चैप्टर 7 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास, Chapter 7 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online, Chapter 7 Badnaam Gulshan Nanda Ka Upanyas
Chapter 7 Badnaam Gulshan Nanda Novel
जिम रात को कुसुमी के साथ सखीचंद का पाला पड़ा था, उसके बाद की रात को भी कुछ ऐसा ही होता, लेकिन कमरे में जाते ही सखीचंद अंदर से कुंडी बन्द कर देता था। दूसरे दिन रात को कुसुमी उसके पास गयी थी, मगर अन्दर से दरवाजा बन्द देख वापस लौट आयी थी। इसका अनुभव सखीचंद को हो गया था। वह यह भी समझ गया था कि उसकी चाल को कुसुमी पहचान गयी है और वह शहरी वातावरण में पली सयानी युवती कुसुमी अच्छी तरह समझ गयी थी कि सखीचंद ने कृत्रिम प्यार का ढोंग रचकर उसको धोखा दिया है, उसके साथ छलावा हुआ है। नारी के आत्मसमर्पण करने पर पुरुष का प्यार, यहां तक कि मात्र भोग न पा सकी, कुसुमी ।
कुसुमी का खयाल था कि यदि एक बार भोग के लिए किसी पुरुष को उत्साहित किया जाए, तो नित्यप्रति भोग की इच्छा पुरुष के मन में जगेगी और वह स्वतः ही नारी के पास दौड़ता दिखाई देगा, क्योंकि जिस्मी भूख मिटती नहीं है । जितना ही उसकी ओर बढ़ा जाए, उसकी भूख बढ़ती ही जाती है। लेकिन एक गंवार युवक से शहरी नारी इस माने में हार मान गयी।
और तीन-चार रातों के बाद तो सखीचंद का मालिक भी आ गया था। उसे अब डर नहीं था । उस दिन कुसुमी के हाथों में चूड़ियाँ देखकर उसने चूड़ियाँ बनाई थीं। अब तो वह कई एक मूर्तियां भी बना चुका था । उसे डर लगता था, जरा-सा सरिया का चोट इधर-उधर पड़ा कि मूर्ति बेकार गयी, लेकिन ऐसा सोचना उसकी शंका मात्र ही निकली। उसकी मूर्ति अच्छी बनी थी और तुरन्त बिक भी गयी थी ।
सखीचंद लगन एवं मेहनत करने के कारण पांच ही साल में एक कलाकार हो गया ।
एक दिन उसको खबर मिली कि गांगी के उस पार दाहिनी ओर बगीचे में सविता उसको शाम को बुला रही है। ऐसा समाचार उसको सवेरे ही मिला था। उस दिन वह चूड़ियां बना रहा था। छः चूड़ियां तो वह पूर्णतया तैयार कर चुका था, शेष दो अधूरी थीं। उसने इनको भी तैयार किया और शाम होते-होते उन पर पालिश भी कर चुका था ।
चूड़ियों के पेंदे में उसने कलाकार का नाम महीन अक्षरों में सखीचंद लिख दिया था, जो ध्यान से देखने पर ही ज्ञात होता था ।
शाम को वह घर से चल पड़ा। आज यह दूसरा दिन था, जब वह बिना मालिक से कहे बाजार की ओर गया था । मालिक से उसने इतना ही कहा था कि वह दो घण्टे में लौट कर आएगा, किंतु सच्चाई को छिपा गया था वह।
निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचते ही उसने देखा कि सविता अकेली उसका इन्तजार कर रही है। वह मुस्कुराया और तभी सविता झपटती हुई आकर उसकी छाती से लग गयी। दोनों अपनी सारी कठिनाइयों को कुछ देर के लिये भूल गये और एक दूसरे को आलिंगनपाश में बांधे यों ही खड़े रहे।
कुछ देर बाद दोनों एक सुरक्षित स्थान पर बैठ गये ।’ बैठते ही सखीचंद ने पूछा – “सावित्री कैसी है, अब?”
