चैप्टर 52 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 52 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 52 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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मुंशी वज्रधर ने यह शुभ समाचार सुना, तो फौरन घोड़े पर सवार हुए और राजभवन आ पहुंचे। शंखधर उनके आने का समाचार पाकर नंगे पांव दौड़े और उनके चरणों को स्पर्श किया। मुंशीजी ने पोते को छाती से लगा लिया और गद्गद कंठ से बोले-यह शुभ दिन भी देखना बदा था बेटा, इसी से अभी तक जीता हूँ। यह अभिलाषा पूरी हो गई। बस, इतनी लालसा और है कि तुम्हारा राजतिलक देख लूं। तुम्हारी दादी बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। क्या उन्हें भूल गए?
शंखधर ने लजाते हुए कहा–जी नहीं, शाम को जाने का इरादा था। उन्हीं के आशीर्वाद से तो मुझे पिताजी के दर्शन हुए। उन्हें कैसे भूल सकता हूँ?
मुंशीजी–तुम लल्लू को अपने साथ घसीट नहीं लाए?
शंखधर–वह अपने जीवन में जो पवित्र कार्य कर रहे हैं, उसे छोड़कर कभी न आते। मैंने अपने को जाहिर भी नहीं किया, नहीं तो वह मुझसे मिलना भी स्वीकार न करते।
इसके बाद शंखधर ने अपनी यात्रा का, अपनी कठिनाइयों का और पिता से मिलने का सारा वृत्तांत कहा।
यों बातें करते हुए मुंशीजी राजा साहब के पास आ पहुंचे। राजा साहब ने बड़े आदर से उनका अभिवादन किया और बोले-आप तो इधर का रास्ता ही भूल गए।
मुंशीजी–महाराज, अब आपका और मेरा संबंध और प्रकार का है। ज्यादा आऊं जाऊं तो आप ही कहेंगे, यह अब क्या करने आते हैं, शायद कुछ लेने की नीयत से आते होंगे। कभी जिदंगी में धनी नहीं रहा, पर मर्यादा की सदैव रक्षा की है।
राजा–आखिर आप दिन भर बैठे-बैठे वहां क्या करते हैं, दिल नहीं घबराता? (मुस्कराकर) समधिनजी में भी तो अब आकर्षण नहीं रहा।
मुंशीजी–वाह, आप उस आकर्षण का मजा क्या जानोगे? मेरा तो अनुभव है कि स्त्री-पुरुष का प्रेम-सूत्र दिन-दिन दृढ़ होता जाता है। अब तो राजकुमार का तिलक हो जाना चाहिए। आप भी कुछ दिन शांति का आनंद उठा लें।
राजा–विचार तो मेरा भी है, लेकिन मुंशीजी! न जाने क्या बात है कि जब से शंखधर आया है, क्यों शंका हो रही है कि इस मंगल में कोई न कोई विघ्न अवश्य पड़ेगा। दिल को बहुत समझाता हूँ, लेकिन न जाने क्यों यह शंका अंदर से निकलने का नाम नहीं लेती।
मुंशीजी–आप ईश्वर का नाम लेकर तिलक कीजिए। जब टूटी हुई आशाएं पूरी हो गईं, तो अब सब कुशल ही होगा। आज मेरे यहां कुछ आनंदोत्सव होगा। आजकल शहर में अच्छे-अच्छे कलावंत आए हुए हैं, सभी आएंगे। आपने कृपा की, तो मेरे सौभाग्य की बात होगी।
राजा–नहीं मुंशीजी, मुझे तो क्षमा कीजिए। मेरा चित्त शांत नहीं। आपसे सत्य कहता हूँ मुंशीजी, आज अगर मेरा प्राणांत हो जाये तो मुझसे बढ़कर सुखी प्राणी संसार में न होगा। अगर प्राण देने की कोई सरल तरकीब मुझे मालूम होती, तो जरूर दे देता। शोक की पराकाष्ठा देख ली, आनंद की पराकाष्ठा भी देख ली। अब और कुछ देखने की आकांक्षा नहीं है। डरता हूँ, कहीं पलड़ा फिर न दूसरी ओर झुक जाये।
मुंशीजी देर तक बैठे राजा साहब को तस्कीन देते रहे, फिर सब महिलाओं को अपने यहां आने का निमंत्रण देकर और शंखधर को गले लगाकर वह घोड़े पर सवार हो गए। इन निर्बुद्व जीव ने चिंताओं को कभी अपने पास नहीं फटकने दिया। धन की इच्छा थी, ऐश्वर्य की इच्छा थी; पर उन पर जान न देते थे। संचय करना तो उन्होंने सीखा ही न था। थोड़ा मिला तब भी अभाव रहा, बहुत मिला तब भी अभाव रहा। अभाव से जीवन पर्यंत उनका गला न छूटा। एक समय था, जब स्वादिष्ट भोजनों को तरसते थे। अब दिल खोलकर दान देने को तरसते हैं। क्या पाऊं और क्या दे दूं? बस, फिक्र थी तो इतनी। कमर झुक गई थी, आंखों से सूझता भी कम था, लेकिन मजलिस नित्य जमती थी, हंसी-दिल्लगी करने में कभी न चूकते थे। दिल में कभी किसी से कीना नहीं रखा और न कभी किसी की बुराई चेती।
