चैप्टर 6 रेबेका उपन्यास डेफ्ने ड्यू मौरिएर | Chapter 6 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier

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Chapter 6 Rebecca Novel In Hindi

Chapter 6 Rebecca Novel In Hindi

मुझे याद आ रहा था कि उस समय मैं अपने सामने शीशे की ओर एकटक देख रही थी, भागती हुई सड़क मुझे बिल्कुल नहीं दिखाई दे रही थी और मेरे कानों में अपने कहे हुए शब्द गूंज रहे थे। मैं कई मिनट तक चुप बैठी रही और उन मिनटों में कई मील निकल गए और मैंने सोचा कि आप सब कुछ समाप्त हो चुका है। अब मैं उनके साथ कभी घूमने नहीं आ पाऊंगी। वह कल चले जाएंगे, कुली उनका सामान नीचे लायेगा और मैं उनके नई चिट लगे हुए सामान को ठेले में रखा देखूंगी। उनके जाने के समय कुछ सरगर्मी सी होगी और फिर कोने पर मुड़ते समय गियर की आवाज सुनाई देगी। उसके बाद वह आवाज दूसरी आवाज में मिल जाएगी और सदा के लिए खो जाएगी।

मैं कल्पना में इतनी डूबी हुई थी कि मुझे कार की गति के धीमी होने का पता ही नहीं लगा और मेरा ध्यान तब टूटा, जब कार सड़क के किनारे आकर रुक गई। वह बिल्कुल निश्चल बैठे थे, न सिर पर टोप था न गर्दन में सफेद टाई।

उस समय न तो वह मित्र जैसे दिखाई दे रहे थे, न भाई जैसे। वह बिल्कुल अजनबी जैसे लग रहे थे और मैं यह समझ नहीं पा रही थी कि मैं कार में उनके बराबर क्यों बैठी हूं। 

तभी उन्होंने अचानक मेरी तरफ मुड़कर कहा, ” जरा देर पहले तुमने एक अविष्कार की बात कही – एक ऐसी योजना की बात, जिससे स्मृतियों को बंद करके रखा जा सके। तुमने यह भी कहा कि तुम किसी समय फिर से अतीत में विचरण करना चाहोगी। किंतु मेरे विचार बिल्कुल विपरीत हैं। मेरे लिए तो सभी स्मृतियां कड़वी हैं और मैं उनकी उपेक्षा करना चाहता हूं। पिछले वर्ष एक ऐसी घटना घटी, जिसने मेरे सारे जीवन को बदल दिया है और मैं उस समय तक के अपने जीवन को एकदम भूल जाना चाहता हूं। वे दिन समाप्त हो गए हैं, उनका नामोनिशान तक मिट चुका है। मुझे फिर से नया जीवन आरंभ करना होगा। जब हम पहली बार मिले थे, तब तुम्हारी श्रीमती हार्पर ने मुझसे मोंटी कार्लो आने का कारण पूछा था। उनके इस पूछने से पहले वे सारी स्मृतियां, जिन्हें शायद पुनर्जीवित करना चाहोगी, बोतल में बंद सी हो गई थी। किंतु बोतल सदा काम नहीं करती, कभी-कभी उसमें बंद की हुई वस्तुओं की सुगंध इतनी तेज होती है कि उसमें समा नहीं पाती। कभी-कभी मन डाट को उखाड़ फेंकने के लिए विकल उठता है।

उस दिन जब मैं तुम्हें कार में लेकर पहली बार पहाड़ी गया था, तब ऐसा ही कुछ हुआ था। कुछ साल पहले मैं वहां अपनी पत्नी के साथ गया था। तुमने पूछा था ना, क्या वह पहाड़ी अब भी पहले ही जैसी है। हां, वह बिल्कुल पहले जैसी है। लेकिन मुझे ऐसा लगा, जैसे उससे मेरा अब कोई संबंध नहीं रह गया है। वहां अतीत का कोई भी संकेत नहीं था। शायद इसका कारण यह था कि तुम मेरे साथ थी। तुमने मेरे अतीत को एकदम मिटा डाला है, तुम न होती तो मैं न मालूम कब का मोंटी कार्लो से चला गया होता – इटली यूनान या शायद और भी दूर। तुमने मुझे जगह-जगह भटकते फिरने से बचा लिया है। कृपा और भिक्षा की बातें छोड़ो, मैं तुम्हें अपने साथ चलने को इसलिए कहता हूं कि मुझे तुम्हारी और तुम्हारे साथ की जरूरत है। अगर तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं है, तो तुम अभी गाड़ी से बाहर निकल कर अपने घर का रास्ता आप नाप सकती हो। उठो दरवाजा खोलो और बाहर चली जाओ।

