चैप्टर 55 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 55 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

चैप्टर 55 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 55 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 55 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel

Chapter 55 aankh Ki Kirkiri

राजलक्ष्मी की मृत्यु के बाद श्राद्धादि खत्म करके महेंद्र ने कहा – ‘भई बिहारी, मैं डॉक्टरी जानता हूँ। तुमने जो काम शुरू किया है, मुझे भी उसमें शामिल कर लो! चुन्नी अब ऐसी गृहिणी बन गई है कि वह भी तुम्हारी मदद कर सकेगी। हम सब लोग वहीं रहेंगे।’

बिहारी ने कहा – ‘खूब अच्छी तरह सोच देखो, भैया – यह काम हमेशा के लिए कर सकोगे। वैराग्य के इस क्षणिक आवेश में ऐसा स्थायी भाव मत ले बैठो!’

महेंद्र बोला – ‘तुम भी जरा सोच कर देखो, जीवन को मैंने इस तरह बखेड़ा किया है कि अब बैठे-बैठे उसके उपभोग की गुंजाइश न रही। इसे अगर सक्रियता में न खींचता चलूँ तो जाने किस रोज यह मुझे अवसाद में खींच ले जाएगा। अपने काम में मुझे शामिल करना ही पड़ेगा।’

यही बात तय रही।

अन्नपूर्णा और बिहारी दोनों बैठ कर शांत उदासी लिए पिछले दिनों की चर्चा कर रहे थे। दोनों के एक-दूसरे से अलग होने का समय करीब था। विनोदिनी ने दरवाजे के पास आ कर पूछा – ‘चाची, मैं यहाँ बैठ सकती हूँ।’

अन्नपूर्णा बोलीं – ‘आ जाओ बिटिया, आओ!’

विनोदिनी आई। उसने दो-चार बातें करके बिछौना उठाने का बहाना करके अन्नपूर्णा चली गई।

विनोदिनी ने बिहारी से कहा – ‘अब मेरे लिए तुम्हारा जो आदेश हो, कहो!’

बिहारी ने कहा – ‘भाभी, तुम्हीं बताओ, तुम क्या चाहती हो?’

विनोदिनी बोली – ‘मैंने सुना है, गरीबों के इलाज के लिए तुमने कोई बगीचा लिया है। मैं वहीं तुम्हारा कोई काम करूँगी और कुछ न बने तो खाना पकाऊँगी।’

बिहारी बोला – ‘मैंने बहुत सोच देखा है, भाभी! इन-उन हंगामों से अपने जीवन के जाल में बेहद गाँठें पड़ गई हैं। अब एकांत में बैठ कर एक-एक करके उन्हीं गाँठों को खोलने का समय आ गया है। पहले सबकी सफाई कर लेनी होगी।’

अब जी जो चाहता है, सबको मान लेने की हिम्मत नहीं पड़ती। अब तक तो गुजरा, जितना कुछ झेला, उन सबके आवर्तन और आंदोलन को शांत न कर लूँ तो जीवन की समाप्ति के लिए तैयार न हो सकूँगी। अगर सारे बीते दिन अनुकूल हों, तो संसार में केवल तुमसे ही मेरा जीवन पूर्ण हो सकता था। अब तुमसे मुझे वंचित होना ही पड़ेगा। सुख की कोशिश अब बेकार है … अब तो धीरे-धीरे टूट-फूट कर मरम्मत कर लेनी है।’

इतने में अन्नपूर्णा आईं। उनके आते ही विनोदिनी ने कहा, ‘माँ, तुम्हें अपने चरणों में मुझे शरण देनी पड़ेगी। पापिन के नाते तुम मुझे मत ठुकराओ।’

अन्नपूर्णा बोली, ‘चलो मेरे ही साथ चलो।’

अन्नपूर्णा और विनोदिनी जिस दिन काशी जाने लगीं, मौका ढूँढ़ कर बिहारी ने अकेले में विनोदिनी से भेंट की। कहा, ‘भाभी, तुम्हारी कोई यादगार मैं अपने पास रखना चाहता हूँ।’

विनोदिनी बोली, ‘अपने पास ऐसा क्या है, जिसे निशानी की तरह पास रखो।’

