चैप्टर 54 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 54 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 54 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 54 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 54 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 54 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

राजा साहब को अब किसी तरह शांति न मिलती थी। कोई न कोई भयंकर विपत्ति आने वाली है, इस शंका को वह दिल से न निकाल सकते थे। दो-चार प्राणियों को जोर-जोर से बातें करते सुनकर वह घबरा जाते थे कि कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई। शंखधर कहीं जाता, तो जब तक कुशल से लौट न आए, वह व्याकुल रहते थे। उनका जी चाहता था कि यह मेरी आंखों के सामने से दूर न हो। उसके मुख की ओर देखकर उनकी आंखें आप ही आप सजल हो जाती थीं। वह रात को उठकर ठाकुरद्वारे में चले जाते और घंटों ईश्वर की वंदना किया करते। जो शंका उनके मन में थी, उसे प्रकट करने का उन्हें साहस न होता था। वह उसे स्वयं व्यक्त करते थे। वह अपने मरे हुए भाई की स्मृति को मिटा देना चाहते थे, पर वह सूरत आंख से न टलती। कोई ऐसी क्रिया, ऐसी आयोजना, ऐसी विधि न थी, जो इन पर मंडराने वाले संकट का मोचन करने के लिए न की जा रही हो; पर राजा साहब को शांति न मिलती थी।

संध्या हो गई थी। राजा साहब ने मोटर मंगवाई और मुंशी वज्रधर के मकान पर जा पहुंचे। मुंशीजी की संगीत मंडली जमा हो गई थी। संगीत ही उनका दान, व्रत, ध्यान और तप था। उनकी सारी चिंताएं और सारी बाधाएं संगीत के स्वरों में विलीन हो जाती थीं। मुंशीजी राजा साहब को देखते ही खड़े होकर बोले-आइए, महाराज! आज ग्वालियर के एक आचार्य का गाना सुनवाऊं! आपने बहुत गाने सुने होंगे, पर इनका गाना कुछ और ही चीज है।

राजा साहब मन में मुंशीजी की बेफिक्री पर झुंझलाए। ऐसे प्राणी भी संसार में हैं, जिन्हें अपने विलास के आगे किसी वस्तु की परवाह नहीं। शंखधर से मेरा और इनका एक-सा संबंध है, पर यह अपने संगीत में मस्त हैं और मैं शंकाओं से व्यग्र हो रहा हूँ। सच है-“सबसे अच्छे मूढ जिन्हें न व्यापत जगत गति !” बोले-इसीलिए तो आया ही हूँ पर जरा देर के लिए आपसे कुछ बातें करना चाहता हूँ।

दोनों आदमी अलग एक कमरे में जा बैठे। राजा साहब सोचने लगे, किस तरह बात शुरू करूं? मुंशीजी ने उनको असमंजस में देखकर कहा–मेरे लायक जो काम हो, फरमाइये। आप बहुत चिंतित मालूम होते हैं। बात क्या है?

राजा–मुझे आपके जीवन पर डाह होता है। आप मुझे भी क्यों नहीं निर्बुद्व रहना सिखा देते!

मुंशीजी–यह तो कोई कठिन बात नहीं। इतना समझ लीजिए कि ईश्वर ने संसार की सृष्टि की है और वही इसे चलाता है। जो कुछ उसकी इच्छा होगी, वही होगा। फिर उसकी चिंता का भार क्यों लें।

राजा–यह तो बहुत दिनों से जानता हूँ। पर इससे चित्त को शांति नहीं होती ! अब मुझे मालूम हो रहा है कि संसार में मन लगाना ही सारे दुःख का मूल है। जगदीशपुर राज्य को भोगना ही मेरे जीवन का लक्ष्य था। मैंने अपने जीवन में जो कुछ किया, इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए। अपने जीवन पर कभी एक क्षण के लिए भी विचार नहीं किया। जब राज्य न था, तब अवश्य कुछ दिनों के लिए सेवा के भाव मन में जागृत हुए थे-वह भी बाबू चक्रधर के सत्संग से। राज्य मिलते ही मेरा कायापलट हो गया। फिर कभी आत्मचिंतन की नौबत न आई। शंखधर को पाकर मैं निहाल हो गया। मेरे जीवन में ज्योति-सी आ गई, मैं सब कुछ पा गया, पर अबकी जब से शंखधर लौटा है, मझे उसके विषय में भयंकर शंका हो रही है। आपने मेरे भाई साहब को देखा था?