मैं गोद में अपने हाथ रखे चुप बैठी रही। मेरी समझ में नहीं आया कि उन्होंने जो बात कही है, वह सचमुच उनके मन की बात है या यूं ही कह दी गई है।

“हां, तो तुमने क्या तय किया?” उन्होंने पूछा।

यदि मैं एक दो बरस छोटी होती तो शायद रो पड़ती है क्योंकि मेरी आंखों में आंसू डबडबा रहे थे और मेरा चेहरा लाल हो रहा था। 

“मैं घर जाना चाहती हूं।” मैंने कांपती हुई आवाज में कहा और उन्होंने बिना एक शब्द भी कहे इंजन चला दिया और जिस रास्ते से हम आए थे, उसी रास्ते पर कार मोड़ ली।

बहुत तेजी से हमने मैदान पार कर लिया और हम सड़क के उस मोड़ पर पहुंच गए जहां की स्मृति को मैं बोतल में बंद करके रखना चाह रही थी। मेरी बदली हुई मनोस्थिति के कारण उसका आकर्षण जा चुका था। उसमें और सड़क के उन दूसरे मोड़ों में, जिन्हें सैकड़ों मोटरें पार करती रहती है, अब कोई अंतर नहीं रह गया था। आंसू, जो जब तक मेरी आंखों में रुके हुए थे, बह निकले थे। मैं अपनी जेब से रुमाल भी नहीं निकाल सकती थी, क्योंकि इससे नहीं पता चल जाता कि मैं रो रही हूं। इसलिए आंसू टप टप गिरते रहे और उनका खारा स्वाद मेरे होठों पर लगता रहा। उन्होंने मुड़कर मुझे देखा या नहीं, इसकी मुझे खबर नहीं क्योंकि धुंधली दृष्टि से एकटक सामने देख रही थी। अचानक उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर चूम लिया। अब भी वह कुछ बोले नहीं और उन्होंने अपना रुमाल चुपचाप मेरी गोद में डाल दिया।

इस समय मुझे कहानियों की उन नायिकाओं का ध्यान आया, जो सोते समय बड़ी सुंदर लगने लगती थी और मैंने सोचा कि अपना सूजा हुआ चेहरा औरआंखों में लाल लाल कोए लिए हुए मैं और नायिका के कितनी विपरीत लग रही होंगी।

आज का सवेरा उदासी के साथ समाप्त हुआ था और अभी मेरे सामने पहाड़ सा दिन पड़ा था। मुझे श्रीमती हार्पर के साथ उनके कमरे में ही भोजन करना था, क्योंकि नर्स आज बाहर जा रही थी। मैं जानती थी कि उसके बाद मुझे उनके साथ घंटों ताश खेलना पड़ेगा। फिर उनके मित्र आएंगे, जिन्हें मुझे सोडे में शराब मिलाकर देनी होगी। श्रीमती हार्पर उन से जोर जोर से हंस कर बातें करेंगी, ग्रामोफोन पास खींचकर उस पर कोई रिकॉर्ड चढ़ा कर बजाएंगी और उसकी लय के साथ-साथ अपने कंधे मटकायेंगी। इन सब बातों का मुझे सामना करना पड़ेगा और द विंतर मुझे होटल में छोड़ कर अकेले कहीं चले जाएंगे। शायद किसी समुद्र के किनारे , जहां उनके गालों पर धूप और हवा के थपेड़े लगेंगे और वहां वह उन स्मृतियों में डूब जाएंगे, जिनके विषय में न मैं कुछ जानती हूं और न ही जिनमें मैं कुछ हिस्सा बंटा सकती हूं। वह फिर से अपने अतीत में भटकने लगेंगे।

हमारे बीच की खाई अब इतनी चौड़ी हो गई थी, जितनी पहले कभी नहीं थी और वह उसके दूसरे किनारे पर मुझसे बहुत दूर पीठ मोड़े खड़े थे। उस समय मुझे ऐसा लगा, जैसे मैं बिल्कुल अकेली हूं और अपनी अकड़ के बावजूद मैंने उन का रुमाल उठाकर उसे अपनी नाक साफ कर ली।

“ऐसी की तैसी।” वह अचानक बोल पड़े, मानो उकता गए और उन्हें गुस्सा आ रहा हो। उन्होंने मुझे अपने पास खींच लिया और मेरे कंधे में अपनी बांह लपेट ली। उनका सीधा हाथ कार के चक्के पर था और वह बिल्कुल अपने सामने देख रहे थे। मुझे याद है कि उन्होंने कार को और भी तेजी से चलाना शुरु कर दिया।

 वह बोले, ” तुम इस उम्र में इतनी छोटी हो, जितनी मेरी बेटी और मैं सोच नहीं पा रहा हूं कि तुम्हें किस तरह समझाऊं। “

सड़क के किनारे पर पहुंचकर बिल्कुल कम हो गई थी और उन्हें एक कुत्ते को बचाने के लिए गाड़ी तेजी से मोड़नी पड़ी। मैंने सोचा कि अब वह मुझे छोड़ देंगे, लेकिन वह मुझे चिपटाए रहे। यहां तक कि जब कोना पार कर कार फिर सड़क पर आ गई, तब भी उन्होंने अपनी बाहें मेरे गले में से नहीं निकाली। 

वह बोले, ” आज सवेरे मैंने तुमसे जो कुछ भी कहा है, उसे तुम बिल्कुल भूल जाओ। वह सब समाप्त हो चुका है और अब हमें उस विषय में कभी सोचना भी नहीं चाहिए। मेरे संबंधी मुझे मैक्सिम कहकर पुकारते हैं और मैं चाहता हूं कि तुम भी मुझे इसी नाम से पुकारा करो। तुम मेरे साथ काफी तकल्लुफ बरत चुकी हो।”

उन्होंने मेरे टोप को उतारकर पिछली सीट पर फेंक दिया और झुक कर मेरे सिर को चूम लिया।

“वादा करो तुम कभी काली साटन के कपड़े नहीं पहनोगी।” उन्होंने कहा।

मैं मुस्कुरा दी और वह मुझे देख कर हंस पड़े। वह सवेरा मेरे लिए एक बार फिर सुहावना बन गया। अब श्रीमती हार्पर और उनके साथ बीतने वाली संध्या की मुझे रत्ती भर भी चिंता नहीं थी। वह तो बहुत जल्दी बीत जाएगी और फिर रात आएगी और उसके बाद फिर कल का दिन शुरू हो जाएगा। उस समय में बहुत ही प्रसन्न थी और मुझमें श्रीमती हार्पर से बराबरी का दावा करने का साहस था। मुझे लगा मानो मैं अपने कमरे में देर से पहुंची हूं और जब उन्होंने मुझसे इसका कारण पूछा, तब मैंने लापरवाही से जम्हाई लेते हुए जवाब दिया, “मुझे समय का ध्यान ही नहीं रहा क्योंकि मैं मैक्सिम के साथ खाना खा रही थी।”

मुझ में अभी तक इतना बचपना था कि किसी का अपने प्यार के नाम से पुकारा जाना मुझे बहुत बड़ी बात मालूम देती थी। वह पहले दिन से ही मुझे इसी नाम से पुकारते थे। उस प्रभात ने मुझे उनका मित्र बना दिया था। उन्होंने मेरा चुंबन भी लिया था, जो बिल्कुल संभावित, शांत और सुखदायक थाm उसमें ना तो पुस्तकों में की नाटकीयता थी और न कोई ठेस पहुंचाने वाली भावना। उससे हमारे पारस्परिक संबंध में और भी अधिक आत्मीयता आ गई थी, सब कुछ सरल हो गया था। हमारे बीच की खाई पट गई थी। अब मुझे उन्हें मैक्सिम कह कर पुकारना था।

उस उस दिन श्रीमती हार्पर के साथ ताश खेलना मुझे दुखदाई नहीं लगा फिर भी उन्हें सवेरे की घटनाओं के बारे में कुछ कहने का साहस मुझ में नहीं था। ताश इकठ्ठे करते समय वह अचानक पूछ बैठी थी, ” क्या मैक्सिम द विंतर अभी होटल में है?” तब मैं एक क्षण के लिए झिझकी थी, ठीक वैसे ही, जैसे गोताखोर कगार में कूदते समय झिझकता है मुझे अपने पर अधिकार नहीं रहा और मैंने उत्तर दिया, ” मैं समझती हूं कि होटल में ही है, क्योंकि वह खाना खाने रेस्तरां में आते हैं।”

