चैप्टर 6 प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास, Chapter 6 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel In Hindi, Pyasa Sawan Gulshan Nanda Ka Upanyas
Chapter 6 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel
कश्मीर की घाटी वास्तव में प्रकृति की अप्सरा है। हर ओर ताजगी, निखार। नवरंग फूलों से ढकी चादर की शॉल ओढ़े जैसे धरती की बालिका सो रही हो। सर्वत्र भीनी भीनी सुगंध, पर्वतीय शैल मालाओं पर धूप में चमकती हुई बर्फ, पिघली हुई चांदी से झरने, बलखाती सुंदर नदियां। जिस दृश्य पर आंख उठ जाए, बस वहीं खोकर रह जाए। यह घाटी सदा तरुण है। पहलगाम इस घाटी की गोद में स्वर्ग का एक विशेष और अनुपम टुकड़ा है। पर्वतों के आंचल में यहां कई छोटी नदियों का संगम है…जैसे घर घर से अंदर बालिकायें एक आंगन में खेलने चली आई हों। नए प्रेमियों के लिए पहलगाम से सुंदर और कौन सा स्थान हो सकता?
अर्चना राकेश नदी के बर्फीले जल में तैरते तैरते थक गए। अर्चना जलपरी के समान पानी में से निकली और भागती हुई खेमे के पास बिछी फूलदार चादर पर रबड़ के तकिए पर सिर रख कर लेट गई। पानी से निकला फूल सा गदराया गोरा तन, काला बाथिंग सूट और लाल नीली बड़ी पैरांबला से छनकर आती हुई किरणें…रंगों के मिश्रण से सौंदर्य का समा सा बंध गया। अर्चना ने तकिए से सिर उठाया, रबर की टोपी उतारी और बाल बिखराकर बालों की सेज पर औंधी लेट गई। थोड़े ही अंतर पर छोटे से कालीन पर राकेश भी आकर लेट गया। कुछ देर में आकाश की ओर देखता रहा और फिर उसने पास ही रखी एक पत्रिका उठा ली। कनखियों से वह अर्चना को देखाजा रहा था। करूं से लेकर पैरों की एड़ियों तक उसका समूचा शरीर राकेश की दृष्टि के दायरे में था। यह धारा छोटा होता हुआ अर्चना की पीठ पर रुक गया। एक रूपवती युवती की नंगी पीठ, उस पर लाल पैरमबाला की छाया, जैसे गुलाब ने मानव शरीर धारण कर लिया हो। उसकी दृष्टि का दायरा अर्चना के कंधों पर घूमा। बाहों के पास के कोण की गोलियों पर टिका और ना जाने कहां-कहां घूम राकेश की दृष्टि चकरा गई। कई दायरे से उसके मस्तिष्क में घूमने लगे और वह जल्दी से पत्रिका के पन्ने पलटने लगा।
अर्चना तकिए के पास छोटा सा ट्रांजिस्टर रख कोई फिल्मी गीत सुन रही थी। वह स्वयं भी गीत के बोल लय से मिलाती हुई धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी। अर्चना ने ट्रांजिस्टर बंद करके राकेश की ओर मुड़ते हुए पूछा, “शायद हमें संगीत से कोई लगाव नहीं?”
“क्यों नहीं?”
“मैं देख रही हूं कि तुम पर इस मधुर संगीत का कोई प्रभाव नहीं हुआ!”
“हूं हूं!” राकेश ने पत्रिका को रखते हुए उधर देखा। वास्तव में वह अब रचना की मांसल देह की गहराइयों और उठानो में गुम होकर रह गया था।
“हूं..!” अर्चना ने उसकी नकल उतारते हुए चिढ़ा कर कहा, “तुमसे संगीत की बात करना तो भैंस के आगे बीन बजाना है। संगीत तो पेड़ पौधे और पत्थर को भी प्रभावित कर देता है। तुम्हारे पहलू में शायद हृदय नहीं। तुम तो पत्थर से भी गए गुजरे हो। इकबाल ने भरतरी के विचार को उर्दू शेर में कहा है – फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर। मर्द ए नादान पर कलामें नम नाजुक बेअसर। यह सत्य ही है।” अर्चना यह कह कर हंसने लगी। अभी वे एक दूसरे से बहुत खुल गए थे।
राकेश ने भी हंसते हुए कहा, “एक शेर मुझसे भी फिराक का सुनो।”
“वाह!” अर्चना के मुंह से निकला।
“किंतु यदि मैं इस समय इस शेर को कहूं, तो तुम मुखातिब भी हो, करीब भी हो। तुमको देखे की फिल्मी गीत सुनें।”
“फिल्मी गीत सुनो।” अर्चना हंसते हुए बोली।
राकेश झट से उठा। उसने अर्चना को बाहों में उठाया और नदी की ओर दौड़ने लगा। अर्चना के कंधों पर बिखरे हुए बाल उड़ उड़कर राकेश की आंखों के आगे आ रहे थे ,किंतु राकेश ने इसकी तनिक चिंता ना की और उसे उठाकर नदी में उछाल दिया, जहां जल कुछ गहरा था। क्षण भर के लिए अर्चना पानी में खो गई, किंतु दूसरे ही क्षण व पानी के तल पर वक्ष केबल ऐसे तैर रही थी, जैसे सचमुच वह कोई जलपरी हो।
राकेश तैरती हुई तेजी से उसके पास जा पहुंचा और उसके सिर को हाथ का दबाव देकर उसे पानी में गोता देने का प्रयत्न करने लगा। अर्चना फुर्ती से दोबारा पानी में छिप गई और मुड़कर पानी के भीतर ही किनारे की ओर जाने लगी। थोड़ी देर बाद वह उभरी और राकेश को देखकर हाथ लाने लगी। राकेश तैरता हुआ उसकी और भागा, किंतु वह उससे ही पहले किनारे पर पहुंचकर गिलहरी की भांति चिनार के एक पेड़ पर चढ़ गई और एक डाल पर बैठकर टांगे हिलाने लगी। राकेश को पेड़ पर चढ़ने का अभ्यास नहीं था, किंतु दो एक बार फिसल कर बड़ी कठिनाई और बड़े विचित्र ढंग से वह भी उस डाल तक जा पहुंचा।
“तुमने डार्विन की इस थ्योरी को कि इंसान बंदर की संतान है झूठ सिद्ध कर दिया है।” अर्चना ने हंसते हुए उससे कहा, “पेड़ पर चढ़ने में इतनी देर…तुम तो अपने पूर्वजों के नाम पर बट्टा लगा रहे हो।”
” और तुम?”