मंशीजी–जी नहीं, उन दिनों तो मैं यहां से बाहर नौकर था। अजी, तब इल्म की कदर थी। मिडिल पास करते ही सरकारी नौकरी मिल गई थी। स्कूल में कोई लड़का मेरी टक्कर का न था।

अध्यापकों को भी मेरी बुद्धि पर आश्चर्य होता था। बड़े पंडितजी कहा करते थे, यह लड़का एक दिन ओहदे पर पहुंचेगा। उनकी भविष्यवाणी उस दिन पूरी हुई, जब मैं तहसीलदारी पर पहुंचा।

राजा–भाई साहब की सूरत आज तक मेरी आंखों में फिर रही है। यह देखिए, उनकी तस्वीर है।

राजा साहब ने एक फोटो निकालकर मुंशीजी को दिखाया। मुंशीजी उसे देखते ही बोले–यह तो शंखधर की तस्वीर है।

राजा-नहीं साहब, यह मेरे बड़े भाई का फोटो है। शंखधर ने तो अभी तक तस्वीर ही नहीं खिंचवाई। न जाने तस्वीर खिंचवाने से उसे क्यों चिढ़ है !

मुंशीजी–मैं इसे कैसे मान लूं? यह तस्वीर साफ शंखधर की है।

राजा–तो मालूम हो गया कि मेरी आंखें धोखा नहीं खा रही थीं?

मुंशीजी–जी हां, यकीन मानिए तब तो बड़ी विचित्र बात है।

राजा–अब आपसे क्या अर्ज करूं? मुझे बड़ी शंका हो रही है। रात को नींद नहीं आती। दिन को बैठे चौंक पड़ता हूँ। प्राणियों की सूरतें कभी इतनी नहीं मिलती। भाई साहब ने ही फिर मेरे घर में जन्म लिया है। इसमें मुझे बिल्कुल शंका नहीं रही। ईश्वर ही जाने, क्यों उन्होंने कृपा की है, अगर शंखधर का बाल भी बांका हुआ, तो मेरे प्राण न बचेंगे।

मुंशीजी–ईश्वर चाहेंगे तो सब कुशल होगी। घबराने की कोई बात नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है।

राजा–अगर ईश्वर चाहते कि कुशल हो, तो यह समस्या ही क्यों आगे आती? उन्हें कुछ आनेष्ट करना है। मेरी शंका निर्मूल नहीं है मुंशीजी ! बहू की सूरत भी रानी देवप्रिया से मिल रही है। रामप्रिया तो बहू को देखकर मूर्च्छित हो गई थी। वह कहती थी, देवप्रिया ही ने अवतार लिया है। भाई और भावज का फिर इस घर में अवतार लेना क्या अकारण ही है? भगवान, अगर तुम्हें फिर वही लीला दिखानी हो, तो मुझे संसार से उठा लो।

मुंशीजी ने अब की कुछ चिंतित होकर कहा–यह तो वास्तव में बड़ी विचित्र बात है!

राजा–विचित्र नहीं है, मुंशीजी, इस रियासत का सर्वनाश होने वाला है ! रानी देवप्रिया ने अगर जन्म लिया है, तो वह कभी सधवा नहीं रह सकती। उसे न जाने कितने दिनों तक अपने पूर्व कर्मों का प्रायश्चित करना पड़ेगा। दैव ने मुझे दंड देने ही के लिए मेरे पूर्व कर्मों के फलस्वरूप यह विधान किया है, पर आप देख लीजिएगा, मैं अपने को उसके हाथों की कठपुतली न बनाऊंगा; अगर मैंने बुरे कर्म किए हैं तो मुझे चाहे जो दंड दो, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूंगा। मुझे अंधा कर दो, भिक्षुक बना दो, मेरा एक-एक अंग गल-गलकर गिरे, मैं दाने-दाने को मोहताज हो जाऊँ। ये सारे ही दंड मुझे मंजूर हैं, लेकिन शंखधर का सिर दुखे, यह मैं सहन नहीं कर सकता। इसके पहले मैं अपनी जान दे दूंगा। विधाता के हाथ की कठपुतली न बनूंगा।

मुंशीजी–आपने किसी पंडित से इस विषय में पूछताछ नहीं की?

