चैप्टर 55 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 55 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 55 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 55 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 55 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 55 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

शंखधर राजकुमार होकर भी तपस्वी है। विलास की किसी भी वस्तु से उसे प्रेम नहीं। दूसरों से वह बहुत प्रसन्न होकर बातें करता है। अहिल्या और मनोरमा के पास वह घंटों बैठा गप-शप किया करता है। दादा और दादी के समीप जाकर तो उसकी हंसी की पिटारी-सी खुल जाती है, लेकिन सैर-शिकार से कोसों भागता है। एकांत मैं बैठा हुआ वह नित्य गहरे विचारों में मग्न रहता है। उसके जी में बार-बार आता है कि पिताजी के पास चला जाऊं, पर घर वालों के दुःख का विचार करके जाने की हिम्मत नहीं पड़ती। जब उसके पिता ने सेवाव्रत ले रखा है, तो वह किस हृदय से राजसुख भोगे? नरम-नरम तकिए उसके हृदय में कांटे के समान चुभते हैं, स्वादिष्ट भोजन उसे जहर की तरह लगता है।

पर सबसे विचित्र बात यह है कि वह कमला से भागता रहता है। युवती देवप्रिया अब वह रानी कमला नहीं है, जो हर्षपुर में तप और व्रत में मग्न रहती थी। वे सभी कामनाएं, जो रमणी के हृदय में लहरें मारा करती हैं, उदित हो गई हैं। वह नित्य नए रूप बदलकर शंखधर के पास आती है, पर ठीक उसी समय शंखधर को या तो कोई जरूरी काम बाहर ले जाता है, या वह कोई धार्मिक प्रश्न उठा देता है। रात को भी शंखधर कुछ न कुछ पढ़ता-लिखता रहता है। कभी-कभी सारी रात पढ़ने में कट जाती है। देवप्रिया उसकी राह देखती-देखती सो जाती है। विपत्ति तो यह है कि देवप्रिया को पूर्वजन्म की सभी बातें याद हैं, वायुयान का दृश्य भी याद है, पर वह सोचती है, एक बार ऐसा हुआ, तो क्या बार-बार होगा? उसने अपना वैधव्य कितने संयम से व्यतीत किया था। पूर्व-कर्मों का प्रायश्चित क्या इतने पर भी पूरा नहीं हुआ?

प्रकृति माधुर्य में डूबी हुई है। आधी रात का समय है। चारों तरफ चांदनी छिटकी हुई है। वृक्षों के नीचे कैसा जाल बिछा हुआ है ! क्या पक्षी हृदय को फंसाने के लिए? नदियों पर कैसा सुंदर जाल है ! क्या मीन हृदय को तड़पाने के लिए? ये जाल किसने फैला रखे हैं?

देवप्रिया ने आज अपने आभूषण उतार दिए हैं, केश खोल दिए हैं और वियोगिनी के रूप में पति से प्रेम की भिक्षा मांगने जा रही है। आईने के सामने जाकर खड़ी हो गई। आईना चमक उठा। देवप्रिया विजय गर्व से मुस्करायी। कमरे के बाहर निकली।

सहसा उसके अंत:करण में कहीं से आवाज आई, ‘सर्वनाश !’ देवप्रिया के पांव रुक गए। देह शिथिल पड़ गई। उसने भीत दृष्टि से इधर-उधर देखा। फिर आगे बढ़ी।

उसी समय वायु बड़े वेग से चली। कमरे में कोई चीज ‘खट-खट !’ करती हुई नीचे गिर पड़ी। देवप्रिया ने कमरे में जाकर देखा, शंखधर का तैल-चित्र संगमरमर की भूमि पर गिरकर चूरचूर हो गया था। देवप्रिया के अंत:करण में फिर वही आवाज आई-‘सर्वनाश !’ उसके रोएं खड़े हो गए। पुष्प के समान कोमल शरीर मुरझा गया। वह एक क्षण तक खड़ी रही। फिर आगे बढ़ी।

शंखधर दीवानखाने में बैठे सोच रहे थे। मेरे बार-बार जन्म लेने का हेतु क्या है? क्या मेरे जीवन का उद्देश्य जवान होकर मर जाना ही है? क्या मेरे जीवन की अभिलाषाएं कभी पूरी न होंगी? संसार के सब प्राणियों के लिए यदि भोग-विलास वर्जित नहीं है, तो मेरे लिए ही क्यों है? क्या परीक्षा की आग में जलते ही रहना मेरे जीवन का ध्येय है?

देवप्रिया द्वार पर जाकर खड़ी हो गई।

शंखधर ने उसका अलंकार-विहीन रूप देखा, तो उन्मत्त हो गए। अलंकारों का त्याग करके वह मोहिनी हो गई थी।

देवप्रिया ने द्वार पर खड़े-खड़े कहा–अंदर आऊं?

शंखधर के अंत:करण में कहीं से आवाज आई। मुंह से कोई शब्द न निकला।

देवप्रिया ने फिर कहा–अंदर आऊं?

शंखधर ने कातर-स्वर में कहा-नेकी और पूछ-पूछ !

