चैप्टर 6 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 6 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

चैप्टर 6 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास, Chapter 6 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Chapter 6 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas 

Chapter 6 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu

Chapter 6 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

बालदेव जी को रात में नींद नहीं आती है।

मठ से लौटने में देर हो गई थी। लौटकर सुना, खेलावन भैया की तबियत खराब है; आँगन में सोये हैं। यदि कोई आँगन में सोया रहे तो समझ लेना चाहिए कि तबियत खराब हुई है, बुखार हुआ है या सरदी लगी है अथवा सिरदर्द कर रहा है। जिसको आँगनवाली (पत्नी) ही नहीं वह आँगन में क्यों सोएगा ? आँगन में सोने का अर्थ है आँगनवाली के हाथों की सेवा प्राप्त करना। खाने के समय भौजी से मालूम हुआ, पेट में बाय हो गया है। कड़वा तेल लगाकर पेट ससारते समय गों-गों बोलता था।

भौजी भी बहुत अनमनी थी। और दिनों की तरह बैठकर बातें नहीं की भौजी ने। भौजी बोरसी (अँगीठी) के पास बैठकर हुक्का पीती रहती थी, बालदेव जेल की गप सुनाता रहता। बालदेव जी आज पंचायत की गप भौजी को सुनाते, लेकिन आज गप जमाने का लच्छन नहीं देखकर बालदेव जी सोने चले आए।

…नींद नहीं आती है। जेल का बी.टी. कम्बल आज बड़ा गड़ रहा है। खद्दर की धोती मैली हो जाने पर बहुत ठंडी हो जाती है।…बार-बार लछमी दासिन की याद आती है। आते समय कह रही थी-आज यहीं परसाद पा लीजिए बालदेव जी !…परसाद ! लछमी के शरीर की सुगन्ध !…आज माँ की भी याद आती है। गाँव के लोग बालदेव को ‘टुरवा’ कहते थे। सुनकर माँ बहुत गुस्सा होती थी। बाप के मरने से कोई टूअर (अनाथ) नहीं होता। बाप मरे तो कुमर, माँ मरे तब टूअर ! मेरा बालदेव तो कुमर है; मेरा बालदेव टूअर नहीं। ऐसा लगता है, माँ ने अभी तुरत ही पीठ सहलाई है।

माँ के मरने के बाद, बालदेव बहुत दिन तक अजोधी भगत की भैंस चराता था। अजोधी भगत की याद आते ही बालदेव की देह सिहर उठती है। कैसा पिशाच था बुड्ढा ! बूढ़ी तो और भी खटाँस थी, खेकसियारी की तरह हरदम खेंक-खेंक करती रहती थी। दिन-भर भैंस चराकर आने के बाद बालदेव की उँगलियाँ भगत का देह टीपते-टीपते दर्द करने लगती थीं। आँखें नींद से बन्द हो जाती थीं। लेकिन जरा भी ऊँघे कि चटाक्। उस बूढ़े की उँगलियों की चोट बड़ी-बड़ी कड़ी होती थी। बालदेव ने बचपन से ही मार खाई है-थप्पड़, छड़ी और लाठी की मार। शायद सूखी चमड़ी की चोट ज्यादा लगती है।…लेकिन रूपमती का कलेजा मोम का था। वैसे बेदर्द माँ-बाप की बेटी वैसी दयालु कैसे हुई, समझ में नहीं आता है। बूढ़े-बूढ़ी को रात में नींद नहीं आती थी। आध पहर रात को ही भैंस चराने के लिए जगा देता था। आध पहर रात होते ही पीपल के पेड़ पर उल्लू अपनी मनहूस बोली में कचकचा उठता था और इधर बूढ़ा ठीक उसी तरह की आवाज में चिल्ला उठता, “रे टुरवा, भोर हो गई, भैंस खोल !”…रूपमती कभी ‘टुरवा’ नहीं कहती थी। छोटा-सा नाम ‘बल्ली’ उसी का दिया हुआ है। चार सेर सुबह और तीन सेर शाम को दूध होता था, लेकिन बुढ़िया कभी सितुआ-भर घोल भी नहीं खाने देती थी। रूपमती रोज चुराकर भात के नीचे दूध की छाली रख देती थी। बूढ़ा-बूढ़ी का जमाया हुआ पैसा आखिर डकैत ही ले गए।…इस बार रूपमती को देखा था। बहुत दिन बाद ससुराल से आई थी। तीन बच्चे हैं, बड़ी बेटी ठीक रूपमती जैसी है। ठीक वैसी ही हँसी।

….याद आती है माये जी की ! माये जी-रामकिसूनबाबू की इसतिरी ! पहले-पहल सभा हुई थी चन्ननपटी में। सभा में रामकिसूनबाबू, उनकी इसतिरी, चौधरी जी और तैवारी जी आए थे।…अलबत्त रूप था रामकिसूनबाबू का। बड़ी-बड़ी आँखें ! भाखन देते थे, जैसे बाघ गरजे ! सुनते हैं, जब वोकालत करते थे तो बहस करने के समय पुरानी कचहरी की छत से पलस्तर झड़ने लगता था। क्या मजाल कि हाकिम उनके खिलाफ राय दे दें ! लेकिन महतमा जी का उपदेश सुनकर एक ही दिन में सबकुछ छोड़-छाड़ दिया। इसतिरी के साथ गाँव-गाँव घूमने लगे। माये जी के पाँव की चमड़ी फट गई थी। लहू से पैर लथपथ हो गए थे। लाल उड़हूल ? माये जी का दुख देखकर, रामकिसूनबाबू का भाखन सुनकर और तैवारी जी का गीत सुनकर वह अपने को रोक नहीं सका था। कौन सँभाल सकता था उस टान को ! लगता था, कोई खींच रहा हो। “…गंगा रे जमुनवाँ की धार नयनवाँ से नीर बही। फूटल भारथिया के भाग भारथमाता रोई रही।”…माये जी के पाँव की चमड़ी फट गई थी, भारथमाता रो रही थी। वह उसी समय रामकिसूनबाबू के पास जाकर बोला था-“मेरा नाम सुराजी में लिख लीजिए।” उस दिन की सभा में तीन आदमियों ने नाम लिखाया था-बालदेव, बावनदास और चुन्नी गुसाईं। चौधरी जी उसे जिला आफिस में ले आए थे। माये जी बराबर आफिस आती थीं। कभी गुस्सा होते नहीं देखा माये जी को; जब बोलती थीं तो हँसकर। एक बार देहात से लौटते समय उसको बुखार हो गया था; देह जल रही थी, सिर फटा जा रहा था, कोई होश नहीं। रात में, आँख खुली तो जी बड़ा हल्का मालूम हुआ। “कैसे हो बालदेव भाई ?” कौन बावन ? गरदन उलटाकर देखा, माये जी पास ही कुरसी पर बैठी हुई हैं। “कैसे हो बोलो ? बुखार था तो देहात क्यों गया था ?…सोओ…।” माथे पर हाथ रखते हुए माये जी बोली थीं, “बुखार उतर गया है।” माये जी के हाथ रखते ही नींद आ गई थी। दूसरे दिन बावनदास ने कहा, “माये जी को जैसे ही मालूम हुआ कि तुमको बुखार है, वैसे ही मुझे लेकर आफिस आईं। जन्तर (थर्मामीटर) लगाकर बुखार देखते ही चिल्लाने लगीं-‘पानी लाओ। पंखा दो।’ उसी समय से माथे पर पानी की पट्टी देती रहीं, बारह बजे रात तक।…भगवान भी कैसे हैं, अच्छे आदमी को ही अपने पास बुला लेते हैं। दो-तीन साल के बाद ही रामकिसूनबाबू, एक ही दिन के बुखार में सरगवास हो गए। हे भगवान ! उस दिन माये जी की ओर कौन देख सकता था ! देखने की हिम्मत नहीं होती थी। माये जी का उस दिन का रूप…गंगा रे जमुनवाँ की धार नयनवाँ से नीर बही। फूटल भारथिया के भाग भारथमाता रोई रही !…सचमुच सबों के भाग फूट गए। सराध के दिन से जिला आफिस का नाम हो गया ‘रामकिसून आसरम’ । सराध के दूसरे दिन ही माये जी कासी जी चली गईं। गाड़ी पर चढ़ने के समय, पैर छूकर जब परनाम करने लगा था तो माये जी एकदम फूट-फूटकर रो पड़ी थीं-ठीक देहाती औरतों की तरह। बावनदास को माये जी ‘ठाकुर’ कहती थीं, ‘हामार ठाकुर रे।’ धरती पर लोटते हुए बावनदास को उठाते हुए माये जी बोली थीं, “महतमा जी पर भरोसा रखो। वह सब भला करेंगे। महतमा जी का रास्ता कभी मत छोड़ना।”…पता नहीं माये जी कहाँ हैं !

आँसू की गरम बूँदें बालदेव की बाँह पर ढुलककर गिरी। माँ, रूपमती, माये जी और लछमी दासिन ! माये जी जैसा ही लछमी भी भाखन देना जानती है। लछमी भाखन दे रही है।…

….विशाल सभा ! जहाँ तक नजर आती है आदमी-ही-आदमी दिखाई पड़ते हैं। बाँस के घेरे को तोड़कर लोग मंच की ओर बढ़े आ रहे हैं। मंच पर बालदेव के बगल में लछमी बैठी हुई है। लछमी के भी पैर की चमड़ी फट गई है। मंच की सुफेद चादर पर लहू की बूंदें टप-टप गिर रही हैं।…लछमी भाखन दे रही है। कौन, हरगौरी ? हरगौरी लछमी के गले में माला डालने के लिए आगे बढ़ रहा है। लछमी माला नहीं पहनती है। माला लेकर बालदेव को पहना देती है-गेंदे के फूलों की माला ! फूल से लछमी के शरीर की सुगन्धी निकलती है !…भीड़ मंच की ओर बढ़ी जाती है। हरगौरी आगे बढ़ आया है, लछमी को पकड़ रहा है।…बालदेव चिल्ला रहा है, लेकिन आवाज नहीं निकल रही है। लोग हल्ला कर रहे हैं। बहुत जोर लगाकर बालदेव चिल्लाता है-“हरगौरी बाबू !”

“गन्ही महतमा की जै!”

“जै!”

बालदेव हड़बड़ाकर उठता है; आँखें मलते हुए बाहर निकल आता है ! सबेरा हो गया है। गाँव-भर के नौजवानों को बटोरकर, जुलूस बनाकर, कालीचरन जय-जयकार करता हुआ जा रहा है। वाह रे कालीचरन ! बुद्धिमान है, बहादुर है और बुद्धिमान भी। यह पुलोगराम (प्रोग्राम) कब बनाया था ! रात में ही शायद !…जरूर मेरीगंज की चन्ननपटी की तरह नाम करेगा। और भोर का सपना ?

“खेलावन भैया, कैसी तबियत है ?”

“तुम रात में कब लौटे ? कहाँ देर हई, सिपैहियाटोली में ? कायस्थ-राजपूत की जोड़ी मिल गई, अब क्या है, सुराज हो गया ! लेकिन भाई बालदेव, हम ठहरे सीधे-सादे आदमी। कलिया पर नजर रखना। उसमें और भी बहुत गुन हैं, सो तो तुमको मालूम ही हो जाएगा। किसी किस्म का उपद्रो करेगा तो हम जिम्मेदार नहीं हैं। पीछे यादवटोली के मुखिया के ऊपर बात नहीं आवे। हाँ भाई, कायस्थ और राजपूत का क्या बिसवास ?”

खेला किसके ऊपर अपना दिल का बुखार उतारे, समझ नहीं पा रहा था। भैंस-चरवाहा भैंस दूहने के लिए बरतन ले आया था। खेलावन आज भी अपने ही हाथों भैंस दूहता है। उसका कहना है, ‘भैंस के थन में चार आदमी के हाथ लगे कि भैंस सूखी।’ चरवाहा पर बिगड़ पड़ा, “साला ! अभी भैंस थिराई भी नहीं है, दूहने के लिए हल्ला मचा रहा है। पूड़ी-जिलेबी क्या अभी ही बँट रही है ? जीभ से पानी गिर रहा है !…परनाम जोतखी काका!”