“लगता है, तुम्हारे प्यार में रोते-रोते वह पागल हो जायेगी ।” सविता ने कहा ।
“ओह! मासूम हृदय पर कितना आघात किया जा रहा है।” और सखीचंद ने एक लम्बी सांस ली, मानो वह भी प्यार में तड़प रहा हो ।
सविता ने महसूस किया कि सावित्री के बगैर सखीचंद भी नहीं रह सकता। यह जानकर उसको खुशी हुई कि सखीचंद का प्यार निर्मल गंगा की धारा की तरह है, जो किसी को धोखा नहीं दे सकता, क्योंकि आज वह बहुत कुछ निश्चय कर यहाँ आई थी। उसने कहा- “मेरे पास आते ही वह मुझसे लिपट जाती है। और रो-रो कर कहती है कि दीदी, एक बार मुझे मिला दे सखीचंद से । बस एक ही बार में केवल एक बार उसकी नजर भर देख लेना चाहती हूं। मगर माताजी इतनी कठोर हो गयी हैं कि उसकी हमारी हर चाल को शक की निगाहों से देखती हैं और विफल कर देती हैं। आज सिनेमा जाने का हमने बहाना किया था, परन्तु उन्हें जब पता चला कि हम दोनों बहनें साथ जा रही हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं भी साथ चलूँगी। बस बेचारी न आ सकी, यहां ।”
सखीचंद थोड़ी देर मौन रहा। तत्पश्चात कहने लगा- “इससे तो उसका प्यार कम नहीं हो सकता। जितना ही वे रास्ते में बाधक होंगी, उतना ही उसका प्यार दृढ़ होता जायेगा । अन्त में पराकाष्ठा पर पहुँच जायगा, तो ये बंधन भी टूट जायेंगे, ये बाधायें भी हट जायेंगी, ये रोक-टोक भी समाप्त हो जायेंगे !!!”
“उसको विश्वास हो गया कि तुम उसे नहीं मिल सकते ।”
सविता ने कहा – ” बस, वह जान छोड़ बैठी है।”
“क्या मालिक बाबू को भी मालूम हो गया है, यह सब ?” सखीचंद ने पूछा और सविता की ओर देखने लगा। आज उसका चेहरा कुछ अस्त-व्यस्त सा लगा। उसके दो-चार बालों की पतली लटें सामने आकर हवा के सम्पर्क से झूल रही थीं। आंख कुछ भीगी भीगी सी लग रही थीं और चेहरा तो उदास था ही ।
“पिताजी को सारा वृत्तान्त मालूम है या नहीं, मैं पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकती” सविता ने कहा- “लेकिन उनके एक-आध कामों से मैंने अनुमान किया है कि उन्हें मालूम हो चुका है, क्योंकि एक दिन सावित्री ही कह रही थी कि पिताजी समझा रहे थे।”
“समझाते समय क्या क्या कह रहे थे वे ?” सखीचंद की जिज्ञासा बढ़ी यह जानने की कि कहीं उसका नाम तो गौरी बाबू ने नहीं लिया था, जिससे वह अंदाज़ लगा सके कि पूरी गाथा उन्हें ज्ञात है या नहीं।
“समझाते समय वे इधर-उधर की ही बातों का उदाहरण दे रहे थे । उन्होंने कभी खुलकर मेरा या तुम्हारा नाम नहीं लिया।” सविता बोली – “वह समझा रहे थे कि मनुष्य को कठिनाइयों से घबराना नहीं चाहिए। विपत्ति एक परीक्षा है और परीक्षा में संयम, धैर्य एवं हिम्मत से काम लेना चाहिए। यह रास्ता इस समय ( जवानी) का एक हिंडोला होता है, जिसकी रस्सी यदि कमजोर हुई, तो टूटने पर वह गिर सकती है, जिससे उसका कोई अंग-भंग हो सकता है | अतः हिंडोला पर चढ़ने से प्रथम ही उसकी परीक्षा कर लेनी चाहिए। रोना-धोना या भोजन छोड़ने से कुछ सार्थक नहीं होता। जीवन की गाड़ी को घसीटते हुए ही कठिनाइयों पर विजय पाने की इच्छा रखनी चाहिए।”
