Chapter 7 Anuradha Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay
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Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7
कुमार नहीं आया, यह सुनकर विजय की माँ मारे भय के कांप उठी ‘यह कैसी बात है रे? जिसके साथ लड़ाई है, उसी के पास लड़के को छोड़ आया?’
विजय ने कहा, ‘जिसके साथ लड़ाई थी, वह पाताल मे जाकर छिप गया है। माँ, किसकी मजाल है, जो उसे खोज निकाले। तुम्हारा पोता अपनी मौसी के पास है। कुछ दिुन बाद आ जायेगा।’
‘अचानक उसकी मौसी कहाँ से आ गई?’
विजय ने कहा, ‘माँ भगवान के बनाए हुए इस संसार में कौन कहाँ से आ पहुँचता है कोई नहीं बता सकता। जो तुम्हारे रुपये-पैसे लेकर डुबकी लगा है, यह उसी गगन चटर्जी की छोटी बहन है। मकान से उसी की निकाल भगाने के लिए लाठी-सोटा और प्यादे-दरबान लेकर युद्ध करने गया था, लेकिन तुम्हारे पोते ने सब गड़बड़ कर दिया। उसने उसका आंचल ऐसा पकड़ा कि दोनों को एक साथ निकाले बिना उसे निकाला ही नहीं जा सकता था।’
माँ ने अनुमान से बात को समझकर कहा, ‘मामूली होता है, कुमार उसके वश में हो गया है। उस लड़की ने उस खूब लाड़-प्यार किया होगा शायद। बेचारे को लाड़-प्यार मिला ही नहीं कभी!’ कहकर उन्होंने अपनी अस्वस्थता की याद करके एक गहरी सांस ली।
विजय ने कहा, ‘मैं तो वहाँ रहता था। घर के अंदर कौन किसे लाड़-प्यार कर रहा है, मैंने आँखों से नहीं देखा। लेकिन जब चलने लगा, तो देखा कि कुमार अपनी मौसी को छोड़कर किसी तरह आना ही नहीं चाहता था।’
माँ का संदेह इतने पर भी नहीं मिटा। कहने लगी, ‘गंवइ-गाँव की लड़कियाँ बहुत तरह की बातें जानती हैं। साथ न लाकर तूने अच्छा नहीं किया।’
विजय ने कहा, ‘माँ, तुम खुद गंवई-गाँव की लड़की होकर गंवई-गाँव की लड़कियों कि शिकायत कर रही हो। क्या तुम्हें शहर की लड़कियों पर अंत में विश्वास हो ही गया?’
‘शहर की लड़कियाँ? उनके चरणों में लाखों प्रणाम!’ यह कहकर माँ ने दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगा लिये।
विजय हँस पड़ा। माँ ने कहा, ‘हँसा क्या है रे? मेरा दुःख केवल मैं ही जानती हूँ और जानते है वे।’ कहते-कहते आँखें डबडबा आई। बोली, ‘हम लोग जहाँ की है, वह गाँव क्या अब रहे हैं बेटा? जमाना बिल्कुल ही बदल गया है।’
विजय ने कहा, ‘बिल्कुल बदल गया है। लेकिन जब तक तुम लोग जीती हो, तब तक शायद तुम्हीं लोगों के पुण्य से गाँव बने रहेंगे माँ। बिल्कुल लोप नहीं होगा उनका। उसी की थोड़ी-सी झांकी अबकी बार देख आया हूँ, लेकिन तुम्हें तो यह चीज दिखाना कठिन है, यही दुःख रह गया मन में।’ इतना कहकर वह ऑफिस चला गया। ऑफिस के काम के तकाजे से ही उसे यहाँ चला आना पड़ा है।
शाम को ऑफिस से लौटकर विजय भैया-भाभी से भेंट करने चला गया। जाकर देखा कि कुरुक्षेत्र का युद्ध छिड़ रहा है। श्रृंगार की चीजें इधर-उकर बिखरी पड़ी है, भैया आरामकुर्सी के हत्थे पर बैठे ज़ोर-ज़ोर से कह रहे हैं, ‘हरगिज नहीं। जाना हो तो अकेली चली जाओ। ऐसी रिश्तेदारी पर मैं-आदि-आदि।’
अचानक विजय को देखते ही प्रभा एक साथ ज़ोर से रो पड़ी। बोली, ‘अच्छा देवर जी, तुम्हीं बताओ। उन लोगों ने अगर सितांशु के साथ अनीता का विवाह पक्का कर दिया, तो इसमें मेरा क्या दोष? आज उसकी सगाई होगी। और यह कहते हैं कि मैं नहीं जाऊंगा। इसके माने तो यही हुए कि मुझे भी नहीं जाने देंगे।’
भेया गरज उठे, ‘क्या कहना चाहती हो तुम? तुम्हें मालूम नहीं था? हम लोगों के साथ एसी जालसाजी करने की क्या ज़रूरत थी इतने दिनों तक?’
