्रम में दोनो ही एक-दूसरे को समझते चलें। लेकिन यह तो सबसे भद्दा तरीका है कि चौदह और चौंतीस बरस के बीच में लड़की की शादी हो, या उसे आज़ादी दी जावे। मैंने तो स्वयं अपने ऊपर बंधन बांध लिये थे। तुम्हारी तो शादी अभी नहीं हुई?”

“नहीं।”

“बहुत ठीक, तुम चौतीस बरस के पहले शादी मत करना, अच्छा हाँ और क्या बताया चंदर ने मेरे बारे में?”

“और तो कुछ खास नहीं, हाँ यह कह रहा था आपको चाय और सिगरेट बहुत अच्छी लगती हैं। ओहो, देखिए मैं भूल ही गयी, लीजिए सिगरेट मंगवाती हूँ।” और सुधा ने घण्टी बजायी।

“रहने दीजिए, मैं सिगरेट छोड़ रही हूँ।”

“क्यों?”

“इसलिए कि कपूर को अच्छा नहीं लगता और अब वह मेरा दोस्त बन गया है, और दोस्ती में एक-दूसरे से निबाह तो करना पड़ता है। उसने आपसे यह नहीं बताया कि मैंने उसे दोस्त मान लिया है?” पम्मी ने पूछा।

“जी हाँ, बताया था, अच्छा तो चाय तो लीजिये।”

“हाँ हाँ, चाय मंगवा लीजिये, अच्छा आपका कपूर से क्या संबंध है? पम्मी ने पूछा।

“कुछ नहीं। मुझसे भला क्या संबंध होगा उनका, जब देखिये तब बिगड़ते रहते हैं मुझ पर; और बाहर गए हैं और आज तक कोई ख़त नहीं भेजा। ये कहीं संबंध है?”

“नहीं, मेरा मतलब आप उनसे घनिष्ठ हैं”

हाँ, कभी वह छिपाते तो नहीं मुझसे कुछ! क्यों?”

“तब तो ठीक है, सच्चे दिल के आदमी मालूम पड़ते हैं। आप तो यह बता सकती हैं कि उन्हें क्या-क्या चीज़ें पसंद हैं?”

“हाँ, उन्हें कविता पसंद है। बस कविता के बारे में बात न कीजिये, कविता सुना दीजिये उन्हें या कविता की किताब दे दीजिये उन्हें और उनको सुबह घूमना पसंद है। रात को गंगाजी की सैर करना पसंद है। सिनेमा तो बेहद पसंद है। और, और क्या, चाय की पत्ती का हलुआ पसंद है।“

“यह क्या होता है?”

“मेरा मतलब बिना दूध की चाय उन्हें पसंद है।“

“अच्छा अच्छा! देखिये आप सोचेंगी कि मैं इस तरह से मिस्टर कपूर के बारे में पूछ रही हूँ, जैसे मैं कोई जासूस हूँ, लेकिन असल बात मैं आपको बता दूं। मैं पिछले दो-तीन साल से अकेली रहती रही। किसी से भी नहीं मिलती-जुलती थी। उसदिन मिस्टर कपूर गए, तो पता नहीं क्यों मुझ पर प्रभाव पड़ा। उनको देखकर ऐसा लगा कि यह आदमी है, जिसमें दिल की सच्चाई है, जो आदमियों में बिलकुल नहीं होती। तभी मैंने सोचा, इनसे दोस्ती कर लूं। लेकिन चूंकि एक बार दोस्ती करके विवाह, और विवाह के बाद अलगाव मैं भोग चुकी हूँ, इसलिए इनके बारे में पूरी जांच-पड़ताल कर लेना चाहती हूँ। लेकिन दोस्त तो अब बना ही चुकी हूँ।: चाय आ गयी थी और पम्मी ने सुधा के प्याले में चाय डाली।

“न, मैं तो अभी खाना खा चुकी हूँ।“ सुधा बोली।

पम्मी ने दो-तीन चुस्कियों के बाद कहा, “आपके बारे में चंदर ने मुझसे कहाथा।“

“कहा होगा!” सुधा मुँह बिगाड़कर बोली, “मेरी बुरे कर रहे होंगे और क्या?”

पम्मी चाय के प्याले से उठते हुए धुएं को देखती हुई अपने ही ख़याल में डूबी हुई थी। थोड़ी देर बाद बोली, “मेरा अनुमान गलत नहीं होता। मैंने कपूर को देखते ही समझ लिया था कि यही मेरी लिए उपयुक्त मित्र है। मैंने कविता पढ़नी बहुत दिनों से छोड़ दी, लेकिन किसी कवयित्री ने, शायद मिसेज़ ब्राउनिंग ने कहीं लिखा था कि वह मेरी ज़िन्दगी में रोशनी बनकर आया, उसे देखते ही मैं समझ गई कि यह वह आदमी है जिसके हाथ में मेरी दिल के सभी राज़ सुरक्षित रहेंगे। वह खेल नहीं करेगा और प्यार भी नहीं करेगा। ज़िन्दगी में आकर भी ज़िन्दगी से दूर और सपनों में बंधकर भी सपनों से अलग…यह बात कपूर पर बहुत लागू होती है। माफ़ करना मिस सुधा, मैं आपसे इसलिए कह रही हूँ कि आप इनके घनिष्ट हैं और आप इन्हें बतला देंगी कि मेरा क्या ख़याल है उनके बारे में। अच्छा, अब मैं चलूंगी।“

“बैठिये न!” सुधा बोली।

“नहीं, मेरा भाई अकेला खाने के लिए इंतज़ार कर रहा होगा।“ उठते हुए पम्मी ने कहा।

“आओ बहुत अच्छी हैं। इस वक़्त आप आयीं, तो मैं थोड़ी सी चिंता भूल गई, वरना मैं तीन दिन से उदास थी। बैठिये, कुछ और चंदर के बारे इमं बताइये न!”