सविता सखीचंद से मिलकर लौट आई।
घर पर एक नई मुसीबत उसका इंतज़ार कर रही थी। गौरी बाबू ने उसका विवाह एक बैरिस्टर लड़के से तय कर दिया था। शीघ्र ही उनकी सगाई भी तय कर दी थी। सविता ने न मुंह से कुछ कहा, न ही चेहरे के हाव भाव से जाहिर किया कि वह इस रिश्ते से नाखुश है। क्योंकि यदि पिता को सखीचंद के बारे में भनक लग जाती, तो उसके लिए स्थिति और विकल हो जाती।
ये बात सखीचंद की बताना जरूरी था। वह फिर एक दिन सखीचंद से मिली और उसे सारी बात बता दी। सविता जानती थी कि सगाई की बात सुनते ही सखीचंद अपने होश में नहीं रहेगा, मगर बिना कहे, समस्या का निदान भी नहीं हो सकता था । थोड़ी देर तक वह भी मन मार कर बैठी रही। फिर बोली – “अब क्या होगा ?”
“यही तो सोचना है ! ” और उसने सविता का चेहरा दोनों हाथों से पकड़ लिया और ध्यान से देखने लगा ।
सविता ने अपनी आँखें बंद कर ली, क्योंकि उसने देखा था कि सखीचंद की आंखों में जल भर गया था। वह बोली – “और इसी जून में शादी भी होगी ।”
अपने हाथों को हटाता हुआ वह पूछ बैठा – “क्या तुम शादी करने को राजी हो ?”
“नहीं।” सविता ने जवाब दिया- “यदि सगाई के समय ही विरोध करती, तो एक नया बखेड़ा उत्पन्न हो जाता और हम नहीं मिल सकते थे। तब मैंने सोचा कि तुमसे मिलकर ही राय करूंगी। शादी के पहले तक कुछ-न-कुछ करना ही होगा ।”
“क्या किया जाएगा, तब ?”
“मेरी तो राय है कि हम लोग कहीं दूर भाग चलें।” सविता ने कहा – ” वरना यहाँ रहकर जून की शादी को हम दोनों में से शायद कोई भी नहीं रोक सकेगा। पिताजी के आगे किसी की नहीं चल सकेगी।”
“ऐसा करना मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता ।” सखीचंद ने कहा – ” यह एक पुरानी बात हो गयी है नि नायक और नायिका कहीं भाग गये । नायक ने नायिका को धोखा दे दिया और नायिका कुछ दिनों बाद घर लौट आई। और बाद में प्यार का मखौल बनाया जाता है, खिल्ली उड़ाई जाती है, उसकी । यह सब…”
“मुझे विश्वास है, तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते।” सविता ने कहा–‘ सिवाय भाग चलने के और कोई हमारे सामने रास्ता हीं नहीं है । मैं हर रास्ता ढूंढ़ चुकी हूं और परिणाम की जानकारी भी कर चुकी है। मैं भागने से बेहतर जहर खाकर मर जाना श्रेय- स्कर समझती हूँ, मगर अभी मैं मरना नहीं चाहती ।”
” इसके सिवा और कोई भी रास्ता नहीं है ?”
“नहीं ।” सविता ने कहा ।
” किन्तु मेरे पास पैसे नहीं हैं।” सखीचंद भी भागने पर राजी हो गया था।
“इससे क्या हुआ ?” सविता बोली – “मेरे पास काफी हैं। फिर मैं सवित्री को सब कुछ समझा जाऊँगी।”
“परसों हम दोनों दस बजे रात को तूफान एक्सप्रेस से चलेंगे।” और उसने सविता को आलिंगन पाश में कस लिया। सविता ने कुछ कहा नहीं, केवल उसने अपनी आंखें बन्द कर लीं ।
दोनों शांत थे, जैसे निर्जीव हों ।
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