चैप्टर 53 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 53 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 53 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 53 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 53 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 53 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

कई दिन गजर गए। राजा साहब हरिभजन और देवोपासना में व्यस्त थे। इधर पांच-छ: वर्षों से उन्होंने किसी मंदिर की तरफ झांका भी न था। धर्म-चर्चा का बहिष्कार-सा कर रखा था। रियासत में धर्म का खाता ही तोड़ दिया गया था। जो कुछ धार्मिक जीवन था, वह वसुमति के दम से। मगर अब एकाएक देवताओं से राजा साहब की फिर श्रद्धा हो आई थी। धर्मखाता फिर खोला गया और जो वत्तियां बंद कर दी गई थीं; वे फिर से बांधी गईं। राजा साहब ने फिर चोला बदला। वह धर्म या देवता किसी के साथ नि:स्वार्थ प्रेम नहीं रखते थे। जब संतान की ओर से निराशा हो गई तो उनका धर्मानुराग भी शिथिल हो गया। जब अहिल्या और शंखधर ने उनके जीवन-क्षेत्र में पदार्पण किया, तब फिर धर्म और दान व्रत की ओर उनकी रुचि हुई। जब शंखधर चला गया और ऐसा मालूम हुआ कि अब उसके लौटने की आशा नहीं रही है, तो राजा साहब ने धर्म की अवहेलना ही नहीं की, बल्कि देवताओं के साथ जोर-जोर से प्रतिरोध भी करने लगे। धर्मसंगत बातों को चुन-चुनकर बंद किया। अधर्म की बातें चुन-चुनकर ग्रहण की। शंखधर के लौटते ही उनका धर्मानुराग फिर जागृत हो गया। संपत्ति मिलने पर ही तो रक्षकों की आवश्यकता होती है।

इन दिनों राजा साहब बहुधा एकांत में बैठे किसी चिंता में निमग्न रहते थे, बाहर कम निकलते। भोजन से भी उन्हें अरुचि हो गई थी। वह मानसिक अंधकार, जो नैराश्य की दशा में उन्हें घेरे हुए था, अब एकाएक आशा के प्रकाश से छिन्न-भिन्न हो गया था। धर्मानुराग के साथ उनका कर्त्तव्यज्ञान भी जाग पड़ा था। जैसे जीवन-लीला के अंतिम कांड में हमें भक्ति की चिंता सवार होती है बड़े-बड़े भोगी भी रामायण और भागवत का पाठ करने लगते हैं, उसी भांति राजा साहब को भी अब बहुधा अपनी अपकीर्ति पर पश्चाताप होता था।

आधी रात से अधिक बीत चुकी थी। रनिवास में सोता पड़ा हुआ था। अहिल्या के बहुत समझाने पर भी मनोरमा अपने पुराने भवन में न आई। वह उसी छोटी कोठरी में पड़ी हुई थी। सहसा राजा साहब ने प्रवेश किया। मनोरमा विस्मित होकर उठ खड़ी हुई।

राजा साहब ने कोठरी को ऊपर-नीचे देखकर करुणस्वर में कहा–नोरा, मैं आज तुमसे अपना अपराध क्षमा कराने आया हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, इसे क्षमा कर दो। मुझे इतने दिनों तक क्या हो गया था, कह नहीं सकता। ऐसा मालूम होता था कि शत्रुओं से घिरा हूँ। मन में भांति-भांति की शंकाएं उठा करती थीं। किसी पर विश्वास न होता था। अब भी मुझे किसी अनिष्ट की शंका हो रही है; लेकिन वह दशा नहीं। तुम मेरी रक्षा के लिए जो कुछ कहती और करती थीं, उसमें मुझे कपट की गंध आती थी। अबकी भी तुमने मुझे सावधान रहने के लिए कहा था; लेकिन मैं उसका आशय कुछ और ही समझ बैठा था। और तुम्हारे ऊपर पहरा बिठा दिया था। अपने होश में रहने वाला आदमी कभी ऐसी बातें न करेगा।

मनोरमा ने सजल नेत्र होकर कहा–उन बातों को याद न कीजिए। आपको भी दुःख होता है और मुझे भी दुःख होता है। मेरा ईश्वर ही जानता है कि एक क्षण के लिए भी मेरे हृदय में आपके प्रति दुर्भावना नहीं उत्पन्न हुई।

राजा–जानता हूँ नोरा, जानता हूँ। तुम्हें इस कोठरी में पड़े देखकर इस समय मेरा हृदय फटा जाता है ! अब मुझे मालूम हो रहा है कि दुर्दिन में मन के कोमल भावों का सर्वनाश हो जाता है और इनकी जगह कठोर एवं पाशविक भाव जागृत हो जाते हैं। सच तो यह है नोरा कि मेरा जीवन निष्फल हो गया। प्रभुता पाकर मुझे जो कुछ करना चाहिए था, सो कुछ न किया; जो कुछ करने के मंसूबे दिल में थे, एक भी पूरे न हुए। जो कुछ किया, उलटा ही किया। मैं रानी देवप्रिया के राज्य प्रबंध पर हसा करता था; पर मैंने प्रजा पर जितना अन्याय किया, उतना देवप्रिया ने कभी नहीं किया था। मैं कर्ज को काला सांप समझता था; पर आज रियासत कर्ज के बोझ से लदी हुई है। प्रजा रानी देवप्रिया का नाम आज भी आदर के साथ लेती है। मेरा नाम सुनकर लोग कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूँ, मुझे यह रियासत न मिली होती, तो मेरा जीवन कहीं अच्छा होता।

मनोरमा–मुझे भी अक्सर यही विचार हुआ करता है।

राजा–अब जीवन-लीला समाप्त करते समय अपने जीवन पर निगाह डालता हूँ, तो मालूम होता है, मेरा जन्म ही व्यर्थ हुआ। मुझसे किसी का उपकार न हुआ। मैं गृहस्थ के उस सुख से भी वंचित रहा, जो छोटे से छोटे मनुष्य के लिए भी सुलभ है। मैंने कुल मिलाकर छ: विवाह किए और सातवां करने जा रहा था। क्या किसी भी स्त्री को मुझसे सुख पहुंचा? यहां तक कि तुम जैसी देवी को भी मैं सुखी न रख सका। नोरा, इसमें रत्ती भर भी बनावट नहीं है कि मेरे जीवन में अगर कोई मधुर स्मृति है, तो वह तुम हो, और तुम्हारे साथ मैंने यह व्यवहार किया ! कह नहीं सकता, मेरी आंखों पर क्या पर्दा पड़ा हुआ था। शंखधर अपने साथ मेरे हृदय की सारी कोमलताओं को लेता गया था। उसे पाकर आज मैं फिर अपने को पा गया हूँ। सच कहता हूँ, उसके आते ही मैं अपने को पा गया, लेकिन नोरा, हृदय अंदर ही अंदर कांप रहा है। मैं इस शंका को किसी तरह दिल से बाहर नहीं निकाल सकता कि कोई अनिष्ट होने वाला है। उस समय मेरी क्या दशा होगी? उसकी कल्पना करके मैं घबरा जाता हूँ, मुझे रोमांच हो जाता है और जी चाहता है, प्राणों का अंत कर दूं। ऐसा मालूम होता है, मैं सोने की गठरी लिए भयानक वन में अकेला चला जा रहा हूँ, न जाने कब डाकुओं का निर्दय हाथ मेरी गठरी पर पड़ जाए । बस, यह धड़कन मेरे रोम-रोम में समायी हुई है।

मनोरमा–जब ईश्वर ने गई हुई आशाओं को जिलाया है, तो अब सब कुशल ही होगी। अगर अनिष्ट होना होता तो यह बात ही न होती। मैं तो यही समझती हूँ।

राजा–क्या करूं नोरा, मुझे इस विचार से शांति नहीं होती। मुझे भय होता है कि यह किसी अमंगल का पूर्वाभास है।

यह कहते-कहते राजा साहब मनोरमा के और समीप चले आए और उसके कान के पास मुंह ले जाकर बोले-यह शंका बिल्कुल अकारण ही नहीं है, नोरा ! रानी देवप्रिया के पति मेरे बड़े भाई होते थे। उनकी सूरत शंखधर से बिल्कुल मिलती है। जवानी में मैंने उनको देखा था। हू-बू-हू यही सूरत थी। तिल बराबर भी फर्क नहीं। भाई साहब का एक चित्र भी मेरे अलबम में है। तुम यही कहोगी कि यह शंखधर ही का चित्र है। इतनी समानता तो जुड़वा भाइयों में भी नहीं होती। कोई पुराना नौकर नहीं है, नहीं तो मैं इसकी साक्षी दिला देता। पहले शंखधर की सूरत भाई साहब से उतनी ही मिलती थी, जितनी मेरी। अब तो ऐसा जान पड़ता है कि स्वयं भाई साहब ही आ गए हैं।

मनोरमा–तो इसमें शंका की क्या बात है? उसी वृक्ष का फल शंखधर भी तो है।

राजा–आह ! नोरा, तुम यह बात नहीं समझ रही हो। तुम्हें कैसे समझा दूं? इसमें भयंकर रहस्य है, नोरा ! मैंने अबकी शंखधर को देखा, तो चौंक पड़ा। सच कहता हूँ, उसी वक्त मेरे रोएं खड़े हो गए।

मनोरमा–आश्चर्य तो मुझे भी हो रहा है। रानी रामप्रिया आई थीं। वह कहती थीं, बहू की सूरत रानी देवप्रिया से बिल्कुल मिलती है। वह भी बहू को देखकर विस्मित रह गई थीं।

राजा ने घबराकर कहा–रामप्रिया ने मुझसे बात नहीं कही, नोरा! अब कुशल नहीं है। मैं तुमसे कहता हूँ नोरा, मेरी बात को यथार्थ समझो। अब कुशल नहीं है। कोई भारी दुर्घटना होने वाली है। हा! विधाता, इससे तो अच्छा था मैं नि:संतान ही रहता।

राजा साहब ने विकल होकर दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और चिंता में डूब गए। एक क्षण बाद मानो मन-ही-मन निश्चय करके, कि अमुक दशा में उन्हें क्या करना होगा, अत्यंत स्नेहकरुण शब्दों में मनोरमा से बोले-क्यों नोरा, एक बात तुमसे पूछू, बुरा तो न मानोगी? मेरे मन में कभी-कभी यह प्रश्न हुआ करता है कि तुमने मुझसे क्यों विवाह किया? उस वक्त भी मेरी अवस्था ढल चुकी थी। धन का इच्छुक मैंने तुम्हें कभी नहीं पाया। जिन वस्तुओं पर अन्य स्त्रियां प्राण देती हैं, उनकी ओर मैंने तुम्हारी रुचि कभी नहीं देखी। वह क्या केवल ईश्वरीय प्रेरणा थी, जिनके द्वारा पूर्व-पुण्य का उपहार दिया गया हो?

मनोरमा ने मुस्कराकर कहा–दंड कहिए।

राजा–नहीं नोरा, मैंने जीवन में जो कुछ सुख और स्वाद पाया, वह तुम्हारे स्नेह और माधुर्य में पाया। यह भाग्य की निर्दय क्रीड़ा है कि जिसे मैं अपना सर्वस्व सुख समझता था, उस पर सबसे अधिक अन्याय किया; किंतु अब मुझे अपने अन्याय पर दु:ख के बदले एक प्रकार का संतोष हो रहा है। वह परीक्षा थी, जिसने तुम्हारे सतीत्व को और भी उज्ज्वल कर दिया, जिसने तुम्हारे हृदय की उस अपार कोमलता का परिचय दे दिया, जो कठोर होना नहीं जानती, जो कंचन की भांति तपने पर और भी विशुद्ध एवं उज्ज्वल हो जाती है। इस परीक्षा के बिना तुम्हारे ये गुण छिपे रह जाते। मैंने तुम्हारे साथ जो-जो नीचताएं कीं, वे किसी दूसरी स्त्री में शत्रुता के भाव उत्पन्न कर देतीं। वह मानसिक वेदना, वह अपमान, वह दुर्जनता दूसरा कौन सहता और सहकर हृदय में मैल न आने देता? इसका बदला मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ?

मनोरमा–स्त्री क्या बदले ही के लिए पुरुष की सेवा करती है?

राजा–इस विषय को और न बढ़ाओ मनोरमा, नहीं तो कदाचित् तुम्हें मेरे मुंह से अपनी अन्य बहनों के विषय में अप्रिय सत्य सुनना पड़ जाए । मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो, जो अभी मैंने तुमसे किया था। वह कौन-सी बात थी, जिसने तुम्हें मुझसे विवाह करने की प्रेरणा दी?