माजरा क्या है? सहसा समझ पाने से विजय हतबु्द्धि-सा हो गया। लेकिन समझने में उसे अधिक देर न लगी। उसने कहा, ‘ठहरो-ठहरो, बताओ भी तो? अनीता के साथ सितांशु घोषाल को विवाह होना तय हो गया है। यही ना? आज ही सगाई पक्की होगी? आई एम थ्रो कम्पलीटली ओवर बोर्ड (मैं पूरी तरह से समुद्र में फेंक दिया गया)।’
भैया ने हुकर के साथ कहा, ‘हूं और यह कहना चाहती हैं कि इन्हें कुछ मालूम ही नहीं।’
प्रभा रोती हुई बोली, ‘भला मैं क्या कर सकती हूँ देवर जी? भैया हैं, माँ है। लड़की खूद सयानी हो चुकी है। अगर वह अपना वचन भंग कर रहे हैं, तो इसमें मेरा क्या दोष?’
भैया ने कहा, ‘दोष यही कि वे धोखेबाज हैं, पाखंडी है और झूठे है। एक ओर जबान देकर दूसरी ओर छिपे-छिपे जाल फैलाये बैठे थे। अब लोग हँसेंगे और कानाफूसी करेगें। मैं शर्म के मारे क्लब में मुँह नहीं दिखा सकूंगा।’
प्रभा उसी तरह रूआंसे स्वर में कहने लगी, ‘ऐसा क्या कहीं होता नहीं? इसमें तुम्हारे शर्माने की क्या बात है?’
‘मेरे शरमाने का कारण यह है कि वह तुम्हारी बहन है। दूसरे मेरी ससुराल वाले सब-के-सब धोखेबाज है, इसलिए, उसमें तुम्हारा भी एक बड़ा हिस्सा है इसलिए।’
भैया के चेहरे को देखकर विजय इस बार हँस पड़ा, लेकिन तभी उसने झुककर प्रभा के पैरों की धूल माथे पर लगाकर बड़ी प्रसन्नता से कहा, ‘भाभी भले ही कितने क्यों न गरजें। न मुझे क्रोध आयेगा न अफ़सोस होगा। बल्कि सचमुच ही इसमें तुम्हारा हिस्सा हो, तो मैं तुम्हारा आजीवन कृतज्ञ रहूंगा।’
फिर भैया की ओर मुड़कर बोला, ‘भैया, तुम्हारा नाराज होना सचमुच बहुत बड़ा अन्याय है। इस मामले में जबान देने के कोई मान नहीं होते, अगर उसे बदलने का मौका मिले। विवाह तो कोई बच्चों का खेल नहीं है। सितांशु विलायत से आई.सी.एस. होकर लौटा है। उच्च श्रेणी का आदमी ठहरा। अनीता देखने में सुंदर है, बी.ए. पास है और मैं? यहाँ भी पास नहीं कर सका और विलायत में भी सात-आठ वर्ष बिताकर एक डिग्री प्राप्त नहीं कर सका और अब लड़की की दुकान पर लड़की बेचकर गुजर करता हूँ। न तो पद गौरव है, न कोई डिग्री। इसमें अनीता ने कोई अन्याय नहीं किया भैया।’
भैया ने गुस्से के साथ कहा, ‘हजार बार अन्याय किया है। तू क्या कहना चाहता है कि तुझे ज़रा भी दुःख नहीं हुआ?’
