चैप्टर 61 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 61 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 61 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 61 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 61 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 61 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

 पांचालों की परिषद् : वैशाली की नगरवधू

उत्तरी पांचाल की राजधानी कंपिला में पांचालों की परिषद् जुड़ी थी। पांचाल संघ राज्य के सभी प्रतिनिधि उपस्थित थे। परिषद् में कुरु संघ राज्य के धनंजय, श्रुतसोम, अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त, कलिंगराज सत्तभू, सौवीर के भरत, विदेह के रेणु तथा काशिराज धत्तरथ उपस्थित हुए थे। मद्रराज और कोसल के पांचों सामंत पुत्र भी आए थे। कपिलवस्तु, धन्यकंटक, जैतवन, नालंदा, तक्षशिला, कन्नौज, काशी, उज्जयिनी, मिथिला, मगध, राजगृह तथा कौशाम्बी के आर्यों और ब्राह्मणों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित हुए थे। श्रोत्रिय भारद्वाज, कात्यायन, शौनक, बोधायन, गौतम, आपस्तंब, शाम्बव्य, जैमिनी, कणाद, औलूक, वसिष्ठ, सांख्यायन, हारीत, पाणिनि और वैशम्पायन पैल आदि धर्माचार्य भी उपस्थित थे। माण्डव्य उपरिचर भी आए थे।

अथर्व आंगिरस् ने सबसे प्रथम विवाह की नई मर्यादा उपस्थित की। उसने कहा-“परिषद् सुने, मैं अब से विवाह की नई मर्यादा स्थापित करता हूं। मैं अब तक प्रचलित वैदिक मर्यादा को बन्द करता हूं। अब से कोई कन्या अवस्था प्राप्त करने पर कुमारी न रहे, वह स्वयं पति को न चुने, वह एक पति के साथ अनुबंधित रहे, वह सपत्नियों से ईर्ष्या-रहित रहे।” केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए ही युवती तरुणों को न वरें। वे उनके गृह-कृत्यों के लिए सुगृहिणी बनें। वर को कन्या, कन्या के गुरुजन दें और यह वृद्धावस्था तक उसी एक पति के साथ सुगृहिणी होकर रहे।”

वैशम्पायन पैल ने कहा-“किन्तु यह तो अवैदिक मर्यादा है। वैदिक मर्यादा में कन्या वर चुनने में स्वतन्त्र है, वह आजीवन उनके साथ रहने को बाध्य भी नहीं, वह आजन्म कुमारी भी रह सकती है।”

आंगरिस् ने कहा-“आज से अथर्वांगिरस् चतुर्थ वेद हो। गाय के चार पाद हैं, वेद भी तीन नहीं, चार हों। नई मर्यादा की आवश्यकता इसलिए है कि अब हमारा जनपद किसान और पशुपालक नहीं रह गया। हममें बड़े-बड़े राजन्य हैं; उनकी सेना, राजसम्पदा राज्याधिकार हैं। हममें राजपुरोहित ब्राह्मण हैं, जो समाज के नियन्ता हैं। हमारी सम्पत्ति, अधिकार और राजधर्म की मर्यादा नहीं है। आज से पुरुष पति है, स्त्री उसके अधीन है; वह दत्ता है। यज्ञ और धर्म-कृत्यों में उसका स्थान ब्राह्मण ग्रहण करें और दायभाग वह नहीं, उसका पुत्र ग्रहण करे।”

भारद्वाज ने कहा-“तो इसका यह अर्थ है कि अब स्त्री पति की जीवन-संगिनी नहीं है और वह धार्मिक कृत्यों में अभिन्न भी नहीं।”

आंगिरस् ने कहा-“वह जीवनसाथी रहे, अभिन्न भी रहे, पर अधिकार पति और पुत्र का हो।”

