चैप्टर 6 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Chapter 6 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 6 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Chapter 6 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 6 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

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 पहला अतिथि : वैशाली की नगरवधू

अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। पूर्वाकाश की पीत प्रभा पर शुक्र नक्षत्र हीरे की भांति दिप रहा था। सप्तभूमि प्रासाद के प्रहरी गण अलसाई-उनींदी आंखों को लिए विश्राम की तैयारी में थे। एकाध पक्षी जग गया था। एक तरुण धूलि-धूसरित, मलिन-वेश, अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में धीरे-धीरे प्रासाद के बाहरी तोरण पर आ खड़ा हुआ। प्रहरी ने पूछा––”कौन है?”

“मैं देवी अम्बपाली से मिलना चाहता हूं।”

“अभी देवी अम्बपाली शयनकक्ष में हैं, यह समय उनसे मिलने का नहीं है, अभी तुम जाओ।”

“मैं नहीं जा सकता, देवी के जागने तक मैं प्रतीक्षा करूंगा।” यह कह वह प्रहरी की अनुमति लिए बिना वहीं तोरण पर बैठ गया।

प्रहरी ने क्रुद्ध होकर कहा––”चले जाओ तरुण, यहां बैठने की आज्ञा नहीं है। देवी से संध्याकाल में मिलना होता है। इस समय नहीं।”

“कुछ हर्ज नहीं, मैं संध्याकाल तक प्रतीक्षा करूंगा।”

“नहीं–नहीं, भाई, चले जाओ तुम, यहां विक्षिप्तों के प्रवेश का निषेध है।”

“मुझे अनुमति मिल जाएगी मित्र, मैं वैसा विक्षिप्त नहीं हूं।”

प्रहरी क्रुद्ध होकर बलपूर्वक उसे हटाने लगा, तो तरुण ने खड्ग खींच लिया। प्रहरी ने सहायता के लिए सैनिकों को पुकारा। इतने ही में ऊपर से किसी ने कहा––”इन्हें आने दो प्रहरी।”

प्रहरी और आगन्तुक दोनों ने देखा, स्वयं देवी अम्बपाली अलिन्द पर खड़ी आदेश दे रही हैं। प्रहरी ने देवी का अभिवादन किया और पीछे हट गया। तरुण तीनों प्रांगण पार करके ऊपर शयनकक्ष में पहुंच गया।

अम्बपाली ने पूछा––”रात भर सोए नहीं हर्षदेव!”

“तुम भी तो कदाचित् जगती ही रहीं, देवी अम्बपाली!”

“मेरी बात छोड़ो। परन्तु तुम क्या रात-भर भटकते रहे हो?”

“कहीं चैन नहीं मिला, यह हृदय जल रहा है। यह ज्वाला सही नहीं जाती अब।”

“एक तुम्हारा ही हृदय जल रहा है हर्षदेव! परन्तु यदि यह सत्य है तो इसी ज्वाला से वैशाली के जनपद को फूंक दो। यह भस्म हो जाए। तुम बेचारे यदि अकेले जलकर नष्ट हो जाओगे तो उससे क्या लाभ होगा?”

“परन्तु अम्बपाली, तुम क्या एकबारगी ही ऐसी निष्ठुर हो जाओगी? क्या इस आवास में तुम मुझे आने की अनुमति नहीं दोगी? मैं तुम्हारे बिना रहूंगा कैसे? जीऊंगा कैसे?”

“आओगे तुम इस आवास में? यदि तुममें इतना साहस हो तो आओ और देखो कि तुम्हारी वाग्दत्ता पत्नी से वैशाली के तरुण सेट्ठिपुत्र और सामन्तपुत्र किस प्रकार प्रेम-प्रदर्शन करते हैं और वह किस कौशल से हृदय के एक-एक खण्ड का क्रय-विक्रय करती है। देखोगे तुम? देख सकोगे? तुम्हें मनाही किस बात की है? यह तो सार्वजनिक आवास है। यहां सभी आएंगे, तुम भी आना। परन्तु इस प्रकार दीन-हीन, पागल की भांति नहीं। दीन-हीन पुरुष का इस आवास में प्रवेश निषिद्ध है। तुम्हें यह न भूल जाना चाहिए कि यह वैशाली की नगरवधू देवी अम्बपाली का आवास है। जैसे और सब आते हैं, उसी भांति आओ तुम, सज धजकर हीरे-मोती-स्वर्ण बखेरते हुए। होंठों पर हास्य और पलकों पर विलास का नृत्य करते हुए। सबको देवी अम्बपाली से प्रेमाभिनय करते देखो। तुम भी वैसा ही प्रेमाभिनय करो, हंसो, बोलो, शुल्क दो, और फिर छूछे-हाथ, शून्य-हृदय अपने घर चले जाओ। फिर आओ और फिर जाओ। जब तक पद-मर्यादा शेष रहे, जब तक हाथ में स्वर्ण-रत्न भरपूर हों, आते रहो, लुटाते जाओ, लुटते जाओ, यह नगरवधू का घर है, यह नगरवधू का जीवन है, यह मत भूलो।”

अम्बपाली कहती ही चली गई। उसका चेहरा हिम के समान श्वेत हो रहा था। हर्षदेव पागल की भांति मुंह फाड़कर देखते रह गए। उनसे कुछ भी कहते न बन पड़ा। कुछ क्षण स्तब्ध रहकर अम्बपाली ने कहा—”क्यों, कर सकोगे ऐसा?”

“नहीं, नहीं, मैं नहीं कर सकूँगा।”

“तब जाओ तुम। इधर भूलकर भी पैर न देना। इस नगरवधू के आवास में कभी आने का साहस न करना। तुम्हारी वाग्दत्ता स्त्री अम्बपाली मर गई। यह देवी अम्बपाली का सार्वजनिक आवास है। और वह वैशाली की नगरवधू है। यदि तुममें कुछ मनुष्यत्व है तो तुम जिस ज्वाला से जल रहे हो, उसी से वैशाली के जनपद को जला दो—भस्म कर दो।”

हर्षदेव पागल की भांति चीत्कार कर उठा। उसने कहा—”ऐसा ही होगा। देवी अम्बपाली, मैं इसे भस्म करूंगा। वैशाली के इस जनपद की राख तुम देखोगी, सप्तभूमि प्रासाद की इन वैभवपूर्ण अट्टालिकाओं में अष्टकुल के वज्जीसंघ की चिता धधकेगी और वह गणतन्त्र का धिक्कृत कानून उसमें इस आवास के वैभव के साथ ही भस्म होगा।”

“तब जाओ, तुम अभी चले जाओ। मैं तुम्हारी जलाई हुई उस ज्वाला को उत्सुक नेत्रों से देखने की प्रतीक्षा करूंगी।”

हर्षदेव फिर ठहरे नहीं। उसी भांति उन्मत्त-से वे आवास से चले गए।

अम्बपाली पत्थर की प्रतिमा की भांति क्षण-क्षण में उदय होते हुए अपने नगरवधू-जीवन के प्रथम प्रभात को देखती खड़ी रही।

क्रमश:

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