देवप्रिया-नहीं प्रियतम, तुम्हारे पास आते डर लगता है।

शंखधर ने एक पग बढ़कर देवप्रिया का हाथ पकड़ा और अंदर खींच लिया। उसी वक्त वायु का वेग प्रचंड हो गया। बिजली का दीपक बुझ गया। कमरे में अंधकार छा गया।

देवप्रिया ने सहमी हुई आवाज में कहा–मुझे छोड़ दो! उसका हृदय धक-धक कर रहा था।

सितार पर चोट पड़ते ही जैसे उसके तार गूंज उठते हैं, वैसे ही शंखधर का स्नायुमंडल थरथरा उठा। रमणी को करपाश में लपेट लेने की प्रबल इच्छा हुई। मन को संभालकर कहा–घर आई हुई लक्ष्मी को कौन छोड़ता है !

देवप्रिया–बिना बुलाया मेहमान बिना कहे जा भी तो सकता है।

शंखधर की विचित्र दशा थी। भीतर भय था, बाहर इच्छा। मन पीछे हटता था, पैर आगे बढ़ते थे। उसने बिजली का बटन दबाकर कहा–लक्ष्मी बिना बुलाए नहीं आती प्रिये! कभी नहीं। उपासक का हृदय अव्यक्त रूप से नित्य उसकी कामना करता ही रहता है। वह मुंह से कुछ न कहे, पर उसके रोम-रोम से आह्वान के शब्द निकलते हैं।

देवप्रिया की चिरक्षुधित प्रेमाकांक्षा आतुर हो उठी। अनंत वियोग से तड़पता हुआ हृदय आलिंगन के लिए चीत्कार करने लगा। उसने अपना सिर शंखधर के वक्षस्थल पर रख दिया और दोनों बाहें उसके गले में डाल दीं। कितना कोमल, कितना मधुर, कितना अनुरक्त स्पर्श था ! शंखधर प्रेमोल्लास से विभोर हो गया था। उसे जान पड़ा कि पृथ्वी नीचे कांप रही है और आकाश ऊपर उड़ा जाता है। फिर ऐसा हुआ कि वज्र बड़े वेग से उसके सिर पर गिरा।

वह मूर्छित हो गया।

देवप्रिया के अंत:करण में फिर आवाज आई-‘सर्वनाश! सर्वनाश! सर्वनाश !’

घबराकर बोली-प्रियतम, तुम्हें क्या हो गया? हाय ! तुम कैसे हुए जाते हो? हाय ! मैं जानती कि मुझ पापिन के कारण तुम्हारी यह दशा होगी, तो अंतकाल तक वियोगाग्नि में जलती रहती, पर तुम्हारे निकट न आती। प्यारे, आंखें खोलो तुम्हारी कमला रो रही है।

शंखधर ने आंखें खोल दीं। उनमें अकथनीय शोक था, असहनीय वेदना थी, अपार तष्णा थी।

अत्यंत क्षीण स्वर में बोला–प्रिये ! फिर मिलेंगे। यह लीला उस दिन समाप्त होगी, जब प्रेम में वासना न रहेगी।

चांदनी अब भी छिटकी हुई थी। वृक्षों के नीचे भी चांदनी का जाल बिछा हुआ था। जल क्षेत्र में अब भी चांदनी नाच रही थी। वायु-संगीत अब भी प्रवाहित हो रहा था, पर देवप्रिया के लिए चारों ओर अंधकार और शून्य हो गया था।

सहसा राजा विशालसिंह द्वार पर आकर खड़े हो गए।

देवप्रिया ने विलाप करके कहा–हाय नाथ ! तुम मुझे छोड़कर कहाँचले गए? क्या इसीलिए, इसी क्षणिक मिलाप के लिए मुझे हर्षपुर से लाए थे?

राजा साहब ने यह करुण विलाप सुना और उनके पैरों तले से जमीन निकल गई। उन्होंने विधि को परास्त करने का संकल्प किया था। विधि ने उन्हें परास्त कर दिया। वह विधि को हाथ का खिलौना बनाना चाहते थे। विधि ने दिखा दिया, तुम मेरे हाथ के खिलौने हो। वह अपनी आंखों से जो कुछ न देखना चाहते थे, वह देखना पड़ा और इतनी जल्द! आज ही वह मुंशी वज्रधर के पास से लौटे थे। आज ही उनके मुख से वे अहंकारपूर्ण शब्द निकले थे। आह ! कौन जानता था कि विधि इतनी जल्द यह सर्वनाश कर देगा! इससे पहले कि वह अपने जीवन का अंत कर दें, विधि ने उनकी आशाओं का अंत कर दिया।

राजा साहब ने कमरे में जाकर शंखधर के मुख की ओर देखा। उनके जीवन का आधार निर्जीव पड़ा हुआ था। यही दृश्य आज से पचास वर्ष पहले उन्होंने देखा था। यही शंखधर था ! हां, यही शंखधर था ! यही कमला थी ! हां, यही कमला थी ! वह स्वयं बदल गए थे। उस समय दिल में मनसूबे थे, बड़े-बड़े इरादे थे। आज नैराश्य और शोक के सिवा कुछ न था।

उनके मुख से विलाप का एक शब्द भी न निकला। आंखों से आंसू की एक बूंद भी न गिरी। खड़े-खड़े भूमि पर गिर पड़े और दम निकल गया।

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