वैशम्पायन ने कहा-“क्या समाज में स्त्री-पुरुष समान नहीं?” ऐतरेय ने खड़े होकर कहा-“नहीं; मेरी मर्यादा है कि एक पुरुष की अनेक पत्नियां हों, पर एक स्त्री के अनेक पति नहीं। मैं यह भी मर्यादा स्थापित करता हूं कि चार पीढ़ियों के अन्तर्गत आत्मीयों में विवाह न हो। वे चार पीढ़ी बाद सम्मिलित हों।”

अथर्वांगिरस्-“और उसे गुरुजन जिसे दान में दें, वह उसी की पत्नी हो। वह प्रिय दृष्टिवाली, पति की अनुरक्ता, सुखदायिनी, कार्यनिपुणा, सेवा करनेवाली, नियमों का पालन करनेवाली, वीर पुत्र उत्पन्न करनेवाली तथा देवर की कामना करनेवाली हो।”

भारद्वाज ने कहा-“पति की सेवा करनेवाली, नियमों का पालन करनेवाली तथा गुरुजनदत्ता-ये चार नई मर्यादाएं स्थापित हुईं।”

अथर्वांगिरस् ने कहा-“एक पांचवीं और वह सास-ससुर तथा पति के कुटुम्ब के साथ रहे।”

“तो वह अब पति की पत्नी ही नहीं, पति के परिवार का अंग भी हो?” वैशम्पायन पैल ने पूछा।

“ऐसा ही है भद्र! यह मर्यादा उन आर्य, अनार्य, अनुलोम, संकर सभी पर लागू हो, जो वर्णधर्मी हों और यह वैदिक मर्यादा ही रहे। इससे राष्ट्र की संपत्ति, धर्म और राजनीति अखण्ड रहेगी। आंध्र, सौराष्ट्र, चोल, चेर, पाण्ड्य, अंग, बंग, कलिंग-सभी जनपद इस मर्यादा का पालन करें।”

परिषद् ने मर्यादा स्वीकृत की। अब गौतम ने खड़े होकर कहा-“मित्रो, मैं इससे अधिक आवश्यक प्रश्न उठाता हूं। हमारे लिए अब चार वर्ण यथेष्ट नहीं हैं। अब अनेक अनार्य बन्धुओं के मिश्रण से जातियों की अनेक शाखाएं फैलती जा रही हैं। अनार्य बंधु-संसर्ग को उत्तेजन देने को हमने असवर्ण विवाह की मर्यादा स्थिर की थी। मैं ऐसे विवाहों से उत्पन्न सन्तान को अब दायभाग से वंचित करता हूँ तथा उन्हें शुद्ध वर्ण और गोत्र की परंपरा से वंचित करता हूं। वे अनुलोम हों या प्रतिलोम, मैं उनकी पृथक् जाति स्थापित करता हूं। मैं छः प्रकार के विवाह घोषित करता हूं एक ब्राह्म-जिसमें पिता वटुक वर को जल का अर्घ्य देकर कन्या अर्पण करेगा। यह ब्राह्मण का ब्राह्मण के लिए है। दूसरा दैव-जिसमें पिता कन्या को वस्त्राभूषणों से सज्जित करके यज्ञ में स्थानापन्न पुरोहित को देगा। यह क्षत्रिय का ब्राह्मण के लिए है। तीसरा आर्ष-जिसमें पिता एक गाय या बैल देकर उसके बदले कन्या दे। यह जनपद के लिए है। चौथा गान्धर्व-जिसमें तरुण-तरुणी स्वयं ही परस्पर वरण करेंगे। यह वयस्कों के लिए है। पांचवां क्षात्र-जिसमें पति कन्या के संबंधियों को युद्ध में विजय कर बलात् कन्या का हरण करेगा। यह क्षत्रिय का क्षत्रिय के लिए है। छठा मानुष-“जिसमें पति कन्या को उसके पिता से मोल लेगा-यह क्षत्रिय, ब्राह्मण का शूद्र के लिए है।”

आपस्तंब ने कहा-“मैं यह मर्यादा स्वीकार करता हूँ, परन्त क्षात्र विवाह को ‘राक्षस’ और मानुष को ‘आसुर’ घोषित करता हूं। मेरे दक्षिण के जनपद में रक्ष और आसुरों में ये विवाह-मर्यादा स्थापित हैं।”

वसिष्ठ-“मैं जानता हूं। असुर-कन्या शर्मिष्ठा को हम भुला नहीं सकते। मद्र और केकय-वंश की कन्याओं को मध्यदेशीय क्षत्रिय सदैव शुल्क देकर लेते हैं और जिन क्षत्रियों के कुलों में असुरों से सम्बन्ध है, वहां यही कुल-परंपरा है। यदि हम इन क्रीता राजकुमारियों को विवाहित पत्नी नहीं मानते हैं, तो उसकी सन्तानों के अधिकार की रक्षा नहीं होगी। हां, नीच जाति की सुन्दरी कन्याएं दासी की भांति मोल ली और बेची जा सकती हैं, परन्तु उन्हें विवाहित पत्नी के अधिकार नहीं प्राप्त होंगे।”

आपस्तम्ब-“आप ठीक कहते हैं ब्रह्मन्, दक्षिणापथ में इसी प्रकार राक्षसकुल तथा दानव और दैत्यकुल हैं, जो राक्षसकुल से भी उन्नत और आर्य-सभ्यतागृहीत हैं। वे अपनी कुल-मर्यादा नहीं छोड़ सकते। आप जानते हैं, वे दीन नहीं हैं; आर्यों के श्रेष्ठ कुलों में तथा देव-कुल में भी उनके विवाह सम्बन्ध हो चुके हैं। दैत्य-मानव-युद्ध जो होते हैं, वे जातीय हैं, धार्मिक नहीं। वे यज्ञ भी करते हैं। प्रह्लाद और बलि के दान और यज्ञ भुलाए नहीं जा सकते। पुलोमा दैत्य की पुत्री शची इन्द्र की पत्नी थी ही। उसकी कन्या जयन्ती का विवाह शुक्राचार्य और फिर ऋषभदेव से हुआ था। मधु दैत्य की कन्या मधुमती सूर्यवंशी हर्यश्व को ब्याही थी और वृषपर्वा दैत्य की कन्या को ययाति ने पत्नी बनाया था। बाण दैत्य की कन्या का विवाह अनिरुद्ध से हुआ था तथा वज्रनाभि के कुटुम्ब की तीन कन्याएं यादवों में आई हैं। इसलिए मेरी यह मर्यादा स्वीकार करने योग्य है कि ‘राक्षस’ और ‘असुर’ विवाह आर्यपरिपाटी में स्वीकृत कर लिए जाएं, जिससे इन जातियों की कन्याओं के अधिकारों का हनन न हो। परन्तु उत्तम विवाह प्रथम तीन के ही हैं।”

गौतम ने कहा-“मेरी मर्यादा है कि इन छः प्रकारों में ‘प्राजापत्य’ और ‘पिशाच’ दो प्रकार और बढ़ा दिए जाएं। प्राजापत्य विवाह वह है, जिसमें पिता कन्या को यह कह कर दे कि तुम दोनों मिलकर नियमों का पालन करो। यह उत्तरापथ के शिष्ट गणसंघ शासितों की मर्यादा है। पिशाच विवाह मैं उसे कहता हूं, जहां मूर्छिता, रोती-कलपती कन्या का बलात् हरण किया जाए।”

वसिष्ठ ने कहा-“किन्तु यह विवाह नहीं है।”

गौतम ने कहा-“यह मर्यादा काम्बोजों में विहित है। नन्दिनगर का काम्बोज संघ भी आर्यों के संघ में मिल चुका है। आप जानते हैं कि उत्तरापथ में काम्बोज की सीमाएं गान्धार से मिली हुई हैं। उनके रीति-रिवाज जंगली तो हैं ही, परंतु उन्हें हमें आर्यों के संघ में लाना है।”

बोधायन ने कहा-“यह मर्यादा मुझे मान्य है।”

गौतम-“तो एक ही गोत्र और प्रवर के स्त्री-पुरुष विवाह न करें। वे ही विवाह करें, जो माता की चार पीढ़ियों और पिता की छः पीढ़ियों में न हों।”

आपस्तम्ब-“नहीं, नहीं, माता-पिता दोनों ही की छः-छः पीढ़ियों में न हों। गोत्र के निषेध को मैं स्वीकार करता हूं, परंतु प्रवर का बंधन नहीं।”

“मेरी मर्यादा है कि चाची या मामा की लड़की से विवाह किया जा सकता है।”

गौतम-“मैं उत्तरापथ में यह मर्यादा कदापि स्थापित न होने दूंगा। दूसरे मैं संकर की समस्या पर भी विचार उपस्थित करता हूं। इस समय आर्यों के तीन वर्ण हैं, एक ब्राह्मण पुरोहित, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा जनपद अर्थात् विश। इनके सिवा अनार्य, दस्यु, दास, राक्षस, दैत्य और दानव-कुल भी हैं। आप जानते हैं कि प्रारम्भ में सभी आर्य खेती और पशुपालन करते थे। पीछे उनमें राजन्य हुए हैं, जो आज क्षत्रिय राजा हैं। वे शासन-व्यवस्था करते हैं। दूसरे ब्राह्मण पुरोहित हुए जो यज्ञ के अधिकारी हैं तथा धर्म-मर्यादा स्थापित करते हैं। इनके बाद जो जन बचे वे विश थे। वे ही आर्यों के पुराने कार्य कृषि और पशुपालन करते आए थे। परन्तु हमारे राज्य-वैभव-विस्तार और चहुंमुखी सभ्यता के विस्तार के कारण वे भी केवल वाणिज्य करने लगे। अतः आर्यों का प्राचीन धंधा पशुपालन और कृषि, उनसे निकृष्ट शूद्रों को करना पड़ रहा है। परन्तु उनमें जो इन कार्यों से सम्पन्न हो गए हैं वे सेवा नहीं करते, सेवाकार्य का दायित्व क्रीत दासों के सुपुर्द हो गया है।”

आपस्तम्ब-“मित्र गौतम का अभिप्राय क्या है?”

गौतम–”बड़ा जटिल मित्र! वही मैं कहता हूं। आर्यों की पुरानी मर्यादा के अनुसार उच्च वर्ग का पुरुष अपने से नीचे वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकता है। इससे ब्राह्मण को चारों वर्णों की स्त्रियां ब्याहने का अधिकार है। क्षत्रियों को तीन की, पर वैश्यों को दो ही की। फिर उन्हें कृषि, वाणिज्य और शिल्प के लिए दासों, शूद्रों और कर्मकारों से घनिष्ठ रहना पड़ता है। नियम से भी उन्हें अपने सिवा शूद्रा स्त्री ही मिल सकती है। इससे उनके रक्त में शूद्रों और अनार्य दासों का रक्त बहुत अधिक मिश्रित हो गया है, जिससे समाज में बहुत गड़बड़ी और अशुद्धि उत्पन्न हो गई है। नियमानुसार ऐसे विवाह की सन्तान पिता की जाति की मानी जाती है। इस मिश्रण से वैश्यों का रंग भी बदल गया है और उनका बुद्धिविकास भी कम हो गया है। संकर जनपद में जो सेट्ठिजन हैं उन्हें छोड़कर सर्वत्र ही विशकुल हीन हो गया है। अतः मैं आर्यों में संकर भाव को बंद करता हूं। मैं यह मर्यादा स्थापित करता हूं कि अपने ही वर्ण की स्त्री की सन्तान पिता के वर्ण को प्राप्त हो, वही सम्पत्ति में भागी हो।”

वसिष्ठ-“परन्तु यह प्राचीन मर्यादा है कि ब्राह्मण तीनों वर्गों की स्त्री से ब्राह्मण सन्तान पैदा कर सकता है। यह सत्य नहीं है कि संकर सन्तान हीनगुण होती है। मत्स्यगन्धा में पराशर ऋषि के औरस से व्यास का जन्म हुआ जो विद्या-बुद्धि में अपने पिता से भी बढ़-चढ़कर हुए। उनकी योग्यता का व्यक्ति उस युग के ब्राह्मणों में भी कोई न था।”

गौतम-“इतना होने पर भी उन पर ‘न देवचरितं चरेत्’ का नियम लगा दिया गया था और उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया था और यह स्पष्ट कर दिया गया कि ब्राह्मण शूद्रों में सन्तान न उत्पन्न करें; करें तो वे ब्राह्मण नहीं।”

वसिष्ठ-“ब्राह्मण नहीं तो कौन? वे शूद्र भी नहीं?”

गौतम-“मैं उसे ‘पारशव’ घोषित करता हूं और उसकी मर्यादा स्थापित करता हूं कि वह अपने कुल की सेवा करे।”

वसिष्ठ-“तब क्षत्रिय भी शूद्रों में जो सन्तान उत्पन्न करें, वह क्षत्रिय नहीं। उसे मैं ‘उग्र’ घोषित करता हूं। उसकी पृथक् जाति हो, परन्तु वैश्य पिता की शूद्रा में सन्तान वैश्य ही रहे। किन्तु वैश्या माता और ब्राह्मण पिता की सन्तान ब्राह्मण नहीं, मैं उसे ‘अम्बट’ घोषित करता हूं। यही उसकी जाति हो।”

अब शौनक ने उठकर कहा-“तो हम सब ऐसी मर्यादा स्थापित करते हैं कि सवर्ण विवाह की सन्तान ही सवर्ण है। प्रतिलोम की भांति अनुलोम सन्तान भी आज से संकर हुई, तथा वह आर्यों से बहिर्गत हुई।”

सांख्यायन श्रोत्रिय ने कहा-“ऐसा ही हो–नहीं तो आर्य-कुल का नाश हो जाएगा। क्या आप देखते नहीं कि आर्यों के सब राज्य, शिल्प, वाणिज्य संकरों ने अपना लिए हैं?”

आपस्तम्ब-“किन्तु मित्र इस व्यवस्था से तो संकरों का अधिक संगठन होगा। वे और सबल होंगे। वे आर्यों के विद्रोही हो जाएंगे। संकरों की प्रत्येक जाति में एक प्रकार का गर्व उत्पन्न हो जाएगा, क्योंकि प्रत्येक जाति यह समझने लगेगी कि किसी-न-किसी जाति से तो हम श्रेष्ठ हैं ही। फिर जहां कहीं धन और शक्ति का आधिक्य हो गया, वहां तो यह गर्व और बढ़ जाएगा, तथा भीतरी भेद उत्पन्न होने लगेंगे। देश-भेद, रहन-सहन और खान-पान में अन्तर पड़ जाएगा। विवाह भी उन्हीं जातियों में होने लग जाएंगे। ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों तथा शूद्रों की भी अनेक उपजातियां बन जाएंगी। उन्हीं से उनके विवाह और खान-पान सीमित हो जाएंगे। संकरों की भी अनगिनत जातियां बन जाएंगी। इससे आर्यों का सम्पूर्ण संगठन नष्ट हो जाएगा। उदाहरण के लिए, कोसल के अधिपति प्रसेनजित् के परिणाम की ओर आपका ध्यान आकर्षित करता हूं।”