“अब नहीं! वह अपने ढंग का अकेला आदमी है, यह मैं कह सकती हूँ…ओह तुम्हारी आँखें बड़ी सुंदर हैं। देखूं!” और छोटे बच्चे की तरह उसके मुँह को उठाकर पम्मी ने कहा, “बहुत सुंदर आँखें है। माफ़ करना मैं कपूर से भी इतनी ही बेतकल्लुक हूँ।”

सुधा झेंप गयी। उसने आँखें नीची कर ली। पम्मी ने अपनी साइकिल उठाते हुए कहा, “कपूर के साथ आप आइएगा और आपने कहा था कपूर को कविता पसंद है।”

“जी, हाँ, गुडनाइट।”

जब पम्मी बंगले पहुँची, तो उसकी साइकिल के कैरियर में अंग्रेजी कविता के पाँच-छह ग्रंथ बंधे थे।

आठ बज चुके थे। सुधा जाकर अपने बिस्तर पर लेटकर पढ़ने लगी। अंग्रेजी कविता पढ़ रही थी। अंग्रेजी लड़कियाँ कितनी आज़ाद और स्वच्छन्द होती होगी! जब पम्मी, जो ईसाई है, इतनी आज़ाद है, उसने सोचा। और पम्मी कितनी अच्छी है। उसकी बेतकल्लुफी में भोलापन तो अन्हीं है, पर सरलता बेहद है। बड़ी साफ दिल है, कुछ छिपाना नहीं जानती। और सुधा से सिर्फ पांच-छह साल बड़ी है, लेकिन सुधा उसके सामने बच्ची लगती है। कितना जानती है पम्मी और कितनी अच्छी समझ है उसकी और चंदर की तारीफ करते नहीं थकती। चंदर के लिए उसने सिगरेट छोड़ दी। चंदर उसका दोस्त है, इतनी पढ़ी-लिखी लड़की के लिए भी रोशनी का देवदूत है। सचमुच चंदर पर सुधा को गर्व है। और उसी चंदर से यह लड़-झगड़ लेती है, इतनी मान-मनुहार कर लेती है और चंदर सब बर्दाश्त कर लेता है। वरना चंदर के इतने बड़े-बड़े दोस्त हैं और चंदर की इतनी इज़्ज़त है। अगर चंदर चाहे, तो सुधा की रत्ती भर परवाह न करे, लेकिन चंदर सुधा की भली-बुरी हर बात बर्दाश्त कर लेता है। और वह कितना परेशान करती रहती है चंदर को।

कभी अगर सचमुच चंदर बहुत नाराज़ हो गया और सचमुच हमेशा के लिए बोलना छोड़ दे, तब क्या होगा? या चंदर यहाँ से कहीं जाये, तब क्या होगा? खैर चंदर जायेगा तो नहीं इलाहाबाद छोड़ कर, लेकिन अगर वह खुद कहीं चली गयी, तब क्या होगा? वह कहाँ जायेगा। अरे पापा को मनाना बायें हाथ का खेल है, और ऐसा प्यार वह करेगी नहीं कि शादी करनी पड़े।

लेकिन यह तो सब ठीक है। पर चंदर ने चिट्ठी क्यों नहीं भेजी? क्या नाराज़ हो कर गया है? जाते वक्त सुधा ने परेशान तो बहुत किया था। होलडॉल की पेटी का बक्सुआ खोल दिया था और उठाते ही चंदर के हाथ से सब कपड़े बिखर गये। चंदर कुछ बोला नहीं, लेकिन जाते समय उसने सुधा को डांटा भी नहीं और न ही समझाया कि घर का खयाल रखना, अकेले घूमना मत, महराजिन से लड़ना मत, पढ़ती रहना। इससे सुधा समझ तो गयी थी कि वह नाराज़ है, लेकिन कुछ कहा नहीं।

लेकिन चंदर को खत तो भेजना चाहिए था। चाहे गुस्से का ही खत क्यों न होता? बिना खत के मन उसका कितना घबरा रहा है। और क्या चंदर को मालूम नहीं होगा। यह कैसे हो सकता है? जब इतनी दूर बैठे हुए सुधा को मालूम हो गया कि चंदर नाखुश है, तो क्या चंदर को नहीं मालूम होगा कि सुधा का मन उदास हो गया है। ज़रूर मालूम होगा। सोचते-सोचते उसे जाने कब नींद आ गयी और नींद में उसे पापा या चंदर की चिट्ठी मिली या नहीं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन इतना ज़रूर है कि जैसे यह सारी सृष्टि एक बिंदु से बनी और एक बिंदु में समा गयी, उसी तरह सुधा की यह भादो की घटाओं जैसे फैली हुई बेचैनी और गीली उदासी एक चंदर के ध्यान से उठी और उसी में समा गयी।

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