विजय ने कहा, ‘भैया, तुम बड़े ही पूज्य हो, तुमसे झूठ नहीं बोलूंगा। तुम्हारे पैर छूकर कहता हूँ, मुझे रत्ती भर भी दुःख नहीं हुआ। अपने पुण्य से तो नहीं, किसके पुण्य से तो नहीं, किसके पुण्य से बचा सो भी नहीं मालूम। लेकिन ऐसा लगता है कि मैं बच गया। भाभी मैं चलता हूँ। भैया चाहें, तो रुठकर घर में बैठे रहें, लेकिन हम-तुम चलें। तुम्हारी बहन की सगाई में भरपेट मिठाई खा आयें’
प्रभा ने उसके चेहरे की ओर देखकर कहा, ‘तुम मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो देवर जी?’
‘नहीं भाभी, मजाक नहीं उड़ाता। आज मैं अंतकरण से तुम्हारा आशीर्वाद चाहता हूँ। तुम्हारे वरदान से भाग्य मेरी ओर फिर से मुँह उठाकर देखे, लेकिन अब देर मत करो। तुम कपड़े पहन लो। मैं भी ऑफिस के कपड़े बदल आऊं।’
यह कहकर विजय जल्दी से जाना चाहता था कि भैया बोल उठे, ‘तेरे लिए निमंत्रण नहीं है। तू वहाँ कैसे जायेगा?’
विजय ठि
ठक कर खड़ा हो गया। बोला- ‘ठीक है। शायद यह शर्मिंदा होंगे, लेकिन बिना बुलाये कहीं भी जाने में मुझे आज संकोच नहीं है। जी चाहता है कि दौड़ते हुए जाऊं और कह आऊं कि अनीता, तुमने मुझे धोखा नहीं दिया। तुम पर न तो मुझे कोई क्रोध है, न कोई ईर्ष्या। मेरी प्रार्थना है कि तुम सुखी होओ। भैया, मेरी प्रार्थना मानो, क्रोध शांत कर दो। भाभी को लेकर जाओ। कम-से-कम मेरी ओर से ही सही। अनीता को आशीर्वाद दे आओ तुम दोनों।’
भैया और भाभी दोनों ही हतबुद्धि से होकर एक-दूसरे की ओर देखते लगे। सहसा दोनों की निगाहें विजय के चेहरे पर व्यंग्य का वास्तव में कोई चिन्ह नहीं था। क्रोध या अभिमान के लेशमात्र भी छाया उसकी आवाज में नहीं थी। सचमुच ही जैसे किसी सुनिश्चित संकट के जाल से बच जाने से उसका मन शाश्वत आनंद से भर उठा था। आखिर प्रभा अनीता की बहन ठहरी। बहू के लिए यह संकेत लाभप्रद नहीं हो सकता। अपमान के धक्के से प्रभा का ह्दय एकदम जल उठा। उसने कुछ कहना चाहा, लेकिन गला रुंध गया।
विजय ने कहा, ‘भाभी, अपनी सारी बातें कहने का अभी समय नहीं आया है। कभी आयेगा या नहीं, सो भी मालूम नहीं, लेकिन अगर किसी दिन आया, तो तुम भी कहोगी कि देवरजी तुम भाग्यवान हो। तुम्हे मैं आशीर्वाद देती हूँ।’
**समाप्त**
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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :
देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय
बिराज बहू ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय
बड़ी दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय
मझली दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय