चैप्टर 6 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 6 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online
Chapter 6 Badnaam Gulshan Nanda Novel
सखीचंद गौरी बाबू के यहां से हट गया। उसे रामपूजन और मालकिन श्रीमती स्वरूपादेवी का अब तनिक भी भय न था, यहां वह खुली हवा में खूब सांस ले रहा था। लेकिन उसे लगता कि उसकी सांस फूलती जा रही है, दम घुटता जा रहा है। उसे एक प्रभाव- सा लगता, कुछ कमी-सी महसूस करता । यहाँ सविता और सावित्री न थीं, उसके पास । जब भी दोपहर होता, उसका दिल उखड़ा- उखड़ा-सा लगता ।
सखीचंद को सविता और सावित्री से प्यार हो गया था। वह प्यार, जो जिन्दगी में कभी खत्म नहीं होता; वह प्रेम, जो मरने के बाद भी ताजमहल की भांति संसार में एक निशानी छोड़ जाता है और उसे पूरा विश्वास था कि सविता और सावित्री भी उतना ही प्यार करती हैं, जितना कि सखीचंद ।
अन्तिम दिन सविता को जिस तरह उसने अपने आगोश में कस लिया था और जिस तरह वह भी उसकी छाती से सटकर बेसुध – सी होकर पड़ी रही, यह बतलाता था कि सविता अब बच्ची न थी । वह यौवन की दहलीज पर चढ़ चुकी थी। वह काफी पढ़-लिख गई थी। वह काफी समझदार हो गई थी। उसे पूरा होश था कि वह क्या करने जा रही है, क्या कर रही है ?
बड़े लोग या उनकी संतानें गरीबों का एहसान मानें या न मानें, हमदर्दी रखें या न रखें, परन्तु सखीचंद को पूरा विश्वास था कि सविता और सावित्री ने जिस तरह उसके साथ प्यार किया है, वह जल्द निटने वाला नहीं है । वह स्वयं उनके साथ इस तरह प्रेम में डूब गया था कि दिन-रात उन्हीं की चिन्ता में रहता । उसका ध्यान उन्ही की ओर लगा रहता ।
उसे दोनों बहनों का उसके साथ छेड़खानी करना याद आता और याद आता कि किस तरह दोनों उसे अपना समझकर, जब भी मिलता, गले लगाये रहती थीं।
गौरी बाबू के यहां से हटने के बाद वह एक छोटी-सी पत्थर की दुकान पर चला गया और वहां काम करने लगा। इस समय इस शहर में वहाँ एक दुकान थी, जिसका साधारण कारीगर एक मात्र उस दुकान का मालिक ही था। मालिक के परिवार में केवल एकमात्र कुसुमी थी, जो पन्द्रहवाँ वसन्त पार कर रही थी।
उसने मालिक की जवान बेटी कुसुमी को देखा था और शायद कुसुमी ने भी उसकी देखा होगा, लेकिन कुसुमी के प्रति उसके मन में कोई भाव नहीं उठा था। उसने देखा एक औरत थी घर में। वह जवान थी, वह सुगढ़ थी, वह हसीन थी, वह चंचल थी और उसकी जवानी गदराई हुई थी, उसने नहीं जाना था, बल्कि इन सबकी ओर उसका ख्याल ही नहीं गया था।
सविता और सावित्री के कहने के अनुसार वह बहुत ही सुन्दर था और कोई भी लड़की उसको देखकर उसकी ओर आकर्षित हो सकती है, उसके साथ दोस्ती करने को ललच सकती है, उसके दिल में एक चाह करवट ले सकती है।
सखीचंद मन लगाकर काम करने लगा। गरीब बेचारा, गंवार देहात का गांव से अपमानित कर भगाया गया अनाथ लड़का, भूखा-प्यासा मानव, एक असहाय अंग और प्यार करने से रोका गया एक स्वच्छ इन्सान, इससे दिल छलनी हो गया था उसका। काम करते-करते उसे भूत और भविष्य की चिन्तायें आ घेरती और वह काम में जुट जाता । जब देखो – ‘खट् खदखद !’ सवेरे देखो- ‘खट्-खट्खट् !!’ शाम को देखो – ‘खट्खट खट् !!!’ जैसे सिवाय खट-खट के उसको कोई दूसरा काम ही न हो। गर्मी हो या जाड़ा या हो बरसात, वह नित्य चार बजे सवेरे ही जाता था। तत्पश्चात दुकान में झाडू देता और छेनी सरिया या पत्थर या आरी लेकर अपने काम में जुट जाता था और खट्खद् की आवाज उसकी दुकान के चारों ओर प्रतिध्वनित होने लगती ।
उसको इस बात का हमेशा ख्याल रहता कि यदि वह इस काम को मन लगाकर जल्दी और अच्छी तरह नहीं सीखता है, तो किस तरह पढ़ी-लिखी और बड़े घरों की लड़कियों को अपने साथ रख सकेगा। उसके साथ उन अमीर और सुकुमार युवतियों की गुजर कैसे हो सकती है। वह पड़ा-लिखा तो या नहीं, जो कहीं नौकरी करके भी कुछ उपार्जन कर सकता। अतः परिस्थिति से बाध्य होकर वह दिन-रात काम में जुटा रहता ।
गांव का गंवार, अबोध, प्रताव और बेचारा सखीचंद आजकल के वातावरण से अनभिज्ञ था, जहाँ जवानी मात्र दो घंटे के लिए प्यार का बहाना बनाकर खरीदी व बेची जाती है। स्वांग रचा जाता है प्रेम करने का, परन्तु आड़ में वासना का नंगा नाच खेला जाता है, शरीर की हवस की प्यास बुझाई जाती है। उसका हृदय साफ उससे कहता जा रहा था कि सविता और सावित्री तुम्हारी होंगी, मात्र तुम्हारी।
भविष्य में दोनों बहनों उसे मिलें या न मिलें, पर उसी आशा की ज्योति के बल पर वह जिन्दा था और काम करके कलाकार बनना चाहता था, ताकि वह भी इस पृथ्वी पर मानव की तरह सविता और सावित्री के साथ सांस ले सके । छः महीने बाद ही वह कुमुमी के रंग-ढंग में परिवर्तन देख रहा था और महसूस कर रहा था कि वह उसकी ओर बुरी तरह फिसलती चली आ रही है। उसका प्रत्येक कार्य उसके लिए ही हो रहा है। इधर वह सिंगारपटार हमेशा किए रहती है। लेकिन सखीचंद ने कमी भी आंख भर उसको नहीं देखा, नजर भर उसको नहीं घूरा। उसके मन में कोई भाव नहीं जागे । वह काम सीखना चाहता था, कला हासिल करना चाहता था, कलाकार बनना चाहता था और सविता और सावित्री के साथ जिन्दा रहना चाहता था ।
छः महीने का समय और बीत गया। शहर में काफी परिवर्तन हुए। कुछ पुराने मकान बेचे गये और काफी तादाद में नये मकान बने । नगरपालिका का चुनाव भी हो गया। राजनीतिक वातावरण में गड़बड़ियां पैदा होने लगीं। विद्याध्ययन में लीन छात्रों के भी उपद्रव सुनने में आने लगे। परिवर्तन की निशानी है, यह सब ।
इस बीच में वह कमी-कमी सविता को देख लेता था । सविता खुद ही बाजार जाते समय इसकी दुकान से होकर गुजरती, तो सविता सखीचंद को देखती और सखीचंद, सविता को। एक ठन्डी साँस लेकर वह सरिया चलाना रोककर सविता की ओर देखने लगता । तभी आँखों में नीर भरकर, चेहरे पर उदासी लाकर सविता मौन और चुप रहने का इशारा करती और न चाहते हुए भी वहाँ से आगे बढ़ जाती थी ।
इस तरह सविता कभी-कभी उसको दिख जाती थी। सावित्री को उसने कभी नहीं देखा था। वह जानता था कि सावित्री पर अंकुश है और सावित्री उस अंकुश से बेहोश हो गई है। शायद उस को वह कभी दिखाई न दे। यही वह सोच रहा था कि एक लड़का उसके पास आया और इशारे से अपने पास बुलाया । सखीचंद ने काम रोक दिया और वह दुकान से नीचे उतरकर लड़के के पास आ गया ।
लड़के ने उससे कहा – “जज साहब की बिटिया गाँगी के पास बाग में चबूतरे पर शाम को सात बजे मिलेंगी।” और वह चला गया।
सखीचंद को लड़के का यह वाक्य रटा हुआ जान पड़ा। उसने सोचा कि यह बात सत्य हो सकती है। सविता ने इसको इतना रटाया होगा, क्योकि पूरी बात कहना उचित नहीं था और कहने पर भी यह लड़का समझ नहीं सकता था। उसने निश्चय किया कि वह शाम को सात बजे जरूर जायेगा ।
उस वक्त तक उसने कई सिन्दूरदानियाँ तैयार कर रखी थीं। वह चाहता था कि दो-चार और बना ले। मगर मिलन की आशा से इतना पुलकित हो गया था कि काम में उसका जी नहीं लग रहा था। उसने सोचा- क्यों न एक खूबसूरत सिन्दूरदानी ही ले चलूं। सविता को भेंट दूं, ताकि वह प्रसन्न होने के साथ ही यह भी समझ सके कि वह एक कलाकार हो गया है। उसका ख्याल आते ही उसने एक सिन्दूरदानी उठायी और पतली-पतली कलमों से काम करने लगा । उस पर कई प्रकार के फूल और लता बनायी । एक जगह लिखा, सावित्री । ठीक उसके पीछे लिखा- सविता और नाम के दोनों ओर आवाज फैलने का चिन्ह दिखाया। इसका आशय था कि कोई सविता, सावित्री कहकर पुकार रहा हो। खुदाई करने के बाद उसने पालिश करना प्रारम्भ किया और शाम को छः बजे तक उसको रगड़ना रहा। काम करते-करते वह कुछ गुनगुना भी रहा था। शायद सस्ती फिल्मी गीत की कोई कड़ी थी। सखीचंद फिल्मी गीतों को एकदम ही नहीं जानता था, लेकिन भोंपू से रिकॉर्डों को सुनते-सुनते कुछ एक कड़ी जान गया था। गुनगुनाने का
तात्पर्य था कि आज वह ज्यादा खुश था । शाम को पौने सात बजे ही वह घर से चल दिया। उसके मालिक एवं कुसुमी को एक प्रकार से अचरज हुआ। क्योंकि दो साल के बीच एक दिन भी वह अपने मन से बाजार या और कहीं भी नहीं गया था। कभी जाता भी था, तो सब्जी खरीदने या किसी लुहार की दुकान पर कलमें बनवाने । मगर सखीचंद के अपने बाजार जाने में इन्होंने तिल का ताड़ नहीं बनाया। सोचा- युवक है, मन बहलाने गया होगा कहीं ।
वह चबुतरे के पास जैसे ही पहुंचा, सविता उसे दिखाई दी। उसने सावित्री को भी देखना चाहा था, तभी सविता पास आकर उसकी छाती से लग गई – “सखीचंद !
सविता की पीठ पर वह हाथ फेरता हुआ बोला – “पहले कुशल-मंगल कहो, सविता !”
सविता ने सिर उठाकर सखीचंद के चेहरे की ओर देखा- सखीचंद का चेहरा पहले की भांति काफी मुस्कराया हुआ लगा उसे, सखीचंद ने देखा – सविता की आंखों में जल के बिन्दु उभर आये हैं ।
“कैसी थीं, अब तक ?” तब भी सखीचंद ने पूछा । “तुम्हारी याद लेकर जी रही थी।” सविता ने धीरे से कहा और उसकी छाती से अलग हो गई।
चारों ओर अन्धेरा हो गया था। बाग में कहीं आदमी की परछाई भी दिखाई नहीं दे रही थी । सुनसान हो गया था। दोनों उस चबूतरे पर बैठ गए । सविता का एक हाथ अपने हाथ में लेकर सखीचंद ने पूछा – “सावित्री…?”
सावित्री का नाम लेते ही सविता रो पड़ी । बोली – ” उसका नाम न लो, सखीचंद । जब से माताजी ने उसको घेरे में रखा है, तब से वह तुमसे मिलने के लिए बेचैन है। उसकी हार्दिक इच्छा है कि वह एक बार तुमको देख सके। उसकी आँखें तुम्हें देखने के लिए तरस रही हैं। दिन-रात रो-रोकर उसका बुरा हाल हो गया है। उसने पढ़ना-लिखना तक छोड़ दिया है।”
“और तुम…?”
“मैं चाहकर भी उसकी तरह नहीं कर सकती।” सविता ने कहा – “मैं रोना-धोना प्रारम्भ कर दूं, तो पिताजी को यह वात मालूम हो जायेगी। इस कारण में नियमित पढ़ने कालिज जाती हूं, ताकि किसी को आभास न हो सके। पिताजी सावित्री पर काफी नाराज हैं, अतः घर से बाहर निकलना उसके लिए कठिन हो गया है ।”
“कोमल दिल को वह रोक नहीं पा रही है।” सखीचंद ने कहा “और उसका प्यार सच्चा है। इसको कोई नहीं तोड़ सकता, खुद भगवान भी नहीं।” और वह चुप हो गया ।
दोनों काफी देर तक खामोश रहे। रात्रि की नीरवता बहती जा रही थी। सविता ने ही चुप्पी को तोड़ा – ‘कुछ अपनी कहो न ?”
“मैं ‘ सखीचंद ने एक लम्बी सांस ली और कहने लगा, “मैं अभी जिंदा रहना चाहता हूँ, भविष्य के लिए। वर्तमान की तो तनिक भी चिंता नहीं है मुझे। रह गया भूत, तो भूत की याद मात्र मेरे हृदय में शेष हैं। उसकी अच्छाइयों और बुराइयों को भी मैं नहीं सोचता, कभी। वर्तमान में केवल दो ही संबल हैं, जिनका संबंध भविष्य से है। पहला यह कि पत्थर का कलाकार बनूं और दूसरा कि तुम लोगों की याद को दिल में संजोए रखूं, बस।”
सविता शरमा गई। सखीचंद ने सिन्दूरदानी जेब से निकाली और सविता की ओर बढ़ाता हुआ बोला – “इस मुलाकात में यह भेंट ! ”
सविता ने सिन्दुरदानी ले ली और ध्यान से देखने के बाद बोली – “इसको तुमने अपने हाथों बनाया है ?”
“हां” सखीचंद मे एक छोटा-सा उत्तर दिया।
“काफी कारीगरी की है, तुमने ?”
“यह कुछ भी नहीं है।” सखीचंद ने कहा- “कल से मूर्तियां बनानी हैं, मुझे। जब मूर्ति बना लूंगा, तब कलाकार बन सकूंगा, मैं ।”
“इस पर तो नाम भी खुदे हैं ?” सविता सिन्दूरदानी को ध्यान- पूर्वक उलट-पुलटकर देख रही थी।
“हां ! आज की मुलाकात की यह पहली भेट है ।” सखीचंद बोला ।
“मुझे तुम्हारी इस भेंट को स्वीकार करना उचित नहीं ।” सविता ने कहा ।
‘ क्यों ? ” आश्चर्य हुआ सखीचंद को।
“इस कारण कि मैं तो तुम्हारे तक किसी न किसी तरह आ ही गई हूँ ।” सविता बोली – “लेकिन सावित्री नहीं आ सकी है। यह अनोखी लेकिन सर्वस्व के समान भेंट सावित्री के लिये ही शांति- दायिनी एवं प्रेरणादायक होगी ।”
सखीचंद मौन रहा।
“इस तरह कब तक चल सकेगा?” सविता ने कहा । “अभी समय अनुकूल नहीं है।” सखीचंद बोला- “बस थोड़े ही दिनों में पूर्ण कारीगर बन जाऊँगा। बस तब तुम जैसा कहोगी, वैसा ही मैं करूंगा ।”
सविता ने एक लंबी सांस ली और उठती हुई बोली – “अच्छा अब मैं चलूं…”
“जाओ । जाना तो है ही, लेकिन सावित्री का ध्यान रखना।” और दोनों दो रास्ते हो लिये, जैसे दोनों की जान-पहचान न हो। वहां से सखीचंद घर ग्राया और भोजन करके सो गया ।
दूसरे दिन समय पर ही उठ गया और फिर वही नित्य का धंधा । छेनी, सरिया और खट्खट् की आवाज । सारा ध्यान कारीगरी पर । मालिक हैरान था, पास-पड़ोसियों को अचंभा हो रहा है। जो देखता कहता आदमी है या स्वयं पत्थर । कभी – आराम नहीं, कभी कोई दूसरा काम नहीं ।
उस दिन उसके मालिक ने कहा – “सखीचंद !”
“जी!” और उसने सरिया रोक लिया तथा क्षण भर के लिये अपने मालिक की ओर ताका ।
“इतनी मेहनत न किया करो।” मालिक से भी नहीं रहा गया था। उसका इतना कठिन मेहनत करना अच्छा नहीं लग रह था। उसने कहा – “कहीं तुम्हारी तन्दुरुस्ती न गिर जाए।”
“तन्दुरुस्ती गिर जाए या स्वास्थ्य ही खराब क्यों न हो जाए ।” सखीचंद ने कहा–“किंतु मै वही करूंगा, जो मुझे करना चाहिये । मुझे कला सीखनी है। यहां तक कि मुझे एक कलाकार बनना है मालिक! कलाकार ! ! “
“इसमें भी कोई शक है कि तुम कलाकार नहीं बन सकते।” सखीचंद के मालिक ने कहा- “सखीचंद ! मैं आज शाम की गाड़ी से पत्थरों के लिए राजस्थान जाऊँगा। यही कहने के लिये मैंने तुम्हें टोका था और मैं देख रहा हूँ कि जब से तुम मेरी दुकान पर आए हो, कभी नहीं आराम किया है, तुमने । घर और दुकान देखना।”
“जी, बहुत अच्छा।” सखीचंद ने कहा- आपने जैसा कहा है, वैसा ही होगा ।”
और शाम को मालिक रेलगाड़ी से राजस्थान के लिये चला गया। अपने मालिक को पहुँचाने वह स्टेशन तक भी गया था । वहां से आने के बाद भी उसने दो घंटे काम किया और जब दुकान बंद करने का समय हो गया, तब उसने दुकान बंद कर दी और हाथ-पांव धोने के बाद भोजन के कमरे में चला गया। मगर यह क्या ? वहां कुसुमी न थी । उसे अचरज हुआ।
सखीचंद को कुसुमी के यहां काम करते हुए ढाई-तीन साल हो गये थे, मगर ऐसा कभी नहीं हुया था । आज यह पहली वार ऐसा हुआ है । सखीचंद एक खूबसूरत युवक तो था ही, हृष्ट-पुष्ट भी था। उसकी मांसल भुजाए चौड़ी छाती और विशाल चेहरा भी कम आकर्षक नहीं था। रात को जब सखीचंद दुकान बढ़ाता, कुसुमी एकटक उसी को देखा करती और जब वह बाहरी दरवाजा बंद करता था, वह अन्दर रसोई में जाकर थाल में भोजन परोस कर उसका इन्तजार करती थी। दरवाजा बंद करने के बाद सखीचंद हाथ-पांव धोता और रसोई में जाता, जहाँ कुसुमी मुस्कुराकर यह कहती – “बड़ी देर की, आज।”
“आज काफी काम था।” सखीचंद कहता।
“तुम्हें रोज ही अधिक काम रहता है।” कुछ खीझ और कुछ व्यंग्य के साथ कुसुमी कहती और भोजन की थाली सखीचंद की ओर सरका देती। सखीचंद भोजन करने में जुट जाता और कुसुमी पंखा झलती रहती या एकटक उसको देखती रहती।
सखीचंद ने रसोईघर की ओर देखा, वहाँ कुमुमी न थी । वह उसके कमरे की ओर गया और पुकारा- “कुसुमी ! ” कोई आवाज नहीं, कोई सुगबुगाहट नहीं । केवल मौनता थी, वहाँ।
“कुसुमी..!” इस बार जरा जोर से आवाज दी उसने ।
फिर भी वातावरण निस्तब्ध, शान्त, मौन ! ! ! सखीचंद कमरे में चला गया। आज वह प्रथम बार कुसुमी के कमरे में गया था। वहां जाते ही उसने अनुभव किया कि कुसुमी चादर ओढ़ कर पलंग पर पड़ी है। क्या उसकी तबीयत एकाएक खराब हो गयी है ? अभी-अभी तो वह अच्छी तरह थी ! आवाज देने पर तो तबीयत का ढोला आदमी भी ‘ हूँ’-‘ना’ में कुछ कहता ही हूं, फिर इसने तो कुछ भी नही कहा था ।
कुछ क्षण बाद उसने आवाज दी- “कुसुमी ! इस बार भी उसकी सुगबुगाहट नहीं दिखाई थी। जगा हुआ आदमी नहीं जागता, सोया हुआ ही आवाज देने पर जाग उठता है। सखीचंद आगे बढ़ गया और उसको हिलाता हुआ बोला- “कुसुमी”
अबकी बार कुसुमी तुरन्त ही उठकर बैठ गयी और एक मादक अंगड़ाई लेती हुई कहने लगी- “अरे. खड़े क्यों हो, बैठ जाओ ।”
उसका इशारा पलंग पर ही बैठने को था।
सखीचंद खड़ा रहा। कहा- “मैं खाना खाऊंगा।”
“चलती तो हूँ ।”
इसके जवाब में सखीचंद वहां से खिसक गया। वह गंवार देहाती सारे मामले को भांप गया। आज कुछ परिवर्तन होगा घर में सूनापन है, मालिक बाहर चला गया था। रात हो रही थी । अन्दर एक युवती और एक खूबसूरत युवक थे। दोनों जवानी की ‘देहलीज पर चढ़ चुके थे। दोनों एक-दूसरे से परिचित थे । एक नारी, एक मर्द !
नारी अंधी थी। वह पुरुष को चाहती थी। बहुत पहले से ही चाहती थी, मगर उसको आज से पहले कभी मौका ही नहीं मिल पाया था। अपने परिवार में एकमात्र पिताजी के बाहर चले जाने के कारण, उसे मौका मिल गया था। आज वह कुछ पाना चाहती थी, कुछ हासिल करना चाहती थी। कुछ ऐसी ही चीज को हाथ लगाना चाहती थी, जिसको वह जीवनपर्यन्त अपने पास रख सके । नारी, मर्द पर आशिक थी ।
मर्द शांत था । जानता था कि इस घर में एक युवती है, अच्छी है, जवान है ! यदि उसकी ओर निगाहें की जाएं, तो प्यार मिल सकता है। लेकिन उसने ऐसा कभी नहीं किया। इस तरह के ख्याल उसके विचार में आए ही नहीं । उसका लक्ष्य ही दूसरा था। पत्थर की पूरी जानकारी हासिल करना। हालांकि उसका मालिक कोई अच्छा कारीगर नहीं था, बस छोटी-मोटी साधारण सी चीजें बना लेता था, मगर सखीचंद एकलव्य की भांति बिना प्रत्यक्ष गुरु के विद्या हासिल करना चाहता था ।
कुसुमी ने सोचा। उसकी नहीं चली, तो वह भी उठकर रसोई में आयी, जहाँ पीढ़ा पर सखीचंद बैठा उसका इंतज़ार कर रहा था । आते ही उसने रसोई निकाली और थाली को आगे बढ़ा दिया।
आज का भोजन भी रुचिकर था । सखीचंद ने डट कर भोजन किया और वहां से सीधे अपने कमरे में जाकर चारपाई पर पड़ा रहा। थोड़ी देर बाद वह सो गया ।
कुसुमी भी वहाँ से अपने कमरे की ओर आ गई और पलंग पर लेटी । उसे नींद नहीं आ रही थी। मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे । कुछ अच्छे थे, तो कुछ बुरे। कुछ मानवीयता के लक्षण ये तो कुछ मानवीयता के ! वह सोचती जब पुरुष ही आगे कदम बढ़ाता नहीं है, तब नारी ही अपना आत्म समर्पण क्यों करे ? नारी इतनी देय तो नहीं ? फिर सोचती – नारी समर्पण तो नहीं करेगी, मगर नारी को ही तो कुछ पाना है, अतः वह तपस्या तो करेगी ही ! नारी सुख मिलेगा, जीवन मिलेगा, और एक अच्छा मन चाहा, सुन्दर जीवन-साथी भी!
इसी समर्पण और समर्पण के प्रतिद्वन्द्व में वह एक-डेढ़ घंटे फंसी रही। अंत में वह उठकर सखीचंद के कमरे की ओर चल पड़ी। उसके पैर कांप रहे थे, मगर दिल शांत था। हृदय के किसी कोने में हलचल सी मच रही थी, लेकिन मन प्रसन्न था ! कभी उसको अनुभव होता, जो होने जा रहा है, यह उचित नहीं। एक कुमारी युवती के लिए तो और उचित नहीं। तभी हृदय का एक कोना कहता – एक न एक दिन तो किसी के साथ होना ही है, यह सब, फिर सकपकाहट क्यों ? नारी को समर्पण करना है है । मर्द के समक्ष झुकना ही है, फिर…
कुसुमी सखीचंद के कमरे में चली गयी। कमरे में एक छोटा- सा बल्ब चमक रहा था । हल्की रोशनी चारों ओर फैली हुई। सखीचंद नींद में सो रहा था। सारा बदन चादर में ढकाया, लेकिन अकेला चेहरा बाहर झांक रहा था, बांखें बन्द किए हुए । वह और पास चली गयी और बगल में चारपाई पर धीरे से बैठ गयी और उसके खुले चेहरे को ध्यान से देखने लगी ।
कुसुमी ने काफी नजदीक से यहाँ तक कि एकदम पास से सखीचंद को देखना चाहा था, मगर अब तक चाहकर भी नहीं देख सकी थी । आज वह उसको देखना चाहती थी। वाह ! कितना खूबसूरत और सुघड़ जवान है – मन में वह सोचती हुई वह उसके चेहरे की ओर झुकी। ऐसा गठीला मर्द शायद ही किसी को मिले और उसके होंठ…
“कोन ?” सखीचंद ने अपनी आँखें खोल दीं । कुसुमी ने अपना चेहरा पीछे हटा लिया। उसने कुछ कहा नहीं ।
“”कुसुमी तुम ?”
“हाँ!” उसने जवाब दिया।
कुसुमी का इस तरह रात को अपने कमरे में थाना, सखीचंद को अच्छा नहीं लगा। तभी दिमाग में एक झटका लगा – आज मालिक मी तो नहीं हैं। ऐसा ख्याल आते ही वह सारा मामला समझ गया, बोला- “तुम यहाँ क्यों आई हो ?”
मौन, शान्त थी कुसुमी !
“अपने कमरे में जाकर सो रहो।”
कुसुमी ने इस बार भी कुछ नहीं कहा। कुसुमी को इस तरह मौन व्रत धारण करते देख, सखीचंद ने सोचा – यह इस समय अपने होश में नहीं है। चाह और वासना ने इसको बुरी तरह डस लिया है। इसको इतना भी होश नहीं है कि कुमारी होकर भी इस रास्ते पर चलने को चातुर है। परिणाम की भयंकरता का इसको तनिक भी अनुभव नहीं है, शायद । नहीं तो यह प्यार की सीढ़ी पर चढ़ती वासना की नहीं । एकाएक रात को यहाँ आना, वासना की निशानी थी। वह बोला – “कुसुमी ! तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है। तुम कमरे में जाकर सो रहो।”
“जी नहीं चाहता ।” कुसुमी ने लज्जावश इतना धीरे से कहा।
“यह सेज फूलों का नहीं, कांटों की है, कुसुमी !” सखीचंद ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया और प्यार से बोला- “इस रास्ते पर चल सकना तुम्हारे लिए अशुभकर होगा ।”
“मैं देख रही हूं, तुम मानव के रूप में मर्द नहीं हो ।” कुसुमी ने शायद सखीचंद की बात न सुनी हो। वह शहर की थी। सखीचंद को एक गंवार और निपट बुद्धू ही समझती थी। उसने कहा – “नहीं तो तुम इस तरह कभी शांत नहीं रह सकते थे ।”