गौतम-“चाहे जो भी हो, हम रक्त की शुद्धता को नष्ट नहीं होने देंगे। अब तक विवाह की तीन विधियां थीं-एक अग्निप्रदक्षिणा, दूसरी सप्तपदी लाजहोम, तीसरी शिलारोहण। मैं अब से पांच विधि स्थापित करता हूं; चौथी कन्यादान और पांचवीं गोत्रों का बचाव। आर्यों का विवाह इन पांच विधियों के पूर्ण हुए बिना सम्पादित न हो।”

वसिष्ठ-“ऐसा ही हो। अब मैं क्षेत्रज पुत्र को दायभाग में दूसरा स्थान देता हूं।”

गौतम-“मैं स्वीकार करता हूं।”

बोधायन-“मैं मतभेद रखता हूं। क्षेत्रज का स्थान मैं तीसरा स्थापित करता हूं।”

आपस्तम्ब-“मैं विरोध करता हूं। मैं नियोग की प्रथा को बन्द कर देने के पक्ष में हूं। किसी सभ्य पुरुष को अपनी स्त्री कुटुम्बी को छोड़कर किसी दूसरे को नहीं देनी चाहिए। नियम के अनुसार पति को छोड़कर उसे दूसरे पुरुष का हाथ अज्ञात पुरुष का हाथ समझना चाहिए।”

गौतम-“मैं यह मर्यादा स्थापित करता हूं कि जिस विधवा स्त्री को सन्तान की इच्छा हो, वह गुरुजनों की आज्ञा लेकर देवर से ऋतुगमन कर ले। देवर का अभाव हो तो सपिण्ड, सगोत्र, समान प्रवर या सवर्ण पुरुष से कर ले। वह दो से अधिक सन्तान न उत्पन्न करे। सन्तान उसकी है, जो उत्पन्न करे। यदि पति जीवित हो तो सन्तान दोनों की है।”

हारीत-“मैं सहमत हूं।”

भारद्वाज-“जो विवाहिता किन्तु अक्षतयोनि ही है, उसे मैं कन्या घोषित करता हूं। उसका नियमानुसार विवाह हो।”

बोधायन-“सम्भोग हो भी गया हो, परन्तु विधिवत् विवाह न हुआ हो, तो वह भी कन्या ही है। उसका विवाह विधिवत् हो।”

पाणिनि-“जो अविवाहिता है वह कन्या है। पर पुरुष से भोगी जाकर भी उसका कन्या-भाग दूषित न हो। विवाह-विधि होने के बाद पुरुष-संग ही से उसका कन्या-भाव छूटे।”

वसिष्ठ-“तो मैं छः कन्याएं घोषित करता हूं-1. जो अविवाहिता और अक्षत है, 2. जो अविवाहिता है और क्षत है, 3. जो विवाहिता है और अक्षत है, 4. साधारण स्त्री, 5. विशिष्ट स्त्रियां, 6. मुक्तभोगिनी।”

गौतम–”यदि किसी स्त्री का पति एकाएक विदेश चला जाए, तो वह छः वर्ष उसकी राह देखकर पुनर्विवाह कर ले। पर यदि पति ब्राह्मण हो और विद्या-अध्ययन के लिए गया हो तो स्त्री बारह वर्ष राह देखे।”

कात्यायन-“नपुंसक या पतित पति की स्त्री यदि दूसरा विवाह ब्याह करे तो उसका पुत्र पौनर्भव हो। वह माता के पहले पति के दाय से भोजन-वस्त्र पाए।”

वसिष्ठ-“जो स्त्री अपने अल्पवयस्क पति को छोड़ अन्य-पुरुष के पास रहे, तथा फिर पहले पति के वयस्क होने पर उसके पास आ जाए वह पुनर्भवा है। यदि उसका पति पागल, पतित या नपुंसक हो और वह उसे छोड़कर दूसरे पति से विवाह करे तो वह पौनर्भव हो।”

हारीत–”ये छः पुत्र दायाद बन्धु हैं-औरस, क्षेत्रज, पौनर्भव, कानीन, पुत्रिका पुत्र और गूढ़ज। ये क्रम से दायभागी हों।”

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