बिहारी ने शर्म और संकोच के साथ कहा, ‘अंग्रेजों में ऐसी रिवाज है, अपनी प्रिय पात्रा की कोई लट याद के लिए रख लेते हैं – तुम अगर…’

विनोदिनी – ‘छि: कैसी घिनौनी बात! मेरे बालों का तुम क्या करोगे? वह मुई नापाक चीज कुछ ऐसी नहीं कि तुम्हें दूं। अभागिन मैं, तुम्हारे पास रह नहीं सकती – मैं ऐसा कुछ देना चाहती हूँ, जो मेरा हो कर तुम्हारे काम में आए।’

बिहारी ने कहा, लूंगा।’

इस पर विनोदिनी ने आँचल की गाँठ से खोल कर हजार-हजार के दो नोट बिहारी को दिए।

बिहारी गहरे आवेश के साथ विनोदिनी के चेहरे की ओर एकटक देखता रहा। जरा देर बाद बोला – ‘और मैं क्या तुम्हें कुछ न दे पाऊँगा?’

विनोदिनी ने कहा – ‘तुम्हारी निशानी मेरे पास है, वह मेरे अंग का भूषण है, उसे कभी कोई छीन नहीं सकता। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’

यह कह कर उसने अपने हाथ की चोट का वह दाग दिखाया।

बिहारी हैरान रह गया। विनोदिनी बोली, ‘तुम नहीं जानते, यह आघात तुम्हारा है और यह आघात तुम्हारे ही योग्य है। इसे तुम भी वापस नहीं ले सकते।’

मौसी के इतना समझाने-बुझाने के बावजूद विनोदिनी के लिए आशा अपने मन को निष्कंटक न कर सकी थी। राजलक्ष्मी के सेवा-जतन में दोनों साथ जुटी रहीं, पर जब से उसकी नजर विनोदिनी पर पड़ी, तभी उसके दिल को चोट लगी – जबान से आवाज न निकली और हँसने की कोशिश ने उसे दुखाया। विनोदिनी की कोई मामूली सेवा लेने में भी उसका मन नाराज रहता। शिष्टता के नाते विनोदिनी का लगाया पान उसे लेना पड़ा, लेकिन बाद में तुरंत थूक दिया है। लेकिन आज जब जुदाई की घड़ी आई, मौसी दोबारा घर-बार छोड़ कर जाने लगीं और आशा का हृदय आँसुओं से गीला हो उठा, तो विनोदिनी के लिए भी उसका मन भर आया। जो सब-कुछ छोड़-छाड़ कर एकबारगी जा रहा हो, उसे माफ न कर सके, ऐसे लोग दुनिया में कम ही हैं। उसे मालूम था, विनोदिनी महेंद्र को प्यार करती है, क्यों न करे महेंद्र को प्यार! महेंद्र को प्यार करना कितना जरूरी है इसे वह खुद अपने ही मन से जान रही थी। अपने प्‍यार की उस वेदना से ही आज उसे विनोदिनी पर बड़ी दया हो आई। वह महेन्द्र को छोड़कर सदा के लिए जा रही है, उसका जो दुस्सह द:ख है, आशा अपने बहुत बड़े दुश्‍मन के लिए भी उसकी कामना नहीं कर सकती। यह सोचकर उसकी आँखें भर आईं-कभी उसने विनोदिनी को प्यार भी किया था। वह प्यार उसके जी को छू गया। वह धीरे-धीरे विनोदिनी के समीप जा कर बड़ी ही करुणा के साथ, स्नेह के साथ, विषाद के साथ बोली, ‘दीदी, जा रही हो?’

आशा की ठोड़ी पकड़ कर विनोदिनी ने कहा, ‘हाँ बहन, जाने का समय आ गया। कभी तुमने मुझे प्यार किया था, अब अपने सुख के दिनों में उस प्यार का थोड़ा-सा अंश मेरे लिए रखना बहन, बाकी सब भूल जाना।’

महेंद्र ने आ कर नमस्ते करके कहा, ‘माफ करना, भाभी!’

उसकी आँखों के कोनों से आँसू की दो बूंदे ढुलक पड़ीं। विनोदिनी ने कहा, ‘तुम भी मुझे माफ करना, भाई साहब, भगवान तुम लोगों को सदा सुखी रखें!’

**समाप्त**

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