सखीचंद ने उसके कंधे पर से अपना हाथ हटा लिया और सिर झुकाकर बोला – “परिस्थिति सब कुछ करा देती है, कुसुमी ।”
शहरी युवती की छाती तन गई और गवार मर्द को झुक जाना पड़ा । बेशर्म, आधुनिक और फैशन में डूबी शहरी तितली उड़-उड़ कर माली के पास जाती, मगर माली उसकी ओर देखता भी नहीं था। उसके सतरंगी पंखों ने अपनी ओर आकर्षित नहीं किया।
“अब तुम परिस्थिति के गुलाम नहीं हो ।” कुसुमी ने कहा “बाबूजी कह रहे थे कि अब तुम एक अच्छे कलाकार हो ।” और वह सखीचंद के पास सरक गयी।
‘कुसुमी ! यह रास्ता गलत है ।”
“तुम्हारी सुन्दरता और जवानी, मुझे इस रास्ते पर ढकेल रही है, सखीचंद ! ” उस वक्त वह पूर्ण आवेश में थी। उससे सखीचंद का हाथ पकड़ लिया और कहने लगी – ” इतने दिन हो गये। मैं अपने को रोकती आ रही हूँ। मैंने सोचा था — पहले-पहले मुझे देखकर कुछ इशारा करोगे या पहला कदम तुम्हारा होगा, किन्तु अब तक के अनुभवों के आधार पर मुझे ज्ञात हुआ कि पत्थर का काम करते-करते, तुम भी पत्थर हो गये हो । जैसे कोई बेजान मूर्ति हो ।”
“भोग को मैं जीवन का अंग नहीं मानता ।” सखीचंद ने कहा।”
“फिर भी भोग के बिना जीवन अपूर्ण है ।” कुसुमी बोली ।
“भोग से शरीर की जिस्मी भूख मिटती है, मन की नहीं ।” सखीचंद ने कहा – “मोग तो प्रत्येक जीव के जीवन से सम्बन्ध रखता है, जैसा कि आदमी से। मगर तब हमारे और अन्य जीव-जंतुओं में क्या अन्तर रह जायेगा ? अत: प्यार का स्थान मनुष्य के जीवन में सर्वोपरि है, बनिस्बत भोग के।”
“यह सर्वथा सत्य नहीं ।” कुसुमी ने कहा- “अन्य जीव-जन्तु भी तो अपने समान पशुओं के साथ प्यार करते हैं।”
“वे केवल सन्तान के साथ ही प्यार का सलूक करते हैं। वह भी कब, जब उनका बच्चा छोटा होता है ।” सखीचंद ने कहा- “अंत में यही देखा गया है कि बेटा ही मां के साथ, भाई ही बहनों के साथ और बाप ही बेटी के साथ भोग करने लगता है और यह सब जानवरों में ही होता है ।”
“फिर भी भोग के बगैर प्यार अधूरा रह जाता है ।”
“यदि सत्य प्रेम में भोग आ भी जाए, तो भोग का स्थान क्षणिक ही रहता है ।” सखीचंद ने कहा “भोग के बाद प्यार आ जाता है और एक दूसरे के प्रति आकर्षण बना रहता है और दोनों की जिन्दगी की गाड़ी सरकती जाती है।”
“मैं तो भोग से ही प्यार की उत्पत्ति मानती हूँ ।” कुसुमी ने कहा ।
“तुम एकदम गलत रास्ते पर हो कुमुमी !” सखीचंद शहर में रहने के कारण काफी चालाक हो गया था। कहने लगा- “क्या वेश्यायों से भी कोई प्यार करता है ?”
“क्यों नहीं ?” कुसुमी ने कहा-“यदि लोग उनसे प्यार नहीं करते, तो उनके पास जाते ही क्यों ! भौरों की भांति मंडराते क्यों ?”