मुझे आशंका हुई कि कहीं किसी ने कुछ कह तो नहीं दिया है, कहीं किसी ने हम दोनों को साथ साथ देख तो नहीं लिया है, कहीं टेनिस के शिक्षक ने आकर शिकायत तो नहीं कर दी है या कहीं होटल के मैनेजर ने कोई पर्चा लिखकर तो नहीं भेज दिया है। मैं श्रीमती हार्पर के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगी। लेकिन वह जम्हाई लेती हुई ताश डिब्बे में रखती रही और मैं उनके बिस्तर को ठीक करती रही। फिर मैंने उन्हें पाउडर, रूज और लिपस्टिक पकड़ाई और उन्होंने ताश का डिब्बा रखकर शीशा उठा लिया।

“है तो आकर्षक व्यक्ति!” वह बोली, ” लेकिन बहुत अजीब सा स्वभाव है उसका। उसे समझना मुश्किल है।”

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। चुप खड़ी मैं उन्हें होठों पर लिपस्टिक लगाती देखती रही। वह फिर कहने लगी, ” मैंने उसे कभी देखा तो नहीं था, लेकिन मेरे ख्याल में वह बहुत ही सुंदर थी। हर तरह से सुखद और गुणवती। मैंदरले में बड़ी शानदार दावतें हुआ करती थी। उसकी मृत्यु बहुत ही आकस्मिक और दुखदाई थी और मुझे विश्वास है कि द विंतर उसकी पूजा करते थे। मुझे इस तेज लाली के साथ पाउडर का रंग गहरा करना होगा। जरा उठा तो लाओ और जो इस डिब्बे को दराज में रख देना।”

उसके बाद पाउडर, सेंट और उसका कार्यक्रम कब तक चलता रहा, जब तक की घंटी न बजी और श्रीमती हार्पर के मित्र न आ पहुंचे। मैंने उन्हें सदा की तरह शराब पेश की, ग्रामोफोन पर रिकॉर्ड बदले और सिगरेट के टोंटे फेंके। किसी ने मुझसे मेरी चित्रकारी के बारे में पूछा और मैंने बनावटी मुस्कुराहट के साथ उसका कुछ जवाब भी दिया, लेकिन वह जवाब मैंने नहीं दिया था। असल में तो मैं वहां थी ही नहीं। मैं तो एक छाया के पीछे चली जा रही थी, जिसका रूप अब कुछ स्पष्ट होने लगा था। फिर भी अभी उसका चेहरा धुंधला सा था और उसकी आंखों और उसके बालों की रूपरेखा मेरे सामने स्पष्ट नहीं थी। उसकी सुंदरता शाश्वत थी, उसकी मुस्कुराहट कभी भुलाई नहीं जा सकती थी, उसकी आवाज अब भी कहीं मंडरा रही थी। वे स्थान दी, जहां वह गई थी; वे चीजें थीं, जिन्हें उसने छुआ था। शायद अलमारी में कपड़े भी होंगे, जिन्हें उसने पहना होगा और जिसमें अब तक इत्र बसा हुआ होगा। मेरे सोने के कमरे में मेरे तकिए के नीचे किताब थी, जिसे उसने अपने हाथों में लिया होगा और मुझे लगा मानो मैं उसे उसका पहला पृष्ठ उलटते हुए देख रही हूं और वह मुड़े हुए निब को झटककर मुस्कुराती हुई लिख रही है – “मैक्स को रेबेका की भेंट!” शायद उस दिन श्री द विंतर का जन्मदिन रहा होगा और जलपान की मेज पर अपने दूसरे उपहारों के बीच उसने यह किताब भी रख दी होगी। मैक्स ! हां, वह उन्हें मैक्स कहकर पुकारती थी। मैक्स, कितना परिचित कितना सुंदर और पुकारने में कितना सरल। उसकी दादी उसकी बहन उसे प्यार से मैक्सिम कहकर पुकारती थी। लेकिन मैक्स तो उसकी अपनी अपनी पसंद का नाम था। इस नाम पर उसका एकमात्र अधिकार था और बड़े विश्वास के साथ उसने उसे पुस्तक के पृष्ठ पर लिखा था। वह गहरी तिरछी लिखावट, जिसने सफेद कागज का हृदय भेद दिया था, उसका अपना चित्र था। इतना पक्का, इतना सुरक्षित। न मालूम उसने कितनी बार कैसी-कैसी भावना में होकर उन्हें इस प्रकार लिखा होगा।

कागज के छोटे टुकड़े पर घसीट में लिखे हुए कुछ शब्द, मैक्सिम के बाहर चले जाने पर निजी समस्याओं से भरे उसके लंबे लंबे पत्र, घर के भीतर और बाहर बाग में गूंजती हुई उसकी आवाज – पुस्तक की लिखावट की ही तरह निर्द्वंद, परिचित। 

और अब मुझे उन्हें मैक्सिम पुकारना है।

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