राजा–जी नहीं, किसी से नहीं। जो बात प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, उसे किसी से क्या पूछू? कोई अनुष्ठान, कोई प्रायश्चित इस संकट को नहीं टाल सकता। उसके रूप की कल्पना करके मेरी आंखों में अंधेरा छा जाता है। पंडित लोग अपने स्वार्थ के लिए तरह-तरह के अनुष्ठान बता देंगे, लेकिन अनुष्ठानों से क्या विधि का विधान पलटा जा सकता है? मैं अपने को इस धोखे में नहीं डाल सकता। मुंशीजी, अनुष्ठानों का मूल्य मैं खूब जानता हूँ। माया बड़ी कठोर-हृदया होती है, मुंशीजी ! मैंने जीवन-पर्यंत उसकी उपासना की है। कर्म-अकर्म का एक क्षण भी विचार नहीं किया। इसका मुझे यह उपहार मिल रहा है ! लेकिन मैं उसे दिखा दूंगा कि वह मुझे अपने विनोद का खिलौना नहीं बना सकती। मैं उसे कुचल दूंगा, जैसे कोई जहरीले सांप को कुचल डालता है। अपना सर्वनाश अपनी आंखों देखने ही में दुख है। मैं उस पिशाचिनी को यह अवसर न दूंगा कि वह मुझे रुलाकर आप हंसे। मैं संसार के सबसे सुखी प्राणियों में हूँ। इसी दशा में हूँ और इसी दशा में संसार से विदा हो जाऊंगा। मेरे बाद मेरा निर्माण किया हुआ भवन रहेगा या गिर पड़ेगा, इसकी मुझे चिंता नहीं। अपनी आंखों से अपना सर्वनाश न देखूगा । मुझे आश्चर्य हो रहा है कि इस स्थिति में भी आप कैसे संगीत का आनंद उठा सकते हैं?

मुंशीजी ने गंभीर भाव से कहा–मैं अपनी जिंदगी में कभी नहीं रोया। ईश्वर ने जिस दशा में रखा, उसी में प्रसन्न रहा। फाके भी किए हैं और आज ईश्वर की दया से पेट भर भोजन भी करता हूँ पर रहा एक ही रस। न साथ कुछ लाया हूँ, न ले जाऊंगा। व्यर्थ क्यों रोऊ?

राजा–आप ईश्वर को दयालु समझते हैं? ईश्वर दयालु नहीं है।

मुंशीजी–मैं ऐसा नहीं समझता।

राजा–नहीं, वह परले सिरे का कपटी व निर्दयी जीव है, जिसे अपने ही रचे हुए प्राणियों को सताने में आनंद मिलता है, जो अपने ही बालकों के बनाए हुए घरौंदे रौंदता फिरता है। आप उसे दयालु कहें, संसार उसे दयालु कहे, मैं तो नहीं कह सकता। अगर मेरे पास शक्ति होती, तो मैं उसका सारा विधान उलट-पलट देता। उसमें संसार के रचने की शक्ति है, किंतु उसे चलाने की नहीं!

राजा साहब उठ खड़े हुए और चलते-चलते गंभीर भाव से बोले–जो बात पूछने आया था, वह तो भूल ही गया। आपने साधु-संतों की बहुत सेवा की है। मरने के बाद जीव को किसी बात का दुःख तो नहीं होता?

मुंशी–सुना तो यही है कि होता है और उससे अधिक होता है, जितना जीवन में।

राजा–झूठी बात है, बिल्कुल झूठी। विश्वास नहीं आता। उस लोक के दुःख-सुख और ही प्रकार के होंगे। मैं तो समझता हूँ, किसी बात की याद ही न रहती होगी। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर ये सब विद्वानों के गोरख-धंधे हैं। उनमें न पडूंगा। अपने को ईश्वर की दया और भय के धोखे में न डालूंगा! मेरे बाद जो कुछ होना है, वह तो होगा ही, आपसे इतना ही कहना है कि अहिल्या को ढाढ़स दीजिएगा। मनोरमा की ओर से मैं निश्चित हूँ। वह सभी दशाओं में संभल सकती है। अहिल्या उस वज्रघात को न सह सकेगी।

मुंशीजी ने भयभीत होकर राजा साहब का हाथ पकड़ लिया और सजल नेत्र होकर बोले–आप इतने निराश क्यों होते हैं? ईश्वर पर भरोसा कीजिए। सब कुशल होगी।

राजा–क्या करूं मेरा हृदय आपका-सा नहीं है। शंखधर का मुंह देखकर मेरा खून ठंडा हो जाता है। वह मेरा नाती नहीं शत्रु है। इससे कहीं अच्छा था कि नि:संतान रहता। मुंशीजी, आज मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि निर्धन होकर मैं इससे कहीं सुखी रहता।

राजा साहब द्वार की ओर चले-मुंशीजी भी उनके साथ मोटर तक आए। शंका के मारे मुह से शब्द न निकलता था। दीन भाव से राजा साहब की ओर देख रहे थे, मानो प्राण-दान मांग रहे हों।

राजा साहब ने मोटर पर बैठकर कहा–अब तकलीफ न कीजिए। जो बात कही है उसका ध्यान रखिएगा।

मुंशीजी मूर्तिवत् खड़े रहे। मोटर चली गई।

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