“केवल जिस्मी भूख मिटाने के लिए ही लोग वेश्याओं के पास जाते हैं ।” सखीचंद ने कहा- “उन्हें कोई प्यार नहीं करता और न वेश्यायें ही किसी से प्यार करती हैं। पुरुषों का ध्येय रहता है कि कम से कम पैसों में अधिक से अधिक वासना खरीदें, ताकि आंखों को और इन्द्रियों को तृप्ति मिले और वेश्यायें चाहती हैं कि कम से कम भोग में अधिक से अधिक पैसा वसूलें । असल में दोनों एक दूसरे को बेवकूफ बनाने की होड़ में रहते हैं। कभी बाजी पुरुष के हाथ आती है तो कभी वेश्या के। ऐसी जगहों पर प्यार का नामो निशान भी नहीं होता ।”
“देखो, सखीचंद ! मैं शहरी वातावरण में पली हूँ ।” कुसुमी ने कहा — “यहाँ के वातावरण में भोग का ही स्थान प्रथम है । यदि किसी स्त्री का चेहरा किसी पुरुष की आंखों में गड़ गया, तो वह स्त्री पर डोरा डालना प्रारंभ कर देगा और यही स्त्री भी है । अतः यदि भोग होता रहे, तो स्वतः ही प्यार होने लगेगा । “
“नहीं।” सखीचंद ने कहा – “जब तक वासना की तृप्ति नहीं हो जाती, एक दूसरे के प्रति उनका खिचाव बढ़ता जाता है, मगर भोग के पश्चात् मन में एक घृणा का बीज अंकुर जाता है। वहां प्यार नहीं होता । भोग की मंजिल में केवल क्षणिक आकर्षण होता है ।”
“फिर भी ‘और वह सखीचंद से लिपट गयी।
‘कुसुमी…!” सखीचंद ने जोर से कहा और एक चांटा उसके गाल पर जड़ दिया ।
क्षण भर के लिए कुमुमी ठण्डी पड़ गयो । उसका जोश मर गया। वह पूरे होश में थी, मगर उसका दृढ़ निश्चय नहीं टला था । सौभाग्य से तो आज साढ़े तीन-चार साल बाद ऐसा सुनहरा मौका मिला था। जब से उसने सखीचंद को देखा था, वह उसकी ओर आकर्षित होती गयी थी। उसने कहा- “इस चांटे से मेरा निश्चय नहीं बदल सकता। मैं तुम्हारे इस झांसे में नहीं आ सकती। यदि तुम मुझे जान से भी मार डालोगे, तो मैं यहां से टल नहीं सकती ।”
सखीचंद को ऐसा ज्ञात हुआ कि उसका संकल्प दृढ़ है, अतः कृत्रिम प्यार से ही इससे पिंड छुड़ाया जा सकता है। ऐसा विचार आते ही उसने कुसुमी का कोमल हाथ पकड़ लिया और धीरे से पूछा- जिस रास्ते पर तुम चलना चाह रही हो, उस रास्ते के बारे में कभी सोचा है ?”
” सोचना क्या है, मुझे ?” कुसुमी पढ़ी लिखी भी थी, कहने लगी – “मैं जवान हूँ, सुन्दर हुं, मस्त हूँ ! ! ! शादी होने की उम्र है, मेरी ! आखिर विवाह का क्या अर्थ होता है ?”
‘तब तो तुम एक होशियार युवती हो ।” और उसकी चोटियों के रिबनों से खेलता हुआ सखीचंद कहने लगा- “तब पिताजी से कहकर क्यों नहीं अपनी शादी करवा लेती ? यह सब बखेड़ा ही नहीं रहेगा।”
“शादी के लिए में कैसे पिताजी से कह सकती हूँ ?” कुसुमी बोली – “उन्हें जब कुछ होश ही नहीं है, तब मैं भला क्या कहूँ ?”
“तब तक धीरज रखो ।” सखीचंद ने कहा – “जब तक तुम्हारी शादी नहीं हो जाती ।”
“मैंने तो कसम खाली है कि शादी की बात पिताजी ने नहीं कहूँगी।” कुसुमी ने कहा – “तुम अपनी शादी क्यों नहीं कर लेते ? “
“हम गरीब से शादी का भार नहीं चल सकेगा।”
“मुझसे शादी करोगे ?” कुसुमी कहने लगी – “पिताजी राजी हो जायेंगे। साथ ही सारी सम्पत्ति के मालिक हम होंगे। दोनों की जिन्दगी आराम से कट जाएगी ।”
“यह विचार तारीफ के काबिल है ।” और बात रखने के लिए सखीचंद ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसके हाथ की चूड़ियों को गोलाई में घुमाता हुआ वह बोला – “कुसुमी ! यह चूड़ियाँ किसने बनाई हैं ?”
कुसुमी ने उत्तर दिया- “पिताजी ने ।”
“कल से मैं भी चार आठ चूड़ियां बनाऊंगा ।” और वह चूड़ियों की कारीगरी को ध्यान से देखने लगा । इस अवसर से कसुमी ने लाभ उठाया और वह सखीचंद की गोद में बैठने का साहस कर सकी। बात टालने के ख्याल से वह बोला- “कुसुमी ! इधर आओ।” और गोद से हटा कर अपनी जांघ पर उसका सिर रखकर लिटा दिया। बोला- – “पिताजी से कहो, हमारी शादी जहाँ तक हो सके, जल्दी ही कर दें।”
कुसुमी गदगद हो गई। उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं ।
” ओह ! चार बज गये।” एकाएक ध्यान आते ही सखीचंद ने उसका सिर हटा दिया और दुकान की ओर जाता हुआ बोला-
“मुझे आज से ही चूड़ियाँ बनानी है ।”
कुसुमी प्यासी नजरों से सखीचंद को देखती हुई वहाँ से चली गयी ।
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