जोतखी जी कान पर जनेऊ टाँगे, हाथ में लोटा लटकाए इनारे की ओर जा रहे थे। खेलावन ने टोका, “आइए, यहीं पानी मँगवा देते हैं।”

“खेलावनबाबू, गाँव में तो सुराज हो गया, देखते हैं। अच्छा-अच्छा ! देखिएगा गाँवके लौंडे सब आज फुच्च-फुच्च कर रहे हैं। ‘छुद्र नदी चलि भरी उतराई, जस थोरे धन खल बौराई।’ ऐसा ही सिमरबनी में भी हुआ था। हमारे मामा का घर सिमरबनी में ही है। आज से दस-बारह साल पहले की बात कहते हैं। हम मामा के यहाँ गए थे। मामा के बड़े पुत्र का जग्योपवित था। प्रातःकाल उठके देखते हैं कि गाँव-भर के लौंडे इसी झंडा-पत्तखा लेकर ‘इनकिलास जिन्दाबाघ’ करते हुए गाँवों में घूम रहे हैं। मामा से पूछा कि ‘मामा, क्या बात हैं ?’ तो मामा बोले कि गाँव के सभी लड़कों ने भोलटियरी में नाम लिखा लिया है। ‘इनकिलास जिन्दाबाघ’ का अर्थ है कि हम जिन्दा बाघ हैं।…जिन्दा बाघ भी उसी शाम को देखा। इस्कूल से पच्छिमी कंगरेसी तैवारी नीमक कानून बनानेवाला था। बड़े-बड़े चूल्हे पर, कड़ाहियों में चिकनी मिट्टी और पानी डालकर खौला रहे हैं। खूब गीत-नाद, झंडा-पत्तखा ! पूछा कि यह क्या है भाई, तो कहा कि नीमक कानून बन रहा है। हम भी खड़ा होकर तमाशा देखने लगे। इसी समय हल्ला हुआ, दारोगा आ रहा है। इस्कूल के हाता से एक टोपावाला और चार-पाँच लाल पगड़ीवाला निकला ! बस, फिर क्या था, जिन्दा बाघ आ गया; जो जिस मुँह से खड़ा था, उधर ही भागा। एक-दूसरे के ऊपर गिर रहा है। कहाँ झंडा, कहाँ पत्तखा और कहाँ इनकिलास जिन्दाबाघ ! दारोगा साहब तैवारी को पकड़कर ले गए। इसके बाद गाँव के घर-घर में घुसकर खन्ना-तलासी ! गाँव के सभी जिन्दाबाघ माँद में घुस गए। सुनने में आया कि जब कँगरेसी राज हुआ तो फिर घर-घर में भोलटियर घरघराने लगा। फिर इनकिलास जिन्दाबाघ ! पुलिस-दारोगा को देखकर और जोर से चिल्लाते थे सब । लो भाई, चिल्लाओ, तुम्हारा राज है अभी ! पुलिस-दारोगा मन-ही-मन गुस्सा पीकर रह गए। पिछले मोमेंट में जिन्दाबाघों ने जोस में आकर अड़गड़ा जला दिया, कलाली लूट लिया। दूसरे ही दिन चार लौरी में भरके गोरा मलेटरी आया और सारे गाँव में जला-पका, लूट-पीटकर एक ही घंटा में ठंडा कर दिया। पचास आदमी को गिरिफ्फ किया। दो को तो मारते-मारते बेहोस कर दिया। एक को कीरीच भोंक दिया। अंग्रेज बहादुर से यही दुग्गी-तिग्गी लोग पार पाएँगे। बड़ा-बड़ा घोड़ा बहा जाए तो नटघोड़ी पूछे कितना पानी। अंग्रेज बहादुर ने अभी फिर ढील दे दिया। सब उछल-कूद रहे हैं। इस बार बिगड़ेगा तो खोपसहित कबूतराय…।”

“नहीं जोतखी काका, अब वैसा नहीं हो सकता,” बालदेव इससे आगे नहीं सुन सका, “पिछले मोमेंट में सरकार का छक्का छूट गया है। सिमरबनी के बारे में आप जो कह रहे हैं सो आप इधर सिमरबनी गए हैं ? नहीं। तब क्या देखिएगा ! एक बार वहाँ जाकर देखिए-इसपिताल, इस्कूल, लड़की-इस्कूल, चरखा सेंटर, रायबरेली (लायब्रेरी), क्या नहीं है वहाँ ? घर-घर में ए-बी-सी-डी पास ! सिवानन्दबाबू को जानते हैं ? उनका बेटा रमानन्द हम लोगों के साथ जेहल में था; अब हाकिम हो जाएगा। पक्की बात !”

खेलावन भी कुछ कहना चाहता था कि चरवाहे ने पुकारा, “पाँड़ा भैंस पी रहा है।”

खेलावन भैंस दुहने चला गया। बालदेव के पास बेकार बहस करने के लिए समय नहीं है। गाँव में जय-जयकार हो रहा है-‘गन्ही महतमा की जै!’

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