” मैं तो उनका नाम ऊंचा कर रही हूं।” यह कह कर अर्चना डाल से नीचे कूद गई और दौड़ती हुई नदी के किनारे पहुंच गई। किनारे पर खड़े होकर उसने दोनों बाहे आगे की ओर फैलाई और नदी में छलांग लगा दी। इससे पूर्व कि राकेश भी नदी में कूदता, वह बहुत आगे निकल कर उस किनारे की ओर बढ़ गई, जहां उनका खेमा लगा था। यह राकेश के पुरुषत्व को खुली चुनौती थी। वह बिजली की तेजी से लपका और अर्चना के किनारे पर पांव रखते ही उसने उसे पकड़ लिया।
अर्चना की पीठ में हाथ डालकर उसे दोनों बांहों में उठाकर राकेश उसे खेमे में ले आया। बर्फीले पानी में भीगे हुए दो तरुण शरीरों में एक दूसरे के स्पर्श से एक विचित्र गर्माहट उत्पन्न हुई। उनकी भावनाओं में हलचल मच गई। खेमे में पहुंचते ही अर्चना कसमसा कर अलग हो गई और तुरंत अपने शरीर को फूलदार गाउन में छुपाते बोली, ” मुझे तो भूख लगी है। तुम्हारा क्या विचार है?”
“जो तुम्हारा!”
“तो मैं अभी प्रबंध करती हूं।जेड
अर्चना खेमे के भीतरी भाग से झट स्टोव, मछली का बंद टिन, मक्खन का डिब्बा व सॉसेज बाहर उठा लाई। उसने स्टोर जलाकर फ्राई पैन में मक्खन डाला और मछली पकाने को छोड़ दी। भूनती हुई मछली की सौंधी गंध वातावरण में फैल गई।
राकेश कुछ देर उसे मछली भूनते देखता रहा और खेमे के भीतर जाकर वायलिन का केस उठा लाया और उसे यूं खोलने लगा, जैसे किसी नारी के कपड़ों के बटन खोल रहा है।
“वायलिन!” अर्चना ने मुस्कुराकर प्रश्न सूचक दृष्टि से देखा।
“तुम्हें ताना दिया था ना कि मुझ में भावना नहीं, मैं पत्थर से भी गया गुजरा हूं। इसलिए कि मुझ पर संगीत का भी प्रभाव नहीं।”
“ओह! तो तुम यह प्रमाण दोगे कि तुम एक संगीत प्रेमी हो!”
“केवल प्रेमी ही नहीं संगीत दीवाना कहो।”
“अच्छा जी!”
“जानती हो, यदि प्रेम जीवन है, तो संगीत उसकी आत्मा रस है।”
“किंतु कभी-कभी यह रस जीवन में आग भी लगा देता है।”
“उस जीवन में.. जिसमें प्रेम न हो।”
“प्रेम रहना न रहना अपने बस की बात तो नहीं!”
“वह प्रेम ही क्या, जो पराए वश में हो।”
राकेश की बात पर अर्चना चौक पड़ी और दृष्टि उठाकर उसकी ओर देखने लगी।
“अर्चना एक बात पूछूं।”
“हूं।”
“ऐसा क्यों लगता है, जैसे हमारी पहचान बहुत पुरानी है”
“मैं तो ऐसा और हो नहीं करती।” अर्चना ने मुस्कुरा कर कहा।
राकेश झेंप गया। वह उसकी झील से भी गहरी और शांत आंखों में झांकने लगा। इसके पूर्व कि वह कुछ कहता, अर्चना उसकी अधूरी बात को पूरा करते हुए बोली, ” मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है, इतनी परीक्षा के बाद भी हम अजनबी है।”
“अर्चना, तभी तो कहते हैं कि पुरुष महामूर्ख होता है। नारी के किसी हावभाव पर वह समझ बैठता है, उसने उसे पा लिया है और वास्तव में वह इस सत्य से बहुत दूर होता है।”
राकेश ने वायरिंग पर एक वेदना मय धुन छेड़ दी, जो धीमे दूर से धीरे-धीरे ऊंची उठती चली गई। तारों पर कमान की चाल तीव्र होती गई, धीमी होती और फिर तीव्र हो जाती। फिर गहरी झंकार सी उठती। यह लय, यह गूंज, बहती नदी में, हरे भरे वृक्षों में, धरती में, पर्वत में, समस्त वातावरण में समा गई। अर्चना को अनुभव हुआ, जैसे स्वयं उसके अंदर की वेदना गूंज बनकर वातावरण में थरथरा उठी हो। उसका ह्रदय एक अबोध बालिका के समान मचल उठा। उसकी रग रग में बिजली सी कौंध गई। चंद ही क्षणों में राकेश ने उसके हृदय को झंकृत कर दिया था।
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