दूसरे दिन संध्या समय मुंशीजी के घर बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया गया। निर्मला पोते को छाती से लगाकर खूब रोई। उसका जी चाहता था, यह मेरे ही घर रहता। कितना आनंद होता! शंखधर से बातें करने से उसको तृप्ति ही न होती थी। अहिल्या ही के कारण उसका पुत्र हाथ से गया। पोता भी उसी के कारण हाथ से जा रहा है। इसलिए अब भी उसका मन अहिल्या से न मिलता था। निर्मला को अपने बाल-बच्चों के साथ रहकर सभी प्रकार का कष्ट सहना मंजूर था। वह अब इस अंतिम समय किसी को आंखों की ओट न करना चाहती थी। न जाने कब दम निकल जाए , कब आंखें बंद हो जाएं। बेचारी किसी को देख भी न सके।
बाहर गाना हो रहा था। मुंशीजी शहर के रईसों की दावत का इंतजाम कर रहे थे। अहिल्या लालटेन ले-लेकर घर भर की चीजों को देख रही थी और अपनी चीजों के तहस-नहस होने पर मन-ही-मन झुंझला रही थी। उधर निर्मला चारपाई पर लेटी शंखधर की बातें सुनने में तन्मय हो रही थी। कमला उसके पांव दबा रही थी, और शंखधर उसे पंखा झल रहा था। क्या स्वर्ग में इससे बढकर कोई सुख होगा? इस सुख से उसे अहिल्या वंचित कर रही थी। आकर उसका घर मटियामेट कर दिया।
प्रात:काल जब शंखधर विदा होने लगे, तो निर्मला ने कहा–बेटा, अब बहुत दिन न चलूंगी। जब तक जीती हूँ, एक बार रोज आया करना।
मुंशीजी ने कहा–आखिर सैर करने को तो रोज ही निकलोगे। घूमते हुए इधर भी आ जाया करो। यह मत समझो कि यहां आने से तुम्हारा समय नष्ट होगा। बड़े-बूढ़ों के आशीर्वाद निष्फल नहीं जाते। मेरे पास राजपाट नहीं; पर ऐसा धन है, जो राजपाट से कहीं बढ़कर है। बड़ी सेवा, बड़ी तपस्या करके मैंने उसे एकत्र किया है। वह मुझसे ले लो। अगर साल भर भी बिना नागा अभ्यास करो, तो बहुत कुछ सीख सकते हो। इसी विद्या की बदौलत तुमने पांच वर्ष देश-विदेश की यात्रा की। कुछ दिन और अभ्यास कर लो, तो पारस हो जाओ।
निर्मला ने मुंशीजी का तिरस्कार करते हुए कहा–भला, रहने दो अपनी विद्या, आए हो वहां से बड़े विद्वान बनके। उसे तुम्हारी विद्या नहीं चाहिए। चाहे तो सारे देश के उस्तादों को बुलाकर गाना सुने। उसे कमी काहे की है?
मुंशीजी–तुम तो हो मूर्ख। तुमसे कोई क्या कहे? इस विद्या से देवता प्रसन्न हो जाते हैं, ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं, तुम्हें कुछ खबर भी है? जो बड़े भाग्यवान् होते हैं, उन्हें ही यह विद्या आती है।
निर्मला–जभी तो बड़े भाग्यवान हो।
मुंशीजी–तो और क्या भाग्यहीन हूँ? जिसके ऐसा देवरूप पोता हो, ऐसी देव-कन्या-सी बहू हो, मकान हो, जायदाद हो, चार को खिलाकर खाता हो, क्या वह अभागा है? जिसकी इज्जत आबरू से निभ जाए , जिसका लोग यश गावें, वही भाग्यवान् है। धन गाड़ लेने से ही कोई भाग्यवान् नहीं हो जाता।
आज राजा साहब के यहां भी उत्सव था, इसलिए शंखधर इच्छा रहते हुए भी न ठहर सके।
स्त्रियां निर्मला के चरणों को अंचल से स्पर्श करके विदा हो गईं, शंखधर खड़े हो गए। निर्मला ने रोते हुए कहा–कल मैं तुम्हारी बाट देखती रहूँगी।
शंखधर ने कहा–अवश्य आऊंगा।
जब मोटर में बैठ गए, तो निर्मला द्वार पर खड़ी होकर उन्हें देखती रही। शंखधर के साथ उसका हृदय भी चला जा रहा था। युवकों के प्रेम में उद्विग्नता होती है, वृद्धों का प्रेम हृदय विदारक होता है। युवक जिससे प्रेम करता है, उससे प्रेम की आशा भी रखता है। अगर उसे प्रेम के बदले प्रेम न मिले, तो वह प्रेम को हृदय से निकालकर फेंक देगा। वृद्ध जनों की भी क्या वही आशा होती है? वे प्रेम करते हैं और जानते हैं कि इसके बदले में उन्हें कुछ न मिलेगा या मिलेगी, तो दया। शंखधर की आंखों में आंसू न थे, हृदय में तड़प न थी। वह यों प्रसन्नचित्त चले जा रहे थे, मानो सैर करके लौटे जा रहे हों। मगर निर्मला का दिल फटा जाता था और मुंशी वज्रधर की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था।
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