मनोरमा–बता दूं? आप हंसिएगा तो नहीं? मैं रानी बनना चाहती थी। मैंने बाबूजी से आपकी तारीफ सुनी थी। इसका भी एक कारण था-आपकी सहृदयता और आपकी विश्वासमय सेवा।

राजा–रानी किसलिए बनना चाहती थीं, नोरा?

मनोरमा–आप राजा जिस लिए बनना चाहते थे, उसी लिए मैं रानी बनना चाहती थी। कीर्ति, दान, यश, सेवा मैं इन्हीं को अधिकार के सुख समझती हूँ, प्रभुता और विलास को नहीं।

राजा–इसका आशय यह नहीं है कि कीर्ति तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा थी या कुछ और? कीर्ति के लिए तुमने यौवन के अन्य सुखों का त्याग कर दिया। मैं पहले से ही जानता था नोरा, और इसीलिए स्वभाव के कृपण होने पर भी मैंने तुम्हारे उपकार के कामों में बाधा नहीं डाली। मेरे लिए सेवा और उपकार गौण बातें थीं। अधिकार, ऐश्वर्य, शासन इन्हीं को मैं प्रधान समझता हूँ। तुम्हारा आदर्श कुछ और है, मेरा कुछ और जब कीर्ति के लिए तुमने जीवन के और सुखों पर लात मार दी, तो मैं चाहता हूँ कि कोई ऐसी व्यवस्था कर दूं, जिससे तुम्हें आगे चलकर किसी बाधा का सामना न करना पड़े। कौन जानता है कि क्या होने वाला है, नोरा ! पर मैं यह आशा कदापि नहीं करता कि शंखधर तुम्हें प्रसन्न रखने की उतनी ही चेष्टा करेगा, जितनी उसे करनी चाहिए। मैं उसकी बुराई नहीं कर रहा हूँ। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है, इसलिए मैं यह चाहता हूँ कि रियासत का एक भाग तुम्हारे नाम लिख दूं। मेरी बात सुन लो मनोरमा ! मैंने दुनिया देखी है और दुनिया का व्यवहार जानता हूँ। इसमें न मेरी कोई हानि है न तुम्हारी और न शंखधर की। तुम्हें इसका अख्तियार होगा कि यदि इच्छा हो, तो अपना हिस्सा शंखधर को दे दो; लेकिन एक हिस्से पर तुम्हारा नाम होना जरूरी है। मैं कोई आपत्ति न मानूंगा।

मनोरमा–मेरी कीर्ति अब इसी में है कि आपकी सेवा करती रहूँ।

राजा–नोरा, तुम अब भी मेरी बातें नहीं समझीं। मेरे मन में कैसी-कैसी शंकाएं हैं, यह मैं तुमसे कहूँ, तो तुम्हारे ऊपर जुल्म होगा। मुझे लक्षण बुरे दिखाई दे रहे हैं।

मनोरमा ने अबकी दृढ़ता से कहा–शंकाएं निर्मूल हैं; लेकिन यदि ईश्वर कुछ बुरा ही करने वाले हों, तो भी मैं शंखधर की प्रतियोगिनी बनना स्वीकार न करूंगी, जिसे मैंने पुत्र की भांति पाला है। चक्रधर का पुत्र इतना कृतघ्न नहीं हो सकता।

राजा ने जांघ पर हाथ पटकर कहा–नोरा, तुम अब भी नहीं समझी। खैर, कल से तुम नए भवन में रहोगी। यह मेरी आज्ञा है।

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए। बिजली के निर्मल प्रकाश में मनोरमा उन्हें खड़ी देखती रही। गर्व से उसका हृदय फूला न समाता था। इस बात का गर्व नहीं था कि अब फिर रियासत में उसकी तूती बोलेगी, फिर वह मनमाना धन लुटाएगी। गर्व इस बात का था कि स्वामी मेरा इतना आदर करते हैं। आज विशालसिंह ने मनोरमा के हृदय पर अंतिम विजय पाई। आज मनोरमा को अपने स्वामी की सहृदयता ने जीत लिया। प्रेम सहृदयता ही का रसमय रूप है। प्रेम के अभाव में सहृदयता ही दम्पति के सुख का मूल हो जाती है।

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