चैप्टर 6 नारी सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 6Nari Siyaramsharan Gupt Novel

चैप्टर 6 नारी सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 6 Nari Siyaramsharan Gupt Novel

Chapter 6 Nari Siyaramsharan Gupt Novel

Chapter 6 Nari Siyaramsharan Gupt Novel

सबेरे मदरसे जाने के समय हल्ली ने कहा- आज पढ़ने न जाऊँगा। कारण पूछे जाने पर उसने कहा- पंडितजी मारेंगे।

“पंडितजी मारेंगे, क्यों, जब अपना पाठ अच्छी तरह सीखेगा।”

“कल मुझसे रुपये खो गये, कहेंगे, क्यों खोये ?”

“चल, साथ चलकर मैं कह आऊँ कि मारें नहीं।”

“आज मैं नहीं जाता माँ। तुम्हारे साथ चलने से पंडितजी और चिढ़ जायँगे।”

“तो फिर आज यहीं बैठकर पढ़।”

घर बैठकर पढ़ने में हल्ली को कोई आपत्ति न थी। वह जानता था, माँ पढ़ने के लिए कहेंगी, पढ़ाने की विद्या उनके पास नहीं है। विद्या से उसका मतलब था पंडितजी के हाथ की छड़ी का । लड़कों ने यही इसका नाम रख छोड़ा था ।

मदरसे जाने से छुट्टी पाकर हल्ली को जान पड़ा कि दो रुपये देकर उसने आज का दिन खरीदा है ! परन्तु थोड़ी देर बाद ही वह उसे खटकने लगा। मदरसे जाये बिना वह अपने साथियों को खबर कैसे दे सकेगा कि रात में उसे मार नहीं खानी पड़ी। सबके सब कहते थे, माँ बहुत मारेंगी? मारेंगी कैसे, क्या मैंने जान-बूझकर नुकसान किया है ?

साथियों तक सत्य का यह प्रकाश पहुँचाने के लिए उसने झट से कुछ आत्मत्याग करने का संकल्प कर डाला। बोला- पहले मुझे कलेवा कराओ, तब दूसरा कुछ करो। मदरसे के लिए देर हो रही है।

जमना ने कहा- अभी तो कहता था, आज न जाऊँगा। हल्ली ने गम्भीर होकर उत्तर दिया- बिना जाये कैसे चलेगा? अच्छे लड़के मदरसे जाने से जी नहीं चुराते। डिप्टी साहब इम्तिहान के लिए चाहे जब आ सकते हैं।

जमना को अपने लड़के के अच्छे होने में कोई सन्देह न था। ढोरों में चरने के लिए छोड़ने को गाय की रस्सी वह खोल ही रही थी, उसे जहाँ की तहाँ लपेटकर पहले वह लड़के को कलेवा कराने चली ।

बच्चों की खोपड़ी किसी तरल पदार्थ की बनी होती है, इसी से पानी पर मारे गये थपेड़े की तरह चोट का असर प्रायः उस पर नहीं होता। बच्चों के मन की दशा भी बहुत कुछ वैसी ही है। कोई कष्टकर बात वहाँ बहुत देर तक नहीं टिक पाती। कलेवा करते समय हल्ली को देखने से यह नहीं जान पड़ता था कि कल उसका कुछ खो चुका है। उसने पूछा- हीरा तुम्हारे पास आया था माँ?

“कब?”

“यही, जब मेरे रुपये गिर गये थे। नहीं आया ? — कहता था, मैं अभी जाकर काकी से कहता हूँ ।”

जमना ने उकताकर कहा- मुझे नहीं मिला। जल्दी से खाले, मुझे गाय छोड़ने जाना है।

माँ की इस बात पर ध्यान न देकर वह हीरालाल का ही किस्सा सुनाने लगा। बोला- इस हीरा की बातें सुनो, तब जानोगी यह कैसा है। जब तुम्हारे पास आता है तब बेटा बेटा कहकर प्यार से पास बिठाती हो। उसकी तो अच्छी तरह खबर लेनी चाहिए। कल उसने पंडितजी को मुझ पर नाराज करा दिया। अब मैं भी उसकी शिकायत करूँगा । छोडूंगा नहीं।

जमना ने कहा- वह मोतीलाल चौधरी का लड़का है, तू उससे लड़ता क्यों है । बहुत रुपये उनके हमें देने हैं।

हल्ली ने विस्मय से कहा- कौन लड़ता है, – मैं? कब्भी नहीं । अरजुना से पूछ देखो। उनके रुपये देने हैं तो दे देंगे। वह ऐंठ दिखाएगा तो ठीक कर दूँगा। तुम उसे प्यार करने लगती हो तो डर कर थोड़े करती हो। तुम्हारा सुभाव ही ऐसा खराब है।

जमना हँस दी। हल्ली कहता गया – उस दिन जब सूचीपत्र की पोथी आई, तब तुमने कहा था- इसके पैसे मुझसे लेकर भेज देना। यह मैं अरजुना को सुना रहा था, हीरा बीच में आकर कहने लगा- तुम मूरख हो, मैं होता तो माँ से पैसे लेकर मिठाई उड़ाता और कह देता भेज दिये दाम । यह ऐसी सिखापन देता है हमें सच मानो माँ, किसी दिन यह अपने सगे बाप को धोखा देकर थाने में बन्द होगा ।

जमना ने कहा- तू बैठकर कलेवा कर, मैं गाय ढील आऊँ ।

वह बोला- मैं कर चुका, अब भूख नहीं है।

जमना उठने को हो रही थी, फिर बैठ गई । बोली- भूख कैसे लगे, तेरी बातें तो रुकें। ले मैं बैठी हूँ, अच्छी तरह खा ले। मदरसे से तीसरे पहर छूट पाता है, तब तक तो मुझसे भी नहीं रहा जाता ।

आत्मविश्वास से प्रसन्न होकर हल्ली कहने लगा- मैं बिना कलेवा किये तीसरे पहर तक रह सकता हूँ। न मानो तो होड़ बदकर देख लो। मेरा मन करता है, तुम्हारी तरह मैं भी बिना नहाये कभी कुछ न खाऊँ ।

जमना ने इसका प्रतिवाद अनावश्यक समझकर उसकी थाली में बिना पूछे और परोस दिया।

हल्ली ने हँसकर कहा- अभी मैं सेर भर और खा सकता हूँ। इस समय वह यह भूल गया कि अभी-अभी वह भूख न होने की बात भी कह चुका है।

थोड़ी देर चुपचाप खाते-खाते वह बोल उठा – माँ, तुम्हें मालूम मेरे रुपये क्यों खोये? यह भगवान ने ही मुझे सजा दी है। मैंने बप्पा के पाठ की पोथी की निन्दा की थी। अब मैं नई पोथी न लूँगा। पाठ के लिए घर की पोथी ही ठीक है।

इसके बाद ही उसने कल वाले खेल का प्रसंग छेड़ दिया । बोला—कल मैं रेल-रेल खेल रहा था। दूसरे लड़कों ने कहा—यह टेसन दिल्ली का है; मैंने कहा- नहीं, कलकत्ते का। और सब तो शौकीनी की चीजें खरीदने लगे, मैं अकेला पड़ा तो मुझे बप्पा की याद आ गई। मेरा मन न जानें कैसा क्या करने लगा। बप्पा भी न मिले और रुपये भी खोये, कल ऐसा हुआ।

जमना मुँह फेर कर एकदम वहाँ से उठकर चली गई। यह लड़का ऐसी बातें करता है कि रोये बिना नहीं रहा जाता। इस बार और बैठने के लिए उससे हल्ली ने भी नहीं कहा।

क्रमश:

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